For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

December 2017 Blog Posts (143)

गुस्सा(लघु कथा)


-बस जरा बर्त्तन पटक देती हूँ,वे समझ जाते हैं।
-कि तू गुस्से में है?
-और क्या?
-तू भी न।
-तू भी क्या री?रातभर जगाते हैं।बर्त्तन मेरे,सुबह मेरी।
-पर मेरा काम तो इस तरह पटकने-झटकने से नहीं चलता है न।
-क्यूँ?
-वो सुन नहीं सकते री।
-तो फिर?
-क्या करूँ,मुझे तो बेलन ही भाँजना पड़ता है।
-धत्त तेरी!
 "मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on December 27, 2017 at 10:04am — 12 Comments

ग़ज़ल - झूठ का इश्तहार खूब चला

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

झूठ का इश्तहार खूब चला।
इस तरह कारोबार खूब चला।

कोने कोने में मुल्क के साहब,
आप का ऐतबार खूब चला।

गाँव तो गाँव हैं नगर में भी,
रात भर अंधकार खूब चला।

जो हक़ीक़त से दूर था काफी,
वो भी तो बार बार खूब चला।

नोट में दाग थे बहुत लेकिन,
नोट वो दाग़दार खूब चला।

सबने देखा है किस अदा के साथ,
बेवफा तेरा प्यार खूब चला।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 26, 2017 at 10:14pm — 20 Comments

ग़ज़ल : अब दवाओं का नहीं मुझ पे असर होने को है

अरकान : 2122 2122 2122 212

एक तरफ़ा इश्क़ मेरा बेअसर होने को है

ख़त्म यानी ज़िन्दगी का ये सफ़र होने को है

कहने को तो सर पे सूरज आ गया है दोस्तो

ज़िन्दगी में पर हमारी कब सहर होने को है

हर किसी ने हाथ में पत्थर उठाये देखिये

और फिर उनका निशाना मेरा सर होने को है

आपको चाहा था मैंने बेतहाशा टूट कर

अब यही तकलीफ़ मुझको उम्र भर होने को है

करना है कुछ आपको तो बस दुआएँ कीजिए

अब दवाओं का कहाँ मुझ पे असर होने को…

Continue

Added by Mahendra Kumar on December 26, 2017 at 10:00pm — 18 Comments

बरवै छंद के जन्मदाता - एक जानकारी

 हिन्दी साहित्य में ‘बरवै’ एक विख्यात छंद है . इस छंद के प्रणेता सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना 'रहीम' माने जाते हैं . कहा जाता है कि रहीम का कोई दास अवकाश लेकर विवाह करने गया.  वह  जब वापस आया  तो  उसकी विरहाकुल नवोढा ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाये रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर उसे दीं-

नेह-छेह  का  बिरवा  चल्यो  लगाय  I      

सींचन की सुधि लीजो मुरझि न जायII  

रहीम के साहित्य-प्रेम से तो सभी परिचित थे . अतः उस दास ने  ये पंक्तियाँ रहीम…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 26, 2017 at 9:00pm — 6 Comments

नदी के ऊपर का पुल (लघुकथा)

नदी के ऊपर का पुल पुल पर से रात और दिन गाड़ियों की आवाजाही को देख उसके नीचे बहती हुई नदी ने पूछा ," तुमको परेशानी नहीं होती ! दिन भर बजन लदा रहता है तुमपर । " " अरी पागल ! ये भी कोई बात है भला , अब लोग मुझपर से गाडी नहीं ले जायेंगे तो तुझे पार कैसे करेंगे।" पुल की इस बात पर नदी हँस पड़ी। पुल ने पूछा ," इसमें हँसने की क्या बात है। तुम वर्षों से यहाँ से बहती आई हो, तुम्हारा पाट भी विशाल है और प्रवाह भी। पर सच कहूँ तो कभी कभी मुझे डर लगता है तुमसे।" " डर और मुझसे!वो क्यों भला?" " जब बाढ़ की स्थिति…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 26, 2017 at 8:23pm — 3 Comments

स्मार्ट (लघुकथा)राहिला

"हैलो.., गुड मॉर्निंग मैडम!"

