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ग़ज़ल नूर की- जिन की ख़ातिर हम हुए मिस्मार; पागल हो गये

जिन की ख़ातिर हम हुए मिस्मार; पागल हो गये
उन से मिल कर यूँ लगा बेकार पागल हो गये.
.
सुन के उस इक शख्स की गुफ़्तार पागल हो गये
पागलों से लड़ने को तैयार पागल हो गये.
.
छोटे लोगों को बड़ों की सुहबतें आईं  न रास
ख़ुशबुएँ पाकर गुलों से ख़ार पागल हो गये.
.
थी दरस की आस दिल में तो भी कम पागल न थे
और जिस पल हो गया दीदार; पागल हो गये.
.
एक ही पागल था मेरे गाँव में पहले-पहल
रफ़्ता रफ़्ता हम सभी हुशियार पागल हो गये.
.
इल्तिजा थी सच को केवल सच के जितना ही लिखें
बात सुन कर शह्र के अख़बार पागल हो गये.
.
एक बच्चे ने कहीं राजा को नंगा कह दिया
फिर तो क्या दरबारी क्या अय्यार; पागल हो गये.
.
एक तुम हो एक मैं हूँ और दो दीवाने दिल
यानी इस कमरे में हम कुल चार पागल हो गये.
.
ज़िक्र आया ‘नूर’ का जब इक कहानी में कहीं
उस कहानी के सभी किरदार पागल हो गये.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on October 16, 2020 at 12:16pm

आदरणीय निलेश 'नूर' जी जी सादर नमस्कार 

बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई, बधाई स्वीकार करें 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 16, 2020 at 11:56am

शुक्रिया आ. समर सर,

आप के सुझाए मिसरे से उस शेर का सानी मेल नहीं खाएगा..और फिर "उस एक शख्स" पे  लानत भेजने का राष्ट्रीय कर्तव्य भी अपूर्ण रह जाएगा .
सादर 

Comment by Samar kabeer on October 15, 2020 at 7:02pm

जनाब निलेश 'नूर' जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'सुन के उस इक शख्स की गुफ़्तार पागल हो गये '

इस मिसरे को अगर यूँ कहें तो:-

'सुन के हम उस शख़्स की गुफ़्तार पागल हो गए'

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