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Dr.Prachi Singh's Blog – February 2016 Archive (12)

उड़ रही हो तो ज़रा पंख क़तर जाती हूँ (एक ग़ज़ल)....//डॉ. प्राची

2122.1122.1122.22



मेरी हस्ती ही मिटा दे! यूँ अखर जाती हूँ।

उसकी नफरत का ज़हर देख सिहर जाती हूँ।



कश्ती कागज़ की हूँ पतवार कहाँ हासिल है,

बह चले धार जिधर संग उधर जाती हूँ।



आ! बिछा दे, मेरी राहों में ज़रा अंगारे

जितना जलती हूँ मैं उतना ही निखर जाती हूँ।



ज़िन्दगी देख मुझे खुश, यूँ पलट कर बोली-

"उड़ रही हो तो ज़रा पंख क़तर जाती हूँ !"



बुतशुदा काँच हूँ पत्थर के शहर में साकी,

जोड़ लो कितना भी, हर बार बिखर जाती हूँ।



आस… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 28, 2016 at 12:30pm — 7 Comments

तुम्हे जीतने की अदा चाहती हूँ (ग़ज़ल)...... //डॉ. प्राची

122 122 122 122



कहो तो बता दूँ कि क्या चाहती हूँ।

तुम्हारे लिए हर दुआ चाहती हूँ।



दबी सी रही ज़िन्दगी नीँव जैसी

कि अब आसमां में उठा चाहती हूँ।



निभाओ मेरा साथ या छोड़ जाओ

कहाँ तुमको खुद से बँधा चाहती हूँ।



ज़ुबाँ से मुकरना कोई तुमसे सीखे

मैं सब कागजों पर लिखा चाहती हूँ।



न दिल पर तुम्हारे कोई बोझ आए

कहाँ एक भी वायदा चाहती हूँ।



गँवाया बहुत कुछ तेरी राह चल कर

दुबारा सभी कुछ मिला चाहती हूँ।



सज़ा बिन… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 23, 2016 at 4:30pm — 18 Comments

सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए (एक ग़ज़ल)......//डॉ.प्राची

2122 1122 1122 22



सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,

उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।



है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा

सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।



आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ

अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।



जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन

मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 21, 2016 at 2:30pm — 40 Comments

ग़ज़ल प्रयास 6......डॉ. प्राची

2122 1212 22/112

फाइलातुन मुफ़ाइलुन फैलुन



वो जुनूँ है वो दिल की राहत है

हर घड़ी वो मेरी ज़रूरत है



इश्क ही कलमा इश्क ही रोज़ा

इश्क ही अब मेरी इबादत है



ज़र्रे-ज़र्रे में है महक उसकी

उसने हरसू बिखेरी जन्नत है



अब्र बन कर कभी तो बरसे वो

तर-बतर कर दे बस ये चाहत है



उसको पढ़ती हूँ बंद आँखों से

मन के मंदिर में उसकी मूरत है



वो ही दिखता मुझे जहाँ देखूँ

ये करिश्मा है या मुहब्बत है



वो शहंशाह है फकीरी… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 17, 2016 at 12:27pm — 4 Comments

सूफी शैली में एक गीत ............//डॉ० प्राची सिंह

माही मुझे चुरा ले मुझसे, मेरी प्याली खाली कर दे।

रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।



मैं बदरी तू फैला अम्बर

मैं नदिया तू मेरा सागर,

बूँद-बूँद कर प्यास बुझा दे

रीती अब तक मन की गागर,

लहर-लहर तुझमें मिल जाऊँ, अपनी लय भीतर-बाहर दे।

रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।



शब्द तू ही मैं केवल आखर

तू तरंग, मैं हूँ केवल स्वर,

रोम-रोम कर झंकृत ऐसे

तेरी ध्वनि से गूँजे अंतर,

माही दिल में मुझे बसा कर, कण-कण आज तरंगित…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 16, 2016 at 1:37pm — 3 Comments

ग़ज़ल प्रयास 5.....डॉ. प्राची

212 212 212 212



मेरा आँगन गुँजाती है नन्ही परी ।

पंछी बन चहचहाती है नन्ही परी ।



उसकी मुस्कान से फूल सारे खिले

हँस के गुलशन सजाती है नन्ही परी ।



पंखुड़ी सी नज़ाकत को ओढ़े हुए

मेरा मन गुदगुदाती है नन्ही परी ।



सुबह की गुनगुनी धूप जैसी निखर

पूरा घर जगमगाती है नन्ही परी ।



अपनी आँखों में झिलमिल सितारे लिए

स्वप्न अनगिन जगाती है नन्ही परी ।



बाँसुरी की मधुर तान सी लोरियाँ

मेरे होठों पे लाती है नन्ही परी… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:22pm — 17 Comments

ग़ज़ल प्रयास 4.....डॉ. प्राची

1222 1222 122

मुफाईलुन मुफाईलुन फऊलुन



कहा जो सच तुम्हें दिल में चुभा क्या ?

