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रिश्तॆ,,,,,, -----------------

रिश्तॆ,,,,,, -----------------

दूर जब सॆ दिलॊं कॆ मॆल हॊ गयॆ ।

रिश्तॆ जैसॆ राई का तॆल हॊ गयॆ ॥१॥

जिननॆ दी रिश्वत नौकरी मिली,

डिग्रियां लॆ खड़ॆ थॆ फ़ॆल हॊ गयॆ ॥२॥

इरादॆ बहुत नॆक मगर क्या करॆं,

मंहगाई मॆं दब कॆ गुलॆल हॊ गयॆ ॥३॥

बॆमानी भ्रष्टाचार न मरॆंगॆ कभी,

बढ़ रहॆ हैं जैसॆ अमरबॆल हॊ गयॆ ॥४॥

बात की बात मॆं बदल जातॆ लॊग,

वादॆ जैसॆ बच्चॊं, कॆ खॆल हॊ गयॆ ॥५॥

नर और नारी रचॆ थॆ नारायण…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 18, 2012 at 2:50am — 3 Comments

बड़ॆ खराब हॊ,,,,

बड़ॆ खराब हॊ,,,,

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कद से बढ़ कर हाज़िर जवाब हो!

अकेले गज़ल की पूरी किताब हॊ !!



तुम्हे खिज़ाब लगाने की क्या पड़ी,

रंग-रूप से तॊ पैदाइशी खिज़ाब हॊ !!



वक्त की आँधियों ने क्या बिगाड़ा है,

खिले गुलाब थे अब सूखे गुलाब हॊ !!



इस उम्र मे भी आ रहे हैं मिस काल,

मोहब्बत के मामले मॆं कामयाब हॊ !!



हमने तो महज़ सितारा समझा था,

मगर आप तो दहकते आफ़ताब हो !!…



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Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 17, 2012 at 7:32pm — 3 Comments

खाली ज़मीन --- हास्य/ शुभ्रांशु पाण्डेय



सुबह-सुबह लाउडस्पीकर पर बजरंगबली के गोलगप्पा ले के कूद पडने वाले गाने को सुन कर मेरा मन भी बजरंगबली की तरह कूदने को होने लगा. यों मैं बताता चलूँ कि इस गाने या भजन (?) की कोई तुक समझ में नहीं आती है. लेकिन बजता है तो कुछ जरूर होगी. या तो ये गीत है या भजन है.

लेकिन सुबह-सुबह मेरे घर के बगल की खाली जमीन पर गोलगप्पा खिलाये बिना कुदाने वाले कौन लोग आ गये ? यही जानने समझने के लिये मैं हडबडा कर…

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Added by Shubhranshu Pandey on January 17, 2012 at 5:30pm — 10 Comments

ये क्या किया तन्हाई !

ये  क्या  किया तन्हाई !

क्यूँ संजोया तुमनें उन पलों को

जो बन चुके हैं

घाव से नासूर

ढूंड पाओगी

कभी मेरा कसूर ?

गहरी साँसों का मंजर

अधूरे ख्वाबों का खंजर

जो धंस गया है दिल में

चुभनें लगा है फिर से

तुम्हारे आते ही.

कर रहा है मंथन 

भावों में

अब रिस रहा है

धीरे धीरे चीस्ते से

घावों में .

हाए वो अनलिखे मजमून

जो ख़त नहीं बन पाए

क्यों रख दिए तुमनें

तह बना कर

दिल…

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Added by Dr Ajay Kumar Sharma on January 17, 2012 at 3:25pm — 2 Comments

उत्तर ढूंढना है

काश !

कोई दिन मेरा घर में गुजरता

बेवजह बातें बनाते

हँसते – हँसाते

गीत कोई गुनगुनाते

पर नही मुमकिन

मैं दिन घर में बिताऊँ!

 

एक नदी प्यासी पड़ी घर में अकेले

और रेगिस्तान में मैं जल रहा हूँ

थक चुका पर चल रहा हूँ

ढूढता हूँ अंजुली भर जल

जिसे ले

शाम को घर लौट जाऊँ

प्यास को पानी पिला दूँ !

