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Sushil Sarna's Blog – April 2017 Archive (10)

गर्व ....

गर्व ....

रोक सको तो

रोक लो

अपने हाथों से

बहते लहू को

मुझे तुम

कोमल पौधा समझ

जड़ से उखाड़

फेंक देना चाहते थे

मेरे जिस्म के

काँटों में उलझ

तुमने स्वयं ही

अपने हाथ

लहू से रंग डाले

बदलते समय को

तुम नहीं पहचान पाए

शर्म आती है

तुम्हारे पुरुषत्व पर

वो अबला तो

कब की सबला

बन चुकी ही

जिसे कल का पुरुष

अपनी दासी

भोग्या का नाम देता था

देखो

तुम्हारे…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 5:00pm — 6 Comments

यकीं के बाम पे ...



यकीं के बाम पे ...

हो जाता है

सब कुछ फ़ना

जब जिस्म

ख़ाक नशीं

हो जाता है

गलत है

मेरे नदीम

न मैं वहम हूँ

न तुम वहम हो

बावज़ूद

ज़िस्मानी हस्ती के

खाकनशीं होने पर भी

वज़ूद रूह का

क़ायनात के

ज़र्रे ज़र्रे में

ज़िंदा रहता है

ज़िंदगी तो

उन्स का नाम है

बे-जिस्म होने के बाद भी

रूहों में

इश्क का अलाव

फ़िज़ाओं की धड़कनों में

ज़िंदा रहता है

लम्हे मुहब्बत…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 2:05pm — 7 Comments

क़ैद रहा ...

क़ैद रहा ...

वादा
अल्फ़ाज़ की क़बा में
क़ैद रहा

किरदार
लम्हों की क़बा में
क़ैद रहा

प्यार
नज़र की क़बा में
क़ैद रहा

इश्क
धड़कनों की क़बा में
क़ैद रहा

कश्ती
ढूंढती रही
किनारों को
तूफ़ां
शब् की क़बा में
क़ैद रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 25, 2017 at 5:00pm — 11 Comments

बेशर्मी से ... (क्षणिका )...

बेशर्मी से ... (क्षणिका )

अन्धकार
चीख उठा
स्पर्शों के चरम
गंधहीन हो गए
जब
पवन की थपकी से
इक दिया
बुझते बुझते
बेशर्मी से
जल उठा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 22, 2017 at 8:49pm — 11 Comments

कलियों का रुदन ....

कलियों का रुदन   .... 

रात भर

कलियों का रुदन होता रहा

उनके अश्रु

ओस कणों में

परिवर्तित हो गए

पर तुम

उनके अंतर्मन की वेदना से

अनभिज्ञ रहे भानु

उनकी सिसकियाँ

सन्नाटों में

तुम्हें पुकारती रहीं

मगर तुम न सुन सके

आहों के वेग से

तुम

अनभिज्ञ रहे भानु

सच तुम

बहुत निष्ठुर हो

भला

तुम्हारे रश्मि दूत भी कहीं

उनके मूक बंधन के

कारण का निवारण बन

सकते…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 20, 2017 at 5:39pm — 2 Comments

बस चला जा रहा हूँ...

बस चला जा रहा हूँ ...

मैं

समय के हाथ पर

चलता हुआ

गहन और निस्पंद एकांत में

तुम्हारे संकेत को

हृदय की

गहन कंदराओं में

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

मधुरतम क्षणों का आभास

स्वयं का

अबोले संकेत में

विलय का विशवास

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

वाह्य जगत के

कल ,आज और कल के

भेद…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 15, 2017 at 7:16pm — 12 Comments

अभिलाषाओं के ...

अभिलाषाओं के   ... 

थक जाते हैं

कदम

ग्रीष्म ऋतु की ऊषणता से

मगर

तप्ती राहें

कहाँ थकती हैं



अभिलाषाओं की तृषा

पल पल

हर पल

ग्रीष्म की ऊषणता को

धत्ता देती

अपने पूर्ण वेग से

बढ़ती रहती है

ज़िंदगी

सिर्फ़ छाँव की

अमानत नहीं

उस पर

धूप का भी अधिकार है

जाने क्यूँ

धूप का यथार्थ

जीव को स्वीकार्य नहीं



भ्रम की छाया में

यथार्थ के निवाले

भूल जाता है…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 14, 2017 at 3:44pm — 4 Comments

लम्हों की कैद में .....

लम्हों की कैद में ......



लम्हे

जो शिलाओं पे गुजारे

पाषाण हो गए



स्पर्श

कम्पित देह के

विरह-निशा के

प्राण हो गए



शशांक

अवसन्न सा

मूक दर्शक बना

झील की सतह पर बैठ

काल की निष्ठुरता

देखता रहा



वो

देखता रहा

शिलाओं पर झरे हुए

स्वप्न पराग कणों को



वो

देखता रहा

संयोग वियोग की घाटियों में

विलीन होती

पगडंडियों को

जिनपर

मधुपलों की सुधियाँ

अबोली श्वासों…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments

मैं चुप रही.....

मैं चुप रही ....

रात के पिछले पहर

पलकों की शाखाओं पर

कुछ कोपलें

ख़्वाबों की उग आई थीं

याद है तुम्हें

तुम ने

चुपके से

मेरे ख्वाबों की

कुछ कोपलें

चुराई थीं

मैं चुप रही

तुमने

अपने स्पर्श से

उनमें बैचैनी का

सैलाब भर दिया

मैं चुप रही

तुमने

मेरी पलकों की

शाखाओं पर

अपने अधरों से

सुप्त तृष्णा को

जागृत किया

मैं चुप रही

रात की उम्र

ढलती रही…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments

व्यर्थ है......

व्यर्थ है......

व्यर्थ है

कुछ भी कहना

बस

मौन रहकर

देखते रहो

दुनिया को

तमाशाई नज़रों से

पूरे दिन

व्यर्थ है

कुछ भी सुनना

अर्थहीन शब्दों के

कोलाहल में

भटकते भावों की

तरलता में लुप्त

संवेदना के

स्पंदन को

व्यर्थ है

कुछ भी ढूंढना

इस नश्वर संसार में

आदि और अंत का

भेद पाने के लिए

स्वयं में

स्वयं से

मिलने का

प्रयास करना …

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 3:30pm — 8 Comments

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