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September 2017 Blog Posts (153)

दर्द का एहसास--

"मैडम, इस तरह कैसे चलेगा, बिना छुट्टी लिए आप गायब हो जाती हैं| यह ऑफिस है, ध्यान रखिये, पहले भी आप ऐसा कर चुकी हैं", जैसे ही वह ऑफिस में घुसी, बॉस ने बुलाकर उसे झाड़ दिया| उसने एक बार नजर उठाकर बॉस को देखा, उसकी निगाहों में गुस्सा कम, व्यंग्य ज्यादा नजर आ रहा था| बगल में बैठी बॉस की सेक्रेटरी को देखकर उसको उबकाई सी आ गयी|

लगभग तीन महीने हो रहे थे उसको इस ऑफिस में, पूरी मेहनत से और बिना किसी से लल्लो चप्पो किये वह अपना काम करती थी| ऑफिस में कुछ महिलाएं भी थीं जिनके साथ वह रोज लंच करती थी…

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Added by विनय कुमार on September 27, 2017 at 1:00am — 12 Comments

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में (ग़ज़ल)

2122 1212 22



सब हैं मसरूफ़ अब उड़ानों में

देखिये भीड़ आसमानों में



प्यार? ईमान? दोस्ती? जी हाँ

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में



भुखमरी,बालश्रम,अशिक्षा..सब

मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में



पत्थरों से उन्हीं की यारी है

जो हैं शीशे-जड़े मकानों में



सच्चे हीरे की है तलाश अगर

जा! भटक कोयले की खानों में



बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे

गुफ़्तगू बंद है सयानों में



फ़र्श से अर्श पर मैं जा पहुँचा

कितनी ताक़त है देखो… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 26, 2017 at 8:06pm — 14 Comments

सपना (हास्य व्यंग्य)

क्या दिन थे आनन्द भरे वे, हरपल रहता था उल्लास|

आगे जीवन ऊबड़ खाबड़, तनिक न था इसका आभास||

बीबी बच्चों के चक्कर में, स्वप्न हुए अब तो इतिहास|

आफत आन पड़ी है मुझपर, दोस्त उड़ाते हैं उपहास||



कभी उड़ा था नील गगन में, मैं भी अपने पंख पसार|

पंख लगाकर समय उड़ा वो, हुआ बिना पर मैं लाचार||

जीवन अपना शुष्क धरा सा, मस्ती का उजड़ा संसार|

ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कभी नहीं था किया विचार||



जाने कौन घड़ी थी वो भी, जब शादी का किया ख़याल|

किस्मत ऐसी फूटी भइया,… Continue

Added by नाथ सोनांचली on September 26, 2017 at 7:30pm — 18 Comments

ग़ज़ल

ग़ज़ल

जीवन का मक़सद देखेगी

दुनिया तेरा कद देखेगी



खादी पहने इन गुंडों को

कब तक ये संसद देखेगी



फिरकापरस्ती बदनज़रों से

मस्जिद का गुम्बद देखेगी



सूखी धरती उम्मीदों से

बारिश की आमद देखेगी



तू हो चाहे जितना अच्छा

दुनिया तुझको बद देखेगी



दुनिया तेरी सब यादों को

मुझसे ही बरामद देखेगी



खून जवानों का यूँ बहते

कब तक ये सरहद देखेगी



गाँव अगर जाऊँ तो आँख

फिर सूखा बरगद देखेगी



करने… Continue

Added by AMIT on September 26, 2017 at 6:58pm — 8 Comments

हुआ क्या आपको जो आप कहती बढ़ गयी धड़कन

अजब सी है जलन दिल में ये कैसी है मुझे तड़पन

उसे अहसास तो होगा बढ़ेगी दिल की जब धड़कन'

दिखा है जबसे उसकी आँखों में वीरान इक सहरा

मुझे क्या हो गया जाने कहीं लगता नहीं है मन

गले को घेर बाँहों से बदन करती कमाँ जब वो'

मुझे भी दर्द सा रहता मेरा भी टूटता है तन

वो रो लेती पिघल जाता हिमालय जैसा उसका गम

मगर सूरज के जैसे जलता रहता है मेरा तन मन

'नज़र मिलते ही मुझसे वो झुका लेते हैं यूँ गर्दन

ये मंज़र देख उठती है लहर…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 26, 2017 at 4:30pm — 14 Comments

परोथन – लघुकथा -

परोथन – लघुकथा -

 "अरे छुटकी, देख तो कौन है दरवाजे पर"?

