प्रदीप नील वसिष्ठ's Posts - Open Books Online2024-03-28T14:47:56Zप्रदीप नील वसिष्ठhttp://openbooks.ning.com/profile/3ugsdsv98puvvhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991292504?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3ugsdsv98puvv&xn_auth=noअन्ना , मेरे भरोसे मत रहना / प्रदीप नीलtag:openbooks.ning.com,2015-12-29:5170231:BlogPost:7272412015-12-29T07:19:43.000Zप्रदीप नील वसिष्ठhttp://openbooks.ning.com/profile/3ugsdsv98puvv
<p>लगे रहो तुम मेरे प्यारे, पीछे मत हटना अन्ना हज़ारे<br></br>सोलह से अनशन ज़रूर करना, अब किसी से ज़रा न डरना<br></br>क्योंकि पूरा देश तुम्हारे साथ है<br></br>पर ये और बात है,<br></br> कि मैं नहीॅं आ पाऊंगा ।<br></br>क्योंकि बिजली चोरी करते पकड़ा गया था<br></br>ज़ुर्माना भरने अदालत जाऊंगा<br></br>मज़बूरी है वर्ना ज़़रूर आता , साथ तुम्हारे नारे लगाता<br></br>गली-गली में शोर है, हर एक नेता चोर है ।।</p>
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<p>अन्ना, मैं सत्रह को भी नहीं आ पाऊंगा<br></br>नया मकान खरीदा है, रजि़स्ट्री कराने जाऊंगा<br></br>मैं वहां मौज़ूद रहा तो दो…</p>
<p>लगे रहो तुम मेरे प्यारे, पीछे मत हटना अन्ना हज़ारे<br/>सोलह से अनशन ज़रूर करना, अब किसी से ज़रा न डरना<br/>क्योंकि पूरा देश तुम्हारे साथ है<br/>पर ये और बात है,<br/> कि मैं नहीॅं आ पाऊंगा ।<br/>क्योंकि बिजली चोरी करते पकड़ा गया था<br/>ज़ुर्माना भरने अदालत जाऊंगा<br/>मज़बूरी है वर्ना ज़़रूर आता , साथ तुम्हारे नारे लगाता<br/>गली-गली में शोर है, हर एक नेता चोर है ।।</p>
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<p>अन्ना, मैं सत्रह को भी नहीं आ पाऊंगा<br/>नया मकान खरीदा है, रजि़स्ट्री कराने जाऊंगा<br/>मैं वहां मौज़ूद रहा तो दो पैसे बचा लूंगा<br/>पचास लाख का मकान लिया है, बीस लाख का दिखा दूंगा<br/>किसी के बाप का क्या जाता है, देश में हर कोई तो खाता है<br/>मज़बूरी है वर्ना ज़़रूर आता , साथ तुम्हारे नारे लगाता<br/>गली-गली में शोर है, हर एक नेता चोर है ।।</p>
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<p>अन्ना, अठारह को भी बहुत टेंशन है, क्योंकि हमारे यहां इलेक्षन है<br/>मैंने दोनों उम्मीदवारों को आश्वासन दे रखा है<br/>और दोनों से ही पैसा ले रखा है<br/>ईमानदार हूं इसलिए पोलिंग बूथ जाऊंगा<br/>दोनों के ही चुनाव-चिह्न पर मोहर लगा के आऊंगा<br/>मज़बूरी है वर्ना ज़़रूर आता , साथ तुम्हारे नारे लगाता<br/>गली-गली में शोर है, हर एक नेता चोर है ।।</p>
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<p>अन्ना बीस को बी पी एल के कार्ड बनेंगे<br/>चार मोबाइल हैं घर में, पर हम भी लाईन में लगेंगे<br/>इक्कीस को फर्जी डिग्री खरीदने जाना है, बेटे को नौकरी भी लगवाना है<br/>बाइस को नकली घी की फैक्टरी का उद्घाटन कराना है<br/>तेइस को गाड़ी में किचन सिलेंडर फिट करवाना है<br/>कौन कहता है यह सब भ्रष्टाचार है<br/>यह तो अब पूरे देश का व्यवहार है<br/>किसी के बाप का क्या जाता है, देश में हर कोई तो खाता है<br/>और फिर भी यही चिल्लाता है<br/>गली-गली में शोर है, हर एक नेता चोर है .</p>
