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ग़ज़ल : एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद

शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद

कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र

अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद


जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद

एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद
----
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Vijai Shanker on March 18, 2015 at 7:57pm
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर चलता है जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
सुन्दर ग़ज़ल , बधाई, आदरणीय डर्मेन्द्र कुमार जी , सादर।
Comment by somesh kumar on March 18, 2015 at 7:17pm

सुंदर दिलकश गज़ल 

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