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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog – May 2020 Archive (10)

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

जिसके लिए स्वयं को यूँ पाषान कर गये

दो फूल उसके आपको भगवान कर गये।१।

**

कारण से कुछ के मस्जिदें बदनाम हो गयीं

मन्दिर को लोग कुछ यहाँ दूकान कर गये।२।

**

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर

बरबाद दिन में खेत को इन्सान कर गये।३।

**

अपनी हुई न आज भी  पतवार कश्तियाँ

क्या  खूब  दोस्ती  यहाँ  तूफान  कर गये।४।

**

दिखते नहीं दधीचि से परमार्थी सन्त अब

मरकर भी अपनी देह जो यूँ दान कर गये।५।

**

माटी भी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 30, 2020 at 9:30am — 18 Comments

भूख तक तो ठीक था - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम

चाह कर भी यूँ  पुराना  पथ  बदल पाये न हम।१।

**

एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही

हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।

**

फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में

आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।

**

भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये

लुट रही इन इज्जतों  पर क्यों उबल पाये न हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत

लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।

**

फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर

जिसने बनाये खूब  यूँ सन्सार तो बहुत।२।

**

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ

रेलों बसों को  कर  रहे  तैयार तो बहुत।३।

**

बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई

रखते  गये  हैं  आप  भी  आधार  तो  बहुत।४।

**

सारे अदीब चुप  हुए  संकट  के दौर में

सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।

**

मजदूर सह किसान  से  जाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments

मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये

निर्धन के पाँव से  कभी  छाले नहीं गये।१।

**

दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर

होगी  गरीबी  दूर  के  वादे  नहीं  गये।२।

**

जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो

मजदूर  अपने  गाँव  के  सस्ते  नहीं  गये।३।

**

कहते हैं इसको  आपदा  चाहे जरूर वो

शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।

**

किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की

आँगन में जिसके  फूल  के  डाले नहीं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2020 at 4:03pm — 7 Comments

आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/ २१२२/२१२



शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे

एक चिकने घट को  जैसे  बूँद पानी लिख रहे।१।

**

अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश

पर खबर में  खूबसूरत  राजधानी  लिख रहे।२।

**

दान दाता  बन  गये  कुछ  एक  मुट्ठी  दे  चना

खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।

**

आस में  अच्छे  दिनों  की  शह्र  आये थे मगर

गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments

उम्मीद की चमक- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल )

२२१/ २१२१/२२२/१२१२



दिखती भला है अब किधर उम्मीद की चमक

खोने  लगी  है  खुद  सहर  उम्मीद की चमक।१।

**

माझी को धोखा दे  गयी पतवार हर कोई

दरिया में जैसे हो लहर उम्मीद की चमक।२।

**

बाँटेगा सबको आ के सच थोड़ी मिले भले

लेकर चला है वो  अगर उम्मीद की चमक।३।

**

कहते  उसे  किसान  हैं  निर्धन  बहुत  भले

झुकने न देगी उसका सर उम्मीद की चमक।४।

**

लूटा गया  है  हर  तरह  उसको  जहान में

आँखों में उसके है मगर उम्मीद की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 12, 2020 at 7:38am — 8 Comments

भय के दोहे -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत

बाँकी हर दुख पर रही, सदा उसी की जीत।१।

**

नाविक हर तूफान से, पा लेगा नित पार

डर केवल पतवार का, ना निकले गद्दार।२।

**

मजदूरी  में  दिन  कटा,  कैसे  काटे  रात

टपके का भय दे रही, निर्धन को बरसात।३।

**

आते जाते दे हवा, दस्तक जिस भी द्वार

लेकर झट उठ  बैठता, हर कोई तलवार।४।

**

शासन  बैठा  देखता, हर  संकट  को  मूक

निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।

**

मानवता से प्रीत थी,  पशुपन से भय मीत

इस…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2020 at 6:06am — 6 Comments

जीवन को नर्क नित किया मीठे से झूठ ने - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२



भटकन को पाँव की भला कैसे सफर कहें

समझो इसे अगर तो हम लटके अधर कहें।१।

**

गैरों से  जख्म  खायें  तो  अपनों  से बोलते

अपनों के दुख दिये को यूँ बोलो किधर कहें।२।

**

बातें सुधार से  अधिक  भाती  हैं टूट की

दीमक हैं देश धर्म को उन को अगर कहें।३।

**

टूटन  दरो - दीवार  की  करते  रफू  मगर

जाते नहीं हैं छोड़ कर घर को जो घर कहें।४।

**

जाने हुआ है क्या कि सब लगती हैं रात सी

दिखती नहीं है एक भी जिसको सहर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 4, 2020 at 7:41am — 7 Comments

वंचितों के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

  1. फूलों की नाराजगी, काँटों का मनुहार

    दुखियारों के भाग में, ऐसा ही सन्सार।१।

    **

    नदिया ने  दुत्कार  दी, किया  रेत  ने प्यार

    जिसके दम करते रहे, जीवन का विस्तार।२।

    **

    कौतुक करता दुख रहा, पर सुख रहा उदास

    घावों ने  मन  में  भरी, पीड़ा  निहित मिठास।३।

    **

    यादों  की  चौपाल  में, बिन  घूँघट  के  पीर

    जाने क्या क्या कह गया, आँखों बहता नीर।४।

    **

    मुर्दा दिल की बस्तियाँ, चलती फिरती लाश

    हलचल  कैसी  भी  रहे, जीवन  रहे  हताश।५।

    **

    किस्मत…
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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2020 at 9:41am — 6 Comments

सभ्य कितना चल गया सबको पता -गजल (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

२१२२/ २१२२/२१२२



द्वार पर वो  नित्य  आकर  बोलता है

किन्तु अपना सच छुपाकर बोलता है।१।

***

दोस्ती का मान जिसने नित घटाया

दुश्मनों को अब क्षमा कर बोलता है।२।

***

हूँ अहिन्सा का पुजारी सबसे बढ़कर

हाथ  में  खन्जर  उठाकर  बोलता है।३।

***

गूँज घन्टी की न आती रास जिसको

वो अजाँ को नित सुनाकर बोलता है।४।

***

दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी तू

पथ  में  काँटे  वो  बिछा कर  बोलता …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2020 at 10:00pm — 5 Comments

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