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Sheikh Shahzad Usmani's Blog (338)

'लुभावने या डरावने दिन?' (लघुकथा)

"हम तो अपनी सरकारी नौकरी से मज़े में हैं! तुम सुनाओ, कैसी चल रही है तुम्हारी प्राइवेट टीचरी?"

"बढ़िया! मेरे ख़्याल से तुमसे भी बेहतर चल रहा है सब कुछ!"

"वो कैसे?"

"तुम्हारी नौकरी में तुम केवल सरकार और जनता को उल्लू बनाते हो या चूना लगाते हो! ... हम तो अपनी नौकरी में मैनेजमेंट को और माता-पिता-पालकों को और छात्रों को भी, क्योंकि वे हमें उल्लू बनाते हैं या चूना लगाते हैं! 'टिट-फॉर-टेट' और 'टेक इट ईज़ी' का ज़माना है न!"

"कुछ समझ में नहीं आया! हमने तो सुना है कि प्राइवेट…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 30, 2018 at 12:30am — No Comments

'डस्ट-मून्ज़' (लघुकथा)

"देखो, हम सेलिब्रिटीज़ की ज़िन्दगी के साथ मीडिया ऐसे ही बर्ताव करता रहता है! टेंशन मत लो!"

"सब कुछ मेंशन हो चुका है! तुम तो सिर्फ़ यह बता दो कि मैं तुम्हारा पहला चांद हूं या दूसरा या फिर तीसरे नंबर का?"

"क्या मतलब?"

"देखो अर्थ! अब ज़्यादा मत इतराओ! मैंने भी तुम्हारी उन दोनों लैलाओं के बयान सुन लिए हैं टेलीविज़न पर!"

"देखो शशि! मुझ पर और तुम स्वयं पर विश्वास रखो! तुम्हीं मेरा पहला और आख़री चांद हो, तुम्हीं इंदु, विधु और तुम्हीं मेरी चंदा हो डार्लिंग!"

"फ़िर वे दोनों…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 8, 2018 at 9:00am — 4 Comments

"आहरण या चीर-हरण" (लघुकथा)

"आज न छोड़ेंगे, सोते हुओं को चेतायेंगे!"

"घोर अन्धकार है महाराज! सुझावों, चेतावनियों, प्रतिबंधों और घोषणाओं को चुनौती देकर पटाखों, आतिशबाज़ियों और वैद्युत-सजावटों से ही इनका राष्ट्र दहक रहा है, चमक रहा है! इतना तो आपके दहन-आयोजन के आडंबर मेंं भी नहीं होता!"

"...'आडंबर'..! मत कहो मेरे नई सदी के 'सक्रीय अस्तित्व' और 'सांकेतिक स्मरण' को 'आडंबर'..! मेरे दशानन की बदलती भूमिकाएं नहीं मालूम क्या तुम्हें?" नई सदी के नवीन दस मुखौटों वाले विशाल शरीर में अपनी आत्मा लिए दीपावली पर भारत-भ्रमण…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 7, 2018 at 9:30am — 1 Comment

'राहगुज़र : दिव्यालोक' [कुछ हाइकु: भाग-3]

1-
आलोक पर्व
सेतु ये जन-हेतु
प्रकाश-स्तंभ


2-
राहगुज़र
अंधेरे का निस्तार
प्रकाश-पर्व


3-
अपनापन
दीप से विस्तारित
आत्मकेंद्रित

4-
रूप चौदस
सौंदर्य प्रसाधन
आध्यात्मिकता

5-
दूज सुबोध
भ्रातृ-भगिनि योग
दिव्य-आलोक


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2018 at 10:09am — 8 Comments

'बिसात पर नूरा-कुश्ती' (लघुकथा)

"हमने कई थी न कि देर है अंधेर नईं! सबके साथ सबके दिन फिर रये! सो अपने भी दिन फिरहें!" नदी किनारे बैठे हुए एक बाबा ने दूसरे साथी बाबाओं से किया अपना दावा दोहराते-सिद्ध करते हुए कहा - "अपने कित्ते बाबा अंतर्राष्ट्रीय हो गये, ध्यान और योग से उद्योग जम गओ, ... एक और बाबा हाईटेक हो गओ!"

"हओ! मंत्री बनत-बनत रह गये; लेकिन अब रस्ता खुल गओ अपने लाने! धंधा-पानी भी संग-संग चलो करहे अब राम-नाम जपने के साथ! दुनिया खों आयुर्वेद को भेद बहुतई अच्छी तरा समझ में आ गओ!"

