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हुस्न

हम को भी तुमसे प्यार था और बेहिसाब था

था वक़्त आशिकी का दौरे शबाब था



आँखों में शराब जब वक्ते शबाब था

जुल्फे भी उनकी नागिन ऐसा जनाब था



जो तुम खफा हुए तो ज़माना खफा हुआ

हम पर खुदा कसम की कोई अज़ाब था



उसने जब अपने हाथ में मेहदी रचा लिया

सब कुछ मिटा के रख दिया जितना खवाब था



मुझसे बिछड़ के रुख की कशिश को भी खो दिया

चेहरा था पुर कशिश कोई ताज़ा गुलाब था



अलीम के होश उड़ गए देखा जो एक झलक

कयामत वो ढा रहा था और बेहिजाब… Continue

Added by aleem azmi on May 25, 2010 at 9:35pm — 7 Comments

मुझे गर्व हैं की मैं पिता हु ,

हा मैं पिता हु ,
और मुझे गर्व हैं ,
की मैं पिता हु ,
माँ को दुःख था ,
की मैं पिता नहीं हु ,
घर वाले परेशान रहते थे ,
की मैं पिता नहीं हु ,
आज मैं पिता हु ,
सब खुस हैं ,
माँ रहती तो ओ भी ,
खुश होती ,
मेरी पत्नी कहती हैं ,
की मैं पिता हु ,
कसम से मैं झूठ नहीं बोलता ,
मैं पिता हु ,
अपने दो बच्चो का पिता हु ,

Added by Rash Bihari Ravi on May 25, 2010 at 1:43pm — 6 Comments

आँखें नम थी मगर मुस्कुराते रहे (ग़ज़ल )

दौरे गम में भी सबको हंसाते रहे .
आँखें नम थी मगर मुस्कुराते रहे .
किसमें हिम्मत जो हमपे सितम ढा सके .
वो तो अपने ही थे जो सताते रहे
जिन लबों को मुकम्मल हँसी हमने दी .
वो ही किस्तों में हमको रुलाते रहे .

उनको हमने सिखाया कदम रोपना .
जो हमें हर कदम पे गिराते रहे .

काश !मापतपुरी उनसे मिलते नहीं .
जो मिलाके नज़र फिर चुराते रहे .

गीतकार- सतीश मापतपुरी
मोबाइल -9334414611

Added by satish mapatpuri on May 24, 2010 at 4:00pm — 5 Comments

दो सीढियाँ चढ़ता और एक उतर जाता!

दो सीढियाँ चढ़ता और एक उतर जाता,

जबतक मै सोचता ये दिन गुज़र जाता,

ऐसे ही गुज़रते दिन,और फिर महीना गुज़र जाता,

महीने गुज़रते केवल तो कोई बात न थी

पर कमबख्त पूरा साल भी गुज़र जाता

बस दो सीढियाँ चढ़ता और एक उतर जाता

जबतक मै सोचता ये दिन गुज़र जाता



वक़्त का कहीं कोई रिश्तेदार भी न है

की दो पल कहीं बैठता और जरा बतियाता

इस्पे बस चलने का धुन सवार है

कोई कितनी भी दे सदा,

ये न रुकता बस चला जाता

इंसान बस गिनता रहता है घड़ियाँ… Continue

Added by Biresh kumar on May 22, 2010 at 11:07pm — 6 Comments

उफ़ तेरा हुस्न

देख कर लोग मेरे साथ में जल जाते है

हम कभी साथ में तनहा जो निकल जाते है



याद आये मेरी तस्वीर लगाना दिल से

देख तस्वीर तेरी हम भी बहल जाते है



तू में खाई है कसम साथ निभाना होगा

करके वादे को सभी लोग बदल जाते है



होके दीवाना मैं गलियों में फिरा करता हू

वह कभी सज संवर के जो निकल जाते है



है उन्हें नाज़ जवानी पे ये मगर ए अलीम

देखकर हमको सभी लोग अहल जाते है



aap kabhi bhi hume yaad kar sakte hai kyuki kuch dino ke liye aapse… Continue

Added by aleem azmi on May 22, 2010 at 9:33pm — 6 Comments

रुँधे गले से मेरा नाम ले गयी

वो सफ़र की घड़ी

वो मुहब्बत की छड़ी

वो श्वेत मुस्कान की लड़ी

जैसे मानो दुनिया ही खड़ी



ऐसी अदा दिखलाके वो

जाने कहाँ गुम हो गयी

मुझे तन्हा छोड़ के गयी

मुझे बेसहारा कर के गयी..



