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December 2015 Blog Posts (158)

गरीब जमने लगा उनको अब तपायेगी क्या? ग़ज़ल द्वारा पंकज मिश्र

1212 1122 1212 112
कि जिनके पास नहीं छत उन्हें सतायेगी क्या?
ये सर्द रात भला उनको अब सुलायेगी क्या?

बहुत अगन है सुना है श्मशान घाटों पर।
गरीब जमने लगा उनको अब तपायेगी क्या?

मिला था शाम में जो चीथड़े लपेटे हुए।
उसी को शीत लहर साथ में ले जायेगी क्या?

बहुत ही ऊँचा है रुतबा अगर तुम्हारा तो फिर?
तुम्हारे नाम की बन्दूक उसे बचायेगी क्या?

हमेशा साध रहे स्वार्थ नाम लेके तेरा।
ज़रा तू पूछ दरिंदों को भी उठाएगी क्या?

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 9, 2015 at 4:00pm — 4 Comments

सांप मरा और लाठी साजी (लघुकथा )राहिला

विद्यालय में मध्यान्ह भोजन की दाल में असंख्य इल्ली, तिलूले ,देखकर मैं आपे से बाहर हो गई । तुरंत बच्चों की पंगत उठा कर मैं मध्यान्ह भोजन के ठेकेदार से जम कर उलझ पड़ी । लेकिन वो भी कम ना था, हर बात को "इत्तेफाक "कह के टालने लगा । मुझे दुःख इस बात से ज्यादा हो रहा था कि पता नही कितने दिनों से ये मासूम ऐसा खाना खा रहे है । इत्तेफाक तो मेरे साथ हुआ कि मैं आज प्रभार में थी और ये कृत मेरी जानकारी में आ गया । मैंने तुरंत लिखित कार्रवाई शुरू की । अपने खिलाफ कार्रवाई होते देख उसने गिरगिट की तरह रंग…

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Added by Rahila on December 9, 2015 at 12:00pm — 20 Comments

जीवन नमकीन पानी से बनता है (कविता)

भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं

तर्क पौष्टिक भोजन से

 

भूखे प्यासे इंसान के पास

न भावनाएँ होती हैं न तर्क

 

कहते हैं जल ही जीवन है

क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है

तर्क से किताबें बनती हैं

 

पत्थर भी पानी पीता है

लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है

किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं

 

प्लास्टिक पानी नहीं पीता

इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता

हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2015 at 10:07pm — 12 Comments

मर्यादा ....

मर्यादा ....

चक्षु को चक्षु से देखा

करते हमने द्वंद

उलझे करों को

देख इक दूजे में

हम तो रह गये दंग

आँख बचा कर

कब बाला ने

बदला कपोल का रंग

वर्तमान में बेहयाई का

हुआ ये आम प्रसंग

संस्कारों को त्याग जोड़े ने

अधर मिलाये संग

समझ न आये

क्यूँ इस युग में

कपडे हो गये तंग

मृग नयनी का

नशा देख के

फीकी पड़ गयी भंग

बैठ बाईक पर

दौड़ चले फिर

इक दूजे के संग

शर्मो-हया की चिंता किसे अब

सतरंगी है मन…

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Added by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 7:15pm — 2 Comments

पलट गई बाज़ी (लघुकथा)

इलेक्शन के ऐलान के बाद राजनीती का बाज़ार गर्म होने लगा,गाँव में हर पार्टी अपने अपने पर तोलने लगी ।

सभी तरफ  वोटर को लुभाने व उनका धर्म ज़ात व कीमत लगाने की तैयारी चल रही थी।

उस दिन मास्टर बजार में खड़ा कह रहा था “अब तो पहले जैसी राजनीती  नहीं रही” ।

“अब तो साये की तरह साथ रहने वाले पार्टी वर्करों पर भी कोई यकीन नहीं रहा”

पास खड़े आदमी ने कहा “ऐसा क्यूँ”, तुम देखते नहीं रेलियों में भीड़ जितनी  होती है, भीड़ को वोट में तब्दील करना एक टेढ़ी खीर बन गया है” । महिंद्र…