बनी ये दोस्ती अब आइना क्या ?



कहो इस दिल में कोई आ बसा क्या ?

उसे तुम कर रहे हो अनसुना क्या ?



बुरा सपना समझ भूले जिसे थे

अचानक मोड़ पर वो फिर मिला क्या ?



सहन करती है बेटी त्रासदी जो

कभी उसका थमेगा सिलसिला क्या ?



परों को काट बेड़ी डाल दी क्यों

मेरी चाहत का है ये ही सिला क्या ?



बहुत गुमसुम हो, क्यों हो तुम रुआँसे ?

तुम्हें भी… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:19pm — 3 Comments

ग़ज़ल प्रयास 3 ....// डॉ. प्राची



212 212 212 212

संग सुख-दुख सहेंगे ये वादा रहा।

साथ हर वक्त देंगे ये वादा रहा।

चाँदनी रात में ओढ़ कर चाँदनी

तुम जो चाहो, जगेंगे ये वादा रहा।

हाथ सर पर दुआओं का बस चाहिए

हम भी ऊँचा उढ़ेंगे ये वादा रहा।

राह काँटो भरी ये पता है हमें

हौसलों पर बढ़ेंगे ये वादा रहा।

दीप बाती से हम, जब भी मिल कर जले

हर अँधेरा हरेंगे ये वादा रहा।

देह के पार जो चेतना द्वार है

हम वहाँ पर मिलेंगे…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 14, 2016 at 11:30am — 5 Comments

ग़ज़ल प्रयास 2....//डॉ. प्राची

2122 2122 2122 212



हाय दिल में बस गयी एक गीत गाती सी नज़र ।

कुछ बताती सी नज़र और कुछ छुपाती सी नज़र ।



उसकी आहट से सिहर उठते हैं मेरे जिस्मो-जाँ

बाँचती है मुझको उसकी सनसनाती सी नज़र ।



ज़िन्दगी के फलसफे को पंक्ति दर पंक्ति पढ़ा

क्या गहनता नाप पाती सरसराती सी नज़र ?



आज फिर खामोश सहमा सा कहीं आँगन कोई

सूँघ ली क्या बच्चियों ने बजबजाती सी नज़र ?



कतरा कतरा हो रही है रूह जैसे अजनबी

मुझको मुझसे छीनती है हक़ जताती सी नज़र।…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 10, 2016 at 4:00pm — 9 Comments

सिर्फ तुम्हारी ......अतुकांत // डॉ. प्राची

मेरा,

तुम्हारी होने का बोध-

घुला है संदल सा

मेरी चेतना में,

कि विस्तारित होती ही जाती है

प्रेम सुगंधि

चहुँदिश.....

ये बोध-

स्पंदन स्पंदन सा

अंकित है

संवेदी कोषों की स्मृतियों में,

कि आईना भी अब मुझमें

सिर्फ तुम्ही को तो पाता है.....

गूँजती हैं

सिर्फ तुम्हारी स्वर लहरियाँ

अस्तित्व की अतल गहराइयों में,

जब ख़ामोशी की चादर ओढ़

डूबने लगती हूँ मैं अक्सर अकेली.....

प्रेमअगन में तप-तप,

यों गेरुआ हुई जाती है… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 8, 2016 at 12:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल प्रयास 1....//डॉ. प्राची

2122 2122 2122 2122



बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर

मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर



साँस हर मदहोश करती हाथ में खुशबू बची बस

फूल सब मुरझा चुके हैं राह में काँटे बिछा कर



क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का

जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर



सींच कर अपने लहू से ख्वाब की मिट्टी पे मिलजुल

जो लिखी थी दास्तां वो क्यों गया उसको मिटा कर



मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे

जब कहा…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 6, 2016 at 8:00pm — 13 Comments

यशोधरा.......अतुकांत // डॉ० प्राची

सुधि-बुधि बिसराई

व्याकुल पनीली आँखें,

अधखुले केश, बेसुध आँचल

अस्त-व्यस्त आभूषण...

कराहती सिसकती चीत्कारती

पल-पल जमती जाती करुण वाणी से

कहाँ-कहाँ नहीं पुकारा-

पर,

लौट-लौट आती थी

हर पुकार की कर्णपटों को बेधती

हृदय विदारक प्रतिध्वनि...

लिख चुकी थी नियति

यशोधरा के भाग्य में

अंतहीन  निष्ठुर विरह...

कितनी प्रबल रही होगी

सत्यान्वेषण को आतुर

अंतरात्मा की वो पुकार,

कि नहीं थम…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 2, 2016 at 11:30pm — 4 Comments

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