 

मेरे आँगन की बहारों पर

जवानी छा गई है

और मैं

धूप के बाज़ार में बैठा हुआ…

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Added by Arun Sri on January 17, 2012 at 1:30pm — 2 Comments

मुस्काने की फितरत साथ दे अगर

मुश्किल में एजद की रहमत साथ दे अगर |

तो छू लें बुलंदी हम ,किस्मत साथ दे अगर ||



मिट  जाएगा  झूठ  हमारी  कायनात  से ,

बस हमको इक बार सदाकत साथ से अगर…

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Added by Nazeel on January 17, 2012 at 12:30pm — 4 Comments

गीत विरह के

गीत विरह के 


जिसनें जीवन के सुन्दर पल

साथ हमारे काटे थे
क्या खबर थी उनके जीवन में
बस  काँटे  ही काँटे  थे
 

हम बेबस थे,थे लाचार
कैसे जताते अपना प्यार
हमनें…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on January 17, 2012 at 12:30pm — 8 Comments

आजमाइश

तुम्हारी हर आजमाइश के आगे हम सर झुकाते चले गए

सोचा यह आजमाइश ही सच्चे प्रेम की निशानी है

इक आजमाइश पर उतरकर खरे खुश होने से पहले ही

तुम एक और आजमाइश संग खड़े मुस्काते नज़र आये

हम फिर जुट गए उस पर खरा उतरने की जुगत में

जब होने लगा यकीन तुम्हे प्यार पे मेरे आजमयिशो से परे

तुम लगे सोचने ख़त्म करने को सिलसिला आवाजाही का

तब तक मन का जीव मुक्त हो चुका था हर आजमाइश से

और सिर्फ खुली हुई आंखें मेरी रह गई बैचैनी का मंज़र लिए

पूछती एक ही ही…

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Added by Kiran Arya on January 17, 2012 at 10:59am — 5 Comments

सृष्टि का ऋत

अवश्य ही कट जाएगा,

एक दिन वह भी मुझसे,

जो शेष बचा रहा अब तक,

स्वार्थ में अपने...

नहीं इसलिए कि ,

उसका है ध्येय  अनुचित

वरन यही तो है

सृष्टि  का ऋत!

Added by Nutan Vyas on January 17, 2012 at 9:30am — 1 Comment

फुटकर ख्याल

कल्पना में बिखरे कुछ टुकड़े पेश हैं:

 

घर में छा जातीं खुशियाँ

अगर कोई लल्ला हो गया l

 

और अगर जन्मी बिटिया

तो भारी पल्ला हो गया l

 

जब कभी फसल हुई कम

तो मंहगा गल्ला हो गया l

 

कोई डिग्री लेकर घर बैठे

तो वो निठल्ला हो गया l

 

शादी क्या हुई जनाब की

बीबी का…

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Added by Shanno Aggarwal on January 17, 2012 at 3:30am — 8 Comments

घनाक्षरी



हुए थे सूरमा कई, जो खेले थे जान पर ,

उनके ही प्रताप से , ये देश स्वतंत्र है |
न हो तानाशाह कोई, जनता का राज हो ,
दे संविधान बनाया , इसे गणतन्त्र है |…
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Added by dilbag virk on January 16, 2012 at 10:17pm — 3 Comments

जीवन इक खुली किताब है . .

कुछ पन्ने इसके पलट गये

कुछ को न हाथ लगाया है

कुछ याद पुरानी बाकी है

कुछ में इतिहास समाया है



कुछ में वो बीता बचपन है

जिनकी इक अमिट निशानी है

कुछ में है लिखा हुआ छुटपन

कुछ में अनकही कहानी है



कुछ पन्ने बीती रातों से

कुछ ख्वाबों…

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Added by Amit Pandey on January 16, 2012 at 9:30pm — 5 Comments

समझ सॆ परॆ हैं हम,,,,,

समझ सॆ परॆ हैं हम,,,,,

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यॆ मत सॊच कि इतनॆ गिरॆ हैं हम ॥

फ़क्त तॆरॆ इक वायदॆ पॆ मरॆ हैं हम ॥१॥

हॊशियारी की हरियाली न दिखावॊ,

ऎसॆ तॊ तमाम सारॆ खॆत चरॆ हैं हम ॥२॥

दिल मॆं कैद कर लॆं तुम्हॆं क्यूं कर,

कानूनी अदालत कॆ कटघरॆ हैं हम ॥३॥

हमारी हस्ती कॊ तॊलतॆ हॊ तराजू पॆ,

क्या समझॆ बॆज़ान सॆ बटखरॆ हैं हम ॥४॥

नॆकियॊं का दामन नहीं छॊड़ा कभी,

चाहॆ ला्खॊं मु्सीबत मॆं घिरॆ हैं हम ॥।५॥

शैतान की परवाह नहीं है जी…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 16, 2012 at 9:01pm — 3 Comments

दीवारॊं मॆं चुनॆं जानॆं कॆ बाद,,,,,,,

दीवारॊं मॆं चुनॆं जानॆं कॆ बाद,,,,,,,

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बात समझ मॆं आती है मगर,गुनॆ जानॆ कॆ बाद ।

