प्रदीप देवीशरण भट्ट's Posts - Open Books Online2024-03-28T10:02:46Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatthttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3049397026?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3otgy83nh87tc&xn_auth=noबिन तेरेtag:openbooks.ning.com,2020-01-28:5170231:BlogPost:10002172020-01-28T10:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>तेरे बिन है घर ये सूना <br/> मेरे मन का कोना सूना<br/> समझो ना ये चार दिनो का<br/> प्यार हमारा काफ़ी जूना*!</p>
<p></p>
<p>घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ<br/> मैं छलना ना ख़ुद को जानूं <br/> लोगों का तो काम है कहना <br/> मैं तुमको बस अपना मानूं! !</p>
<p></p>
<p>मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है<br/> और साथ में चलने क़ी है<br/> तब ये सूनापन ना अखरे <br/> बात नज़रिया बदलने क़ी है! !</p>
<p><br/> * पुराना (मराठी शब्द)<br/> - प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>तेरे बिन है घर ये सूना <br/> मेरे मन का कोना सूना<br/> समझो ना ये चार दिनो का<br/> प्यार हमारा काफ़ी जूना*!</p>
<p></p>
<p>घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ<br/> मैं छलना ना ख़ुद को जानूं <br/> लोगों का तो काम है कहना <br/> मैं तुमको बस अपना मानूं! !</p>
<p></p>
<p>मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है<br/> और साथ में चलने क़ी है<br/> तब ये सूनापन ना अखरे <br/> बात नज़रिया बदलने क़ी है! !</p>
<p><br/> * पुराना (मराठी शब्द)<br/> - प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>पटरियों से सीखtag:openbooks.ning.com,2020-01-27:5170231:BlogPost:9999822020-01-27T07:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>इक तेरी है इक मेरी है</p>
<p>ढल के आग में ये बनी हैं</p>
<p>जैसे तुम से तुम बने हो</p>
<p>वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ</p>
<p> </p>
<p>आ चल बैठ यहीं हम देखें</p>
<p>एक दूजे से कुछ हम सीखें</p>
<p>अलग है माना फिर भी संग संग</p>
<p>मिलजुल कर के रहना सीखें</p>
<p> </p>
<p>शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो</p>
<p>जंगल में या कहीं ठौर हो</p>
<p>साथ ना छोडे एक दूजे का</p>
<p>ताप हो कितना या के शीत हो</p>
<p>कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी</p>
<p>दिन हो या हो रात अंधेरी</p>
<p>कर्म पथ से कभी ना डिगती</p>
<p>ना…</p>
<p>इक तेरी है इक मेरी है</p>
<p>ढल के आग में ये बनी हैं</p>
<p>जैसे तुम से तुम बने हो</p>
<p>वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ</p>
<p> </p>
<p>आ चल बैठ यहीं हम देखें</p>
<p>एक दूजे से कुछ हम सीखें</p>
<p>अलग है माना फिर भी संग संग</p>
<p>मिलजुल कर के रहना सीखें</p>
<p> </p>
<p>शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो</p>
<p>जंगल में या कहीं ठौर हो</p>
<p>साथ ना छोडे एक दूजे का</p>
<p>ताप हो कितना या के शीत हो</p>
<p>कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी</p>
<p>दिन हो या हो रात अंधेरी</p>
<p>कर्म पथ से कभी ना डिगती</p>
<p>ना करती कभी तेरी मेरी</p>
<p> </p>
<p>हम एक दूजे का हाथ पकड लें</p>
<p>जो टूटे ना वो विश्वास पकड लें</p>
<p>हम हर मुश्किल में साथ रहेगें</p>
<p>गर बाहों का हम पाश पकड लें! !</p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 27-01-2020</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>सहर हो जाएगाtag:openbooks.ning.com,2020-01-16:5170231:BlogPost:9996292020-01-16T09:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा</p>
<p>प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ</p>
<p>एक लम्हा भी दहर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>माना ये छोटा है पर धीरज तो धर</p>
<p>बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>भाग्य में जितना लिखा था मिल गया</p>
<p>अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर</p>
<p>मौत का उस पर असर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला</p>
<p>आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>सीख कुछ मेरे…</p>
<p>जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा</p>
<p>प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ</p>
<p>एक लम्हा भी दहर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>माना ये छोटा है पर धीरज तो धर</p>
<p>बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>भाग्य में जितना लिखा था मिल गया</p>
<p>अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर</p>
<p>मौत का उस पर असर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला</p>
<p>आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p>सीख कुछ मेरे तजरबे से ‘प्रदीप’</p>
