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कोशिश ___इस्लाह के लिए __मनोज कुमार अहसास

1222 1222 1222 1222


हमे ये गम हमारी ही खताओं से मिला होगा
सहारे इस कबूलत के नज़र को हौसला होगा


खुदा हमको ही लौटा देता है फेकें हुए पत्थर
हक़ीक़त जानकर किससे भला शिकवा गिला होगा


दुआ ये करता हूँ दिल में न कोई अब कभी उतरे
ज़रा नज़दीकियों से फिर नया एक फासला होगा


तसव्वुर बोझ बन जाये ज़माने मे तो फिर क्या हो
फक़त इस्लाह के हाथों से तब अपना भला होगा


बता'अहसास'तेरी बज़्म से उठ जाता तो कैसे
कदम कुछ जम गए होंगे कलेजा भी जला होगा


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on July 4, 2015 at 9:46am
सादर नमन सर
बहुत आभार
इस मंच का ही ये आशीर्वाद है अगर कुछ लिखा गया है तो
बातें कुछ पहले भी पता थी पर यहाँ आकर बहुत से भेद ग़ज़ल के खुले
आपकी सतत निगरानी की सदैव चाह है
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 3, 2015 at 1:22am

आपको बहर में सधी हुई ग़ज़ल कहते देख कर आत्मीय प्रसन्नता हो रही है अहसास भाई. आप प्रयासरत रहें. मिले सुझावों को हृदयंगम कर सुधार करते चलें. आपकी राह सही और सतत बनी रहे.
शुभेच्छाएँ.

Comment by मनोज अहसास on June 25, 2015 at 2:35pm
बहुत आभार मिथिलेश सर
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 1:34am

आदरणीय मनोज भाई जी बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है बस गुनीजनों की इस्लाह पर गौर कर अपेक्षित सुधार कर ले तो ग़ज़ल मुकम्मल हो जावे. आपको बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर और इस शेर पर दिल से दाद हाज़िर है-

दुआ ये करता हूँ दिल में न कोई अब कभी उतरे
ज़रा नज़दीकियों से फिर नया एक फासला होगा

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 13, 2015 at 9:23pm

वाह! क्या बात है,भाई manoj ज़ी,हार्दिक बधाई!

Comment by मनोज अहसास on June 10, 2015 at 10:52pm
बहुत आभार सर
एक नयी जानकारी के लिए
ये काफ़िया और रदीफ़ के ही हिंदी नाम लगते है
आपका बहुत आभार
शाहबादी साहब
प्रणाम सर
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 8:50pm
जनाब मनोज कुमार जी,मिसरे की दोनों पदों के समांत और पदांत को देखें
मिला होगा/यहाँ समांत (इला) और पदांत होगा है
हौसला होगा/ यहाँ समांत(अला)हो गया है जबकि इला ही होना चाहिये था इस ओर ही मेरा इशारा था फिर भी आपकी ग़ज़ल मन को बहुत भायी है।
Comment by मनोज अहसास on June 10, 2015 at 8:09pm
बहुत आभार आदरणीय शाहबादी साहब
ये रचना सीखने की इच्छा से ही प्रस्तुत की गयी है
आपने सराहा ये आपकी बड़ी कृपा है
पर जिस दोष का आपने ज़िक्र किया है
थोडा और उसके बारे में बता देगे तो बहुत मेहरबानी होगी
कृपिया पुनः रचना को सुधरने का अवसर देने के लिए विस्तृत निर्देशन दें
सादर
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 5:27pm
बहुत खूब अहसासों से नवाजी है आपने इस ग़ज़ल को मामूली दोष भी नजर आतें हैं जैसे मिसरे की समांत को देखें फिर भी लाजबाब रचना है दिली दाद कुबूल करें
Comment by मनोज अहसास on June 10, 2015 at 7:06am
आ.वीनस केसरी जी
आप ग़ज़ल पर आये
बहुत मेहरबानी
आपसे सदैव मार्गदर्शन की आवश्कता है
सादर

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