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कश्मकश ....

 

एक दोराहे पे खड़ा है दिल मेरा ,
एक अजीब सी कश्मकश
चलती रहती है मेरे अंदर
दोस्ती और मोहब्बत की रस्सी से बने पुल पर |
 
उसकी ख़ुशी में जो मुस्कुराना चाहूँ
तो मोहब्बत रोकती है…
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Added by Veerendra Jain on April 20, 2011 at 11:30am — 9 Comments

एक गीत - जय कृष्ण राय 'तुषार'

पिछले दिनों जय कृष्ण राय 'तुषार' जी ने फोन पर एक गीत सुनाया, जिसे सुनकर मन प्रसन्न हो गया 

आज उनकी सहमती लेकर वह गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा करता हूँ की, ओ.बी.ओ. परिवार को गीत पसंद आयेगा व कमेन्ट द्वारा आप तुषार जी को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे -- आपका वीनस केसरी…

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Added by वीनस केसरी on April 20, 2011 at 3:00am — 7 Comments

अब अपनी पहचान लिखूंगा

बहुत लिख चुका मरण यहाँ मैं, अब मैं अमृतपान लिखूंगा,

जाने क्या समझे थे मुझको, अब अपनी पहचान लिखूंगा ;

क्यों शोक करें, उल्लास भी जब इतने सस्ते में मिलता है,

एक देह की दुनिया है ये, फिर तू क्यों आहें भरता है,

सूरज रोज़ सुबह उगता और सांझ ढले ढल जाता है,

पर उसको जो कुछ करना वह इसी बीच कर जाता है,

संकल्पों के अडिग ह्रदय पर,सावित्री का मान लिखूंगा,

मृत्यु जहाँ आकर के लौटी, ऐसा सत्यवान लिखूंगा ;



क्या मुझसे तुम लिए कभी और क्या मुझको दे जाओगे,

पर जब भी… Continue

Added by neeraj tripathi on April 19, 2011 at 12:03pm — No Comments

गजल-खुदी को खुदी से छुपाते रहें हैं हम

गजल-खुदी को खुदी से छुपाते रहें हैं हम ।

गैरो को मोहरा बनाते रहें हैं हम।।

भ्रष्टाचार को सबने अपना लिया हैं।

शिष्टता की बातें बनाते रहें हैं हम।।

रोशनी से चैंधिया जाती है आंखें ।

अंधेरे में खुशियां मनाते रहें हैं हम।।

जेब कतरों का पेट नहीं भरता।

मेहनत की अपनी खिलाते रहें हैं हम।।

लाखों भूखे पेट सोते हैं यहां।

बज्मों में रातें बिताते रहें हैं हम।।

अन्नाजी आपका बहुत आभार ।

अब तक सूखी खाते रहें हैं हम।।

दोस्तों नेकी कुछ करलो अभी…

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Added by nemichandpuniyachandan on April 19, 2011 at 10:30am — 1 Comment

षटपदियाँ : संजीव 'सलिल'

षटपदियाँ :

संजीव 'सलिल'

*
इनके छंद विधान में अंतर को देखें. प्रथम अमृत ध्वनि है, शेष कुण्डलिनी
*
भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल.
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल..
तज भेदों के, शूल अनवरत, रहें सृजनरत.
मिलें अंगुलिका, बनें मुष्टिका, दुश्मन गारत..
तरसें लेनें. जन्म देवता, विमल विनयरत.
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत..
*
कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत…
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Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2011 at 8:30am — No Comments

एक मुक्तक: संजीव 'सलिल' *

एक मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
हार मिलीं अनगिन मैंने जयहार समझ उनको पहना.
जग-जीवन ने अपमान दिया मैंने मना उसको गहना..
प्रभु से माँगा 'जो जब देना, मुझको सिखला देना सहना-
आखिर में साँसों-आसों की चादर को सीख सकूँ तहना..

Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2011 at 8:25am — No Comments

वो.

 

बरसते नभ से नीर को सहर्ष अपनाते हैं...

नैन बरसें तो रूठ जाते हैं..

प्रीत को तौलते हैं जो लफ़्ज़ों में..वो.…

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Added by Lata R.Ojha on April 18, 2011 at 10:30pm — No Comments

आप जब से

आप जब से करीब आये हैं
मेरे अच्छे नसीब आये हैं
गुनगुनाने लगी हैं दीवारें
साए बन के हबीब आये हैं
दूर गाँव से पोटली वाले
मुझे मनाने रकीब आये हैं
अमीर क्या समझे सूफी को
मेरे घर में गरीब आये हैं
खोल कर आँख देखूं तो ज़रा
आज सपने अजीब आये हैं

Added by Raj on April 18, 2011 at 9:32pm — No Comments

रोगदा बांध मामले में विधानसभा समिति ने शुरू की जाँच

"केएसके महानदी पावर प्लांट को 131 एकड़ जमीन में स्थित बांध बेचे जाने के बहुचर्चित मामले की जांच के लिए विधानसभा की 5 सदस्यीय जांच समिति 17 अप्रैल को रोगदा गांव पहुंची। विधानसभा उपाध्यक्ष नारायण चंदेल की अध्यक्षता में गठित समिति के सदस्यों ने बांध क्षेत्र का निरीक्षण कर ग्रामीणों से जानकारी ली। इस दौरान कई ग्रामीणों ने जांच समिति को बांध…

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Added by rajendra kumar on April 18, 2011 at 12:08pm — 1 Comment

गजल-दौरे-जहाँ में बन गया

गजल

 