<p>वरना तू भी दर बदर हो जाएगा</p>
<p> </p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p>-प्रदीप देवीशरण भट्ट -16.01.2020</p>हम पंछी भारत केtag:openbooks.ning.com,2020-01-09:5170231:BlogPost:9987882020-01-09T12:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>जो हैं भूखे यहाँ ठहर जाएँ</p>
<p>शेष सब संग संग उड़ जाएँ</p>
<p>कमी नहीं यहाँ पे दानों क़ी</p>
<p>हो जो बरसात मेरे घर आएँ</p>
<p>पेट भरता है चंद दानों से</p>
<p>फ़िर क्यूँ सहरा में घूमने जाएँ</p>
<p>लोग भारत के बहुत अच्छे हैं</p>
<p>ख़ुद से पहिले हमें हैं खिलवाएँ</p>
<p>मार कंकर भगाते हैं बच्चे</p>
<p>फिर वही प्यार से हैं बुलावाएँ</p>
<p>प्रचंड गर्मी में जब तडपते हैं</p>
<p>पानी हमको यहीं हैं पिलवाएँ</p>
<p>खेत खलिहान सौंधी सी ख़ुशबू</p>
<p>छोड़ मिट्टी क़ो 'दीप' <span>क्यूँ…</span></p>
<p>जो हैं भूखे यहाँ ठहर जाएँ</p>
<p>शेष सब संग संग उड़ जाएँ</p>
<p>कमी नहीं यहाँ पे दानों क़ी</p>
<p>हो जो बरसात मेरे घर आएँ</p>
<p>पेट भरता है चंद दानों से</p>
<p>फ़िर क्यूँ सहरा में घूमने जाएँ</p>
<p>लोग भारत के बहुत अच्छे हैं</p>
<p>ख़ुद से पहिले हमें हैं खिलवाएँ</p>
<p>मार कंकर भगाते हैं बच्चे</p>
<p>फिर वही प्यार से हैं बुलावाएँ</p>
<p>प्रचंड गर्मी में जब तडपते हैं</p>
<p>पानी हमको यहीं हैं पिलवाएँ</p>
<p>खेत खलिहान सौंधी सी ख़ुशबू</p>
<p>छोड़ मिट्टी क़ो 'दीप' <span>क्यूँ जाएँ</span></p>
<p><span>.</span></p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p><span>-प्रदीप देवीशरण भट्ट - 08:01:2020</span></p>अहसासtag:openbooks.ning.com,2020-01-08:5170231:BlogPost:9988332020-01-08T06:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>क्या तुम्हें याद है प्रिय</p>
<p>जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही</p>
<p>नदी के किनारे चलते चलते</p>
<p>एक छोर से दूसरे छोर तलक</p>
<p>एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ</p>
<p>टहलते रहते थे नंगे पाँव!</p>
<p> </p>
<p>तुम जल्दी ही थक जाती थीं</p>
<p>औऱ बैठ जाया करती थीं</p>
<p>बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर</p>
<p>और टिका देती थीं सर बेंच पर</p>
<p>औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था</p>
<p>सिगरेट के कशों के साथ !</p>
<p> </p>
<p>हम दोनों घंटो निहारते रहते थे</p>
<p>एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक</p>
<p>कभी विस्तृत नीले…</p>
<p>क्या तुम्हें याद है प्रिय</p>
<p>जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही</p>
<p>नदी के किनारे चलते चलते</p>
<p>एक छोर से दूसरे छोर तलक</p>
<p>एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ</p>
<p>टहलते रहते थे नंगे पाँव!</p>
<p> </p>
<p>तुम जल्दी ही थक जाती थीं</p>
<p>औऱ बैठ जाया करती थीं</p>
<p>बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर</p>
<p>और टिका देती थीं सर बेंच पर</p>
<p>औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था</p>
<p>सिगरेट के कशों के साथ !</p>
<p> </p>
<p>हम दोनों घंटो निहारते रहते थे</p>
<p>एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक</p>
<p>कभी विस्तृत नीले आकाश क़ो</p>
<p>औऱ कभी नदी में ठहरी नाव क़ो</p>
<p>जो कभी कभी करने लगती थी</p>
<p>उन्मादित लहरों से बचने की जंग</p>
<p> </p>
<p>अब कुछ नहीँ, कुछ भी नहीं</p>
<p>शेष है तो सिर्फ़ तुम्हारी याद</p>
<p>जो बैठ गई है मेरे अंतर्मन में</p>
<p>और खोजती रहती है शून्य में तुम्हें</p>
<p>कभी बहुत दूर और कभी पास</p>
<p>जो दिलाता है तुम्हारे होने का अहसास</p>
<p> </p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 07:01:2020</p>अमर प्रेमtag:openbooks.ning.com,2020-01-07:5170231:BlogPost:9988212020-01-07T08:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>इससे पहले के तुम दर्पण निहारों</p>
<p>मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ</p>
<p> </p>
<p>लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने</p>
<p>तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ</p>
<p> </p>
<p>समीरण रुक गई है बहते बहते</p>
<p>कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ</p>
<p> </p>
<p>पवन से वेग की इच्छा अगर है</p>
<p>कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ</p>
<p> </p>
<p>सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे</p>
<p>बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ</p>
<p> </p>
<p>घटा आकाश में छाने को व्याकुल</p>
<p>कहो तो नयनों में तुमको बिठा…</p>
<p>इससे पहले के तुम दर्पण निहारों</p>
<p>मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ</p>
<p> </p>
<p>लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने</p>