शेर हल्का नहीं हॊता बारहां, सुनॆ जानॆ कॆ बाद ॥१॥



नाम मिटाये नहीं मिटता चाहॆ आग मॆं जला दॊ,

चनॆ आखिर चनॆ ही रहतॆ हैं, भुनॆ जानॆ कॆ बाद ॥२॥



मगरूरॊ तुम्हारा मिज़ाज, यकीनन बदल जायॆगा,

रुई भी बदल जाती है डंडॆ सॆ, धुनॆ जानॆ कॆ बाद ॥३॥



इज्जत बचाना किसी की इतना आसान नहीं है,

कपड़ा भी बनता है चरखॆ पॆ बुनॆ जानॆ कॆ बाद… Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 16, 2012 at 6:20pm — 2 Comments

नया साल, नयी उम्मीदें

करवट लेता है नया साल

आओ कुछ उम्मीदें कर लें   

अरमानों के कुछ बूटों को

दामन में हम अपने सी लें l

 

नेकी हो भरी दुआओं में

मायूस ना हो कोई चेहरा 

जीवन हो शांत तपोवन सा

खुशिओं का रंग भरे गहरा l

 

ना आग बने कोई चिंगारी

ना आस बने कोई लाचारी

जग में फैला हो अमन-चैन 

ना कहीं भी हो कोई बेगारी l

 

ओंठों पे खिली तबस्सुम हो

हर दिल में नूर हो इंसानी 

आँखों में रोशन हों…

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Added by Shanno Aggarwal on January 15, 2012 at 8:00pm — No Comments

''दुनिया गोल है''

ये दुनिया गोल है

यहाँ बड़ा ववाल है

हर चीज का मोल है

बड़ा गोलमाल है l

 

बातों में तो मिश्री

मन में कोई चाल है

है बहेलिया ताक में

बिछा के बैठा जाल है l

 

कहीं ताल लबालब 

कहीं पड़ा अकाल है

क्यों इतना अन्याय

उठता रहा सवाल है l

 

कर पायें आपत्ति

ऐसी कहाँ मजाल है

बात-बात में लोगों की

खिंच जाती खाल है l

 

-शन्नो अग्रवाल 

Added by Shanno Aggarwal on January 15, 2012 at 7:37am — 4 Comments

''है समय की दरकार''

है समय की दरकार l

ये है संसार
कभी ना
किसी पर
करना एतबार l

झूठ के खार
कब जाने
किस पर
कर देंगे वार l

खिला हरसिंगार
कब कौन
लूट जाये
पेड़ की बहार l

आज है प्यार
कल को
नफरत के
होंगें अंगार l

है समय की दरकार l

-शन्नो अग्रवाल

Added by Shanno Aggarwal on January 15, 2012 at 6:00am — 2 Comments

स्त्री और प्रकृति

स्त्री और प्रकृति

प्रकृति और स्त्री

कितना साम्य ?

दोनों में ही जीवन का प्रस्फुटन

दोनों ही जननी

नैसर्गिक वात्सल्यता का स्पंदन,

अन्तःस्तल की गहराइयों तक,

दोनों को रखता एक धरातल पर

दोनों ही करूणा की प्रतिमूर्ति

बिरले ही समझ पाते जिस भाषा को

दोनों ही सहनशीलता की पराकाष्ठा दिखातीं

प्रेम लुटातीं उन…

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Added by mohinichordia on January 14, 2012 at 10:30am — 9 Comments

आबाद

हर कोना शख्सियत को  

बर्बाद करने को आतुर है,
सोचा हर कोने से ही
प्रेम कर लिया जाए...
बर्बाद होना ही अगर 
आबाद होने की निशानी है,
तो क्यों ना आज 
बर्बाद ही हो लिया जाए...
 
-योग्यता

Added by Yogyata Mishra on January 14, 2012 at 10:30am — 4 Comments

''मकर-संक्रांति की यादें और पतंगें''

खुला मौसम गगन नीला

धरा का तन गीला - गीला l

पतंगों की उन्मुक्त उड़ान

तरु-पल्लव में है मुस्कान l 

मकर-संक्रांति को भारत के हर प्रांत में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. और वहाँ के वासी अलग-अलग तरीके से इस त्योहार को मनाते हैं. पंजाब में इसे लोहड़ी बोलते हैं जो मकर-संक्राति के एक दिन पहले की शाम को मनायी जाती है. और उत्तरप्रदेश में, जहां से मैं आती हूँ, इसे मकर-संक्रांति ही बोलते हैं. लोग सुबह तड़के स्नान करते हैं ठंडे पानी में. और इस दिन को खिचड़ी दिवस के रूप…

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Added by Shanno Aggarwal on January 13, 2012 at 5:30pm — 7 Comments

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