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<p>अन्ना क्या तुम्हे भी याद है<br/>सिरफ छह महीने पहले की बात है<br/>मैं जिस भी गली गुज़रता था, बस एक ही नारा सुनता था-<br/>सौ में से निन्यानवे बेईमान, फिर भी मेरा देश महान<br/>रातों-रात कैसे ये नारे बदल गए<br/>क्या मेरे देश के लोग सारे, सचमुच बदल गए?<br/>तुम्हारी टोपी पहनी ऐसी, हम तो उजले दिखने लगे<br/>और नेता सारे के सारे सफेद बगुले दिखने लगे<br/>अन्ना तूने किया कमाल, भारतवासी हुए निहाल<br/>लगे रहो बस यूं ही प्यारे, पीछे मत हटना अन्ना हज़ारे<br/>सोलह से अनशन ज़रूर करना, अब किसी से ज़रा न डरना<br/>क्योंकि पूरा देश तुम्हारे साथ है<br/>पर ये और बात है,<br/> कि मैं नहीॅं आ पाऊंगा ।</p>
<p>( मौलिक तथा अप्रकाशित )</p>हां, मैं हत्यारा हूं /प्रदीप नीलtag:openbooks.ning.com,2015-12-02:5170231:BlogPost:7207152015-12-02T04:30:00.000Zप्रदीप नील वसिष्ठhttp://openbooks.ning.com/profile/3ugsdsv98puvv
<p>मैं खड़ा हूं आपकी अदालत में सर झुकाए<br></br> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है ।<br></br> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br></br> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।<br></br> पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं निर्दोष हूं, बेचारा हूं<br></br> सच तो ये है कि मैं हत्यारा हूं,<br></br> हां मैं हत्यारा हूं</p>
<p><br></br> मैं हत्यारा हूं अपने बेटे के मासूम बचपन का<br></br> मैं हत्यारा हूं अपनी बेटी के खिलते हुए यौवन का<br></br> मैं हत्यारा हूं मां-बाप की बूढ़ी आस का<br></br> मैं हत्यारा हूं अपनी पत्नी के कमज़ोर से…</p>
<p>मैं खड़ा हूं आपकी अदालत में सर झुकाए<br/> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है ।<br/> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br/> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।<br/> पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं निर्दोष हूं, बेचारा हूं<br/> सच तो ये है कि मैं हत्यारा हूं,<br/> हां मैं हत्यारा हूं</p>
<p><br/> मैं हत्यारा हूं अपने बेटे के मासूम बचपन का<br/> मैं हत्यारा हूं अपनी बेटी के खिलते हुए यौवन का<br/> मैं हत्यारा हूं मां-बाप की बूढ़ी आस का<br/> मैं हत्यारा हूं अपनी पत्नी के कमज़ोर से विश्वास का<br/>मैं हत्यारा हूं ,<br/> हां मैं हत्यारा हूं</p>