<p>तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ</p>
<p> </p>
<p>समीरण रुक गई है बहते बहते</p>
<p>कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ</p>
<p> </p>
<p>पवन से वेग की इच्छा अगर है</p>
<p>कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ</p>
<p> </p>
<p>सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे</p>
<p>बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ</p>
<p> </p>
<p>घटा आकाश में छाने को व्याकुल</p>
<p>कहो तो नयनों में तुमको बिठा लूँ</p>
<p> </p>
<p>रहेगा प्रेम सदियों तक हमारा</p>
<p>कहो तो इसको भी अमृत पिला दूँ</p>
<p> </p>
<p>पुकारें लोग राधे-श्याम मुझको</p>
<p>नहीं संभव के मैं तुमको भूला दूँ</p>
<p> मौलिक व अप्र्काशित</p>
<p> - प्रदीप देवीशरण भट्ट-06.01.2020</p>"तुम्हारे लिए"tag:openbooks.ning.com,2020-01-03:5170231:BlogPost:9985542020-01-03T07:13:58.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p></p>
<p></p>
<p>तुम यूँ ही बीच राह में</p>
<p>रोज़ तरूवर क़ी छाँव में</p>
<p>मुझे यूँ ही रोक लेते हो </p>
<p>और मैं भी रुक जाती हूँ</p>
<p>क्यों कि मैं भी रहती हूँ अधीर</p>
<p>तुमसे मिलकर बातें करने को!</p>
<p> </p>
<p>तुम्हारा यूँ एकटक निहारना</p>
<p>मेरे दिल को भाता है बहोत*</p>
<p>मैं भी देखने लगती हूँ तुम्हें</p>
<p>सीधी कभी तिरछी नज़रों से</p>
<p>तुम मुस्कुरा देते हो शरारत से</p>
<p>मैं शर्माकर कुरेदती हूँ ज़मीन </p>
<p> </p>
<p>पर ये सब भी कब तलक</p>
<p>जब ये कुहासा नहीं होगा</p>
<p>बढ़…</p>
<p></p>
<p></p>
<p>तुम यूँ ही बीच राह में</p>
<p>रोज़ तरूवर क़ी छाँव में</p>
<p>मुझे यूँ ही रोक लेते हो </p>
<p>और मैं भी रुक जाती हूँ</p>
<p>क्यों कि मैं भी रहती हूँ अधीर</p>
<p>तुमसे मिलकर बातें करने को!</p>
<p> </p>
<p>तुम्हारा यूँ एकटक निहारना</p>
<p>मेरे दिल को भाता है बहोत*</p>
<p>मैं भी देखने लगती हूँ तुम्हें</p>
<p>सीधी कभी तिरछी नज़रों से</p>
<p>तुम मुस्कुरा देते हो शरारत से</p>
<p>मैं शर्माकर कुरेदती हूँ ज़मीन </p>
<p> </p>
<p>पर ये सब भी कब तलक</p>
<p>जब ये कुहासा नहीं होगा</p>
<p>बढ़ जाएगी आवाजाही</p>
<p>तब रास्ता भी वीरान नहीं होगा</p>
<p>तब उठेगी मिलने क़ी पीर</p>
<p>तब तुम आना नदी के तीर! ! !</p>
<p> </p>
<p>*बहुत</p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट -</p>मनुष्य और पयोनिधिtag:openbooks.ning.com,2020-01-02:5170231:BlogPost:9983012020-01-02T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>आओ और निकट से देखो</p>
<p>हिलोरें लेते इस पारावार को</p>
<p>हमारा जीवन भी ऐसा ही है</p>
<p>नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल</p>
<p> </p>
<p>जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं</p>
<p>रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को</p>
<p>तब वह समेट लेती सब कुछ</p>
<p>और ले जाती है पयोनिधी में</p>
<p> </p>
<p>हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं</p>
<p>जब हम प्रेम में होते हैं तब</p>
<p>ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल</p>
<p>ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ</p>
<p> </p>
<p>किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम</p>
<p>उदर में ज्य़ादा काल नहीं…</p>
<p>आओ और निकट से देखो</p>
<p>हिलोरें लेते इस पारावार को</p>
<p>हमारा जीवन भी ऐसा ही है</p>
<p>नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल</p>
<p> </p>
<p>जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं</p>
<p>रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को</p>
<p>तब वह समेट लेती सब कुछ</p>
<p>और ले जाती है पयोनिधी में</p>
<p> </p>
<p>हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं</p>
<p>जब हम प्रेम में होते हैं तब</p>
<p>ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल</p>
<p>ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ</p>
<p> </p>
<p>किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम</p>
<p>उदर में ज्य़ादा काल नहीं टिकता</p>
<p>अर्णव तट को लौटाता अगले दिन</p>
<p>और मनुष्य उपयोग के बाद! !</p>
<p></p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>-प्रदीप देवीशरण भट्ट -01.01.2020</p>उन्नीस-बीस (2019-2020) नूतन वर्षtag:openbooks.ning.com,2020-01-01:5170231:BlogPost:9983652020-01-01T05:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p></p>
<p>छोटी बातों से तू इतना, विचलित क्यूँ कर होता है</p>
<p>जीवन धार नदी की, इसमें उन्नीस बीस तो होता है</p>
<p></p>
<p>दुनियाँ का दस्तूर है, ज्यादा रोते को रुलवाने का</p>
<p>कितना समझाया तुझको तू, फिर भी नयन भिगोता है</p>
<p></p>
<p>जाने वाले साल को सारे, दुख अपने तू अर्पण कर दे तेरे भाग्य में फिर वो कैसे, बीज खुशी के बोता है</p>
