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December 2012 Blog Posts (226)

क्रोध

क्रोध

 

अशांत करता है,परेशान करता है,

पटरी पर चल रही जिंदगी को,

पटरी से उतार देता है, क्रोध ।

 

बुद्धि नष्ट करता है,ज्ञानहीन बनाता है,

संयम को नष्ट करके,

गरिमा को खत्म करता है, क्रोध ।

 

बना काम बिगाड़ता है,संबंध खराब करता है,

वर्षों की मेहनत को क्षण में बरबाद करता है,

प्रेम में जहर भर देता है, क्रोध ।

 

हृदय जलाता है,रोग पैदा…

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Added by akhilesh mishra on December 19, 2012 at 5:30pm — 2 Comments

गीत: नया वर्ष है... संजीव 'सलिल'

गीत:

नया वर्ष है...

संजीव 'सलिल'

*

खड़ा मोड़ पर आकर फिर

एक नया वर्ष है...

*

कल से कल का सेतु आज है यह मत भूलो.

पाँव जमीं पर जमा, आसमां को भी छू लो..



मंगल पर जाने के पहले

भू का मंगल -

कर पायें कुछ तभी कहें

पग तले अर्श है.

खड़ा मोड़ पर आकर फिर

एक नया वर्ष है...

*

आँसू न बहा, दिल जलता है, चुप रह, जलने दे.

नयन उनीन्दें हैं तो क्या, सपने पलने दे..



संसद में नूराकुश्ती से

क्या पाओगे?

सार्थक तब जब आम…

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Added by sanjiv verma 'salil' on December 19, 2012 at 2:03pm — 7 Comments

(फाँसी से कम नहीं )

(फाँसी  से कम नहीं )





इन्हें फाँसी  पर लटका दो 

या गोलियों से मरवा दो 

बलात्कारियों की रूह काँप जाए 

इन्हें ऐसी कड़ी सजा दो 

इन दरिंदों को जिंदा न छोड़ो 

पहले इनके हाथ पाँव तोड़ो 

जिंदा सूली पर लटका दो 

लाश चील कव्वों को खिला दो 

इनके घिनोने जुर्म की 

और सज़ा  न कोई 

शर्मसार है भारत माँ 

माएँ फूट फूट कर रोई

हद कर दी हैवानियत की 

जली होली  इंसानियत की

कड़े कर दो कानून नियम 

जलाओ चिता शैतानियत…

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Added by Deepak Sharma Kuluvi on December 19, 2012 at 12:34pm — 4 Comments

सब बिकाऊ हे

सब बिकाऊ हे





बाज़ार में आज सब बिक रहा है 

होता हे कुछ और कुछ दिख रहा है

दाम हो तो बोली लगाओ चाँद की

आसमान भी शर्म से अब झुक रहा है

बाज़ार में आज--------------



ईमान बिक रहा हे जमीर बिक रहा है

मजहव के नाम पर दाँव फिक रहा है

सम्मान की तो सरेआम होती नीलामी

सदभाव बहा देती सम्प्रदायिकता की सुनामी

बाजारू दलाल फलफूल रहा है

बाज़ार में आज-----------



बदन बिक रहा हे सदन बिक रहा है

लोकतंत्र की नई परिभाषा लिख रहा…

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Added by Dr.Ajay Khare on December 19, 2012 at 12:00pm — 2 Comments

मुझको "तुम्हारी" ज़रूरत है!

मुझको "तुम्हारी" ज़रूरत है!





दूर रह कर भी तुम सोच में मेरी इतनी पास रही,

छलक-छलक आई याद तुम्हारी हर पल हर घड़ी।

पर अब अनुभवों के अस्पष्ट सत्यों की पहचान

विश्लेषण करने को बाधित करती अविरत मुझको,

"पास" हो कर भी तुम व्यथा से मेरी अनजान हो कैसे

या, ख़्यालों के खतरनाक ज्वालामुखी पथ पर

कब किस चक्कर, किस चौराहे, किस मोड़ पर

पथ-भ्रष्ट-सा, दिशाहीन हो कर बिखर गया मैं

और तुम भी कहाँ, क्यूँ और कैसे झर गई…

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Added by vijay nikore on December 19, 2012 at 12:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल - शहर की रोशनी में गाँव की ढिबरी बुलाती है !

यहाँ की भागा दौड़ी में वो बेफ़िक्री ही  भाती  है ,
शहर की रोशनी में गाँव की ढिबरी बुलाती है ।



बनावट वाली राधाओं को उनके कृष्ण कब मिलते ,
वो तो मीरा के होते हैं जो उनको मन में गाती है ।


सिमटना दायरों में और बातें चाँद से करना ,
ये करता हूँ जो माँ मुझको तुम्हारी  याद आती है ।


पिता की डांट से गुमसुम जो बैठी थी उदासी में ,
लिपटकर माँ के आँचल से वो बच्ची खिलखिलाती है…
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Added by Abhinav Arun on December 19, 2012 at 9:48am — 28 Comments

नवगीत: अब तो अपना भाल उठा... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

अब तो अपना भाल उठा...