दौरे-जहाँ में बन गया कुफ्तार आदमी।

सरे-बाजार में बिकने को हैं तैयार आदमी।।

धर्म-औ-ईमाँ को जो बेच के खा गये।

मौजूद है जहाँ में ऐसे कुफ्फार आदमी।।

कातिल दिन-दहाडे जुल्मो-सितम ढा रहे हैं।

वक्त के हाथों हैं बेबस-औ-लाचार आदमी।।

इसे दुनियां का आंठवा अजूबा ही समझना।

दर्जा-ए-जानवर में हो गया शुमार आदमी।।

कानून-औ-कायदो को करके दरकिनार।

बेखौफ कर रहा आदमी का शिकार आदमी।।

नमकपाश तो बेशुमार मिल जायेंगे मगर।

बडी मुश्किल से…

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Added by nemichandpuniyachandan on April 17, 2011 at 9:30am — 1 Comment

निश्छल आराधना की अमर ज्योति महादेवी वर्मा

      आराधना की वेदी पर अपनी हर एक सांस को न्यौछावर कर देने के लिए आतुर महिमायमयी महादेवी की जिंदगी विलक्षण रही। वह प्यार, करूणा, मैत्री और अविरल स्नेह की कवियत्री रही। मधुर मधुर जलने वाली ज्योति जैसी रही प्रतिपल युगयुग तक प्रियतम का पथ आलोकित करने के लिए आकुल रही। अपनी जिंदगी को दीपशिखा के समान प्रज्लवलित करके युग की देहरी पर ऐसे रख दिया कि मन के बाहर और भीतर उजियाला बिखर गया। महादेवी की रहस्यवादी अभिव्यक्ति को निरुपित करते हुए कवि शिवमंगल सिंह सुमन ने कहा था कि उन्होने वेदांत के अद्वैत की…

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Added by prabhat kumar roy on April 17, 2011 at 8:55am — 3 Comments

कुछ द्विपदियाँ : संजीव 'सलिल'

कुछ द्विपदियाँ :

संजीव 'सलिल'

वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.

राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..

*

चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.

शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..

*

रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.

रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..

*

मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.

'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..

*

खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी…

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Added by sanjiv verma 'salil' on April 16, 2011 at 10:15pm — 3 Comments

गलतफहमियों के लिए

किसी को कानों से सुनना,
और उस पर अमल कर जाना,
क्या ज़रूरी है !!
क्योंकि पूरे चाँद में भी,
रात की सच्चाई,
ज़रा अधूरी है...
मुझे महाभारत का,
वह कथन याद आया,
कि "अश्वत्थामा मारा गया "
ग़लतफ़हमी का शिकार,
वह कथन
द्रोण को खा गया
और हकीकत जानने से पहले ही,
एक महारथी,
काल को भा गया ,
कभी कभी भरोसा करना,
हमारी आवश्यकता नहीं,
मजबूरी है;
और गलतफहमियों के लिए भी,
थोड़ी पहचान ज़रूरी है

Added by neeraj tripathi on April 16, 2011 at 4:46pm — 4 Comments

"देशवासियों तन्द्रा तोड़ो"

देशवासियों तन्द्रा तोड़ो।

आखें खोलो आलस छोड़ो।

उठो जगो बढ़ चढ़ो दुश्मनों

के रुण्डो मुण्डों को फोड़ो।

 

खुली चुनौती मिली मुम्बई

की कर लो स्वीकार ।

बचना पाये तुमसे कोई 

घुसपैठी गद्दार

अगर हिफ़ाजत करे दुश्मनों

की कोई सरकार।

जड़ से उसे उखाड़ फेंकना

और करना ये हुँकार-

भारतमाता की जय।

 

आस्तीन में छिपे भुजंगों

के फण त्वरित मरोड़ो

जहर भरा है जितना भी

सबका सब आज निचोड़ो

छोड़ो…

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Added by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on April 16, 2011 at 2:01am — 1 Comment

अंग प्रदेश की भागीरथी ! !

"आज कुछ भाव अनायास मन में उठे !


इस कविता का संदर्भ : मैं गंगा किनारे बसे अंग प्रदेश से हूँ ..
और अभी यमुना नदी के शहर दिल्ली में रह रहा हूँ !
कुछ भाव इस प्रकार है ..जीवन यात्रा भागीरथी तट से कालिंदी तट तक की बयाँ है ! "
अंग प्रदेश की भागीरथी को ..
मोड़ लाया कालिंदी के संग !




कभी कल कल बहती वो जहान्वी,
वेग उफान कभी सहती बहती…
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Added by Sujit Kumar Lucky on April 16, 2011 at 12:00am — 1 Comment

दोष मेरा क्या ??

 

ओस की कुछ बूँदें बिना बताए ले आई थी,

लोग अश्क समझ बैठे तो दोष मेरा क्या?
कुछ किरचें और चुभन कांच की घुल गयी ओस में..…
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Added by Lata R.Ojha on April 15, 2011 at 11:00pm — 2 Comments

मौत मिली थी आ गले.....



जलियावाला बाग में, बारूदी था जोर. 

सारे जन मारे गए बचा न कोई और..



कातिल डायर ने कहा फायर फायर मार.

तड़ तड़ बरसें गोलियाँ भीषण करें प्रहार ..



मौत मिली थी…

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Added by Er. Ambarish Srivastava on April 15, 2011 at 12:00am — 13 Comments

भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य और पुरुषार्थ ,
जीवन के दो पहलू हैं ,
पुरुषार्थ कर्म से होता है ,…
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Added by Rash Bihari Ravi on April 14, 2011 at 5:30pm — No Comments

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