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गजल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२२/ १२२२/१२२२

*

कठिन जैसे नगर में धूप के दर्शन
हमें  वैसे  तुम्हारे  रूप  के  दर्शन।१।
*
कभी वो नीर का साधन रहा होगा
मगर होते नहीं अब कूप के दर्शन।२।
*
सुना है नृत्य  करते  हैं तेरे आँगन
बहुत दुर्लभ हमें तो भूप के दर्शन।३।
*
कभी थोथा उड़ा कर सार गहते थे
नये युग  में  गुमें  हैं  सूप  के दर्शन।४।
*
जलन दूजे  से  होती  हो  जहाँ बोलो
किसी मुख पर हो कैसे ऊप के दर्शन।५।
*
यहाँ रूठी हुई छत नींव बागी नित
सहज यूँ हैं बिखरते जूप के दर्शन।६।
**
मौलिक/अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
*
ऊप - आभा, चमक
जूप - स्तभ्भ, खम्भा
*

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2022 at 7:20pm

आ. भाई रवि जी, सादर अभिवादन। गजल और ओबीओ पर लम्बे अतराल पर आपकी उपस्थिति से हर्षित हूँ। उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।

Comment by Ravi Shukla on December 20, 2022 at 1:32pm

आदरणीय लक्षमण जी हिन्दी भाषा के शब्दों के साथ  सुदर रचना प्रस्तुत की है। कूप के दर्शन वाला शेर आधाुनिकता मे सच हाे गया है । आगन पर मै भी अटका था आदरणीय समर साहब ने टंकण त्रुटि ठीक कर दी है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 14, 2022 at 4:04pm

आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 13, 2022 at 6:26pm

अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय धामी जी...बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 13, 2022 at 7:22am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और मार्ग दर्एशन के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on December 12, 2022 at 2:37pm

जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I 

'सुना है नृत्य  करते  हैं तेरे आगन'----आगन --"आँगन"

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय."
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"बात तो उचित है. आप संशोधित रचना यहीं, इसी आयोजन में पोस्ट कर दें, आदरणीय."
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