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October 2010 Blog Posts (168)

दीया

एक दिन बिजली के जाने पर

ढूंढ रहा था

प्रकाश का साधन

करने को

तमस निस्तारण

तभी हाथों से

कोई चीज टकराई

देखा

पुराना दीया

जिस पर हरा काला

मैल बैठा हुआ

झंकृत कर गया मुझे

याद मेरे बचपन का

इसी दीये तले

पाया ज्ञान का प्रकाश

मैं क्या

मुझसे भी पहले

औरों ने भी इसी दीये

के आँचल तले

आँखों को काले धुँए में

झोंकते हुए

पाया अपने लक्ष्य को

वही दीया न… Continue

Added by Shashi Ranjan Mishra on October 7, 2010 at 4:35pm — 7 Comments

सब भर जाएगा



सब भर जाएगा !





रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो



छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें



कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे



माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता



मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह



और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर



अंतहीन बढ़ते कदम



रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर



तुम चलते कहाँ… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on October 7, 2010 at 7:00am — 4 Comments

पंखियों को उड़ने दो ,

पंखियों को उड़ने दो ,

पानीओं को बहने दो ,

आंसुओं को कहने दो ,

कहने दो कोई कथा

अवयस्क कोई व्यथा

पीर किसी नांव की

पीर किसी ठांव की

पीर किसी नांव की

पीर किसी ठांव की

ओढते बिछाते हुए

दर्द को सुनाते हुए

कसमसा कसमसा

अश्रु है कोई रुका

अश्रु वो न बहने दो

बात कोई कहने दो

----------------

भूख की आ बात कर

प्यास के आ गीत गा

ख़ाली ख़ाली हाथ हैं तो

कुछ तू कह कुछ सुन आ

बीती बात भूख हो

घिसा सा गीत प्यास… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:30pm — 1 Comment

तुम हम से मिले हो तो मिल के ही चले चलना ;

तुम हम से मिले हो तो मिल के ही चले चलना ;
मेरे साथ साथ उगना मेरे साथ साथ ढलना .

मेरी बांसुरी मनोहर ,मनमीत मेरी श्यामा ;
मेरे श्वास श्वास लेकर बन रागनी मचलना .

पग बांध अपने नूपुर मृग नयनी चली आओ ;
आ झुलाओ अपने पी को तेरे प्रेम का ये पलना .

ओ रागनी मनोहर ,ओ दामनी ओ चपला ;
तेरे केश मेघ काले तेरा मुखड़ा चाँद-ललना.

घनघोर काली रैना में मधुर तेरे बैना;
मनमोर नाचते हैं तेरी ताल न बदलना . 
DEEPZIRVI9815524600

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:03pm — 1 Comment

ज़िन्दगी, बज्म तुम्हारी सजाने आये हैं .

ज़िन्दगी, बज्म तुम्हारी सजाने आये हैं .

किया था वादा वही तो निभाने आये हैं .

दरीचे खोल के बैठो हवा से बात करो ;

वस्ल के नामे अजी लो सुहाने आये हैं .

कभी भी आरजुओं को फरेब मत देना ;

फकीर रमता ये ही तो बताने आये हैं .

कभी कंगाली थी तेरे दीदार की छाई ;

तुम्हारे वस्ल के देखो खजाने आये हैं .

गई वो रात, अजी दिन सुहाने आये हैं.

सुहानी दीद के देखो बहाने आये हैं.

वस्ल की रात में जिसको जलाया जाता है ;

वही तो दीप जी हम भी जलाने आये हैं

दीप… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:02pm — No Comments

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..

एक बूँद गिरी पर गिरे कभी जो मैं ही हूँ .

एक बूँद धरा पर गिरी कभी जो मैं ही हूँ .

एक बूँद अरिहंता बन गिरी समर-आँगन में ,

एक बूँद किसी घर गिरी नवोढा नयनन से ,

एक बूँद कही पर चली श्यामल गगनन से '

एक बूँद कहीं पर मिली सागर प्रियतम से ,

वो बूँद बनी हलाहल जानो मैं ही हूँ ,

वो बूँद बनी जो सागर जानो मैं ही हूँ,

वो बूँद बनी पावन तन जानो मैं ही था ,

वो बूँद बनी प्यासा मन जानो मै ही हूँ .

हर बूँद बूँद में व्यापक व्याप्त… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:00pm — 1 Comment

हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है .

