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गिरिराज भंडारी's Blog – May 2015 Archive (11)

अतुकांत - वार्तायें कैसी हों ( गिरिराज भंडारी )

वार्तायें ,

किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में

अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?

आँतरिक वैचारिक कठोरता

क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?

सोचने जैसी बात है

 

वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं

न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं

 

वार्तायें होतीं है

अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 22, 2015 at 4:36pm — 6 Comments

ग़ज़ल - लगी धूप सी मुझे ज़िन्दगी ( गिरिराज भंडारी )

11212   11212  11212   11212 

 

कभी इक तवील सी राह में लगी धूप सी  मुझे ज़िन्दगी

कभी शबनमी सी मिली सहर जिसे देख के मिली ताज़गी

 

कभी शब मिली सजी चाँदनी , रहा चाँद का भी उजास,  पर  

कभी एक बेवा की ज़िन्दगी सी रही है रात में सादगी

 

कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला  

कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी

 

कभी यार भी लगे गैर से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली

कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 9:30am — 17 Comments

गीत -- पूछता है अब विधाता - ( गिरिराज भंडारी )

रोक नदिया

तोड़ पर्वत

तू धरा को क्या बनाता

पूछता है , अब विधाता

 

देख कुल्हाड़ी चलाता 

कौन अपने पाँव में ही

कंटकों के बीज बोता

रास्तों में , गाँव मे ही

व्यर्थ सपनों के लिये क्यों आज के सच को  गवांता

तू धरा को क्या बनाता , पूछता है अब विधाता

 

इक नियम ब्रम्हाण्ड का है

ग्रह सभी जिसमें चले हैं

है धरा की गोद माँ की

खेल जिसमे सब पले हैं

माँ पहनती उस वसन में , आग कोई है लगाता 

तू धरा…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 14, 2015 at 9:21am — 21 Comments

स्वीकृति के लिये छटपटाती बातें

इनकार कितना भी कर लें

दिल पर हाथ रख कर पूरी इमानदरी से सोचेंगे तो आप भी कहेंगे

हम भावनाओं की दुनिया में जीते हैं

और ये सच हो भी क्यों न , एकाध अपवाद छोड़कर

हम सब दो पवित्र भावनाओं के मिलन का ही तो परिणाम हैं

 

भावनायें गणितीय नहीं होतीं

कारण और परिणाम दोनों का गणितीय आकलन नामुमकिन है

हम सब ये जानते हैं , फिर भी

दूसरों के मामले में हम सदा गणितीय हल चाहते हैं ,

अक्सर रोते बैठते हैं , दो और दो चार न पा के

उत्तर…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:15am — 15 Comments

गज़ल - बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है ( गिरिराज भंडारी )

1212   1122   1212   22  /112

चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या

या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या

 

वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं  

किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या

 

असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक

वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या

 

हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा

ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या

 

मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है

मुझे न पूछ थे…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 7, 2015 at 9:16am — 31 Comments

ग़ज़ल -- चराग़ किसका जला हुआ है - ( ग़िरिराज भंडारी )

121  22     121  22        121  22   121  22

 

ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है 

सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है

 

कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है

कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है

 

ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर  

दरे ख़ुदा में झुका जो  तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है 

 

हरेक…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 6:30am — 25 Comments

अतुकांत -- लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर - ( गिरिराज भंडारी )

लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर

******************************

बातें हमेशा मुँह से ही बोली जायें तभी समझीं जायें ज़रूरी नहीं

कभी कभी परिस्थितियाँ जियादा मुखर होतीं हैं शब्दों से ,

और ईमानदार भी होतीं हैं

देखा है मैनें

जिसे परिवार में समदर्शी होना चाहिये

उनको छाँटते निमारते ,

अपनों में से भी और अपना  

 

वैसे गलत भी नहीं है ये

अधिकार है आपका , सबका  

देखा जाये तो मेरा भी है

 

तो, छाँटिये बेधड़क , बस ये…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 7:04pm — 16 Comments

जानवर होने का नाटक , भूँक भूँक के -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के

**********************************

जंगल में

जानवरों में फँसा हुआ मैं

जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से

पहनी नज़र में

ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें

जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो

और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत

लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,

 

और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम

मुझे तलाश है इंसानों की

जो छुप गये लगते हैं , भय से ,

जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 9:00am — 17 Comments

किसने कहा प्रेम अंधा होता है -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

किसने कहा प्रेम अंधा होता है

****************************

किसने कहा प्रेम अंधा होता है

रहा होगा उसी का , जिसने कहा

मेरा तो नहीं है

देखता है सब कुछ

वो महसूस भी कर सकता है

जो दिखाई नहीं देता उसे भी

वो जानता है अपने प्रिय की अच्छाइयाँ और

बुराइयाँ भी

वो ये भी जानता है कि ,

उसका प्रेम,  पूर्ण है ,

बह रहा है वो तेज़ पहाड़ी नदी के जैसे , अबाध

साथ मे बह रहे हैं ,

डूब उतर रहे हैं साथ साथ

व्यर्थ की…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 12:20pm — 8 Comments

किसने कहा प्रेम अंधा होता है -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

किसने कहा प्रेम अंधा होता है

****************************

किसने कहा प्रेम अंधा होता है

रहा होगा उसी का , जिसने कहा

मेरा तो नहीं है

देखता है सब कुछ

वो महसूस भी कर सकता है

जो दिखाई नहीं देता उसे भी

वो जानता है अपने प्रिय की अच्छाइयाँ और

बुराइयाँ भी

वो ये भी जानता है कि ,

उसका प्रेम,  पूर्ण है ,

बह रहा है वो तेज़ पहाड़ी नदी के जैसे , अबाध

साथ मे बह रहे हैं ,

डूब उतर रहे हैं साथ साथ

व्यर्थ की…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 12:20pm — 19 Comments

ग़ज़ल -- खिड़कियों से झाँकता क्या है ( गिरिराज भंडारी )

1222     1222      1222      1222 

अगर दिल साफ है, आ सामने, कह मुद्दआ क्या है

खुला दर है तो फिर तू खिड़कियों से झाँकता क्या है

 

यहाँ तू थाम के बैठा है क्यूँ अजदाद के क़िस्से

बढ़ आगे छीन ले हक़ , गिड़गिड़ा के मांगता क्या है



अगर भीगे बदन के शेर पे इर्शाद कहते हो

तो फिर बारिश में मै भी भीग जाऊँ तो बुरा क्या है

 

जो पुरसिश को छिपाये हाथ आयें हैं उन्हें कह दो

मुझे निश्तर न समझाये , कहे ना उस्तरा क्या है

 

दुआयें जब…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 10:00am — 22 Comments

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