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विनय कुमार's Blog – January 2015 Archive (10)

वजूद

"आप का नाम क्या है ?" बगल में आई नयी पड़ोसन ने पूछा |
वो सोच में पड़ गयी , क्या बताये | शादी के बाद जब से इस घर में आई है तब से तो किसी ने उसके नाम से नहीं पुकारा | शुरू में बहू , फिर मुन्ने की माँ और अब मिसेस शर्मा , यही सुनती आई है वो | शायद तीस साल बहुत होते हैं किसी को खुद का वजूद भूलने के लिए | वो अपना वजूद ढूँढ रही थी , पड़ोसन चली गयी थी |

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मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on January 29, 2015 at 9:30pm — 20 Comments

दांव पेंच--

" क्या हुआ सलीम साहब , चेहरा इतना उतरा हुआ क्यूँ है ? कहीं फिर इस बार टिकट का मसला तो नहीं फंस गया "|

" नहीं , कुछ नहीं , बस यूँ ही तबीयत कुछ नासाज़ लग रही है "| टाल तो दिया उन्होंने लेकिन अंदर ही अंदर कुछ खाए जा रहा था | पिछली बार भी यही हुआ था , आखिरी समय तक आश्वासन मिलता रहा था कि सीट आपकी पक्की है , इस बार भी उम्मीद नहीं दिख रही |

अगले दिन उन्होंने अख़बारों में खबर छपवा दी " सलीम साहब ने अपनी पार्टी का टिकट ठुकराया "| शाम तक उनको दूसरी पार्टी ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया |…

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Added by विनय कुमार on January 27, 2015 at 8:56pm — 19 Comments

दान (लघुकथा)

ठण्ड भयानक पड़ने लगी थी और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं रोज लोगों से अपील कर रही थीं कि सड़क के किनारे रह रहे लोगों को गर्म वस्त्र दान करें | सड़क पर तमाम न्यूज़ चैनल की गाड़ियां घूम रही थीं और इन कार्यक्रमों को दिखा रही थीं |

उस मोहल्ले के आखीर में भी एक भिखारी सड़क पर पड़ा हुआ था | कुछ लोगों ने उसे ऊनी कम्बल इत्यादि दान किये और ये भी उन चैनल्स ने कैमरों में कैद किया लेकिन उसकी हल्की बुदबुदाहट पर किसी ने ध्यान नहीं दिया |

सुबह वो भिखारी मरा पड़ा था | लोग खाने के लिए देना भूल गए थे…

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Added by विनय कुमार on January 23, 2015 at 6:00pm — 22 Comments

मुक्ति--

फिर आधी रात को उनकी आँख खुल गयी , पसीने से तरबतर वो बिस्तर से उठे और गटागट एक लोटा पानी हलक में उड़ेल दिया | ये सपना उन्हें पिछले कई सालों से परेशान कर रहा था | अक्सर वो देखते कि एक हाँथ उनकी ओर बढ़ रहा है और जैसे ही वह उनके गर्दन के पास पहुँचता , घबराहट में उनकी नींद खुल जाती |

अब वो जिंदगी के आखिरी पड़ाव में थे और अब खाली समय था उनके पास | रिटायरमेंट के बाद वो और पत्नी ही रहते थे घर में , बच्चे अपने अपने जगह व्यस्त थे | पत्नी भी परेशान रहती थी उनकी इस हालत से और कई बार पूछती थी कि क्यों…

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Added by विनय कुमार on January 22, 2015 at 12:12pm — 14 Comments

इंसानियत (लघुकथा)

"उतारो कपड़े इसके , देखो किस तरफ का है " , भीड़ चिल्ला रही थी और वो थर थर काँप रहा था | शहर में अचानक दंगा भड़क उठा था और वो भाग रहा था कि किसी तरह अपने घर पहुँच जाए | लेकिन जैसे ही एक मोहल्ले में घुसा , सामने से आ रही भीड़ ने उसे घेर लिया |
अभी वो कपड़ा उतारने ही जा रहा था कि पुलिस की गाड़ी के सायरन की आवाज आई और भीड़ भाग खड़ी हुई | अब वो पुलिस की जीप में बैठा सोच रहा था कि आज वो तो नंगा होने से बच गया , लेकिन इंसानियत नंगी हो गयी |