<p><br/> है कोई परमात्मा की बेटी इस पूरे ग्लोब पर ?<br/> जो अपना हाथ उठाए और गर्व से मुझे बताए<br/> कि आज तक एक भी पुरूष ने उसे नहीं छेड़ा या सताया ?<br/> लेकिन मेरी पत्नी ने घर आकर कभी नहीं बताया<br/> कि आज फिर शहर के जंगल में, किसी भेडि़ए ने उसे दबोचा<br/> पूरा ही चबा डाला या बस ज़रा सा नोंचा<br/> वो जानती है मैं कमज़ोर पुरुष भाषण देने लगूंगा<br/> उसे छेड़े जाने का इलज़ाम भी उसी के सर धरूंगा<br/> अरे फैशन करके जाओगी तो ऐसा ही होगा<br/> लोगों से नयन मिलओगी तो ऐसा ही होगा<br/> लेकिन वह जानती है कि भेडि़ए सिर्फ भेडि़ए हैं और नोंचना उनकी फितरत<br/> शिकार चाहे चार साल की बच्ची हो,सत्तर साल की बुढिया या सर पे पांव तक बुर्के में ढंकी औरत<br/> भेडि़ए श्रृंगार नहीं शिकार देखते हैं।<br/> हर तकलीफ वो रहे छुपाती, मुझे एक भी नहीं बताती<br/> क्योंकि नहीं चाहती कि उसके और मेरे बीच कमज़ोर से विश्वास की डोर टूट जाए<br/> लेकिन नर्क में भी ज़गह नहीं उस पति के लिए जिसकी पत्नी का उस से विश्वास उठ जाए।<br/> तो ही तो खड़ा हूं आपके सामने सर झुकाए<br/> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है.<br/> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br/> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।</p>
<p><br/> बेटियां चाहे अमीर की हो या गरीब की<br/> अपने पिता की बहुत प्यारी होती हैं,दुलारी होती हैं<br/> वो बेशक ना भी जन्मी हों किसी राज़ा के घर<br/> बेटिया़ तो ज़न्म से ही राजकुमारी होती हैं<br/> उनके सपनों में राजकुमार आते हैं<br/> नीले घोडे पर होकर सवार आते हैं<br/> तब वे अपने बालों में फूल टांकती हैं<br/> और अपने पिता से चांद मांगती हैं<br/> लेकिन मेरी बेटी ने चांद तो क्या, धुंधला सा सितारा भी नहीं मांगा<br/> खुद सपना बुनना तो दूर, सपना उधारा भी नहीं मांगा<br/> वो जानती है , उसका बाप बहुत बौना है<br/> लाख चाहकर भी चांद को नहीं छू पाएगा<br/> नहीं उगाती वो गुलाब की क्यारी, अपनी आंखों में<br/> जानती है उसे लेने कोई राजकुमार नहीं आएगा<br/> उसकीआंखों के दीए मैंने बुझाए, रोज यही एक बात कहकर<br/> तू लाट की बेटी नहीं लड़की है, लडकी की तरह रहा कर<br/> मैंने उसके सपनों को चुन चुनकर मारा,फिर भी उसे मैं प्यारा हूं<br/> तो ही तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं<br/> इसीलिए खडा हूं आपके सामने सर झुकाए<br/> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है<br/> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br/> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।</p>
<p><br/> वो बेटा ही क्या जो पडौसी का कांच ना तोड़े<br/> मां का लहू ना पिए, बाप की मूंछ ना मरोड़े<br/> घर से पैसे ना चुराए, और दोस्तों से उधार ना मांगे<br/> गर्लफ्रेंड को घुमाने के लिए बाईक या कार ना मांगे<br/> लेकिन मैंने अपने बेटे को, हाथ के नीचे दबाके रखा<br/> कभी डांट के कभी मार के, राजा बेटा बना के रखा<br/> और मेरा बेटा नालायक नहीं मैं गर्व से सबको बताता रहा<br/> ड्राइंगरूम में बैठे मेहमानों को बेटे के गुण गिनवाता रहा<br/> लेकिन मैं अच्छा पिता नहीं बन पाया ऐसा मुझे आज लगता है<br/> क्योंकि बेटा सिर्फ बाईस का है मगर बासठ का दिखता है<br/> उसने बचपन नहीं देखा,जवानी नहीं देखी<br/> रगों में बहते खून की रवानी नहीं देखी<br/> धरती पर ऐड़ी मारकर पानी नहीं निकाला<br/> शेर के जबड़ों में कभी भी हाथ नहीं डाला .