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September 2013 Blog Posts (279)

मुक्तक - तीन

उन्हें चस्का बहुत था बेरुखी हमसे भी करने का 

डुबो कर आँख मेरी पीर में काजल लगाने का   

तुम्हारे इश्क की सांसें अभी कागज में तैरेंगी 
कभी उड़कर जो पहुंचे तुम तलक जादू है लफ्जों का 
-------------------------------------------------------
हवा भी रुख बदल लेती दिया जब प्यार जलता है 
अँधेरा भी करे साजिश मगर सूरज निकलता है  
कोई कर्जा पुराना है नयन बादल का सागर पर 
कभी बदले नहीं वो पर जमाना ही…
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Added by Ashish Srivastava on September 2, 2013 at 9:55pm — 16 Comments

आस्था की दीवार

जैसे टूटता  तटबंध 

और डूबने लगते बसेरे 

बन आती जान पर 

बह जाता, जतन से धरा सब कुछ 

कुछ ऐसा ही होता है 

जब गिरती आस्था की दीवार 

जब टूटती विश्वास की डोर

ज़ख़्मी हो जाता दिल 

छितरा जाते जिस्म के पुर्जे 

ख़त्म हो जाती उम्मीदें 

हमारी आस्था के स्तम्भ 

ओ बेदर्द निष्ठुर छलिया ! 

कभी सोचा तुमने 

कि अब  स्वप्न देखने से भी 

डरने लगा  इंसान 

और स्वप्न ही  तो हैं 

इंसान के…

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Added by anwar suhail on September 2, 2013 at 9:00pm — 14 Comments

तान्या : यूँ मिलना तुम्हारा

एक 

तुम

मुझे ऐसे मिले

जैसे कि मंदिर में किसी

देवता के आगे

फैली

अंजलि में

फूल

देव मस्तक का

आ कर के गिरे /

या किसी प्यासे पपीहे को

मिले

एक बूँद पानी ।

प्यार सी

नजरो को छू कर

तुम खिले ऐसे

कि जैसे

ऋतु बसंत में

किसी कम्पित डाली पर

सोई कली

मंद , शीतल पवन का

स्पर्श पा कर के खिले /

या खिले कवि ह्रदय कोई

देख कर वर्षा सुहानी…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on September 2, 2013 at 9:00pm — 15 Comments

प्रेम योग - कुंडली छंद

बीमारी के अर्थ दो , नहि केवल ये रोग  

इक तो केवल रोग है, दूसर केवल योग   

दूसर केवल योग, बहूत है कठिन समझना   

प्रेम रोग इक भाव , इसे है सरल समझना 

कह सागर सुमनाय,कहो अब कुशल तिहारी  

रोग योग दो अर्थ , प्रेम कहा या बिमारी  

मौलिक व अप्रकाशित 
आशीष श्रीवास्तव (सागर सुमन) 

Added by Ashish Srivastava on September 2, 2013 at 8:30pm — 12 Comments

"शब्दों का खेल "

वादों  की बौछार के साथ 
नेता जी प्रगट हुए 
बिन बुलाये प्रेत की तरह 
मटरू को नौकरी 
गाँव में पक्की सड़क 
विद्यालय ,चिकित्सालय 
आदि आदि का निर्माण 
शब्दों के महाजाल  से
समस्याओं के सागर का 
पूरा का पूरा पानी 
झट से पी  गए
गटाक एक बार में    
लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे 
कुछ दिन पहले 
जो गूंगे बहरे लगते थे मुझे 
इनको क्या…
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Added by ram shiromani pathak on September 2, 2013 at 8:00pm — 24 Comments

हुआ बुद्धि-बल अन्ध, भजे रविकर ओसारे-

ओसारे में बुद्धि-बल, मढ़िया में छल-दम्भ |
नहीं गाँव की खैर तब, पतन होय आरम्भ |


पतन होय आरम्भ, बुद्धि पर पड़ते ताले |
बल पर श्रद्धा-श्राप, लाज कर दिया हवाले |


तार-तार सम्बन्ध, धर्म- नैतिकता हारे |
हुआ बुद्धि-बल अन्ध, भजे रविकर ओसारे ||

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 2, 2013 at 6:46pm — 15 Comments