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मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on January 21, 2015 at 2:00am — 23 Comments

विकलांगता--

" देखो तो , आज माँ के लिए मैं क्या लाया हूँ "|
" क्या जरुरत थी माताजी को इतनी बढ़िया साड़ी लाने की !" , पत्नी की आवाज में आश्चर्य झलक रहा था |
" माँ की आँखें नहीं हैं लेकिन मेरी तो हैं ना "|

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on January 18, 2015 at 11:05pm — 20 Comments

आसमाँ--

" मिल गया चैन तुमको , हो गयी तसल्ली " , उसके पिता खुद को संभाल नहीं पा रहे थे | " कितनी बार मना किया था कि उसे वहां मत भेजो , अब खो दिया न उसको "| बेटी की असमय मौत ने उनको तोड़ दिया था |

टूट तो मैं भी गयी थी लेकिन मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बेटी को उसकी मर्ज़ी की जगह नौकरी करने की वकालत करके मैंने कौन सा गुनाह कर दिया था | उसकी कही बात जेहन में घूम रही थी " जाना तो एक दिन सब को है माँ , तो क्यों न निडर होके अपने तरीके से जिया जाए | अपना आसमाँ खुद ढूंढा जाए "| बेहद मुश्किल था अब लेकिन…

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Added by विनय कुमार on January 16, 2015 at 1:00am — 12 Comments

मज़हब--

" आप बस एक बार कह दो कि ये उन लोगों ने किया है , बाक़ी तो हम देख लेंगे " , मोहल्ले के तथाकथित धर्म गुरु काफी आवेश में थे | मौका अच्छा था और तमाम लोग इंतज़ार में थे इसका फायदा उठाने के लिए |
चच्चा सर झुकाये बैठे थे , चेहरा आँसुओं से तराबोर था | उनकी तो दुनिया ही मानो उजड़ गयी थी , जवान बेटे को खो चुके थे | लेकिन धीरे से सर उठा कर बोले " क़ातिल का कोई मज़हब नहीं होता "|

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on January 14, 2015 at 1:40am — 24 Comments

जन्मदिन--

" बहुत बहुत बधाई जन्मदिन की, आज तो पार्टी बनती है " , ऑफिस पहुँचते ही सहकर्मियों ने घेर लिया शर्माजी को | एक बारगी तो वो सोच ही नहीं पाये कि कैसे प्रतिक्रिया दें इस पर , उनसठवां जन्मदिन था उनका | अगले साल सेवानिवृत्त हो जायेंगे और घर में बेरोज़गार पुत्र एवम शादी के योग्य पुत्री |

चेहरे पे फीकी मुस्कान लाते हुए सबका आभार व्यक्त करने लगे और आवाज लगायी " सबके लिए नाश्ते का इंतज़ाम आज मेरी तरफ से कर देना भोला " | सब प्रसन्न थे पर उनके मन में यही चल रहा था कि ऐसा जन्मदिन किसी का न हो | …

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Added by विनय कुमार on January 11, 2015 at 2:14pm — 17 Comments

नव जीवन--

"बाबू, बाबू" , बाबा के मुंह अस्पष्ट सी आवाजें निकल रही थीं | वो अब धीरे धीरे अपनी ऑंखें खोलने का प्रयास कर रहे थे | खून अभी भी उनकी कलाईयों में चढ़ रहा था और मैं उनके सिरहाने बैठा उनको सहला रहा था |

मुझे सुबह का घटनाक्रम याद आ गया जिसके चलते उनको चोट लगी थी | मैं उनका लाडला पोता था और मुझे वो हमेशा बाबू ही बुलाते थे | मैं कल ही गांव आया था और आज मुझसे मिलने गांव के कई लोग आ गए | उसी बीच एक दलित लड़का आ कर दरवाजे पर पड़ी खाट पर बैठ गया | बाबा ने कभी भी दलितों को बराबर नहीं समझा था , शायद यह…

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Added by विनय कुमार on January 4, 2015 at 1:34pm — 8 Comments

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