<br/> वो कभी कुछ भी नहीं मांगता मुझसे<br/> उसे पता है कि अभावों मे जीना उसका नसीब है<br/> लेकिन इससे बडा कलंक नहीं होता किसी पिता के लिए<br/> जिसका बेटा बचपन से ही जान जाए कि उसका बाप गरीब है.<br/> बेटा बड़ा होकर नहीं रहता किसी का<br/> और वो आज भी कहता है मैं तुम्हारा हूं<br/> इसीलिए तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं<br/> तो ही तो खड़ा हूं आपके सामने सर झुकाए<br/> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है<br/> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br/> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।</p>
<p><br/> मेरे मां बाप ने कभी उलाहना नहीं दिया<br/> कि मैं जवान हुआ हूं उनका लहू पीकर<br/> वो ये भी नहीं चाहते कि मै उन्हे तीर्थ कराऊं<br/> श्रवण कुमार की तरह कांधों पे बिठाकर<br/> वो सिर्फ इतने चाहते हैं कि तेईस घंटे छप्पन मिनट कहीं भी रहूं<br/> दिन में सिर्फ चार मिनट उनके पास बैठूं<br/> खाने को छप्पन पकवान बेशक ना परोसूं<br/> कुत्तों की तरह उनके आगे दो वक्त के टुकडे़ भी ना फेंकूं<br/> जो हाथ सहारा देते रहे मुझे बचपन में<br/> वो बूढे हाथ मेरे कांधों का सहारा मांगते हैं<br/> जो दीपक जलाया था उन्होने सारी उम्र मेरे लिए<br/> अब उस दीपक का ज़रा सा उजियारा मांगते हैं<br/> लेकिन मैं इतना भी नहीं कर पाता<br/> उलझा रहता हूं खुद के जीवन के जाल में<br/> कभी बीवी, कभी बच्चों की जि़म्मेवारियां<br/> और कभी दो वक़्त की रोटी के सवाल में<br/> गंगा जमुना बहती रहती, आज उन बूढी आंखों में<br/> और फिर भी वो बूढी आंखें कहतीं , मैं तो उनका का तारा हूं<br/> तो ही तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं<br/> तो ही तो खडा हूं आपके सामने सर झुकाए<br/> हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है<br/> और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में<br/> किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है<br/> पर ये सच नहीं कि मैं निर्दोष हूं,बेचारा हूं<br/> सच तो ये है कि मैं हत्यारा हूं,<br/> हत्यारा हूं ।<br/> हत्यारा हूं , मैं <br/> हां, मैं हत्यारा हूं</p>
<p>.<br/> ( मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>अब ज़रा थक सा गया हूं, मैंtag:openbooks.ning.com,2015-11-22:5170231:BlogPost:7168982015-11-22T04:30:00.000Zप्रदीप नील वसिष्ठhttp://openbooks.ning.com/profile/3ugsdsv98puvv
<p>दुनिया देती मुझे बधाई, कि मैं कितना संभल गया <br></br> मुझे ग्लानि, आंख में पानी, कि मैं इतना बदल गया</p>
<p></p>
<p>एक समय होता था जब मैं,<br></br> न्याय की बात पर अड़ जाता था<br></br> आग धधकती थी सीने में<br></br> हर जुल्मी से भिड़ जाता था<br></br> अब रोज़ द्रौपदी होती नंगी, खून ज़रा भी नहीं खौलता<br></br> कोई सूरज को भी चांद कहे तो, चुप रहता हूं नहीं बोलता<br></br> कहते हैं सब भला हुआ कि अब चुक सा गया हूं मैं<br></br> सच तो ये है लेकिन अब, ज़रा थक सा गया हूं मैं .</p>
