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संवेगों के झंझावात में

बहती रही सारी खुशियाँ

इतनी क्षणिक सिद्ध हुईं

आंसुओं के समंदर

डुबोते चले गए यादों को

इतनी कमजोर निकलीं

खामोशियों के बीच

गुस्से बदल गए नफ़रतों में

इतने अप्रत्याशित थे

आशाएँ और अभिलाषाएं

सिसक रही कहीं

दम तोड़ती सी ज्यों

पर जीवन की जुगुत्सा

जूझना सिखाती परिस्थिति से

सबक का एहसास कराते

सौहर्द्र, प्रेम और संभावनाओं का

निरंतरता, यथार्थता , शाश्वतता

यही जीवन है यही सच है ।

 

 

... मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on July 6, 2018 at 11:42am

मुहतरमा नीलम उपाध्याय जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by नाथ सोनांचली on July 6, 2018 at 11:06am

आद0 नीलम जी सादर अभिवादन,, जीवन की सार्थकता को अपने ढंग से परिभाषित करती बेहतरीन कविता पर मेरी बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 5, 2018 at 7:47pm

आ. नीलम जी, सादर अभिवादन ।भावपूर्ण रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Mohammed Arif on July 5, 2018 at 5:09pm

आदरणीया नीलम उपाध्याय जी आदाब,

                                   जीवन अनंत संभावनाओं से भरा पड़ा है । जीवन की सार्थकता चलते रहने में ही । हार्दिक बधाई ।

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