संजीव 'सलिल'

*

बहुत झुकाया अब तक तूने 

अब तो अपना भाल उठा...

*

समय श्रमिक!

मत थकना-रुकना.

बाधा के सम्मुख

मत झुकना.

जब तक मंजिल

कदम न चूमे-

माँ की सौं

तब तक

मत चुकना.



अनदेखी करदे छालों की

गेंती और कुदाल उठा...

*

काल किसान!

आस की फसलें.

बोने खातिर

एड़ी घिस ले.

खरपतवार 

सियासत भू में-

जमी- उखाड़

न न मन-बल फिसले.

पूँछ दबा शासक-व्यालों की…

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Added by sanjiv verma 'salil' on December 19, 2012 at 9:36am — 9 Comments

कविता - तख्तियां !

टूटा दूर दिल्ली के क्षितिज पर 
एक खूबसूरत तारा 
सबने मन्नतें मांगी 
कुछ टूटने से दुखी हुए 
हम भी 
कुछ ने शीशे सी चमकती सडको पर …
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Added by Abhinav Arun on December 19, 2012 at 9:03am — 5 Comments

उसका पैग़ाम बॊलॆगा

उसका पैग़ाम बॊलॆगा,,,,,,,

=================

न जानॆं अदालत मॆं कल, किसका नाम बॊलॆगा ॥

यकीनन जब भी बॊलॆगा, वह बॆ-लगाम बॊलॆगा ॥१॥



मौत कॆ खौफ़ सॆ ज़रा भी, डरता नहीं है कभी,

मौन तॊड़ॆगा जिस दिन,फ़िर खुलॆ-आम बॊलॆगा ॥२॥



ठॊकरॆं मारनॆ वालॊ वॊ,हरॆक की ख़बर रखता है,

वॊ कुछ नहीं बॊलॆगा कल, उसका काम बॊलॆगा ॥३॥



लफ़्ज़ॊं मॆं उसकॆ समाया है,समन्दर तॆज़ाब का,

कल हर एक कॆ लबॊं सॆ, उसका पैग़ाम बॊलॆगा ॥४॥



आँधियॊं का अँदॆशा है,सभी चिरागॊं कॊ जला…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 19, 2012 at 3:00am — 4 Comments

क्या फूल ,क्या कलियाँ

यह कविता 10/4/2007 को लिखी थी और आज बहुत भारी मन से आप सब के साथ फिर से शेयर कर रही हूँ/

क्या फूल ,क्या कलियाँ

===============

फिजाओं के रंग

क्यों होने लगे बदरंग

क्या फूल,क्या कलियाँ

ऐय्याशों  के लिए

सभी रंगरलियाँ

किल्क्कारियाँ  बन गयी

सिसकारियाँ

अवाक इंसान

अवाक  भगवान्

हैवानियत की देख हद

निगाहें दंग ,ज़िंदगी परेशान

घर घरोंदे ,रहें,गुलशन

सब बन जायेंगे…

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Added by rajni chhabra on December 18, 2012 at 11:00pm — 1 Comment

एक विचार

पंचमहाभूतों से निर्मित

मानव शरीर,

जिसके अंदर वास करती है

परमात्मा का अंश "आत्मा",

जो संचालित करती है

ब्रह्मांड में मानवजीवन को,

उसके आचार-विचार, व्यक्तित्व को,

रोकती है कुमार्ग पर जाने से,

ले जाती है सन्मार्ग की ओर,

उधर, जिधर मार्ग है मोक्ष का;

किन्तु मनुष्य पराभूत हुआ

अनित्य, क्षणभंगुर, सांसारिक

मोह के द्वारा, कर देता है उपेक्षा

ईश्वर के उस सनातन अंश की,

और निकल जाता है

अंधकार से भरे ऐसे मार्ग पर

जो समाप्त होता है

एक कभी न…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on December 18, 2012 at 7:00pm — 1 Comment

यकीन करॊ

यकीन करॊ,,,,,,,,

==============

यहाँ भी सब गॊल-माल है,यकीन करॊ !!

सब अपनी-अपनी चाल है,यकीन करॊ !!१!!



उनकॆ स्विस बैंकॊं मॆं, सड़ रहॆ हैं नॊट,

हमारी किस्मत कंगाल है, यकीन करॊ !!२!!



गाँधी कॆ पुजारी ही, जातॆ हैं संसद मॆं,

संसद नहीं वॊ टकसाल है, यकीन करॊ !!३!!



यॆ बजातॆ हैं बैठ कॆ,चैन की बंशी वहां,

यहाँ जनता का बुरा हाल है,यकीन करॊ !!४!!