<p></p>
<p>अस्त हुआ उन्नीस का भानु, बीस का दिनकर…</p>
<p></p>
<p>छोटी बातों से तू इतना, विचलित क्यूँ कर होता है</p>
<p>जीवन धार नदी की, इसमें उन्नीस बीस तो होता है</p>
<p></p>
<p>दुनियाँ का दस्तूर है, ज्यादा रोते को रुलवाने का</p>
<p>कितना समझाया तुझको तू, फिर भी नयन भिगोता है</p>
<p></p>
<p>जाने वाले साल को सारे, दुख अपने तू अर्पण कर दे तेरे भाग्य में फिर वो कैसे, बीज खुशी के बोता है</p>
<p></p>
<p>अस्त हुआ उन्नीस का भानु, बीस का दिनकर द्वार खडा</p>
<p>रजनी की बाहों में लिपटा,तू अब भी बेसुध सोता है</p>
<p></p>
<p>मंदिर मंदिर दौड रहा था, प्रबल भाग्य तू करने को</p>
<p>स्वंय लक्ष्मी है खडी द्वार पे, और तू माथा धोता है</p>
<p></p>
<p>अवनि सबकी पालन कर्ता, कुछ भीतर ना रखती है</p>
<p>वही काटता मनुज जो धरती, <span>के अंदर वो बोता है</span></p>
<p></p>
<p>सच्चे मन से पूजा अर्चन,‘दीप’ करो तुम ईश्वर की</p>
<p>सर्दी के मौसम में प्रतिदिन, कौन नहाता धोता है</p>
<p> </p>
<p>-प्रदीप देवीशरण भट्ट-01.01.2020</p>प्रदिप्तिtag:openbooks.ning.com,2019-12-20:5170231:BlogPost:9976842019-12-20T06:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>ज़िंदगी में रह गया है अपनी तो बस अब यही</p>
<p>प्रदीप्ति में तुम रहो रहोगे,<span>तिरगी में हम सही</span></p>
<p> </p>
<p>किसको किससे प्यार कितना, <span>क्या करोगे जानकर</span></p>
<p>उसका मुझसे कुछ है ज्यादा, <span>औऱ मेरा कम सही</span></p>
<p> </p>
<p>आ चलें मंदिर में,<span>औऱ सौगंध खा कर ये कहें</span></p>
<p>साथ गर टूटेगा अगर तो, <span>हम नहीं या तुम नहीं</span></p>
<p> </p>
<p>पी रहे हो रात दिन, <span>होकर मगन क्या सोचकर</span></p>
<p>बादा है जान लो तुम,<span>आब-ए ये जमजम…</span></p>
<p>ज़िंदगी में रह गया है अपनी तो बस अब यही</p>
<p>प्रदीप्ति में तुम रहो रहोगे,<span>तिरगी में हम सही</span></p>
<p> </p>
<p>किसको किससे प्यार कितना, <span>क्या करोगे जानकर</span></p>
<p>उसका मुझसे कुछ है ज्यादा, <span>औऱ मेरा कम सही</span></p>
<p> </p>
<p>आ चलें मंदिर में,<span>औऱ सौगंध खा कर ये कहें</span></p>
<p>साथ गर टूटेगा अगर तो, <span>हम नहीं या तुम नहीं</span></p>
<p> </p>
<p>पी रहे हो रात दिन, <span>होकर मगन क्या सोचकर</span></p>
<p>बादा है जान लो तुम,<span>आब-ए ये जमजम नहीं</span></p>
<p> </p>
<p>छोड़कर जाना ही था तो, <span>मुझसे कह देते</span> '<span>प्रदीप</span>'</p>
<p>आज तक दामन में रखा, <span>मैंने कोई ग़म नहीं</span></p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>प्रदीप देवीशरण भट्ट -20.12.2019</p>मोहे पिया मिलन की आस-tag:openbooks.ning.com,2019-12-19:5170231:BlogPost:9979092019-12-19T11:11:22.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p>झूम के बरख़ा बरसी है ऐसे</p>
<p>जैसे दिन आया हो कोई ख़ास</p>
<p>मेरा तन भी भीगा मन भी भीगा</p>
<p>जगी अब पिया मिलन क़ी आस</p>
<p> </p>
<p>पवन वेग से जल क़ी बूंदे कुछ</p>
<p>पूरब से पश्चिम तक हैं जाती</p>
<p>और पिया के सन्देशों को मेरे</p>
<p>अन्तर्मन की तह तक पहुँचाती</p>
<p> </p>
<p>इससे पहले रुक जाए बरख़ा</p>
<p>तुम जल्दी घर आ जाओ ना</p>
<p>तप्त ह्रदय की ज्वाला की तुम</p>
<p>अपने नेह से प्यास बुझाओ ना</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- प्रदीप…</p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p>झूम के बरख़ा बरसी है ऐसे</p>
<p>जैसे दिन आया हो कोई ख़ास</p>
<p>मेरा तन भी भीगा मन भी भीगा</p>
<p>जगी अब पिया मिलन क़ी आस</p>
<p> </p>
<p>पवन वेग से जल क़ी बूंदे कुछ</p>
<p>पूरब से पश्चिम तक हैं जाती</p>
<p>और पिया के सन्देशों को मेरे</p>
<p>अन्तर्मन की तह तक पहुँचाती</p>
<p> </p>
<p>इससे पहले रुक जाए बरख़ा</p>
<p>तुम जल्दी घर आ जाओ ना</p>
<p>तप्त ह्रदय की ज्वाला की तुम</p>
<p>अपने नेह से प्यास बुझाओ ना</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट -19.12.2019</p>नक़्श-ए-पाtag:openbooks.ning.com,2019-12-06:5170231:BlogPost:9974492019-12-06T06:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>मुझको पता नहीं है, मैं कहाँ पे जा रही हूँ<br></br> तेरे नक़्श-ए-पा के पीछे,पीछे मैं आ रही हूँ</p>
<p></p>
<p>उल्फत का रोग है ये, कोई दवा ना इसकी <br></br> मैं चारागर को फिर भी,दुःखड़ा सुना रही हूँ</p>
<p></p>
<p>सुन के भी अनसुनी क्यूँ,करते हो तुम सदाएँ<br></br> फिर भी मैं देख तुमको यूँ मुस्कुरा रही हूँ</p>
<p></p>
<p>बेचैनियों का मुझ पर, आलम है ऐसा छाया<br></br> क्यो खो दिया है जिसको, पा कर ना पा रही हूँ</p>
<p></p>
<p>मुझे भूलना भी इतना ,आसाँ तो नहीं होगा<br></br> दिन रात होगें भारी, तुमको बता रही…</p>
<p>मुझको पता नहीं है, मैं कहाँ पे जा रही हूँ<br/> तेरे नक़्श-ए-पा के पीछे,पीछे मैं आ रही हूँ</p>