"लेकिन गुरु, धरम-करम और…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2018 at 12:11am — 2 Comments

'मर्म-सौगातें : सोने का देश' [कुछ हाइकु: भाग-2]

1-

मन-हर्षाता

धन्य धन-तेरस

मां लक्ष्मी दाता

2-

धन तेरस

दे अब के बरस

सोने का देश



3-

धन तेरस

सोने की ये चिड़िया

धन से धन्य

4-

धनोपार्जन

से धन-विसर्जन

चादर मैली



5-

धन की दास्तां

धनी-निर्धन व्यथा

कथा में कथा



6-

लड़ी में ज्वाला

प्रकाश, आग, भाग

आत्मायें लड़ीं



7-

पर्व ही गर्व

संदेश सम्प्रेषित

धन का दर्द



8-

दिल की…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 5, 2018 at 8:24pm — 8 Comments

'ईको-फ्रेंडली प्रकाश-मित्र' [कुछ हाइकु]

कुछ  'दीवाली-हाइकु' :

 

1-

दिल्ली-दीवाली

(दिली-दीवाली)

दीपक-दिलवाली

ईको-फ्रेंडली

2-

कुम्हार-कला

मिट्टी, भावों से खिला

ये दीपोत्सव

3-

प्रज्जवलित

दीप कुम्हार वाले

सीप के मोती

4-

सीप का मोती

दीवाली-महोत्सव

रिश्तों की खेती

5-

मानवीयता

दानवीयता परे

दीवाली भरे

6-

दिव्य-दीवाली

दशा-दिशा निमित्त…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 4, 2018 at 6:00am — 8 Comments

'तू मेरा क्या लागे?' (लघुकथा)

"देख, अब भी समय है! संभाल ले, अनुशासित कर ले अपने आप को!"

"अपनी थ्योरी अपने ही पास रख! ... देख, रुक जा! ठहर जा! रोक ले समय को भी! उसे और तुझे मेरे हिसाब से ही चलना होगा!"

"तो तू मुझे अपनी मनचाही दिशा में धकेलेगा! अपनी मनचाही दशा बनायेगा! 'देश' और 'काल' की गाड़ी की मनचाही 'स्टीअरिंग' करेगा!

"बिल्कुल! ड्राइवर, कंडक्टर, सब कुछ मैं ही हूं और हम में से ही हैं हमारे देश की गाड़ी चलाने वाले! तुम.. और समय .. तुम दोनों तो बस क़िताबी हो; बड़ी ज़िल्द वाली बड़ी-बड़ी क़िताबों में रहकर…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 3, 2018 at 12:29am — 5 Comments

"जा..जा..जा!" (लघुकथा)

"सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु । ... सर्वेषां शान्तिर्भवतु । ... सर्वेषां पूर्नं भवतु । ... सर्वेषां मड्गलं भवतु ॥" इस 'वैश्विक-प्रार्थना' के स्वर जब उसने सुने तो उसकी आंखों में आंसू आ गए।

"तुम कौन हो? इतने भव्य मुकाम पर चमकते हुए भी यूं क्यूं रो रहे हो" उसके कंधे पर स्वयं को संतुलित करते हुए 'प्रार्थना' गाने वाले 'शान्ति' के प्रतीक ने कहा।

"मैं... मैं हूं विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति.. सुनहरी मूर्ति.. सरदारों की सरदार! .. पर तुम अपने काम छोड़कर यहां कैसे?" आंखों से कुछ और अश्रु लुढ़काते…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 31, 2018 at 6:30am — 5 Comments

'मच्छर' (लघुकथा)

"जब ओज़ोन परत में छेद हो सकता है; ब्रह्मांड में ब्लैक होल हो सकते हैं! तो जबरन बनायी और थोपी गई मच्छरदानी में हम छेद कर, सेंध लगाकर फिर से इन सब का ख़ून क्यों नहीं चूस सकते, मित्रों!"



"बिल्कुल साहिब! नींद के शौक़ीन इन आरामपसंद नागरिकों ने हर तरह से तुष्टिकरण करवा के देख लिया! अब तो इनकी खटमलविहीन हाइटेक आरामगाह में हमें भी खटमल-नीतियों से सेंधमारी करनी चाहिए या बिच्छू-डंक-प्रहार-शैली से!"