<p></p>
<p>थक गया हूं झूठे रिश्तों का, बोझ…</p>
<p>दुनिया देती मुझे बधाई, कि मैं कितना संभल गया <br/> मुझे ग्लानि, आंख में पानी, कि मैं इतना बदल गया</p>
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<p>एक समय होता था जब मैं,<br/> न्याय की बात पर अड़ जाता था<br/> आग धधकती थी सीने में<br/> हर जुल्मी से भिड़ जाता था<br/> अब रोज़ द्रौपदी होती नंगी, खून ज़रा भी नहीं खौलता<br/> कोई सूरज को भी चांद कहे तो, चुप रहता हूं नहीं बोलता<br/> कहते हैं सब भला हुआ कि अब चुक सा गया हूं मैं<br/> सच तो ये है लेकिन अब, ज़रा थक सा गया हूं मैं .</p>
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<p>थक गया हूं झूठे रिश्तों का, बोझ उठाते-उठाते<br/> थक गया हूं बेशर्म हवा में, आशाओं का दीप जलाते <br/> थक गया हूं दो और दो को चार बनाते-बनाते<br/> थक गया बेईमान समय में, मैं ईमान की पौध लगाते<br/> भाई-चारे की अलख जगाते, विश्व-कल्याण की रट लगाते<br/> सबके घावों को सहलाते, रावण की नाभि तीर चलाते<br/> राम को बनवास से वापिस लाते, बहुत थक गया हूं मैं .<br/> मैं<br/> जो न्याय की बात पर अड़ जाता था<br/> हर जुल्मी से भिड़ जाता था</p>
<p></p>
<p>सीख लिया अब मैंने जत्न से, खुद को यहां जिन्दा रख पाना<br/> थप्पड़ खाकर भी हंस देना, मुंह पर थुकवा कर चुप रह जाना<br/> आ गया है हुनर मुझे अब, कि दामन अपना कैसे बचाना<br/> बड़ों के पांवों में गिर जाना, कमज़ोरों को आंख दिखाना<br/> धरती को मां कहने वालों को अब मैं मूर्ख कहता हूं<br/> हो गया हूं इतना सयाना, बह्ती हवा के संग बहता हूं<br/> सबसे छुप के मैं रो लेता , जब कभी भी दुख सहता हूं<br/> मुखौटा लगा मुस्काता रहता, मज़े में हूं सबसे कहता हूं<br/> मैं<br/> जो न्याय की बात पर अड़ जाता था<br/> हर जुल्मी से भिड़ जाता था</p>
<p></p>
<p>थका ज़रूर हूं ज़रा सा बेशक, मानी नहीं है मैंने हार<br/> रावण बैठे राम-सिंहासन, कैसे कर लूं मैं स्वीकार ?<br/> अभी तो हरेक अंधियारे को कहना है मुझको धिक्कार<br/> अभी तो हरेक अभिमन्यु की करनी मुझको जय-जयकार<br/> अभी तो पानी नहीं हुआ है, खून मेरा अभी खून है<br/> गिर गया हूं मरा नहीं हूं, जि़ंदा जोश-जुनून है<br/> ना ही तो पूरा बदला, ना चुक ही गया हूं मैं<br/> क्या हुआ जो अभी ज़रा थक सा गया हूं मैं<br/> क्या हुआ जो अभी ज़रा थक सा गया हूं मैं </p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व प्रकाशित )</p>मैं कविता क्यों नहीं लिखताtag:openbooks.ning.com,2015-11-13:5170231:BlogPost:7146852015-11-13T13:00:00.000Zप्रदीप नील वसिष्ठhttp://openbooks.ning.com/profile/3ugsdsv98puvv
<p>ऐसा नहीं कि मुझे कविता, लिखनी नहीं आती<br></br> सच तो ये है कविता मुझसे लिखी नहीं जाती .</p>
<p></p>
