Comments - अपनी जिन्दगी - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"(गजल) - Open Books Online2024-03-29T01:07:17Zhttp://openbooks.ning.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A1066898&xn_auth=noहार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण ध…tag:openbooks.ning.com,2021-08-31:5170231:Comment:10676452021-08-31T12:29:58.062ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी। बेहतरीन गज़ल |</p>
<p><span>जिनको समझा था सहारा आज वो</span><br/><span>कर गये लाचार अपनी जिन्दगी।९।</span><br/><span>*</span><br/><span>मुर्दा काँधों पर टिकी जो हर समय</span><br/><span>हो गयी वह भार अपनी जिन्दगी।१०</span></p>
<p>हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी। बेहतरीन गज़ल |</p>
<p><span>जिनको समझा था सहारा आज वो</span><br/><span>कर गये लाचार अपनी जिन्दगी।९।</span><br/><span>*</span><br/><span>मुर्दा काँधों पर टिकी जो हर समय</span><br/><span>हो गयी वह भार अपनी जिन्दगी।१०</span></p> जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़ि…tag:openbooks.ning.com,2021-08-26:5170231:Comment:10671172021-08-26T10:39:58.985Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooks.ning.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब अच्छी ग़ज़ल खल्क़ की है आपने दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।</p>
<p>शे'र - भरभरा ज्यों गिर मिटी हर भव्यता</p>
<p> खो के त्यों आधार अपनी जिन्दगी।७। में</p>
<p>पहले मिसरे में शुरूअ' हुई बात दूसरे मिसरे के इख़्तिताम तक मुकम्मल नहीं हुई है, ऐसा लगता है कि कुछ छूट गया है या अभी कुछ और कहना बाक़ी है, ग़ौर कीजियेगा। सानी मिसरे को अगर कुछ इस तरह कहा जाए : 'खो गयी आधार अपनी ज़िन्दगी' तो बात बन सकती है बशर्ते रदीफ़ के साथ इन्साफ़ हो। सादर। </p>
<p>जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब अच्छी ग़ज़ल खल्क़ की है आपने दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।</p>
<p>शे'र - भरभरा ज्यों गिर मिटी हर भव्यता</p>
<p> खो के त्यों आधार अपनी जिन्दगी।७। में</p>
<p>पहले मिसरे में शुरूअ' हुई बात दूसरे मिसरे के इख़्तिताम तक मुकम्मल नहीं हुई है, ऐसा लगता है कि कुछ छूट गया है या अभी कुछ और कहना बाक़ी है, ग़ौर कीजियेगा। सानी मिसरे को अगर कुछ इस तरह कहा जाए : 'खो गयी आधार अपनी ज़िन्दगी' तो बात बन सकती है बशर्ते रदीफ़ के साथ इन्साफ़ हो। सादर। </p> आदरणीय लक्ष्मण जी उम्दा ग़ज…tag:openbooks.ning.com,2021-08-26:5170231:Comment:10670052021-08-26T06:57:36.129ZRavi Shuklahttp://openbooks.ning.com/profile/RaviShukla
<p>आदरणीय लक्ष्मण जी उम्दा ग़ज़ल कही है आपने रदीफ का सुन्दर निर्वाह हुआ है मुबारक बाद कुबूल करें । </p>
<p>आदरणीय लक्ष्मण जी उम्दा ग़ज़ल कही है आपने रदीफ का सुन्दर निर्वाह हुआ है मुबारक बाद कुबूल करें । </p> आदाब, बहुत अच्छी निर्दोष …tag:openbooks.ning.com,2021-08-24:5170231:Comment:10667912021-08-24T12:14:02.595ZChetan Prakashhttp://openbooks.ning.com/profile/ChetanPrakash68
<p><em>आदाब, बहुत अच्छी निर्दोष ग़ज़ल हुई ! लेकिन सारी ग़ज़ल आप अधिकांशत: हिन्दी में लिख रहे हैं , और अच्छा करते </em><em>हैं कि एकाएक 'तैयार ' जो बिल्कुल सही है ,को </em> <em>छोड़कर 'तैय्यार ' को अपेक्षाकृत पसंद करते हैं, मेरी समझ से परे है ! सादर </em></p>
<p><em>आदाब, बहुत अच्छी निर्दोष ग़ज़ल हुई ! लेकिन सारी ग़ज़ल आप अधिकांशत: हिन्दी में लिख रहे हैं , और अच्छा करते </em><em>हैं कि एकाएक 'तैयार ' जो बिल्कुल सही है ,को </em> <em>छोड़कर 'तैय्यार ' को अपेक्षाकृत पसंद करते हैं, मेरी समझ से परे है ! सादर </em></p>