"गुड मॉर्निंग, कौन बोल रहे हैं?"

"मैडम ! हम एस बी आई से बोल रहे हैं।

मैडम ! आपका एटीएम ब्लॉक होने वाला है, यदि आप चाहती हैं कि आपका एटीएम यथावत चालू रहे, तो आप अपने एटीएम का नम्बर वेरिफाई करवाएं।"

"ये आप क्या कह रहे हैं?"

"घबराइए नहीं मैडम ! यदि आप इस असुविधा से बचना चाहिती हैं तो अपना  एटीएम नम्बर बतलायें।"

"भाई साहब! नम्बर तो मैं बता दूं, लेकिन थोड़ी देर बाद कॉल कीजियेगा ।पहले जरा इनकी खबर ले लूं इनकी हिम्मत कैसे हुई मेरा…

Continue

Added by Rahila on December 26, 2017 at 3:30pm — 11 Comments

ख़ुद से ये शर्मशार सा क्यों है (ग़ज़ल)

अरकान-: 2122  1212  22

ख़ुद से ये शर्मसार सा क्यों है

आदमी बेक़रार सा क्यों है 

मेरे दिल ने सवाल ये पूछा,

नेता हर इक गंवार सा क्यों है

आने वाले नहीं हैं अच्छे दिन,

फिर हमें इन्तिज़ार सा क्यों है

मैंने कुछ भी नहीं छुपाया फिर

तुझमें ये इंतिशार सा क्यों है 

मैंने जब माँग ली मुआफ़ी,फिर

उनके दिल में ग़ुबार सा क्यों है 

उसकी फ़ितरत से ख़ूब वाक़िफ़ हैं,

'फिर हमें एतिबार सा…

Continue

Added by नाथ सोनांचली on December 26, 2017 at 1:47pm — 21 Comments

ग़ज़ल -- "इसके आगे बस ख़ुदा का नाम है" / दिनेश कुमार

2122--2122--212

भाग्य तेरे कर्म का परिणाम है

तुझ पे ही निर्भर तेरा अंजाम है

मेरे हमराही को भी ठोकर लगी

मेरे दिल को अब ज़रा आराम है

सिर्फ़ सच की राह पर चलता हूँ मैं

आबला-पाई मेरा इनआ'म है

उसकी मर्ज़ी है अता कुछ भी करे

बस दुआ करना हमारा काम है

शख़्सियत अपनी निखारो मुफ़्त में

मुस्कुराहट का न कोई दाम है

हम फ़क़ीरों की नज़र से देखिये

जिस्म इक मन्दिर है पावन धाम है

हम यथा सम्भव मदद सब की करें

आदमीयत का यही पैग़ाम…

Continue

Added by दिनेश कुमार on December 26, 2017 at 6:46am — 18 Comments

अभी दिल की गिरफ्तारी से बचिए

1222 1222 122

हरम में अब समझदारी से बचिए ।

हसीनों की नशातारी से बचिए ।।

अगर ख्वाहिश जरा सी है सुकूँ की ।

रकीबों की वफादारी से बचिए ।।

यहाँ दुश्मन से कब खतरा हुआ है ।

यहाँ अपनों की गद्दारी से बचिए ।।



नियत सबकी बड़ी खोटी दिखी है ।

नगर में आप मुख्तारी से बचिए ।।



रहेगी आपकी भी शान जिंदा ।

जरूरत है कि बेकारी से बचिए ।।



है करके कुछ दिखाने की तमन्ना ।

तो पहले…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on December 26, 2017 at 2:00am — 8 Comments

नामुमकिन (लघु कथा )

‘सर—---सर---‘, उसने हकलाते हुए कहा –‘सर, मेरे पास जवान, सुन्दर और हसीन लड़कियों की कोई कमी नहीं है. आप उनमे से किसी को चुन लें, पर भगवान् के लिए इस लडकी को छोड़ दें’- उसने बॉस से गिडगिडाते हुए कहा .

‘अच्छा !-----मगर इस लडकी में ऐसा क्या है जो तुम इस पर इतना मेहरबान हो ?’

‘दरअसल------दरअसल -----‘ उससे कहते न बना .

‘अरे बिदास कहो. हमसे क्या डरना ?’