रोज़ा, नमाज़, हज औ तिलावत न कर सका

रोज़ा, नमाज़, हज औ तिलावत न कर सका

अपने वजूद की मैं हिफाज़त न कर सका

दैरो हरम में आ के तो सजदा किया ज़रूर

लेकिन कभी मैं दिल से इबादत न कर सका

बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में

मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका

तेरे क़दम भी रुक गए उल्फत की राह में 

मै भी अकेला घर से बग़ावत न कर सका

तेरे बदन में देखकर पाकीज़गी की आग 

कोई भी शख्स छूने की ज़ुर्रत न कर सका

मैख़ाने में गुज़ार दी 'साहिल' ने…

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Added by Sushil Thakur on September 2, 2013 at 6:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पांच दोहे ( गिरिराज भंडारी )

पांच दोहे

 

खुद के अन्दर झाँक के, पढ़  ले तू आलेख

अपने ऐसे हाल का,  खुद  खींचा  आरेख

 

बाहर पानी से बुझे, कण्ठ लगी जो प्यास

भीतर जी मे जो लगी,कौन बुझाये प्यास

 

पंछी घर को लौटते, साँझ लगी गहराय…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 6:00pm — 42 Comments

लघुकथा - अनुष्ठान (शुभ्रा शर्मा 'शुभ ')

बहुत उपचार के बाद भी चित्रा की गोद सूनी थी |पूरा परिवार चिंतित रहता था |चित्रा यज्ञं हवन के लिए पति राजेश पर दवाब देती तो नोक-झोक हो जाती थी |राजेश को पूजा पाठ पर विश्वास नहीं था | काफी मेहनत के बाद चित्रा की माँ अपने भगवान् तुल्य गुरूजी मायाराम बाबू से मिली |गुरूजी चित्रा के कुंडली में संतान के घर में अनिष्टकारी ग्रह देख एक ग्रह शांति का ख़ास अनुष्ठान कराने के लिए उनके घर आने को राजी हो गए |चित्रा भी उत्साहित हो गुरूजी की आवभगत की सारी तैयारियाँ कर ली थी | गुरूजी और चित्रा को पूजा…

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Added by shubhra sharma on September 2, 2013 at 12:17pm — 22 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ६३-६६ (तरुणावस्था-१० से १३)

(आज से करीब ३१ साल पहले)

 

शनिवार, २७/०३/१९८२, नवादा, बिहार: एक मोड़

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आज हम सभी साथियों की खुशी किसी सीमा में बांधे नहीं बाँध रही है. आज हम सभी सुबह से ही उस घड़ी की प्रतीक्षा में हैं जब हम मैट्रिक की संस्कृत के द्वीतीय पत्र की परीक्षा दे परीक्षा-भवन से आख़िरी बार निकालेंगे.

 

हमारे मैट्रिक इम्तेहान का सेंटर नवादा मुख्यालय से २९ किमी दूर रजौली कसबे के एक सरकारी स्कूल में रखा गया था. मैं और मुझसे…

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Added by राज़ नवादवी on September 2, 2013 at 11:07am — 7 Comments

रविकर मद में चूर, चाल चल जाय बला की-

गलती का पुतला मनुज, दनुज सरिस नहिं क्रूर |
मापदण्ड दोहरे पर, व्यवहारिक भरपूर |


व्यवहारिक भरपूर, मुखौटे पर चालाकी |
रविकर मद में चूर, चाल चल जाय बला की |


करे स्वार्थ सब सिद्ध, उमरिया जैसे ढलती |
रोज करे फ़रियाद, दाल लेकिन नहिं गलती ||

मौलिक/अप्रकाशित

Added by रविकर on September 2, 2013 at 10:00am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ऐ- जान जरा बात बताओ तो सही -- ग़ज़ल (राज )

दीवार तग़ाफुल  की  ये ढाओ  तो सही

इक बाँध रिफ़ाकत का बनाओ तो सही

 

आ पाक मुहब्बत में मिटा दें सरहदें

इस ओर  जरा हाथ बढ़ाओ  तो सही 

 

हैरान परेशान खड़े हो इस…

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Added by rajesh kumari on September 2, 2013 at 9:30am — 35 Comments

!!! मां शारदे !!!

