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मोहन बेगोवाल's Blog – August 2015 Archive (2)

अँधेरे का राही (लघुकथा)

पहले तो रविन्द्र  ने चाहा,कि न कर दूँ ,क्यूंकि दस बज चुके थे,  और सर्दी भी बढ़ रही थी, पर एक साथ पाँच सवारियां देख कर उस ने फेरा लगाने का मन बना लिया । सुबह से कोई अच्छा फेरा भी तो नहीं लगा था । वह सवारियों को थ्रिविलर में बिठा बस स्टैंड से शहर के सुनसान एरिया की तरफ निकल पड़ा जो कभी रौनक  भरा होता था, पर जब का हस्पताल को  यहाँ से कहीं और शिफ्ट किया तब  ज्यादातर दुकानदारों ने  दुकानों को पक्के तौर पर ताले लगा दिए,और बाकी अब तक बंद हो चुकी थी ।  

हिचकोले खाता थ्रिविलर चारों तरफ फैली…

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Added by मोहन बेगोवाल on August 5, 2015 at 9:30pm — 4 Comments

तरही गज़ल

संशोधित तरही गज़ल

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

नींदों से जब मिलकर आये कुछ पल बैठ कयाम किया

ऐसा करके सपनों ने भी कुछ तो मेरा काम किया

कब ये दुनिया औरत को घर अपने का हिस्सा माने

मर्द की जेब को हर पल देखा सुबह व् शाम सलाम किया

मुझ को अक्सर आके वो बातें ऐसी बदलाती है

रौशन कैसे दुनिया होगी न अँधेरा नाकाम किया

हर पल उसके पास रहूँ मैं,फिर भी गुम हो जाती है

साथ तो उसका पाया अक्सर याद मेंरी गुमनाम किया

बीत गई जिंद सोच में उलझे कैसे होती तो फुर्सत

रात…

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Added by मोहन बेगोवाल on August 4, 2015 at 1:16am — 3 Comments

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