‘सर, वह मेरी बेटी है‘ उसका हलक सूख गया . बॉस की आँखों में विस्मय भरी चमक आयी –‘ अरे ! तब तो यह नामुमकिन है कि हम इस जवान…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2017 at 8:58pm — 7 Comments

पीठ के नीचे ..

पीठ के नीचे ..

बेघरों के

घर भी हुआ करते हैं

वहां सोते हैं

जहां शज़र हुआ करते हैं

पीठ के नीचे

अक्सर

पत्थर हुआ करते हैं

ज़िंदगी के रेंगते सफ़र हुआ करते हैं

बेघरों के भी

घर हुआ करते हैं

भोर

मजदूरी का पैग़ाम लाती हैं

मिल जाती है मजदूरी

तो पेट आराम पाता है

वरना रोज की तरह

एक व्रत और हो जाता है

बहला फुसला के

पेट को मनाते हैं

तारों को गिनते हैं

ख़्वाबों में सो जाते हैं

मज़दूर हैं…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 25, 2017 at 7:00pm — 6 Comments

इक शाम दे दो ..

इक शाम दे दो ...

तन्हाई के आलम में

न जाने कौन

मेरे अफ़सुर्दा से लम्हों को

अपनी यादों की आंच से

रोशन कर जाता है

लम्हों के कारवाँ

तेरी यादों की तपिश से

लावा बन

आँखों से पिघलने लगते हैं

किसी के लम्स

मेरी रूह को

झिंझोड़ देते हैं

अँधेरे

जुगनुओं के लिए

रस्ते छोड़ देते हैं

तुम अरसे से

मेरे ज़ह्न में पोशीदा

इक ख़्वाब हो

मेरे सुलगते जज़्बात का

जवाब हो

अब सिवा तेरी आहटों के…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 25, 2017 at 6:30pm — 6 Comments

मत्त सवैया छंद

16,16 पर यति,चार पद, दो-दो पद समतुकांत

बढ़ती जाती है आबादी,रोजगार की मजबूरी है

पैसे की खातिर देख बढ़ी,किस-किस से किसकी दूरी है

उस बड़े शहर में जा बैठे, घर जहाँ बहुत ही छोटे हैं

विचार महीन उन लोगों के, जो दिखते तन के मोटे हैं

पहले गाँवों में बसते थे,घर आँगन मन था खुला-खुला

थोड़े में भी खुश रहते थे,हर इक विपदा को सभी भुला

कोई कठिनाई अड़ी नहीं,मिल उसका नाम मिटाते थे

जो रूखा-सूखा होता था,सब साथ बाँट कर खाते थे

तब धमा चौकड़ी होती…

Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 25, 2017 at 2:21pm — 12 Comments

क्षणिकाएँ

1.

शायद आज बच जाओ

साम दाम दण्ड भेद से

मगर एक कैमरा

नज़र रखे है

हर करतूत पर

बिना साम दाम दण्ड भेद के .....

 

2.

मत उलझाइये खेल

मत कीजिये घाल-मेल

सीधी है ... सीधी ही रहने दीजिये

जिंदगी की रेल

 

3.

उठ रहे हैं बच्चे

सूरज के जागने से पहले

ठिठुर रहे हैं बच्चे

पीठ में बोझ लिए

झेल रह हैं बच्चे

भविष्य का दण्ड…

Continue

Added by नादिर ख़ान on December 25, 2017 at 1:30pm — 10 Comments

डिग्री

कार्यकर्त्ता:मंत्रीजी से मिलना है।
पीए:नहीं मिल सकते।
कार्यकर्त्ता:क्यूँ?
पीए:माननीय अभी (......से ) बेगुनाही का प्रमाण पत्र खरीदने गये हैं।
का.:क्या?
पीए:अरे विरिधियों ने घोटाले में फँसा दिया है न।
का.:अच्छा्! तो डिग्री का मामला है।
"मौलिक      व  अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on December 25, 2017 at 12:47pm — 8 Comments