!!! मां शारदे !!! //हरिगीतिका छन्द//

तुम दिव्य देवी बृहम तनुजा हृदय करूणा धारिणी।

संगीत वीणा ताल सरगम धर्म बृहमा चारिणी।।

कर कमल धारण हंस वाहन ज्ञान पुस्तक वाचिनी।

अति मधुर कोमल दया समता प्रेम रसता रागिनी।।1

कल्याणकारी सत्यधारी श्वेत वसनं शोभनं।

संसार सारं कंज रूपं वेद ज्ञानं बोधनं।।

मन प्रीत प्यारी रीति न्यारी प्रकृति सारी धारती।

सब देव-दानव जीव-मानव शरण आते तारती।।2

उध्दार करती द्वेष हरती पाप-संकट काटती।

तुम तेज रूपं…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 1, 2013 at 10:29pm — 16 Comments

ग़ज़ल : सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

-----------

धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं

सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

 

कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर

जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं

 

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

 

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला

खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं

 

हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी

तैरते हैं तो वहाँ आग…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 1, 2013 at 10:16pm — 12 Comments

चुन रविकर सद्मार्ग, प्रतिज्ञा आज लीजिये -

माने मन की बात तो, आज मौज ही मौज |
कल की जाने राम जी, आफत आये *नौज |


आफत आये *नौज, अक्ल से काम कीजिए |
चुन रविकर सद्मार्ग, प्रतिज्ञा आज लीजिये |


रहे नियंत्रित जोश, लगा ले अक्ल दिवाने |
आगे पीछे सोच, कृत्य मत कर मनमाने ||

*ईश्वर ना करे -
आदरणीय पाठक गण-कृपया नौज के उपयोग पर कुछ कहें-

मौलिक/अप्रकाशित-

Added by रविकर on September 1, 2013 at 9:00pm — 3 Comments

मै और तुम

बिखेरे रंग
प्यार के संग-संग
मै और तुम

बिखेरे हँसी

दोस्तो के संग-संग
मै और तुम

बिखेरे गंध
फूलो के संग-संग
मै और तुम

बिखेरे सुर
कुहू के संग-संग
मै और तुम

बिखेरे शब्द
कलम के संग-संग
मै और तुम

मौलिक अप्रकाशित रचना
नयना(आरती कानिटकर
०१/०९/२०१३

Added by नयना(आरती)कानिटकर on September 1, 2013 at 2:17pm — 7 Comments

यह कैसा व्यापार (दोहे)

जादू  टोने टोटके,  फैले पाँव पसार,
श्याणे भौपे कर रहे,जिस्मों का व्यापार । 
 
झांड़-फूक के आड़ में, करते रहे शिकार,
धर्म जगत बदनाम हो,यह कैसा व्यापार । 
 
परम्परा के नाम पर, बढे अंध-विश्वास,
तत्व-बोध जाने बिना, क्यो कर रहे प्रयास । 
 
ड़ायन कहकर दागते, जीना करे हराम,
पागल कहकर साधते, तांत्रिक अपना काम । 
 
पाने की हो लालसा, बढ़ता जावे लोभ,
भाग्य…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 1, 2013 at 1:30pm — 24 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : त्रिया चरित्र (गणेश जी बागी)

ये साहब बहुत ही कड़क और अत्यंत नियमपसंद स्वाभाव के थे ।  कई दिन रेखा देवी की हाजिरी कट गई |  फटकार लगी सो अलग ।

उस दिन साहब के चैम्बर से तेज आवाज़ें आ रही थीं । रेखा देवी चीखे जा रही थीं, "ये साहब मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाल रहा है.."

सब देख रहे थे, ब्लाउज फटा हुआ था । साहब भी भौचक थे । उनकी साहबगिरी और बोलती दोनो बंद थी |



साहब संयत हुए और बोले, "जाओ रेखा देवी.. जब आना हो कार्यालय आना और जब जाना हो जाना, आज से मैं तुम्हें कुछ नही कहनेवाला । वेतन भी…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 1, 2013 at 10:00am — 50 Comments

गर्जत बरसत सावन आया

गर्जत बरसत सावन आया

अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव, धमतरी

मेघों का दल आया है, सावन का संदेशा लाया है।  

जल भरकर ये काले जलधर, जल बरसाने आया है॥                   

मेघों का दल आया है ......

चांदी जैसी बिजली चमकी, उमड़-घुमड़ आये बादल।

लगता है आकाश छोड़कर, धरती पर छाए बादल॥

गर्मी हम से रूठ गई, बरसात ने नाता निभाया है  ।

मेघों का दल आया है ......

भँवरे फूल बगियां खुश हैं, माटी की सोंधी महक उठी।

पंछी सुर में…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 1, 2013 at 10:00am — 12 Comments

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