उसका नज़रें चुराना

शर्म से पलकें झुकाना

हर अदा को छुपाना

जैसे खुद ही को झुठलाना



इतना करके भी वो खुद को रोक ना सकी

जैसे रुँधे गले से मेरा नाम ले गयी

खुद को झुठलाके वो खुद ही गुम हो गयी



वो अंजानी नगर

वो अनचाहा सफ़र

वो… Continue

Added by ABHISHEK TIWARI on May 22, 2010 at 4:32pm — 5 Comments

LORI

लोरी---एक राजस्थानी लघुकथा

फुटपाथ पर जीवन बितानेवाली एक गरीब औरत,भूखे बालक को गोद में लिए बैठी थी.भूखे बालक की हालत बिगड़ती जा रही थी.

थोड़ी दूरी पर,बरसों से जनता को सुंदर,सुंदर,मीठे मीठे सपने दिखने वाले नेताजी भाषण बाँट रहे थे.

भाषण के बीच में बालक रो दिया.माँ ने कह,"चुप,सुन,नेताजी कितनी मीठी लोरी सुना रहें हैं." नेताजी कह रहे थे,"मैं देश से गरीबी-महंगाई मिटा दूंगा.देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा,घी दूध की नदियाँ बहेंगी

.कोई भूखा नहीं मरेगा...."

यह सुन कर खुश होती… Continue

Added by rajni chhabra on May 22, 2010 at 10:15am — 9 Comments

Ghazal-5

खुद से बाहर निकल नही सकता
बर्फ हूँ पर पिघल नही सकता

मेरे अंदर दबा है ज्वालामुखी
आग लेकिन उगल नही सकता

तेरी आँखे बदल भी सकती हैं
मेरा चेहरा बदल नही सकता

मुझ को मिट्टी मे तुम मिला भी दो
तेरे साँचे मे ढल नही सकता

मुक्त आकाश का मैं पंछी हूँ
किसी पिंजरे मे पल नही सकता

Added by fauzan on May 22, 2010 at 1:36am — 11 Comments

हर एक अदा

वो घटा आज फिर स बरसी है
मुद्दतों आँख जिस पे तरसी है

कल तलक जो मेरा मसीहा था
आज उसकी ज़बा ज़हर सी है

मर मिटा आपकी अदाओं पर
हर अदा आपकी कहर सी है

रूठ जाना ज़रा सी बातों पर
यह अदा भी तेरी हुनर सी है

खो न जाऊ तुम्हारी आँखों में
आँख "अलीम" तेरी नगर सी है

Added by aleem azmi on May 21, 2010 at 2:48pm — 6 Comments

चुपके चुपके

मैं रोता रहा रात भर चुपके चुपके
गई रात आई सहर चुपके चुपके

वह कुर्बत बढाने लगा आजकल है
मिलाता है मुझसे नज़र चुपके चुपके

तेरी चाहतें खीच लायी येह तक
मैं आया हू तेरे नगर चुपके चुपके

लगाया था तुमने मोहब्बत का पौधा
वह होने लगा है शजर चुपके चुपके

तेरी आशिकी का है चर्चा शहर में
यह फैली "अलीम" खबर चुपके चुपके

शजर - पेड़ , दरख़्त
कुर्बत - करीब आना

Added by aleem azmi on May 21, 2010 at 1:59pm — 4 Comments

आज की ग़ज़ल

इस पिघलती शाम को अपना बनाया जाए
उसका ज़िक्र छेड़ो, कुछ सुना-सुनाया जाए

आंखों में खलल देती है शमअ बेवफा
बुझा दो इसे, वफ़ा का सबक सिखाया जाए

अक्सर ख़याल-ऐ-यार ही देता है खुमारी
ज़रा जाम भी भरो यारों, इसे और बढाया जाए

गहराया है नशा, ज़रा तेज़ रक्स हो
गहरा गई है रात, ख़्वाब कोई सजाया जाए
दुष्यंत......