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Added by मोहन बेगोवाल on December 8, 2015 at 6:30pm — 5 Comments


प्रधान संपादक
भारत माता (लघुकथा)

कुछ ही दिन पहले हुई पिता की मृत्यु से वह अभी उबर भी न पाया था कि अचानक शोक संतप्त माँ को दिल का भयंकर दौरा पड़ गयाI डॉक्टरों ने साफ़-साफ़ बता दिया था कि उसकी माँ अब ज़्यादा देर की मेहमान नहींI



कुछ ही समय पहले उसके पिता की गोलियों से छलनी लाश एक सुनसान क्षेत्र में पाई गई थीI पुलिस का कहना था कि यह आतंकवादियों का काम है, जबकि स्थानीय कट्टरपंथी इसे सेना द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ कह कर लगातार विष वमन कर रहे थेI शवयात्रा के दौरान पूरे रास्ते में देश और सेना विरोधी नारे…

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Added by योगराज प्रभाकर on December 8, 2015 at 4:30pm — 12 Comments

अनचाहा पलायन ( लघुकथा )

' सब तैयारी हो गयी बेटा ? ' पिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा I पीछे पीछे माँ भी थी ,छोटी -छोटी पोटलियों से लदी-फदी I बहू ये सब ठीक से रख लो ! कोने में खड़ी बहू के हाथ में पोटलियों को थमाते हुए बोली I

' जी अम्मा I '

' सब अच्छे से सहेज लेना ,कुछ छूट न जाए I नयी जगह है परेशानी होगी I '

' जी बाबूजी ! ' इतना ही बोल पाया वह I हालाँकि कहना तो ये चाहता था I ' सब कुछ तो छूट ही रहा है ,आप माँ संगी साथी .......I पर आवाज़ जैसे हलक में ही कही गुम होती  लग रही थी I

कुछ पल…

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Added by meena pandey on December 8, 2015 at 3:30pm — 10 Comments

गुजारिश रिश्ते की

कैलेंडर  का पन्ना पलटते ही उसकी नजर तारीख़ पर थम गई। विवाह का दिन उसके आँखो के आगे चलचित्र सा घूम रहा था।.सुशिक्षित खुबसुरत नेहा और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक नीरज की जोडी को देख सब सिर्फ़ वाह-वाह करते रह गये थे.वक्त तेजी से गुज़र रहा था।.

जल्द ही नेहा की झोली मे प्यारे से दो जुडवा बच्चे बेटा नीरव और बेटी निशीता के रुप मे आ गये।.तभी --

वक्त ने अचानक करवट बदली बच्चों के पालन-पोषण मे व्यस्त नेहा खुद  पर व रिश्ते पर इतना ध्यान ना दे पाई । उसके  के हाथ से नीरज मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलता…

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on December 8, 2015 at 1:00pm — No Comments

लड़ाई आज सत्ता की -(ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222



भला सच यार कब  वैसे  चुनावी  आस को होना

चुराकर आम के सपने  सदा गुम खास को होना /1



हकीकत  लोकराजों  की  जो नौकर है तो नौकर है

भले कागज की बातों में है मालिक दास को होना /2



लड़ाई आज सत्ता की  बदलती रंग गिरगिट ज्यों

बहाना  फिर  फसादों  का  वही  इतिहास को होना /3



कहाँ  तक  हम  करें  बातें  बना  सौहार्द्र  जीने की

खपा इतिहास  में माथा  खतम विश्वास को होना /4



सुना कल शीत की बरखा बहाकर ले गई सबकुछ

मगर …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 10:51am — 2 Comments

हवा का झोंका (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (42)

"बगल में दूसरी झुग्गी का इन्तज़ाम कर दिया, फिर भी तुम हमरे बेटे को ही हमसे से दूर करके सुखी रह सकती हो किराये के मकान में, तो जाओ, हम दोनों तो यहीं अपनी झुग्गी झोपड़ी में ही बाक़ी ज़िन्दगी बिता देंगे ! " - सावित्री ने बड़े उदास मन से बहू से कहा।



"देखो, मांजी, हमारे बच्चे बड़े हो गए हैं, अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ेंगे, तो हमारा इस टिन- टप्पड़ वाली झुग्गी में रहना उन्हें और उनके दोस्तों को कैसा लगेगा ? मेरे मायके वाले भी यहाँ आना पसंद नहीं करते !"