"कोई भिखारिन जैसी लड़की है अम्मा"।

"बिटिया, एक कटोरा गेंहू दे दे उसे”|

“अम्मा, वह तो बोल रही है कि उसे केवल आटा ही चाहिये”।

"अरे तो क्या हुआ छुटकी, एक कटोरा आटा ही दे दे बेचारी को"।

"पर अम्मा, आटा तो एक बार के लिये ही था तो सारा गूँथ लिया"।

"एक कटोरा भी नहीं बचा क्या"?

"ऐसे तो है, एक कटोरा, पर वह परोथन के लिये है"।

"अरे तो वही देदे मेरी बच्ची। हम लोग एक दिन बिना परोथन की, हाथ…

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Added by TEJ VEER SINGH on September 26, 2017 at 12:28pm — 24 Comments

प्राण-स्वप्न

ख़्यालों में गिरफ़्तार

गम्भीर   उदास

अपना सिर टेक कर

इ-त-नी पास

तुम इतनी पास

तो कभी नहीं बैठती थी

फिर आज...?

मिलने पर 

न स्वागत

न शिकायत

न कोई बात

अपने में ही सोचती-सी ठहरी

धड़कन की खलबली में भी

तुम इतनी आत्मीय ...

मेरे बालों की अव्यवस्था को ठेलती

कभी शाम के मौन में  शाम की

निस्तब्धता को पढ़ती

शांत पलकें, अब अलंकार-सी

जागती-सी सोचती, कुछ…

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Added by vijay nikore on September 26, 2017 at 12:24pm — 12 Comments

ग़ज़ल नूर की-मुझ को कोई ख़रीद ले सस्ता किए बग़ैर

२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२ (अरकान सही क्रम में हैं या नहीं ये मुझे नहीं पता)



मुझ को कोई ख़रीद ले सस्ता किए बग़ैर

रुसवाई यानी हो भी तो रुसवा किए बग़ैर. 

.

रुख्सत किया है ज़ह’न से यादें लपेट कर, 

तन्हा किया है आप ने तन्हा किए बग़ैर.

.

झुकिए अना को छोड़ के गर इल्म चाहिए,

मिलता नहीं सवाब भी सजदा किए बग़ैर.

.

जिस दर पे पूरी होतीं मुरादें तमाम-तर  

हम वाँ से लौट आये तमन्ना किए बग़ैर.

.

मुझ को न हो गुरूर मेरे नूर का कभी  

रौशन…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 26, 2017 at 11:30am — 27 Comments

ग़ज़ल - वक़्त कुछ ऐसा मेरे साथ गुज़ारा उसने

बह्र : 2122-1122-1122-112/22

फिर मुहब्बत से लिया नाम तुम्हारा उसने

वार मुझ पर है किया कितना करारा उसने

मेरी कश्ती को समन्दर में उतारा उसने

और फिर कर दिया तूफ़ाँ को इशारा उसने

डूबते वक़्त दी आवाज़ बहुत मैंने मगर

बैठ कर दूर से देखा था नज़ारा उसने

आप कहते थे इसे बख़्श दो, देखो ख़ुद ही

मुझ में ख़ंजर ये उतारा है दुबारा उसने

ग़ैर भी कोई गुज़ारे न किसी ग़ैर के साथ 

वक़्त…

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Added by Mahendra Kumar on September 26, 2017 at 10:00am — 30 Comments

