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Samar kabeer's Blog (105)

ग़ज़ल

इक ग़रीब औरत की बेबसी का क़िस्सा है

सादगी समझते हो, सादगी का क़िस्सा है



मैं सुना रहा हूँ और आप मुस्कुराते हैं

थोड़ा सोचकर देखें आप ही का क़िस्सा है



एक था सख़ी हातिम ये वही रिवायत है

मेरे मोहतरम महमाँ ये उसी का क़िस्सा है



एटमी धमाकों का इन पे क्या असर होगा

अब भी इनके मकतब में जलपरी का क़िस्सा है



बुलबुलों के होटों पर गुलशनों की बातें हैं

आदमी के होटों पर आदमी का क़िस्सा है



रोज़ ही वो सुनते थे, पूछ ही लिया इक दिन

किस हसीं… Continue

Added by Samar kabeer on February 10, 2015 at 10:42pm — 11 Comments

ग़ज़ल

समझ कर भी ये कुछ समझा नहीं है

ख़ुदा से आदमी डरता नहीं है



हमें हक़ के लिये लड़ना पड़ेगा

ये मौक़ा हाथ मलने का नहीं है



शराफ़त की दुहाई देने वालों

मुक़ाबिल इतना शाइस्ता नहीं है



ये आवाज़ों का जंगल है यहाँ पर

कोई फ़न्कार की सुनता नहीं है



नज़र के सामने रहता है लेकिन

कभी हमने उसे देखा नहीं है



ये दुनिया है संभल कर पाँव रखना

तुम्हारे घर का बाग़ीचा नहीं है



मैं अपनी क़ब्र में लेटा हुवा हूँ

मुझे अब कोई अन्देशा नहीं… Continue

Added by Samar kabeer on February 7, 2015 at 3:30pm — 23 Comments

ग़ज़ल

सारी दुनिया को तमाज़त से बचा लेते हैं
हम वह बादल हैं जो सूरज को छुपा लेते हैं

मेरे ख़ुश होने से कब उन को खुशी होती है
मेरे एहबाब मिरे ग़म का मज़ा लेते हैं

शैर कहने का हुनर सबको कहाँ मिलता हैं
यूँ तो क़व्वाल भी अशआर बना लेते हैं

कितना मासूम है देखो ज़रा फूलों का मिज़ाज
तिशनगी औस के क़तरों से बुझा लते हैं

मुद्दतों हम को सताता रहा तहज़ीब का ग़म
आज इतना है कि आँखों को झुका लेते हैं

------ समर कबीर

मौलिक / अप्रकशित

Added by Samar kabeer on February 2, 2015 at 4:04pm — 17 Comments

ग़ज़ल

फंस गया चुंगल में जब शैतान के
हौसले बढने लगे इंसान के

तुमसे ये लग़ज़िश न हो जाए कहीं
हम बहुत पछताए दिल की मान के

उन से कह दो छोड़ दें भारत मिरा
लोग जो हामी हैं पाकिस्तान के

आप क्यूं ज़हमत उठाते हैं जनाब
ख़ुद ही दुश्मन हैं हम अपनी जान के

फ़िक्र उक़्बा की न दुनिया का ख़याल
सो गए ग़फ़लत की चादर तान के

बरकतें होने लगीं नाज़िल "समर"
पाँव घर में क्या पड़े महमान के

समर कबीर /मौलिक रचना अप्रकाशित

Added by Samar kabeer on January 25, 2015 at 6:12pm — 19 Comments

ग़ज़ल

कर नहीं सकता मैं करतब क्या करूं

हो गई ताज़ा ग़ज़ल अब क्या करूं

कोई न पूछे तो लब ख़ामोश हैं

ओर जो कोई पूछ ले तब क्या करूं

तेरी ना एहली पे जब उठठे सवाल

मेरे कहने का है मतलब क्या करूं

फिर जिहालत का अंधेरा छा गया

तू ही बतलादे मिरे रब क्या करूं

अपनी मरज़ी से तो जी सकता नहीं

मुझको लिखकर दीजिये कब क्या करूं

आख़िरत में सुर्ख़रू करना मुझे

लेके इस दुनिया का मनसब क्या…

Continue

Added by Samar kabeer on January 21, 2015 at 2:00pm — 21 Comments

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