"नहीं मित्रो, न तो हमें खटमल माफ़िक बनना है और न ही बिच्छू जैसा! इनके पास और भी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 29, 2018 at 1:07am — 5 Comments

'ताड़ना के कारी-अधिकारी' (लघुकथा)

'परखना, पहचानना, ताड़ना या प्रतारणा या उद्धार करना' ... इन विभिन्न अर्थों में संत तुलसीदास जी की चौपाई ”ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।“ में आये 'ताड़न' शब्द पर इंटरनेट-ज्ञान बघारते हुए कुछ पुरुषों में चर्चा क्या हुई, कि उनके बीच नई सदी के रंग-ढंग पर उस पंक्ति पर तुकबंदी और पैरोडी सी शुरू हो गई! .. फिर मज़ाक ने बहस का रूप ले लिया।



"भई अब तो महिला-पुरुष समानता और महिला सशक्तिकरण की बातें हो रही हैं अपने वतन में भी! योजनाएं और क़ानून बन रहे हैं लड़कियों और…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2018 at 2:59am — 4 Comments

'माता की माया' (लघुकथा)

'अनौपचारिक आकस्मिक शिखर-वार्ता' :

प्रतिभागी : लोह कलपुर्जे, मशीनें और औज़ार।

अनौपचारिक परिचर्चा जारी गोलमेज पर :

"एक समय था, जब लोग हमारा लोहा मानते थे!"

"हां, बिल्कुल सही! लोहे पर कुछ मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां भी कहा करते थे बातचीत में!"

"कील, हंसिया, खुरपी, छैनी, हथौड़े से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों और उनके कलपुर्जों तक हमारी ही धूम थी! अपना लोहा मनवाते थे; दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ते थे!"

"चर्मकार, कारीगर, किसान, मज़दूर, इंजीनियर,…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 23, 2018 at 9:30pm — 4 Comments

'झांकियां और चुनौतियां' (लघुकथा)

नवरात्रि की 'एक झांकी' के समानांतर एक और झांकी! नहीं, एक नहीं 'तीन' झांकियां! मां दुर्गा की 'स्थायी झांकी' में चलित झांकियां! चलित? हां, 'चलित' झांकियां! उस अद्भुत संदेशवाहिनी झांकी से प्रतिबिंबित अतीत की झांकियां; उसके समक्ष खड़ी हुई सुंदर युवा मां के सुंदर कटीले बड़े से नयनों में! उसके मन-मस्तिष्क में! दुर्गा सी बन गई थी वह उस जवां मर्द के शिकंजे से छूट कर और कुल्हाड़ी दे मारी थी उस वहशी के बढ़ते हाथों पर! दूसरे धर्म का था वह दुष्ट! जाति-बिरादरी के मर्दों के हाथों बेमौत मारा जाता वह! उसके पहले…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 21, 2018 at 9:00pm — 3 Comments

'कौन बदल रहा है?' (लघुकथा)

देश के एक राजमार्ग पर एक ढाबे पर देर रात भोजन हेतु डेरा जमाये हुए यात्रियों में कोई किसान, मज़दूर, व्यापारी, शिक्षक आदि था, तो कोई बस या ट्रक का स्टाफ। भोजन करते हुए वे बड़े से डिजिटल टीवी पर समाचार भी सुन रहे थे।

"देखो रे! मेरा देश बदल रहा है!" एक शराबी ज़ोर से चिल्लाया।

"अबे! बदल नहीं रहा! बदला जा रहा है! पगला जा रहा है!" दूसरे साथी ने देसी दारू का घूंट गुटकने के बाद कहा।

"दरअसल देश बदल नहीं रहा; न ही बदला जा रहा है! शादी-विवाह में शिरक़त माफ़िक दुनिया के जश्न-ए-तरक़्क़ी में…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 18, 2018 at 11:57pm — 3 Comments

"केरेक्टर ढीला क्यूं?" (लघुकथा)

आज उनसे कामकाज नहीं हो पा रहा था। गुप्त मंत्रणा कर कोई कठोर निर्णय लिया जाना था।

"अब तो हद हो गई! छात्र-छात्राएं और शिक्षक तक मीडिया का अंधानुकरण करने लगे हैं। हमारी भी कोई प्रतिष्ठा है न!"

"हां भाई! ई-मेल एड्रेस से लेकर गणित और विज्ञान तक में हमारी अहमियत है! ... पर गालियों और अभद्र शब्दों में हम अपना उपयोग अब नहीं होने देंगे! हमारी ईजाद इसलिए थोड़े न की गई थी!"

"बिल्कुल सही कहा तुमने! हमारा अवमूल्यन हो रहा है। ई-मेल के @ से हैश टैग # वग़ैरह के बाद ये मीडिया हमें सांकेतिक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 16, 2018 at 9:43pm — 3 Comments

'मेरी आवाज़ सुनो!' (लघुकथा)

"सुनो, किसी से चर्चा मत करना! अपने दफ़्तर का प्रोजेक्ट अधूरा भी छोड़ना पड़े, तो भी तुरंत ही अगली बस से यहां लौट आओ!"