"अगर तुम दोनों इतना कमा… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 8, 2015 at 9:52am — 6 Comments

वंचित जमाअ़त

अभी जो देखकर गुज़रा हूँ रास्ते से

वो एक प्रतिछाया भर थी... वंचित जमाअ़त की.



एक दलित की बेटी

जो नहा रही थी

सड़क के किनारे गडे़ चापानल पर.



मुश्किल से गिरते पानी

और नहाने की शीघ्रता.

एक कुढ़न झेलती...

क्योंकि वह थी अर्द्धनग्न

चुभ रही थीं उसे आते-जाते

किशोरवय,अर्द्धवय लोगों की दृष्टियाँ.



बांस दो बांस की दूरी पे

उन दलितों के घर.

घर क्या...

आँगन और कोठरियाँ कुछ कुछ एक से

कहीं कहीं से फूस की धँसती… Continue

Added by shree suneel on December 8, 2015 at 1:40am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की--(ग़ज़ल)--मिथिलेश वामनकर

2122—1122—1122—22

मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की

मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की



रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की

सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की



एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने

बात करता है जमाने से वही नेचर की



अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से

बात होंठों पे मगर सिर्फ़ वही बाबर की



आसमां का भी कहीं अंत भला होता है

ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की



ये सहर क्या है, सबा क्या है,…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2015 at 1:30am — 30 Comments

नस्री नज़्म :- "आख़री सिगरेट"

ज़िन्दगी को,
अपनी सानवी हैसियत
का अहसास,
शिद्दत से हो रहा है,
लाओ,
ये बची हुई ,
आख़री सिगरेट भी जला लूँ,
ताकि क़िस्सा ख़त्म हो ।

समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

Added by Samar kabeer on December 7, 2015 at 10:48pm — 8 Comments

अधूरे हर्फ़ :..........

अधूरे हर्फ़ :..........

हंसी आती है

अपने ख्यालों पर

मेरे तसव्वुर में

तुम जब भी आती हो

इक अधूरी ग़ज़ल की तरह आती हो

नज़र से नज़र मिलती ही

एक अजीब सी सिहरन होती है

तुम किताब के रूठे हर्फों की तरह

किसी कोने में सिमटी रहती हो

मैं अपने अधूरे हर्फों को

इक मुकम्मल शक्ल देने की कोशिश में

तमाम शब चरागों में झिलमिलाते

तुम्हारे अक्स के साथ

गुज़ार देता हूँ

सहर होने के साथ

हम अधूरे लफ़्ज़ों के तरह

मुकम्मल होने के लिए…

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Added by Sushil Sarna on December 7, 2015 at 8:04pm — 2 Comments

दो घड़ी करके तो सुहबत देखना (ग़ज़ल)

2122 2122 212



लाएगी इक दिन क़यामत,देखना..

जानलेवा है सियासत, देखना..



काम मुश्किल है बहुत संसार में,

दुसरे इंसाँ की बरकत देखना..



देख लेना खूँ-पसीना भी, अगर

आलिशाँ कोई इमारत देखना..



झाँक कर मेरी निगाहों में कभी,

आपसे कितनी है चाहत, देखना..



देखना हो गर खुदा का अक्स,तो

छोटे बच्चे की शरारत देखना..



'जय' न सिखला दे मुहब्बत,फिर कहो

दो घड़ी करके तो सुहबत देखना..