ये कैसे हो गया

ये क्यूँ और कैसे हो गया

हद में रहकर भी बेहद हो गया 

  

था कभी जो नज़रों और ख्वाबों में,

ना जाने अब क्यूँ ओझल हो गया

चाहूँ मैं उसको जितना ज्यादा 

वो दूर क्यूँ मुझसे उतना हो गया

ये क्यूँ और कैसे हो गया

हद में रहकर भी बेहद हो गया

सोचा भूल जाऊँ अब उसे मैं 

पर वो क्यूँ मेरी रूह में बस गया

लौट-लौट कर आती हैं यादें तेरी

क्यूँ हर लम्हा मेरा तेरे नाम हो गया

पाना क्यूँ…

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Added by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on September 25, 2017 at 10:06pm — 7 Comments

वो दिन---

"तुम रातभर बैचेन थी। हो सके तो आज आराम करो। मैंने चाय बनाकर थर्मस में डाल दी हैं। मैं नाश्ता, खाना आफ़िस में ही ली लूँगा, तुम बस अपना बनवा लेना। आफ़िस से छुट्टी ले लो।"

पास तकिए पर रखे कागज को पढा और चूमकर सीने पर रख लिया। आफ़िस में इस एक दिन के अवकाश की लड़ाई लड़ी और जीती भी थी।

चाय का कप लेकर बालकनी में आई तो सहज ही प्लास्टिक की पन्नियाँ बीनती उन लड़कियों पर नजर गयी। उफ्फ, ये लोग क्या करती होंगी इन दिनों? कप हाथ में लिए-लिए ही झट नीचे आयी। उन्हें आवाज लगाकर अपने…

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on September 25, 2017 at 9:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल (३)

२२ २२ २२ २२ २२ २२  

दिल की बातें वो भी समझें ये  सोचा था 

होंगी मिलकर सारी बातें ये  सोचा था ?

चले जायेंगे अपने रस्ते वो भी इक दिन 

रह जाएंगी तन्हा रातें ये   सोचा था ?

जीवन जैसा होगा उसको जी लेना है 

दर्दो अलम की ले सौगातें ये सोचा था ?

एक बहाना मुझको जीने का मिल जाता 

रह जातीं बस उनकी यादें ये सोचा था ?

डूब गयीं हूँ प्यार में जिनके मैं " रौनक"…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 25, 2017 at 9:30pm — 18 Comments

आपका हक़ - डॉo विजय शंकर

क्या कहा ,
आपका हक़ आपको
दिया नहीं गया ?
क्योंकि हक़ आपका आपसे
हाथ जोड़ के माँगा नहीं गया।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2017 at 8:04pm — 16 Comments

गीत -जिसको मैं दिन रात पढ़ूँ वो पुस्तक है मेरी|

दिल में कसक है तेरी यादों का हक है तेरी,

जिसको मैं दिन रात पढ़ूँ वो पुस्तक है मेरी|

दिल में ............

तू ही मेरा सांध्य-गीत है, और भोर वंदन है,

जिसमें मैं निज को निज देखूं नैन तेरे दर्पण है|

तेरी खातिर खुले हमेशा सब दिल के दरवाजे,

चाहे जिससे तू आ जाए तेरा अभिनंदन है||

दिल तो तेरा है पर उसकी धक-धक है तेरी,

दिल में ......

.

गंगा-सा मन पावन तेरा, यमुना सा निर्मल हो,

सरस्वती-सी बुद्धि तुम्हारी, चंडी-सा सम्बल…

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Added by ARUNESH KUMAR 'Arun' on September 25, 2017 at 7:00pm — 4 Comments

तेरे इंतज़ार में ...

तेरे इंतज़ार में ...