<p></p>
<p>उल्फत का रोग है ये, कोई दवा ना इसकी <br/> मैं चारागर को फिर भी,दुःखड़ा सुना रही हूँ</p>
<p></p>
<p>सुन के भी अनसुनी क्यूँ,करते हो तुम सदाएँ<br/> फिर भी मैं देख तुमको यूँ मुस्कुरा रही हूँ</p>
<p></p>
<p>बेचैनियों का मुझ पर, आलम है ऐसा छाया<br/> क्यो खो दिया है जिसको, पा कर ना पा रही हूँ</p>
<p></p>
<p>मुझे भूलना भी इतना ,आसाँ तो नहीं होगा<br/> दिन रात होगें भारी, तुमको बता रही हूँ</p>
<p></p>
<p>ठहरो मैं संग चलूगीं ,मुश्किल हों कितनी राहें <br/> हाथों में दिल के अरमाँ, मैं ले के आ रही हूँ</p>
<p></p>
<p>है भूख प्यास ग़ायब, फ़िर भी हूँ 'दीप' ज़िंदा <br/> जाने क्या पी रही हूँ, जीती ही जा रही हूँ</p>
<p></p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट -मौलिक व अप्रकाशित 05.12.2019</p>प्रकृति मेरी मित्रtag:openbooks.ning.com,2019-12-03:5170231:BlogPost:9973302019-12-03T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>प्रकृति हम सबकी माता है</p>
<p>सोच, <span>समझ</span>,<span>सुन मेरे लाल</span></p>
<p>कभी अनादर इसका मत करना</p>
<p>वरना बन जाएगी काल</p>
<p> </p>
<p>गिरना उठना और चल देना</p>
<p>तू स्वंय को रखना सदा संभाल</p>
<p>इतना भी आसाँ ना समझो</p>
<p>बनना सबके लिए मिसाल</p>
<p> </p>
<p>सत्य व्रत का पालन करना</p>
<p>कभी किसी ना तू डरना</p>
<p>विपदाओं को मित्र बनाकर</p>
<p>बस थामे रहना ‘<span>दीप</span>’ <span>मशाल</span></p>
<p> </p>
<p>मौलिक…</p>
<p>प्रकृति हम सबकी माता है</p>
<p>सोच, <span>समझ</span>,<span>सुन मेरे लाल</span></p>
<p>कभी अनादर इसका मत करना</p>
<p>वरना बन जाएगी काल</p>
<p> </p>
<p>गिरना उठना और चल देना</p>
<p>तू स्वंय को रखना सदा संभाल</p>
<p>इतना भी आसाँ ना समझो</p>
<p>बनना सबके लिए मिसाल</p>
<p> </p>
<p>सत्य व्रत का पालन करना</p>
<p>कभी किसी ना तू डरना</p>
<p>विपदाओं को मित्र बनाकर</p>
<p>बस थामे रहना ‘<span>दीप</span>’ <span>मशाल</span></p>
<p> </p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p> </p>
<p>-<span>प्रदीप देवीशरण भट्ट</span> - <span>हैदराबाद</span> 03.12.2019</p>
<p> </p>उर उमंग से भर गयाtag:openbooks.ning.com,2019-11-28:5170231:BlogPost:9971512019-11-28T12:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>उर उमंग से भर गया</p>
<p>मैं छम छम नाचूँ आज</p>
<p>ख़बर सखी ने दी मुझे</p>
<p>मेरे पिया खड़े हैं द्वार</p>
<p> </p>
<p>मन प्रसन्न इस बात से</p>
<p>नित गाए ख़ुशी के गीत</p>
<p>मिलने क़ी बेताबी उर में</p>
<p>प्रतिदिन औऱ बढ़ाए प्रीत</p>
<p> </p>
<p>द्वार तक रहे सुबह से नयना</p>
<p>औऱ छत पे कागा का शोर</p>
<p>स्वाती क़ी बूँदों क़ी प्रतीक्षा</p>
<p>करता रहता है जैसे चकोर</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> -प्रदीप देवीशरण भट्ट -26.11.2019, हैदराबाद(9867678909)</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>उर उमंग से भर गया</p>
<p>मैं छम छम नाचूँ आज</p>
<p>ख़बर सखी ने दी मुझे</p>
<p>मेरे पिया खड़े हैं द्वार</p>
<p> </p>
<p>मन प्रसन्न इस बात से</p>
<p>नित गाए ख़ुशी के गीत</p>
<p>मिलने क़ी बेताबी उर में</p>
<p>प्रतिदिन औऱ बढ़ाए प्रीत</p>
<p> </p>
<p>द्वार तक रहे सुबह से नयना</p>
<p>औऱ छत पे कागा का शोर</p>
<p>स्वाती क़ी बूँदों क़ी प्रतीक्षा</p>
<p>करता रहता है जैसे चकोर</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> -प्रदीप देवीशरण भट्ट -26.11.2019, हैदराबाद(9867678909)</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>यादेंtag:openbooks.ning.com,2019-11-27:5170231:BlogPost:9970402019-11-27T13:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>अब सिर्फ़ तुम्हारी यादें ही तो हैं</p>
<p>जिन्हें संजोकर रक्खा हुअ है मैंने।</p>
<p>अपनी धुँधली होती हुई स्मृतियों में,</p>
<p>इन गुलाब के फूलों क़ी पंखुड़ियों में॥</p>
<p> </p>
<p>मैं अभी तक भी कुछ नहीं भूला हूँ,</p>
<p>लैंपपोस्ट क़ी वो मद्दिम रौशनी में।</p>
<p>मेरे कांधे तुम्हारा धीरे से सर रखना,</p>
<p>औऱ फिर घंटो तलक अपलक निहारना॥</p>
<p> </p>
<p>वो आकाश में बिजली का वो कौंधना,</p>
<p>तुम्हारा घबराकर मुझसे लिपट जाना।</p>
<p>मुझे अहसास कराता था सदियों का,</p>
<p>उन पलों का कुछ देर यूँ ही…</p>
<p>अब सिर्फ़ तुम्हारी यादें ही तो हैं</p>
<p>जिन्हें संजोकर रक्खा हुअ है मैंने।</p>
<p>अपनी धुँधली होती हुई स्मृतियों में,</p>
<p>इन गुलाब के फूलों क़ी पंखुड़ियों में॥</p>
<p> </p>
<p>मैं अभी तक भी कुछ नहीं भूला हूँ,</p>
<p>लैंपपोस्ट क़ी वो मद्दिम रौशनी में।</p>
<p>मेरे कांधे तुम्हारा धीरे से सर रखना,</p>
<p>औऱ फिर घंटो तलक अपलक निहारना॥</p>
<p> </p>
<p>वो आकाश में बिजली का वो कौंधना,</p>
<p>तुम्हारा घबराकर मुझसे लिपट जाना।</p>
<p>मुझे अहसास कराता था सदियों का,</p>
<p>उन पलों का कुछ देर यूँ ही ठहर जाना॥</p>