Added by दुष्यंत सेवक on May 21, 2010 at 11:42am — 5 Comments

Ghazal-4

ये अंधकार ये वातावरण जो भय का है.
यही समय तो नये सूर्य के उदय का है.

ये ज़िंदगी का बही जाने किस समय का है.
ना इसमे आय का व्योरा ना कोई व्यय का है.

परास्त हो के भी अब मन मेरा उदास नही.
किअबकी हार मे भी स्वाद कुछ विजय का है.

भटक रहा हूँ जो जीवन के इस मरुस्थल मे
है इसमे दोष किसी का तो बस समय का है.

Added by fauzan on May 20, 2010 at 10:40pm — 5 Comments

ग़ज़ल-2 (Aleem Azmi)

तन्हाई में जब जब तेरी यादों से मिला हू
महसूस हुआ है तुम्हे देख रहा हू

ऐसा भी नहीं है तुम्हे याद करू मैं
ऐसा भी नहीं है तुम्हे भूल गया हू

शायद ये तकब्बुर की सजा मुझको मिली है
उभरा था बड़े शान से अब डूब रहा हू

ए रात मेरी सम्त ज़रा सोच के बढ़ना
मलूँ नहीं तुम्हे क्या मैं अलीम जिया हू

तकब्बुर - घमंड
सम्त - मेरी तरफ , जानिब
जिया -रौशनी उजाला

Added by aleem azmi on May 20, 2010 at 10:05pm — 5 Comments

गुरु को फासी कब चढाओगे ,

ओ दिल्ली वालो ,

हमें इतना बताओ ,

हिन्दुस्ता पे जो खाज परे हैं ,

उसको कब मिटाओगे ,

अफजल गुरु को ,

फासी कब चढाओगे ,

हिन्दुस्ता पे बहुत ऐसे खाज हैं ,

उसको मिटाना जरुरी आज हैं ,

मेहमान बनाके कब तक ,

पैसा लुटाओगे ,

अफजल गुरु को ,

फासी कब चढाओगे ,

मेरी नहीं ये ,

देश की मांग हैं ,

आपको तो भोट दीखता ,

हमें हिंदुस्तान हैं ,

हिंद में ख़ुशी का ,

दिन कब लावोगे ,

अफजल गुरु को ,

फासी कब चढाओगे ,

हिन्दू ,… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on May 20, 2010 at 2:10pm — 5 Comments

माओबादी के झंडा तले फुकने मत दो हिंदुस्तान ,

माओबादी के झंडा तले फुकने मत दो हिंदुस्तान ,

जनता माफ़ नहीं करेगी बोलेगी शैतान ,

जनता के नाम पर हिंदुस्तान को जला रहे हो ,

बिदेसी पैसा ले ले कर मौज मस्ती मन रहे हो ,

कब तक डरेगी जनता जिसे तू डरा रहे हो ,

जिस दिन डरना बंद करेगी हो जाओगे परेशान ,

माओबादी के झंडा तले फुकने मत दो हिंदुस्तान ,

झारखण्ड , छत्तीसगढ़ बंगाल में हाहाकार मचाये ,

बिहार में भी तुमने करोरो का तेल जलाये ,

मारते हो आम आदमी को जिसदिन ओ जागेगा ,

नजर नहीं आओगे मिट जायेगा नमो निसान… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on May 20, 2010 at 1:41pm — 4 Comments

चाहत (ग़ज़ल )

