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आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा...

एक ग़ज़ल

आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

एक होना, डूब जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

जब अकेले हैं मिले, दीवानगी बढ़ती गई,

सिर हिलाना, भाग जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

हाथ में मेरे, कलाई जब…

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Added by Afsos Ghazipuri on November 9, 2011 at 12:30am — 4 Comments

गीत - रजा बनारस !

गीत -  रजा बनारस  !
 
नेमतों से सजा बनारस
नो टेंशन बस मजा…
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Added by Abhinav Arun on November 8, 2011 at 3:30pm — 17 Comments

हिमाचल के लेखक जयदेव 'विद्रोही' दिल्ली में महाकवि कालिदास सम्मान से अलंकृत

प्रैस रिपोर्टर : कुमुद शर्मा

रविवार की रात्री को देव प्रबोधनी एकादशी के अवसर पर त्रिवेणी कला संगम सभागार स्थित तानसेन मार्ग मंडी हॉउस नई दिल्ली में अखिल भारतीय स्वतन्त्र लेखक मंच द्वारा महाकवि कालीदास समारोह आयोजित किया गया जिस के मुख्य अतिथि भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त डाo जीo वीo जीo कृष्ण मूर्ती थे I त्रिवेणी हाल दर्शकों ,मिडिया,पत्रकारों,कलाकारों से खचाखच…

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Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 8, 2011 at 2:45pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 8 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

------------- अंक - 9  --------------

रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था.  प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते…

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Added by satish mapatpuri on November 7, 2011 at 8:00pm — 1 Comment

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 8 --------------

प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से…

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Added by satish mapatpuri on November 6, 2011 at 2:30pm — 1 Comment

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गले मिले दोहा यमक

संजीव 'सलिल'


*

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.

धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..

*

तार रहे पुरखे- भले, मध्य न कोई तार.

तार-तम्यता बनी है, सतत तार-बे-तार..

*

हर आकार -प्रकार में, है वह निर-आकार.

देखें हर व्यापार में, वही मिला साकार..

*

चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.

चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..

*…

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Added by sanjiv verma 'salil' on November 5, 2011 at 1:23pm — No Comments

कहां है 40 छत्तीसगढ़िया ?

छत्तीसगढ़ के 11 बरस होने पर राज्य सरकार जहां प्रदेश के सभी जिलों में राज्योत्सव जैसे आयोजन कर खुशियां मनाने में जुटी हैं, वहीं एक तबका ऐसा भी है, जो अपने सीने में अपनों की मौत का दर्द लिए बैठा है। समय गुजरने के बाद भी उनकी टीस कम होने का नाम नहीं ले रही है। राज्य सरकार की बेरूखी ने उनकी तकलीफों को और बढ़ा दी है।

साल भर पहले 5 अगस्त 2010 को जम्मू के ‘लेह’ में बादल फटने से जिले के दर्जनों गांवों से रोजी-रोटी की तलाश में गए मजदूरों की बड़ी संख्या में मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए, जिसका…

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Added by rajkumar sahu on November 5, 2011 at 12:02pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 7 --------------

  प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज…

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Added by satish mapatpuri on November 5, 2011 at 11:30am — 2 Comments

व्यंग्य - महंगाई की चिता

हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता व चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकी ‘चिता’ बनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता…

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Added by rajkumar sahu on November 4, 2011 at 11:12pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)



त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 5 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 6  ---------------

दोषी लोगों को सज़ा दिलाने के लिए प्रबल प्रताप सिंह कृतसंकल्प थे, किन्तु राजनीतिक हलकों में उनकी पहुँच अच्छी थी. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने सिंह साहेब से स्वयं मिलकर कहा - ' आपने जिन लोगों को दोषी करार दिया…

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Added by satish mapatpuri on November 4, 2011 at 2:00am — 2 Comments

ये जो जिस्म है

ये जो जिस्म है, क्या तिलिस्म है,

कुदरत की कैसी ये किस्म है?

 

मैं बहक गया, वो चहक गया,

मैं तो शोला था, सो दहक गया।…

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Added by Subhash Trehan on November 3, 2011 at 3:50pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 4 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 5 ---------------

... एक दिन सुबह-सुबह प्रबल बाबू ने समाचार पत्र उठाया ही था किउन्हें सांप सूंघ गया... " नकली दवा के कारण सात लोगों की मौत "

खबर ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया. समाचार के विस्तार में लिखा था -- " सरकारी अस्पताल…

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Added by satish mapatpuri on November 3, 2011 at 3:00am — 2 Comments

तू इस देश का वासी है.

ताजा सिर्फ सियासी है.

बाकी सब कुछ बासी है.
दौलत के चरणों की तो,
दुनिया सारी दासी है.
आम-आदमी तन्हा है,
उसके संग उदासी है.
शपथ देश की खा लेंगे,
ये तो बात जरा सी है.
भ्रष्ट रास्तों पर चलिए,
आमद अच्छी-खासी है.
बहु-बेटियां बिकती है,
माँ की गोद रुआंसी है.
बूँद-बूँद से भरा कलश,
मछली फिर भी प्यासी है.
गंगा-जल हांथों में ले,
तू इस देश का…
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Added by AVINASH S BAGDE on November 2, 2011 at 9:00pm — 4 Comments

व्यंग्य - किसे कराएं पीएचडी

मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम आ रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं,…

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Added by rajkumar sahu on November 2, 2011 at 11:00am — 1 Comment

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

-------------- अंक - 4 --------------- '

अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

मैं कुछ समझा नहीं ..' प्रबल बाबू के माथे पर बल पड़ गए थे.  उनकी इस असहज स्थिति का लाभ उठाने में उमाकान्त जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने सपाट से चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उन्होंने तत्क्षण कहा -…

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Added by satish mapatpuri on November 2, 2011 at 2:00am — 3 Comments

लांछन

पुरुषों की सत्ता बोलें या

कुंठित शासन लगता है.
नर क़े साथ बराबर नारी!
कोरा भाषण लगता है.
औरत तेरी हालत पे
क्या-क्या और लिखा जाये?
नामर्दों की बस्ती में भी,
बाँझ का लांछन लगता है.

अविनाश बागडे.

 

Added by AVINASH S BAGDE on November 1, 2011 at 8:00pm — 6 Comments

त्यागपत्र (कहानी)



त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 2 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 3 ---------------

प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही उन्हें टोकते हुए कहा -  'शायद, इस प्रसंग पर बात करने के लिए यह उचित समय नहीं…

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Added by satish mapatpuri on November 1, 2011 at 2:00am — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
दीप जले -- (छंद : मत्तगयंद सवैया और घनाक्षरी)

 

पाँति सजी मनभावन, पावन दीप जले,…

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Added by Saurabh Pandey on October 31, 2011 at 1:30pm — 2 Comments

अमावस जैसे .. .



शब्द चुप से हैं ,कुछ अरसे से..
मन है व्याकुल सा  ,भाव तरसे से ..
घुमड़ते हुए से बादल बरसते ही नहीं  ..
जाने क्या…
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Added by Lata R.Ojha on October 31, 2011 at 8:49am — 4 Comments

एक तवायफ की दास्तान

कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है--ये जवानी मेरी तस्वीर नज़र आती है !!



                    
                                                         हमने सोचा न था हालात कुछ ऐसे होंगे !…
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Added by Hilal Badayuni on October 31, 2011 at 12:30am — 16 Comments

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