तरक्की दॆश की, सुहाती नहीं है इनकॊ,

आँख मॆं सुअर का बाल है,यकीन करॊ !!५!!…



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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 18, 2012 at 2:00pm — 2 Comments

बदलती दुनियां

      बदलती दुनियां

    आज कितनी बदल रही दुनियां  

    गिर के संभल रही  दुनियां  

    अपनों से दिल की  दूरियां बनाकर

    गेरो के संग बहल रही  दुनियां

    चुराकर अपनी ऑखो से हकीकत

    भरम के साथ पल रही दुनियां  

   प्यार की राहों से मुह मोड़कर  

   साथ नफरत के चल रही दुनिया

   जलाकर झूठी आशाओं  के चिराग

  रौशनी को मचल रही दुनियां  

  

           डॉ अजय आहत

Added by Dr.Ajay Khare on December 18, 2012 at 12:45pm — 2 Comments

शुभ विचार

हरिगीतिका

क्षण मात्र भी बिन कर्म के कोई नहीं रहता कभी

सत्कर्म या दुष्कर्म में ही व्यस्त दीखते हैं सभी

तज स्वत्व व निज स्वार्थ को जो…

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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on December 18, 2012 at 7:30am — 2 Comments

ट्राई करॊ

ट्राई करॊ,,,,,,,,,,,,

============

शायद मिल ही जायॆ, लाइन ट्राई करॊ ॥

कभी कर दॆगी दिलपॆ, साइन ट्राई करॊ ॥१॥

मॊबाइल नंबर शायद, पहचानती हॊ वॊ,

पी.सी.ऒ. सॆ डालकॆ, क्वाइन ट्राई करॊ ॥२॥

हॆलॊ हाय बॊलॆ ग़र, बनॆगी बात वरना,

बर्थ-डॆ पार्टी मॆं हॊकॆ, ज्वाइन ट्राई करॊ ॥३॥

मॆहनत का फल भी, मिलॆगा यकीनन,

फ़्रॆन्डसिप,रॊज़ डॆ, वॆलॆन्टाइन ट्राई करॊ ॥४॥

ग़र प्यार मॆं हॊ गई, बद-हज़मी तुम्हॆं,

काला नमक और, अजवाइन ट्राई करॊ ॥५॥

प्यार कॆ चक्कर…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 18, 2012 at 3:30am — 4 Comments

हमतुम में अब ये खामोशियाँ रहने दो

गर सब धुँआ है तो धुआँ रहने दो

अब जो जहां है उसे वहां रहने दो

 

सभी रिश्ते सुलझ जाएँ तो मजा कैसा

कुछ उलझनें भी तो दरम्याँ रहने दो



हर डगर फूल बिछाए नहीं मिलती

जलजलों में भी ये कारवां रहने दो



रहने वाला ही जब खो गया है कहीं

लापता फिर ये भी आशियाँ रहने दो



ये भी क्या कि तुम ही हर जगह रहोगे

कहीं तो जमीन ओ आसमाँ रहने दो



सहमे लफ़्ज़ों से रिश्ते संभलते कहाँ हैं

हमतुम में अब ये खामोशियाँ रहने दो



-पुष्यमित्र…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on December 18, 2012 at 12:07am — 2 Comments

कहानी : " रोशनी "

चारों तरफ अगर रौशनी का जाल फैला हो मगर इंसान के मन में अँधेरा हो तो शायद एक कदम भी ठीक से नहीं रख सकता. अपनी उलझनों में डूबता उतराता मनुष्य संयम भी खो देता है और परेशानियों के सागर के तल में खुद को खोने लगता है.

ये धर्म गुरु भी ना बस प्रवचन करना जानते हैं और कुछ नहीं , कोई चढ़ावे ना चढ़ाए तब देखो कैसा ज्ञान देते हैं…

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Added by SUMAN MISHRA on December 18, 2012 at 12:00am — 2 Comments

सुमुखि सवैया (जगण x 7 + लघु + गुरु)

बुझाकर दीप नही करते जग रोशन होवत दीप हि से/

हुआ जग रोशन लो उनका उजियार मिला जब दीपक से/

मिटा तम भी मन भीतर का जब दीप जला मन भीतर से/…

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Added by Ashok Kumar Raktale on December 17, 2012 at 10:41pm — No Comments

लघुकथा: नाक और पेट

एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को मह्सूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और…

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Added by Dipak Mashal on December 17, 2012 at 7:47pm — 6 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
नवगीत - चाहना // -- सौरभ

छू दो तुम.. . / फिर

सुनो अनश्वर ! 



थिर निश्चल

निरुपाय शिथिल सी

बिना कर्मचारी की मिल सी

गति-आवृति से

अभिसिंचित कर

कोलाहल भर

हलचल हल्की.. .

अँकुरा दो

प्रति विन्दु देह का   

लिये तरंगें

अधर पटल पर.. . !



विन्दु-विन्दु जड़, विन्दु-विन्दु हिम

रिसूँ अबाधित 

आशा अप्रतिम.. .

झल्लाये-से चौराहे पर

किन्तु चाहना की गति …

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Added by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 6:00pm — 29 Comments

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