<p> </p>
<p>अब तो सिर्फ़ और सिर्फ यादें शेष हैं,</p>
<p>लैंपपोस्ट भी वही और बेंच भी वही है।</p>
<p>पर तुम नहीं हो, तुम कहीं भी नहीं हो,</p>
<p>अगर कुछ है तो ये अवशोषित* शरीर॥</p>
<p> </p>
<p>*जिसका नाश किया गया हो</p>
<p> </p>
<p> - प्रदीप देवीशरण भट्ट - हैदराबाद-27.11.2019 मौलिक व अप्रकाशित</p>मन है कि मानता ही नहीँ ....tag:openbooks.ning.com,2019-11-26:5170231:BlogPost:9968302019-11-26T07:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">काश मैं भी उड़ सकती</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">खुले विस्तृत गगन में</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">बादलों को चीरते हुए </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">और छू सकती आकाश</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">पर ये संभव ही कहाँ है …</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">काश मैं भी उड़ सकती</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">खुले विस्तृत गगन में</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">बादलों को चीरते हुए </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">और छू सकती आकाश</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">पर ये संभव ही कहाँ है </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">भाग्य के हाथों हूँ मजबूर</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">यूँ ही रोज़ खिड़की पर बैठना</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">और तकना है खाली व्योम</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">पर ये मन मानता ही नहीं</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">कल्पनाओं के पंखों पर सवार</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">उड़ता रहता है सुबहो शाम</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">इसे आता नहीं दूजा कोई काम</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> </p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;"> मन है कि मानता ही नहीँ ....</p>
<p style="font-weight: 400; text-align: left;">-प्रदीप देवीशरण भट्ट-मौलिक व अप्रकाशित</p>प्रतीक्षाtag:openbooks.ning.com,2019-09-25:5170231:BlogPost:9929372019-09-25T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">मैंने ढेरों पत्र लिखे तुमको</span> <br></br> <span style="font-size: 10pt;">उत्तर जिनका अपेक्षित है</span> <br></br> <span style="font-size: 10pt;">तुम व्यस्त हो गये हो शायद</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">या पता पता तुम्हारा है बदला</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">लिखते ऊँगली के पोर दुखे</span> <br></br> <span style="font-size: 10pt;">मन करता लेकिन और लिखे</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">इसलिए डायरी लिख डाली…</span> <br></br></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैंने ढेरों पत्र लिखे तुमको</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">उत्तर जिनका अपेक्षित है</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">तुम व्यस्त हो गये हो शायद</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">या पता पता तुम्हारा है बदला</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">लिखते ऊँगली के पोर दुखे</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">मन करता लेकिन और लिखे</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">इसलिए डायरी लिख डाली</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">बातें सब हिय क़ी कह डाली</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ये प्रेम भी अजब बीमारी है</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">मन घायल क़ी लाचारी है</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">जितना उत्तर मिलता उतनी </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">बढ़ती जाती बेकरारी है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मुझको अब ना कुछ सुझ रहा</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पहले जो लिखा सब भूल रहा</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">क्या फ़िर से क़लम उठाऊं मैं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">और दिल में क्या दिखलाऊँ मैं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">.