गिला उनको हमसे हमीं से है राहत .
खुदा जाने कैसी है उनकी ये चाहत .
उनके लिए मैं खिलौना हूँ ऐसा .
जिसे टूटने की नहीं है इज़ाज़त .
इन्सां से नफ़रत हिफाज़त खुदा की .
ये कैसा है मज़हब ये कैसी इबादत .
बदन पे लबादे ख्यालात नंगे .
यही आजकल है बड़ों की शराफत .
सज-धज के मापतपुरी वो हैं निकले .
कहीं हो ना जाए जहाँ से अदावत .
गीतकार - सतीश मापतपुरी
मोबाइल -9334414611

Added by satish mapatpuri on May 20, 2010 at 1:00pm — 8 Comments

दियार-ऐ-इश्क़* से गुजर जाने से पहले,

दियार-ऐ-इश्क़* से गुजर जाने से पहले,

थे होशमंद, न थे दीवाने से पहले

*इश्क का शहर



सब्ज़ बाग़, सुर्ख गुल हम देख ही न पाये,

खिजां आ गई बहार आने से पहले



बज़्म* में उनकी मुहब्बत एक तमाशा है,

मालूम न था हमें, वहां जाने से पहले

*बज़्म- महफिल



मेरा नाखुदा* तो नाशुक्रा निकला,

रज़ा भी न पूछी, डुबाने से पहले

*नाखुदा- मल्लाह, नाविक



कैस, फरहाद, रांझा तो बीते दिनों की बात है,

राब्ता* रखिये जनाब, नए ज़माने से पहले

*राब्ता-… Continue

Added by दुष्यंत सेवक on May 20, 2010 at 1:05pm — 14 Comments

घिर आये स्याह बादल सरे शाम

घिर आये स्याह बादल सरे शाम
स्याह*-काले
और उदास ये जेहन क्यूँ हुआ
जेहन*-मन
पोशीदाँ अहसास क्यूँ उभर आये
पोशीदाँ*-छुपा हुआ
ये दिल तनहा दफ्फअतन क्यूँ हुआ
दफ्फअतन*-अचानक
यूँ तो अब तक चेहरे की ख़ुशी छुपाते थे
ग़म छुपाने का ये जतन क्यूँ हुआ
कोई चोट तो गहरी लगी होगी
ये संगतराश यूँ बुतशिकन क्यूँ हुआ
संगतराश*-मूर्तिकार, बुतशिकन*-मूर्तिभंजक
दुष्यंत......

Added by दुष्यंत सेवक on May 20, 2010 at 12:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल-1 (Aleem Azmi)

वह मेरा मेहमान भी जाता रहा
दिल का सब अरमान भी जाता रहा

अब सुनाउगा किसे मै हाले दिल
हाय वह नादान भी जाता रहा

हुस्न तेरा बर्क के मानिंद है
उफ़ मेरा ईमान भी जाता रहा

वह बना ले गए हमे अपना अज़ीज़
अब तो यह इमकान भी जाता रहा

दिन गए अलीम जवानी के मेरे
आँख पहले कान भी जाता रहा

Added by aleem azmi on May 19, 2010 at 9:43pm — 5 Comments

GHazal-3

तुमने अत्याचार का कैसे समर्थन कर दिया
मौन रह कर दुष्ट का उत्साहवर्धन कर दिया

धैर्य की सीमा का जब दुख ने उल्लंघन कर दिया
आँसुओं ने वेदना का खुल के वर्णन कर दिया

जिस विजय के वास्ते सब कुछ किया तुमने मगर
उस विजय ने ही तुम्हारा मान मर्दन कर दिया

चेतना की बिजलियों ने रोशनी तो दी मगर
एक मरुस्थल की तरह से मन को निर्जन कर दिया

मन तथा मस्तिष्क के इस द्वंद मे व्यवहार ने
कर दिया इसका कभी उसका समर्थन कर दिया.

Added by fauzan on May 19, 2010 at 12:14am — 9 Comments

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