"क्यों? क्या हुआ? घबराई हुई सी क्यों हो?"

"ऑफ़िस से लौटने पर आज तो मुझे मेरा सूटकेस ही पूरा खुला हुआ मिला.. और कपड़े बिखरे हुए!"

"कोई क़ीमती सामान चोरी तो नहीं हुआ?"

"क़ीमती ही नहीं.. हमारे जिगर का टुकड़ा भी! .. स्मिता अभी तक घर नहीं लौटी है! ... सूटकेस से मेरी कुछ मंहगी ड्रेसिज़, महंगा हेअर रिमूवर और सेनेटरी नैपकिन्ज़ वग़ैरह सब ग़ायब हैं!"

"तो क्या…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 13, 2018 at 6:35am — 5 Comments

बलातकार्य (छंदमुक्त कविता)

बलात हालात बलात नियंत्रण में हैं न!
देश-देशांतर तिजारात आमंत्रण में हैं न!
आचार-विहार, व्यवहार-व्यापार, प्रहार,
घात-प्रतिघात धार अभियंत्रण में हैं न!
**
बदले 'बदले के ख़्यालात' चलन में हैं न!
अगले-पिछले अहले-वतन फलन में हैं न!
बापू तुम्हारे ही देश में, देशभक्तों के वेश में
नोट-वोट, ओट-चोट-वोट अवकलन में हैं न!


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2018 at 11:30pm — 8 Comments

"अंखियों के झरोखों से" (लघुकथा)

होटलों में बर्तन धोने से लेकर नेताओं और अधिकारियों के पैर दबाने तक, मूंगफली बेचने से लेकर अख़बार बेचने तक सभी काम करने के साथ ही साथ उस अल्पशिक्षित बेरोज़गार के यौन-शोषण के कारण होशहवास खो गये थे, या किसी शक्तिवर्धक दवा के ग़लत मात्रा के सेवन से या अत्याधिक मानसिक तनाव के कारण उसकी अर्द्धविक्षिप्त सी हालत थी; किसी को सच्चाई पता नहीं! हां, सब इतना ज़रूर जानते थे कि बंदा है तो होनहार और मिहनती। जो काम दो, कर देता है। इसलिए सड़क पर आज भी उसकी ज़िन्दगी सुरक्षित चल रही है परिजनों की उपेक्षा और दयावानों…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2018 at 11:30pm — 7 Comments

'अंधवायु में प्राणवायु' (लघुकथा)

कोई 'रोज़ी-रोटी' और 'नोटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था; तो कोई 'वोटों' और 'ओटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था। आम जनता जानती थी कि हर मुकाम पर कहीं न कहीं 'दाल में कुछ काला' है क्योंकि सालों से उसने सब कुछ देखाभाला है; अपने आपको वक़्त-व-वक़्त 'चोटों' से उबारा है। तरक़्क़ी के मुद्दों पर नेता व अधिकारी सब अपनी-अपनी वफ़ा की सफाई पेश कर दूसरों पर छींटाकशी कर, अपनी ही जगहंसाई कर चिल्ला रहे थे; विरोधी बिलबिला रहे थे!

"ये डील नहीं .. मतलबियों को ढील है! .. राजनीति नहीं .. चील है! चीट है ...…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 5, 2018 at 9:03pm — 8 Comments

'नुक्कड़-नुक्कड़ की कथा (लघुकथा)

जंतर-मंतर चौराहे पर भीड़ जमा हो चुकी थी। कुछ नियोजित, तो कुछ टाइम-पास थी। कुछ नुक्कड़-नाटिका कलाकार मुखौटे पहने हुए थे, कुछ आम नागरिकों और कुछ नेताओं के वेश में थे। एक वृत्ताकार जमावड़े में संवादों और अदायगी का जंतर-मंतर शुरू हुआ :



"तुरपाई हो नहीं सकती, भरपाई हो नहीं सकती

कपड़े फट सकते हैं, चिथड़े उड़ सकते हैं!

सुनवाई होती है, कार्यवाही सदैव हो नहीं सकती!"

ज़मीन पर पड़ी बलात्कार-पीड़िता और लिंचिंग-पीड़ित के शवों को घेरते हुए दो कलाकार बोले।



"घटना बहुत…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 1, 2018 at 5:30pm — 7 Comments

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