गज़ब करता रहा

तेर हर वादे पे

यकीं करता रहा

हर लम्हा

तेरी मोहब्बत में

कई कई सदियाँ

जीता रहा

और हर बार

सौ सौ बार

मरता रहा

पर अफ़सोस

तू

मुझे न जी सकी

मैं

तुझे न जी सका

पी लिया

सब कुछ मगर

इक अश्क न पी सका

मेरी ख़ामोशी को तूने

मेरी नींद का

बहाना समझा

तू

ग़फ़लत में रही

और

मैं

अजल का हो गया

तिश्नागर आँखों के …

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Added by Sushil Sarna on September 25, 2017 at 2:00pm — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आईने में सिंगार कौन करे (फिलबदीह ग़ज़ल 'राज')

2122     1212  22

.

दिल को फिर बेकरार कौन करे

आपका ऐतबार कौन करे

 

कत्ल का दिन अगर मुकर्रर है

 ज़िन्दगानी से प्यार कौन करे

 …

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Added by rajesh kumari on September 25, 2017 at 12:30pm — 39 Comments

ग़ज़ल-गलतियाँ किससे नही होतीं-रामबली गुप्ता

ग़ज़ल

2122 2122 2122 212



गलतियाँ किससे नही होतीं भला संसार में

है मगर शुभ आचरण निज भूल के स्वीकार में



शून्य में सामान्यतः तो कुछ नही का बोध पर

है यहाँ क्या शेष छूटा शून्य के विस्तार में



आधुनिकता के दुशासन ने किया ऐसे हरण

द्रौपदी निर्वस्त्र है खुद कलियुगी अवतार में



सूर्य को स्वीकार गर होता न जलना साथियों

तो भला क्या वो कभी करता प्रभा संसार में



व्यर्थ ही व्याख्यान आदर्शों पे देने से भला

अनुसरण कुछ कीजिये इनका निजी… Continue

Added by रामबली गुप्ता on September 25, 2017 at 5:00am — 49 Comments

छोटी बहर की ग़ज़ल

बहर - 2112
काफ़िया - आम; रदीफ़ - चले

जाम चले
काम चले।

मौत लिये
आम चले।

खुद का कफ़न
थाम चले।

सांसें आठों
याम चले।

सुब्ह हो या
शाम चले।

लोग अवध
धाम चले।

मन में बसा
राम चले।

पैसा हो तो
नाम चले।

जग में 'नमन'
दाम चले


मौलिक व अप्रकाशित

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 24, 2017 at 3:30pm — 8 Comments

गजल(कह रहे,...)

2122 2122 212

कह रहे,घर को सजाया जा रहा

लग रहा सच को दबाया जा रहा।1



खून का धब्बा पड़ा गहरा बहुत

अब पसीने से मिटाया जा रहा।2



हो गयी पहली रपट रद्दी वहाँ

जाँच दल फिर से लगाया जा रहा।3



आदमी अब आदमी से तंग है

'नाम' ले-लेकर डराया जा रहा।4



मुजरिमों की हो गयी बल्ले यहाँ

बेगुनाहों को फँसाया जा रहा।5



मर्सिया माकूल होता ,क्या कहूँ?

गीत परिणय का सुनाया जा रहा।6



घिर गयी काली घटा, कहते सभी-

अब सबेरा को… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 24, 2017 at 11:00am — 10 Comments

बाज़ार में जूतमपैजार (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"अब्बू, चलिए जूतों की दुकान पर!"
"नहीं बेटा, ई़़द़ के लिए तुम ही कोई सस्ती सी चप्पलें ख़रीद लाओ मेरे लिए!"
"आप भी चलिये न, दिल बहल जायेगा!" सुहैल ने अपने अब्बू को पलंग से लगभग उठाते हुए कहा।
"ख़ाक दिल बहलेगा। वहां तो ऐसा लगता है कि ग्राहक, दुकान के नौकर और मालिक और जूते-चप्पलों की कम्पनियां सब एक-दूसरे को जूते मार रहे हों!"
"हां, सो तो है! जूतमपैजार और हमें ग़रीबी का अहसास!" सुहैल ने अब्बू को पलंग पर लिटाते हुए कहा।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 24, 2017 at 10:44am — 9 Comments

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