<p>कविता लिखने की ललक में, ऐसे उठाता हूं मैं पैन<br></br> गर्भवती कोई जैसे छुपके, कच्चा आम लपकती है.<br></br> पर बेचारा कोरा कागज़, यूं सहमने लगता है<br></br> जैसे गुण्डों से घिरी, कोई अबला मिन्नत करती है.<br></br> शील-हरण तो रोज़ ही होते, बड़े शहर के चौराहों पर<br></br> लेकिन मुहल्ले की गलियों में, मैली आंख भी नहीं सुहाती.<br></br> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती.</p>
<p></p>
<p>चाहूं तो किसी की झील सी आंखों…<br></br></p>
<p>ऐसा नहीं कि मुझे कविता, लिखनी नहीं आती<br/> सच तो ये है कविता मुझसे लिखी नहीं जाती .</p>
<p></p>
<p>कविता लिखने की ललक में, ऐसे उठाता हूं मैं पैन<br/> गर्भवती कोई जैसे छुपके, कच्चा आम लपकती है.<br/> पर बेचारा कोरा कागज़, यूं सहमने लगता है<br/> जैसे गुण्डों से घिरी, कोई अबला मिन्नत करती है.<br/> शील-हरण तो रोज़ ही होते, बड़े शहर के चौराहों पर<br/> लेकिन मुहल्ले की गलियों में, मैली आंख भी नहीं सुहाती.<br/> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती.</p>
<p></p>
<p>चाहूं तो किसी की झील सी आंखों<br/> और बादल से काले बालों, <br/> कमर लचकती, चाल हिरण सी<br/> शहतूत से होंठों, सेब से गालों,<br/> पर ऐसी सुंदर लिखूं कविता, कि पांऊं चुंबन का इनाम<br/> फिर उसी कविता को छपवाकर, पा जाऊं गुठली के दाम<br/> पर हिसाबी नहीं रहा ज़न्म से, चोरबाज़ारी भी नहीं आती</p>
<p>इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती</p>
<p></p>
<p>मैं जन-कवि कहला सकता हूं</p>
<p>व्यवस्था को दे के चार गालियां<br/> या क्रान्ति के झुठे गीत लिखूं मैं<br/> और बटोरूं खूब तालियां<br/> हाथ में गीता झूठी गवाही, कोर्ट में तो रोज़ ही चलती <br/> लेकिन सरस्वती मंदिर में 400बीसी हो नहीं पाती<br/> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती</p>
<p></p>
<p>या सुंदर-सुंदर शब्द छांट के<br/> डिक्षनरी से मैं ले आऊं<br/> शब्दों को ऐसा उलझा दूं<br/> बहुत बड़ा विद्वान कहलाऊं<br/> उलझी-उलझी गोल जलेबी, हलवाई तो रोज़ बनाते<br/> लेकिन ऐसी गोल जलेबी कविता नहीं कभी कहलाती<br/> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती</p>
<p></p>
<p>औरों की कविता सदा-सुहागन,<br/> छंद और लय के मेक-अप वाली<br/> बिन सुर ताल की मेरी कविता,<br/> मांग भी सूनी, गोद भी खाली .<br/> डरता हूं कि बाकी कवियों में, मेरी कविता ऐसी दिखेगी<br/> जैसे करवा-चौथ के दिन, विधवा फिरे कोई मुंह छुपाती<br/> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती</p>
<p></p>
<p>मैं कैसे बताऊं कि स्याही से लिखी नहीं जाती कोई कविता<br/> इसे तो आंख के आंसू या फिर लहू पिलाना पड़ता है<br/> अपनी पीड़ा गाते रहना, है सबसे बड़ा कमीनापन<br/> इसे तो जग की पीड़ा को गले लगाना पड़ता है<br/> कविता लिखना तो बांबी से फनियर नाग पकड़ने जैसा<br/> जान हथेली रहे हमेशा , गज़ भर की ये मांगे छाती<br/> इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती<br/> ऐसा नहीं कि मुझे कविता, लिखनी नहीं आती</p>
<p>.<br/> ( मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>