चलो ये मान लेते हैं... (ग़ज़ल)- बलराम धाकड़

1222, 1222, 1222, 1222

चलो ये मान लेते हैं कि दफ़्तर तक पहुँचती है।

मगर क्या वाकई ये डाक, अफ़सर तक पहुँचती है।

नज़र मेरी सितारों के बराबर तक पहुँचती है।

दिया हूँ, रोशनी मेरी हर इक घर तक पहुँचती है।

वहां कैसा नज़ारा है, चलो देखें, ज़रा सोचें,

नज़र सैयाद की चींटी के अब पर तक पहुँचती है।

शरीफ़ों की हवेली में ये आहें गूँजती तो हैं,

ज़रा धीरे भरो सिसकी, ये बाहर तक पहुँचती है।

किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी…

Continue

Added by Balram Dhakar on December 25, 2017 at 11:07am — 18 Comments

आउट ऑफ़ कवरेज़

आउट ऑफ़ कवरेज़

साथ-साथ बैठे हैं और दूर कहीं इंगेज हैं

4जी के दौर में घर आउट ऑफ़ कवरेज़ है |

लाइक है पॉक है ट्रेल है जोक् है ना कोई रोक है

बैठे-बैठे सारी दुनिया मुट्ठी में कर लेने का क्रेज़ है |

अंधी दौड़ है या भेड़ो का दौर है किसे किसका गौर है

अस्मिता की लड़ाई ना मालूम कौन रियल कौन फ़ेक है |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on December 24, 2017 at 10:15pm — 5 Comments

क्षणिकाएं - डॉ. विजय शंकर


  • 1.
    सच का कहीं दूर तक
    नहीं कोई पता है।
    हाँ ये सच है
    कि बहुत कुछ
    झूठ पर टिका है।
    2.
    रेत मुठ्ठी से जब
    फिसल जाती है ,
    जिंदगी कुछ कुछ
    समझ में आती है।
    3.
    रोज रोज के तजुर्बे
    यूँ बीच बीच में
    बांटा न करो ,
    ये जिंदगी गर
    एक सबक है तो
    उसे पूरा तो हो लेने दो

  • मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on December 24, 2017 at 7:52pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सनम तुझसे ही जाता है वो मेरा रास्ता होकर (ग़ज़ल 'राज )

1222   1222  1222  1222 

हक़ीक़त की जुबाँ होकर सदाक़त की सदा होकर 

मिला क्या  जिंदगी तुझको बता यूँ आइना होकर 



उड़ा कर ले गई आँधी सभी अरमाँ सभी सपने 

लुटे हम तो ज़माने  में मुहब्बत के ख़ुदा होकर 



मुहब्बत के चमन में गुल मुक़द्दस खिल नहीं पाये 

तगाफ़ुल और रुसवाई मिली बस बावफ़ा होकर 



तआरुफ अब मिला जाकर हमें अपनी मुहब्बत का 

बनेगी दास्तां सच्ची फ़क़त अब तो फ़ना होकर 



हुई सब आम वो बातें जिन्होंने लांघ दी चौखट 

तमाशा बन गये आँसू इन…

Continue

Added by rajesh kumari on December 24, 2017 at 5:58pm — 20 Comments

ग़ज़ल -मैं न कहता था, कि मैं निर्दोष था-कालीपद 'प्रसाद'

2122  2122  212

मैं न कहता था, कि मैं निर्दोष था

दोष मुझ पर किन्तु मैं निर्घोष था |

दोष मढने के लिए था चाहिए

देखना इसमें जो’ भी गुणदोष था |

दोष संस्थापन कभी होता था नहीं

पुष्टि वह कानून का उद्घोष था |

किन्तु उनका दोष भी ज्यादा नहीं

शत्रु का तो दृष्टि का वह दोष था |

जान कर भी दोस्त सब रहते तने

मित्र गण भी बोलते दुर्घोष था  |

अब तलक थे मानसिक सब कष्ट…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on December 24, 2017 at 2:30pm — 4 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"वाह बहुत खूबसूरत सृजन है सर जी हार्दिक बधाई"
yesterday
Samar kabeer commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, आमीन ! आपकी सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत शुक्रिय: अदा करता हूँ,सलामत रहें ।"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 166 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ पचपनवाँ आयोजन है.…See More
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
Sunday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Apr 13

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service