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ग़ज़ल --- ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था / दिनेश कुमार

2122---1212---22

ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था
मैं ही मैं था, मेरे सिवा क्या था

.

झूठ बोला तो बच गई गरदन
हक़-बयानी का फ़ाएदा क्या था

.

चाह मंज़िल की थी निगाहों में
ठोकरें क्या थीं आबला क्या था

.

पर निकलते ही थे उड़े ताइर !
ये रिवायत थी, सानेहा क्या था

.

दर्द, ग़ुस्सा, मलाल, मजबूरी
आख़िर उस चश्मे-तर में क्या क्या था

.

क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ
जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या था

आग पानी हवा ज़मीन फ़लक
पेश-तर दहर के बता क्या था

.

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Gurpreet Singh jammu on July 13, 2018 at 4:12pm

आदरणीय दिनेश जी ,, बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है,,बधाई स्वीकार करें

Comment by Neelam Upadhyaya on July 13, 2018 at 3:45pm

आदरणीय  दिनेश जी, बेहतरीन ग़ज़ल की पेशकश के लिए मुबारकबाद।  

Comment by Samar kabeer on July 13, 2018 at 2:32pm

जनाब दिनेश कुमार जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

पर निकलते ही थे उड़े ताइर

ये रिवायत थी, सानेहा क्या था

इस शैर के ऊला मिसरे को अगर यूँ कहें तो उचित होगा:-

'पर निककते ही उड़ गये ताइर'

और सानी मिसरे में 'सानेहा' को "सानिहा" कर लें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on July 13, 2018 at 12:02pm

हार्दिक बधाई आदरणीय दिनेश कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।

क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ
जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या था

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