साबरमती के संत, बोले तो अपने बापू , हाँ बाबा वही एक लाठी एक लंगोटी वाले, वोही मोहनदास करमचन्द गांधी , अब ठीक पहचाना आपने । वोही जिनके बारे ये कहा जाता है कि उनकी ३० जनवरी १९४८ को हत्या कर दी गयी थी वही बापू गांघी आज कल नोटों पर आसन जमाए दिखते हैं । उन की लीला अपरम्पार है । आज सरकारी दफ्तरों वाले १०० प्रतिशत गांधी वादी हो गये हैं ।

जिन का दांव नही लगता वो इमानदारी का दावा करते हैं अन्यथा सदाचार एवम ईमानदारी उसी के जिस का दांव नही लगता ।

सरकारी दफ्तरों में तो पाषाण से पाषाण ह्रदय भरे… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:00pm — 1 Comment

क्यूं है !

सबके होते हुए वीरान मेरा घर क्यूं है,

इक ख़मोशी भरी गुफ़्तार यहां पर क्यूं है !



एक से एक है बढ़कर यहां फ़ातेह मौजूद,

तू समझता भला ख़ुद ही को सिकन्दर क्यूं है !



वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,

फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !



सब के होटों पे मुहब्बत के तराने हैं रवाँ,

पर नज़र आ रहा हर हाथ में ख़न्जर क्यूं है !



क्यूं हर इक चेहरे पे है कर्ब की ख़ामोश लकीर,

आंसुओं का यहां आंखों में समन्दर क्यूं है !



तू… Continue

Added by moin shamsi on October 6, 2010 at 5:44pm — 3 Comments

ग़ज़ल:इतना गुलज़ार सा..

इस टिप्पणी के साथ कि चाहें तो इसे अ-कविता की तरह अ-ग़ज़ल मान लें-



इतना गुलज़ार सा जेलर का ये दफ्तर क्यूं है,

आरोपी छूट गया और गवाह अन्दर क्यूं है.



सुलह को मिल रहें हैं मौलवी और पंडित भी ,

सियासी पार्टियों में भेद परस्पर क्यूं है.



अगर गुडगाँव नोयडा हैं सच ज़माने के ,

कहीं संथालपरगना कहीं बस्तर क्यूं है.



रंग केसर के जहां बिखरे हुए थे कल तक ,

उन्हीं खेतों में आज फ़ौज का बंकर क्यूं है.



जबकि बेटों के लिए कोई नहीं है… Continue

Added by Abhinav Arun on October 6, 2010 at 4:00pm — 5 Comments

विजय-गीत

देखो पुकार कर कहता है

भारत माँ का कण-कण, जन जन

हम बने विजय के अग्रदूत

भारत माँ के सच्चे सपूत...



हम बढ़ें अमरता बुला रही...

यश वैभव का पथ दिखा रही ...

यश-धर्म वहीँ है, विजय वहीँ..

जिस पल जीवन से मोह नहीं

आसक्ति अशक्त बनाती है ...

यश के पथ से भटकाती है ...

जो मरने से डर जाता है...

वह पहले ही मर जाता है ...



हम पहन चलें फिर विजयमाल,

रोली अक्षत से सजा भाल...

हम बनें विजय के अग्रदूत...

भारत माँ के सच्चे…
Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 6, 2010 at 9:11am — 1 Comment

हम कलम को फ़ेंक के तलवार भी ले सकते है

कमज़र्फ़

तू हमारी वजह से ही साहिब -ऐ -मसनद है आज
हम जो चाहें तेरी दस्तार भी ले सकते है
इम्तिहान -ऐ -सब्र मत ले खूगर -ऐ -ज़ुल्म -ओ -सितम
हम कलम को फ़ेंक के तलवार भी ले सकते है

उरूज

दुनिया वाले कह रहे है साजिशों से पायी है
हमने ये जिंदा दिली तो ख्वाहिशों से पाई है
कामयाबी पर हमारी जल रहा है क्यों जहाँ
कामयाबी हमने अपनी काविशों से पायी है

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:30pm — 3 Comments

हम तुमसे मिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद ,



दर्द



आँखों पे जब से पड़ गयीं नज़रें फरेब की

आंसू हमारे और भी नमकीन हो गए

तुमने हमारे दर्द की लज्ज़त नहीं चखी

जिसने चखी वो दर्द के शौक़ीन हो गए



मुलाक़ात



हम तुमसे मिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद ,

दो फूल खिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद .

जुम्बिश हुई लबो को तो महसूस ये हुआ ,

ये होंठ हिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद



अपनी माटी



हर इक इंसान को करना चाहिए सम्मान मिटटी…
Continue

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:30pm — 7 Comments

मेरे पांच क़तात

तन्हा सफ़र



दिन मुसीबत के टल नहीं सकते ,



हम भी किस्मत बदल नहीं सकते .



हम तखय्युल को साथ रखते है ,



तुम तो हमराह चल नहीं सकते :





अर्ज़-ऐ-हाल



हम अपनी जान किसी पर निसार कैसे करें ,



तुझे भुला के किसी और से प्यार कैसे करें .