</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">-प्रदीप देवीशरण भट्ट - मौलिक व अप्रकशित</span></p>शमा और मैंtag:openbooks.ning.com,2019-09-23:5170231:BlogPost:9928512019-09-23T13:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">शमा जली, उठा धुँआ </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम वहाँ औऱ मैं यहाँ </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">सोचती हूँ के क्या लिखूं </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जिस्म यहाँ औऱ दिल वहाँ</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पकड़ी क़लम ने उंगलियां </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">टो सुझा नहीं के क्या लिखें </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तेरी अधूरी दास्तां या फ़िर …</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">शमा जली, उठा धुँआ </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम वहाँ औऱ मैं यहाँ </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">सोचती हूँ के क्या लिखूं </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जिस्म यहाँ औऱ दिल वहाँ</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पकड़ी क़लम ने उंगलियां </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">टो सुझा नहीं के क्या लिखें </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तेरी अधूरी दास्तां या फ़िर </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">टूटा मेरा कोई ख़्वाब लिखें </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">इस क-शम-कश तमाम शब </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">यही सोचने में गुज़र गई </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">किसने पढ़ा मुझे अबतलक </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैं ये सोचते ही ठहर गई! </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">- प्रदीप देवीशरण भट्ट -</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">mob:9867678909</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नामपल्ली, हैदराबाद</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मौलिक व अप्रकशित</span></p>ज़िंदगी तू क्यूँ उदास है-tag:openbooks.ning.com,2019-09-09:5170231:BlogPost:9919632019-09-09T05:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">जिंदगी ये तो बता, तू इतनी क्यूँ उदास है</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मुझसे है नाराज़ या फिर,औऱ कोई बात है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैंने तो तुझसे कभी कुछ खास मांगा भी नहीं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ले रही फिर बारहा तू लंबी क्यूं उच्छवास है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जो तेरी ख़्वाहिश थी शायद वो मिला तुझको नहीं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">फ़िक्र ना कर तेरे…</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जिंदगी ये तो बता, तू इतनी क्यूँ उदास है</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मुझसे है नाराज़ या फिर,औऱ कोई बात है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैंने तो तुझसे कभी कुछ खास मांगा भी नहीं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ले रही फिर बारहा तू लंबी क्यूं उच्छवास है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जो तेरी ख़्वाहिश थी शायद वो मिला तुझको नहीं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">फ़िक्र ना कर तेरे हिस्से में यक़ीनन ख़ास है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जो मिला संतोष रख विचलित नहीं होना कभी</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">हास भी मिलता कभी होता कभी परिहास है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">सुख के बादल भी बरसते और दुख के भी कभी</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तू बता इससे अलग कया तेरा कुछ कयास है</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">सांस चलना ही निशानी जिंदगी की है तो फिर</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नींद भी तो 'दीप' प्रतिदिन मौत क़ा अभ्यास है</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित</span></p>रोटियाँtag:openbooks.ning.com,2019-09-06:5170231:BlogPost:9917592019-09-06T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<div><span>पेट हो खाली तो फिर कैसे खेले गोटियां</span></div>
<div><span>अब मयस्सर हैं बस <span class="replaced">ख्व़ाब</span> में ही <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>तुम्हें मुबारक हो शाहों की दावतें हमको</span></div>
<div><span>मिल <span class="replaced">जाएँ</span> खाने को दो चार सूखी <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>माल…</span></div>
<div><span>पेट हो खाली तो फिर कैसे खेले गोटियां</span></div>
<div><span>अब मयस्सर हैं बस <span class="replaced">ख्व़ाब</span> में ही <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>तुम्हें मुबारक हो शाहों की दावतें हमको</span></div>
