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कल्पना रामानी's Blog – February 2014 Archive (5)

कह मुकरियाँ (17 से 25)

17)

जी करता है उड़कर जाऊँ।

कुछ पल उसके संग बिताऊँ।

दूर बहुत ही है  उसका घर,

क्या सखि, साजन?

ना सखि, अम्बर!

18)

रातों को जब नींद न आए।

खिड़की खोल, सखी वो आए।

बाग बाग हो जाता मनवा,

क्या सखि प्रियतम?

ना री, पुरवा!

19)

उसको प्यार बहुत करती हूँ।

मगर पास जाते डरती हूँ।

दूर खड़ी देखूँ जी भरकर,

क्या सखि, प्रियतम?

ना सखि सागर!

20)

जब भी मेरा मन भर आए।

आँसू पोंछे…

Continue

Added by कल्पना रामानी on February 22, 2014 at 7:00pm — 19 Comments

कह मुकरियाँ-11से 16 (कल्पना रामानी)

(11)

थक जाऊँ तो पास बुलाए।

नर्म छुअन से तन सहलाए।

मिले सुखद, अहसास सलोना।

क्या सखि साजन?

नहीं, बिछौना!

12)…

Continue

Added by कल्पना रामानी on February 19, 2014 at 10:30am — 16 Comments

फिर बसंत आया (गीत) - कल्पना रामानी

रंग-रँगीले रथ पर चढ़कर।

रस-सुगंध की झोली भरकर। 

फिर बसंत आया।

 

आज नई फिर धूप खिली है।

दिशा दिशा उजली उजली है।

कुहरे वाली बीती रातें।

नया सूर्य है, सुबह नई है।

 

नई इबारत फिर गढ़ने को   

परिवर्तन लाया।

 

गाँव गाँव में झूल पड़ गए।

अमराई के भाग्य खुल गए।  

अँबुआ पर नव अंकुर फूटे।

कुहू कुहू के बोल घुल गए।

 

मृदुल तान मृदु साज़ छेड़कर

कुंज-कुंज गाया। 

 

देख-देख…

Continue

Added by कल्पना रामानी on February 17, 2014 at 10:30am — 17 Comments

कह मुकरियाँ (कल्पना रामानी)

इस विधा में मेरा प्रथम प्रयास(1से 10)

1)

रखती उसको अंग लगाकर।

चलती उसके संग लजाकर।

लगे सहज उसका अपनापन।

क्या सखि, साजन?

ना सखि, दामन!

 2)

दिन में तो वो खूब तपाए।

रात कभी भी पास न आए।

फिर भी खुश होती हूँ मिलकर।

क्या सखि साजन?

ना सखि, दिनकर!

 3)

वो अपनी मनमानी करता।

कुछ माँगूँ तो कान न धरता।

कठपुतली सा नाच नचाता।

क्या सखि साजन?

नहीं, विधाता!

 4)…

Continue

Added by कल्पना रामानी on February 11, 2014 at 10:30am — 38 Comments

नीड़ का निर्माण फिर फिर टल रहा है (गजल) - कल्पना रामानी

212221222122

बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।

घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।

 

डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,

नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।

 

हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,

शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।

 

सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,

दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।

 

क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,

जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।

 

मन को जिसने आज तक शीतल रखा…

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Added by कल्पना रामानी on February 4, 2014 at 10:00am — 19 Comments

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