तेरे बिछड़ने से दुनिया उजाड़ गयी दिल की ,



इस उजड़े दिल को अब हम खुशगवार कैसे करें .





जदीदियत



ख्याल उठने से पहले ही सो गए होंगे ,



कुछ अपने… Continue

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:05pm — 2 Comments

क्या तुम समझ रहे हो मेरी शायरी की बात ????







उंगलियाँ



जिस दिन से उसकी ज़ुल्फ़ से महरूम हो गयीं

उस दिन से मुझे हाथ में खलती है उंगलियाँ

दस्त -ऐ -करम से उसके यकीं हो गया मुझे

किस्मत किसी की कैसे बदलती है उंगलियाँ





बद -किस्मती



वो है मेरा रफ़ीक मै उसका रकीब हु ,

दुनिया समझ रही है मै उसके करीब हु .

चाह था जिसने मुझको मै उसका न हो सका ,

मै बदनसीब हु मै बहुत बदनसीब हु :





ता -उस्सुरात-ऐ… Continue

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:00pm — 3 Comments

मेरे दिल से पूछो ये चाहता क्या हैं ,

मेरे दिल से पूछो ये चाहता क्या हैं ,

चाह थी मंजिल तो मुश्किल से मिला ,

पैसे जुटाया लुट गया तो फायदा क्या हैं ,

अपने ही साथ नहीं दिए तो वो रिश्ता कैसे ,

महसूस किया मैंने ये जीवन जिसमे ,

राहों में ओ छोर चले तो जीना क्या हैं ,

खुशिया दूर से निकल गई समझ ना सका ,

वो आखे चुराने लगे समझा मजरा क्या हैं ,

मेरे दिल से पूछो ये चाहता क्या हैं ,

उनकी ख़ुशी खुश रहने के लिए कम न था ,

हा ओ किसी और के हो गए इसका गम हैं ,

लोगो को नजर आता हैं हंसता चेहरा… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on October 5, 2010 at 8:48pm — 2 Comments

सूरज से आँख मिलाता ''चिराग'' और काल के गाल पर आँसू ढुलकाती उसकी गज़लें

सूरज से आँख मिलाता ''चिराग'' और काल के गाल पर आँसू ढुलकाती उसकी गज़लें



सौजन्य से : रविकान्त<अनमोलसाब@जीमेल.कॉम>, संजीवसलिल@जीमेलॅ.कॉम



कहते हैं उसके यहाँ देर है अंधेर नहीं. काश यह सच हो. ३४ वर्षीय जवान, संभावनाओं से भरे शायर शशिभूषण ''चिराग'' का चला जाना उसके निजाम की अंधेरगर्दी की तरफ इशारा है. पूछने का मन है ''बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा, ऊपरवाले... ओ ऊपरवाले.'' बकौल श्री रविकान्त 'अनमोल': '' 'चिराग़' जैसा संभावनाओं का शाइर ३४ वर्ष की छोटी आयु में चला… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2010 at 12:00am — 1 Comment

विशेष लेख: देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर -: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-

विशेष लेख:



देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर



रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...



-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-



किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2010 at 8:31pm — 3 Comments

गौतम की प्रतीक्षा ?

कुछ तितलियाँ



फूलों की तलहटी में तैरती



कपड़े की गुथी गुड़ियाँ



कपास की धुनी बर्फ



उड़ते बिनौले



और पीछे भागता बचपन



मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ



मेमनों के गले में झूलते हाथ



नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह



सूखे पत्तों की खड़-खड़ में



अचानक बसंत की लुका-छिपी



और फिर बसंत -सा ही बड़ा हो जाना -



तब दीखना… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on October 4, 2010 at 5:00pm — 10 Comments

कुछ हाइकू -

कब सुनते
अतीत के सुस्वर
बीतती उमर

- - -

पीपल दादा
सुरसुराती हवा
उदास मन

- - -

झूमती जाती
सुनहली बालियाँ
पगली हवा

- - -

मैं एक नदी
गिरती औ उठती
आगे ही जाती

- - -

स्वर्ग सा सुख
ममता भरी छाँव
माँ की गोद में

- - -

सनता जाता
स्वार्थ के कीचड़ में
ये जग सारा

Added by Neelam Upadhyaya on October 4, 2010 at 4:35pm — 3 Comments

काँटा और गुहार :: (c)





Photography by : Jogendra Singh

_____________________________________



काँटा और गुहार :: © ( क्षणिका )





आसान नहीं है ...



पाँव से काँटा निकाल देना ...



हाथ बंधे हैं पीछे और ...



उसी ने बिखेरे थे यह कांटे ...



निकालने की जिससे ...



हमने करी गुहार है ...





जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 02 अक्टूबर 2010… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on October 3, 2010 at 2:30am — 3 Comments

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