______________________________…

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Added by जयनित कुमार मेहता on December 7, 2015 at 2:30pm — 12 Comments

गुरूमंत्र (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (41)

"डॉक्टर साहब, मैं तो आपके भरोसे ही हूँ। अपनी तरह एक बार मेरा निःशुल्क चिकित्सा शिविर सफल करा दो, तो मेरी क्लीनिक भी चल पड़े ! " - डॉ. वर्मा ने वरिष्ठ प्राइवेट डॉक्टर से विनम्र निवेदन किया।



"परेशान मत हो, जैसा मैं कह रहा हूँ, करते जाओ, बस !"



"आपके कहे अनुसार उस गांव के दो लोकप्रिय आर.एम.पी. डॉक्टर सेट कर लिये हैं, उन्होंने क़रीब सवा सौ मरीज़ों के पंजीयन कर लिए हैं, मेडिकल जांच के लिये बन्दों की व्यवस्था भी हो गई है, लाइसेंसधारी तो बड़े नखरे दिखा रहे थे, सो बिना लाइसेंस वाले… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 7, 2015 at 1:18pm — 6 Comments

वक्त का साया रहे जब - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( ग़ज़ल )

4/

2122    2122    2122    212



खुद के  होने  का  जरा  भी  वो पता देता नहीं

अब किसी  को भी  गुनाहों की सजा देता नहीं /1



देवता  तो थे  बहुत  पर ढल गए बुत में सभी

क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2



मर  रही  इंसानियत  है  और  रिश्ते तार तार

क्यों कयामत  का भरोसा  अब खुदा देता नहीं /3



हर तरफ विष देखता हूँ  सुर असुर सब हैं लिए

क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4



वक्त का  साया  रहे जब  मत निठल्ले बैठना

वक्त…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2015 at 11:41am — 8 Comments

ग़ज़ल

ख़बर सबकी है ख़ुद से बेख़बर हैं

ख़ुदा जाने के हम कैसे बशर हैं।



असर कलयुग का कुछ ऐसा हुआ है

फकीरों की दुआएं बेअसर हैं।



परिंदे ढूंढते हैं आशियाना

के शहरों में बचे कुछ ही शजर हैं।



हैं आलीशान ज़ाहिर में सभी कुछ

मगर टूटे हुए अंदर से घर हैं।



मिटी इंसानियत आदम बचा है

हज़ारों हो गये ऐसे नगर हैं।



जो दें किरदार की खुशबू सभी को

बहुत कम रह गये ऐसे,मगर हैं।



अंधेरों ने किये दर बंद सारे

उजाले फिर रहे अब दर…

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Added by rajinder toki on December 7, 2015 at 11:30am — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत - कैच जिसके उछाला गया है , उसे लेने दो भाई ( गिरिराज भंडारी )

कैच जिसके उछाला गया है , उसे लेने दो भाई

*****************************************

बाल , नो बाल थी

इसलिये पूरे दम से मारा था शाट

मेरे बल्ले का शाट

थर्ड मैन सीमा रेखा के पार जाने के लिये था

अगर बाल लपक न ली जाती तो

 

अफसोस इस बात का नहीं है बाल लपक ली गई

दुख इस बात का है, कि

मेरे बहुत करीब खड़े , स्लिप और गली के फिल्डर दौड़ पड़े

ये जानते हुये भी , ये कैच उनका नही है

आपस मे टकराये , गिरे पड़े , घायल…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 7, 2015 at 7:30am — 8 Comments

खुद को सौंपा काज बहुत-पंकज मिश्र

खुद से हूँ नाराज़ बहुत।

दुःख में हूँ मैं आज बहुत।।

वर्ग भेद की नीति मुल्क में।

सच में आती लाज बहुत।।



झूठ कांठ का झण्डा ऊँचा।

पद पाता है गुण्डा ऊँचा।

संविधान में कई छेद हैं।

सच पर गिरती गाज़ बहुत।।



चोर सिपाही मिले हुए हैं।

इक धागे में सिले हुए हैं।

किसको हार समर्पित कर दूँ।

किस पर कर लूँ नाज़ बहुत।।



जात पात का देते नारा।

मज़हब का लेते हैं सहारा।

समता का अधिकार दिखावा।

राजनीति में राज… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 6, 2015 at 11:32pm — No Comments

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