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सालिक गणवीर's Blog – August 2020 Archive (6)

ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गए..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

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ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गये

जब पेड़ चल के ख़ुद ही बगीचेे मेंं आ गए

कल तक मिरे अज़ीज़ अंँधेरों में क़ैद थे

आंँखें रगड़ - रगड़ के उजाले में आ गये

नीलाम हो रही है ख़ुशी सुन रहे थे कल

हम भी थे बेवक़ूफ़ जो झांँसे में आ गये

मारा गया गली में उसे सब के सामने

दर पर खड़े थे लोग दरीचे में आ गये

कह कर गए थे है ये मुलाक़ात आख़िरी

जैसे ही आँख झपकी वो सपने में आ…

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Added by सालिक गणवीर on August 31, 2020 at 10:00pm — 14 Comments

नहीं आया फिर वो बुला कर मुझे..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

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नहीं आया फिर वो बुला कर मुझे

मज़ा ले रहा है सता कर मुझे

अगर मेरे अंदर समाया है तू

कभी आइने में दिखा कर मुझे

हमेशा मिला है तू रोते हुए

मिला कर कभी मुस्कुरा कर मुझे

सदा बस मुझे हुक्म देता है क्यूँ

सलाह मशवरा भी दिया कर मुझे

है डर कुर्सियों के नगर में यही

न वो बैठ जाए उठा कर मुझे

धड़कता हूँ मैं शोर करता नहीं

मैं दिल हूँ तेरा ही सुना कर…

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Added by सालिक गणवीर on August 30, 2020 at 5:30pm — 9 Comments

हर सम्त अँधेरा है इसे दूर भगाओ...(ग़ज़ल-सालिक गणवीर)

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हर सम्त अंँधेरा है इसे दूर भगाओ

है कोई मुनव्वर तो मिरे सामने आओ

क़ातिल हो तो क़ातिल की तरह पेश भी आओ

घायल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ

कोई न उठाएगा यहाँ बोझ तुम्हारा

शानों को ज़रा और भी मजबूत बनाओ

कश्ती को सँभालो न रहो चूर नशे में

गर डूबना है डूबो हमें तो न डुबाओ

काँटों की तो तासीर है वो चुभते रहेंगे

तुम फूल हो ख़ुशबू की तरह फैलते जाओ

ऐसे भी वो करता है सर-ए-आम…

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Added by सालिक गणवीर on August 21, 2020 at 12:00pm — 14 Comments

जिसको हम ग़ैर समझते थे...(ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

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जिसको हम ग़ैर समझते थे हमारा निकला

उससे रिश्ता तो कई साल पुराना निकला (1)

हम भी हरचंद गुनहगार नहीं थे लेकिन

बे-क़ुसूरों में फ़क़त नाम तुम्हारा निकला (2)

हम जिसे क़ैद समझते थे बदन में अपने

वक़्त आया तो वो आज़ाद परिंदा निकला (3)

जान पर खेल के जाँ मेरी बचाई उसने

मैं जिसे समझा था क़ातिल वो मसीहा निकला (4)

दोस्तो जान छिड़कता था जो कल तक मुझ पर

आज वो शख़्स मेरे ख़ून का प्यासा निकला…

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Added by सालिक गणवीर on August 13, 2020 at 4:00pm — 10 Comments

रस्ते की बात है न ये रहबर की बात है...(ग़ज़ल-सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

रस्ते की बात है न ये रहबर की बात है

पा लेना मंज़िलों को मुक़द्दर की बात है

ये बोरिया की है मिरे बिस्तर की बात है

फूलों की सेज मिलना मुक़द्दर की बात है

उस वाक़िआ का ज़िक्र मुनासिब नहीं यहाँ

चल घर पे चलके बात करें घर की बात है

कब कौन किसके शाने पे चढ़ जाए क्या पता

ऊपर पहुँचना भी तो सुअवसर की बात है

सब की क़लम से एक ही क़िस्सा निकलता था

आज़ादी छिन गई थी पिछत्तर की बात…

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Added by सालिक गणवीर on August 10, 2020 at 11:30pm — 12 Comments

लोग घर के हों या कि बाहर के...(ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

(2122 1212 22/122)

लोग घर के हों या कि बाहर के

प्यार करिएगा उनसे जी भर के

जाने क्या कह दिया है क़तरे ने

हौसले पस्त हैं समंदर के

जिस्म पर जब कोई निशाँ ही नहीं

कौन देखेगा ज़ख़्म अंदर के

दोस्ती उन से कर ली दरिया ने

जो थे दुश्मन कभी समंदर के

एक शीशे से ख़ौफ़ खाते हैं

लोग जो लग रहे थे पत्थर के

एक बस माँ को बाँट पाए नहीं

घर के टुकड़े हुए बराबर के

गरचे हर घर की है कहानी…

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Added by सालिक गणवीर on August 2, 2020 at 3:30pm — 15 Comments

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