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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog – September 2013 Archive (6)

ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये

आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

 

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 30, 2013 at 8:39pm — 24 Comments

ग़ज़ल : दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

दुनिया लगे है तब से टूटा हुआ खिलौना

 

खेले न कोई इससे, फेंके न कोई इसको

यूँ ही पड़ा है कब से टूटा हुआ खिलौना

 

बेटा बड़ा हुआ तो यूँ चूमता हूँ उसको

अक्सर लगाऊँ लब से टूटा हुआ खिलौना

 

बच्चा गरीब का है रक्खेगा ये सँजोकर

देना जरा अदब से टूटा हुआ खिलौना

 

‘सज्जन’ कहे यकीनन होंगे अनाथ बच्चे

जो माँगते हैं रब से टूटा हुआ…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 18, 2013 at 10:30pm — 27 Comments

ग़ज़ल : बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

 

सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये

बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये

 

करवा के कत्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास

रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये

 

कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में

पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये

 

चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर

उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये

 

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें

रधिया करे निकाह तो दंगा…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:57pm — 33 Comments

ग़ज़ल : मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

 

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

 

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी

तीखी ढलान पे न फिसलती हैं चींटियाँ

 

रक्खी खुले में यदि कहीं थोड़ी मिठास हो

तब तो न उस मकान से टलती हैं चींटियाँ

 

पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला

अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ

 

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई

अक्सर मेरे बदन पे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2013 at 8:47pm — 29 Comments

कविता : अमीर गरीब

जब हमने नहीं खोजा था सोना

तब कहीं नहीं था कोई अमीर या गरीब

 

सोने की खोज के साथ ही पैदा हुये गरीब

 

जब हमने नहीं किया था ईश्वर का आविष्कार

तब कहीं नहीं था कोई स्वर्ग या नर्क

 

ईश्वर की खोज के साथ ही पैदा हुआ नर्क

गरीबों में पैदा हुआ नर्क का डर और स्वर्ग का स्वप्न

 

जब हमने नहीं किया था धर्म का आविष्कार

तब कहीं नहीं था कोई पापी या पूण्यात्मा

 

धर्म की खोज के साथ ही पैदा हुये पापी

गरीबों…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 7:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल : सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

-----------

धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं

सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

 

कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर

जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं

 

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

 

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला

खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं

 

हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी

तैरते हैं तो वहाँ आग…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 1, 2013 at 10:16pm — 12 Comments

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