Comments - फ़ोकट का तमाशा {लघु कथा} - Open Books Online2024-03-28T16:02:50Zhttp://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A790757&xn_auth=noसमसामयिक परिदृश्य से कथानक ले…tag:openbooks.ning.com,2016-08-21:5170231:Comment:7940312016-08-21T14:28:22.345ZSheikh Shahzad Usmanihttp://openbooks.ning.com/profile/SheikhShahzadUsmani
समसामयिक परिदृश्य से कथानक लेते हुए गंभीर मुद्दा उठाया है आपने। बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय आशीष कुमार त्रिवेदी जी इस बढ़िया प्रस्तुति के लिए। अपने टिप्पणी अभ्यास के तहत कुछ सुझाव देना चाहता हूँ-1- यह पंक्ति आगे भाव पुनरावृत्ति के कारण हटायी जा सकती है- // उसका भाई इंदर उसे समझा बुझा कर भीतर ले जाने का प्रयास कर रहा था.//, 2- फ्लैशबैक तकनीक को स्पष्ट करने के लिए 'कभी कामिनी भी' वाले वाक्य के पहले लिखा जा सकता है कि भाई अपनी बहन के अतीत को याद करता हुआ बहुत भावुक हो गया-....3- अंत में…
समसामयिक परिदृश्य से कथानक लेते हुए गंभीर मुद्दा उठाया है आपने। बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय आशीष कुमार त्रिवेदी जी इस बढ़िया प्रस्तुति के लिए। अपने टिप्पणी अभ्यास के तहत कुछ सुझाव देना चाहता हूँ-1- यह पंक्ति आगे भाव पुनरावृत्ति के कारण हटायी जा सकती है- // उसका भाई इंदर उसे समझा बुझा कर भीतर ले जाने का प्रयास कर रहा था.//, 2- फ्लैशबैक तकनीक को स्पष्ट करने के लिए 'कभी कामिनी भी' वाले वाक्य के पहले लिखा जा सकता है कि भाई अपनी बहन के अतीत को याद करता हुआ बहुत भावुक हो गया-....3- अंत में शीर्षक वाली पंक्ति के बजाय किसी का कोई तीखा तंज करता संवाद रखा जा सकता है। धन्यवाद tag:openbooks.ning.com,2016-08-12:5170231:Comment:7913482016-08-12T05:03:40.475ZASHISH KUMAAR TRIVEDIhttp://openbooks.ning.com/profile/ASHISHKUMAARTRIVEDI
<p><span>धन्यवाद </span></p>
<p><span>धन्यवाद </span></p> आदरनीय कभी ये बात काल्प्निक भ…tag:openbooks.ning.com,2016-08-11:5170231:Comment:7911642016-08-11T06:43:49.284Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>आदरनीय कभी ये बात काल्प्निक भी रही होगी , अब तो हर समय के लिये सामयिक हो गई है । अच्छी कथा कही , हार्दिक बधाई ।</p>
<p>आदरनीय कभी ये बात काल्प्निक भी रही होगी , अब तो हर समय के लिये सामयिक हो गई है । अच्छी कथा कही , हार्दिक बधाई ।</p> कानून तो बिकाऊ है न जाने कितन…tag:openbooks.ning.com,2016-08-11:5170231:Comment:7910682016-08-11T06:11:40.874Zrajesh kumarihttp://openbooks.ning.com/profile/rajeshkumari
कानून तो बिकाऊ है न जाने कितनी कामिनी इंसाफ के लिये लड़ते लड़ते मर गई अच्छी सामयिक कहानी है इसका अंत किसी सार्थक संदेश के साथ पंच लाइन को लेकर होता तो औऱ बेहतर होती बहुत बहुत बधाई आपको.
कानून तो बिकाऊ है न जाने कितनी कामिनी इंसाफ के लिये लड़ते लड़ते मर गई अच्छी सामयिक कहानी है इसका अंत किसी सार्थक संदेश के साथ पंच लाइन को लेकर होता तो औऱ बेहतर होती बहुत बहुत बधाई आपको.