<div><span>मिल <span class="replaced">जाएँ</span> खाने को दो चार सूखी <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>माल असबाब की तो तुमको <span class="replaced">ज़रूरत</span> होगी</span></div>
<div><span>अपनी <span class="replaced">पूँजी</span> सुबह औ शाम की हैं <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>अपने कांधों पर लिए बोझ गरिबी हर दिन</span></div>
<div><span><span class="replaced">चढ़ाती</span> रहती है अमीरों को <span class="replaced">ऊँची</span> चोटि<span class="replaced">याँ</span></span></div>
<div><span>.</span></div>
<div><span>अब ये दस्तूर ही बना लिया है मुंसिफ ने</span></div>
<div><span><span class="replaced">माँगो</span> <span class="replaced">इनसाफ़</span> तो देता है सबको सोटि<span class="replaced">याँ</span></span></div>
<div><span>.</span></div>
<div><span><span class="replaced">कम-से-कम</span> इतना करम तो रब्बा कर दे</span></div>
<div><span>हमें मिले ना मिले पर मेहमां को मिले <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>मुफलिसी जो ना करा दे <strong>‘प्रदीप’</strong> वो कम है</span></div>
<div><span>छीन लेता है इंसाँ कुत्ते के मुँह से <span class="replaced">रोटियाँ</span></span></div>
<div><span><span class="replaced">.</span></span></div>
<div><span>-प्रदीप देवीशरण भट्ट</span>- मौलिक व अप्रकाशित</div>-गुरु दिवसtag:openbooks.ning.com,2019-09-05:5170231:BlogPost:9918592019-09-05T10:20:34.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>झिझको नहीं ठिठको नहीं <br/> लो पकड़ लो मेरा हाथ <br/> मैं तुम्हे ले चलता हूँ <br/>
तम से प्रकाश की ओर</p>
<p>प्रकाश तुम्हें दिखाएगा <br/> जीवन के अनंत आयाम <br/> तुम कसौटी पर परखना <br/>
औऱ चुन लेना कोई एक</p>
<p>वो एक ही पर्याप्त है <br/> जीवन को दिशा देने के लिए <br/> अन्य के जीवन में <br/>
प्रकाश फ़ैलाने के लिए॥</p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट - मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>झिझको नहीं ठिठको नहीं <br/> लो पकड़ लो मेरा हाथ <br/> मैं तुम्हे ले चलता हूँ <br/>
तम से प्रकाश की ओर</p>
<p>प्रकाश तुम्हें दिखाएगा <br/> जीवन के अनंत आयाम <br/> तुम कसौटी पर परखना <br/>
औऱ चुन लेना कोई एक</p>
<p>वो एक ही पर्याप्त है <br/> जीवन को दिशा देने के लिए <br/> अन्य के जीवन में <br/>
प्रकाश फ़ैलाने के लिए॥</p>
<p>- प्रदीप देवीशरण भट्ट - मौलिक व अप्रकाशित</p>मुफ़लिसीtag:openbooks.ning.com,2019-08-26:5170231:BlogPost:9912642019-08-26T10:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं</p>
<div><div><span>अपने बच्चों की निगाहों से उतर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>भूख से हूँ बेहाल इतना के चला जाता नहीं</span></div>
<div><span>जाना चाह्ता हूँ उधर जाने किधर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>एक ठीया है शहर में हम सब जहाँ होते जमा</span></div>
<div><span>ख़ुद को लेकिन रोज़ <span class="replaced">तन्हा</span> उस डगर पाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही</span></div>
<div><span>आइने में ख़ुद की…</span></div>
</div>
<p>शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं</p>
<div><div><span>अपने बच्चों की निगाहों से उतर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>भूख से हूँ बेहाल इतना के चला जाता नहीं</span></div>
<div><span>जाना चाह्ता हूँ उधर जाने किधर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>एक ठीया है शहर में हम सब जहाँ होते जमा</span></div>
<div><span>ख़ुद को लेकिन रोज़ <span class="replaced">तन्हा</span> उस डगर पाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही</span></div>
<div><span>आइने में ख़ुद की सूरत देख डर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>आब और सहरा में आँखें फ़र्क़ कर पाती नहीं</span></div>
<div><span>रेत के दरिया को भी अब तैरकर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>कितना मुश्किल है जीना सोचकर देखो कभी</span></div>
<div><span>इसलिए थोड़ा सा जीता और मर जाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>अब सहा जाता नहीं ज़ुल्मो-सितम मुझसे ‘प्रदीप’</span></div>
<div><span>दो इजाज़त ज़ालिमों का काट सर लाता हूँ मैं</span></div>
<div><span>-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित</span></div>
</div>सांच को आंच नहीtag:openbooks.ning.com,2019-08-23:5170231:BlogPost:9908932019-08-23T06:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>वर्तमान राजनैतिक व्यवस्ठा पर तंज<br></br> <br></br> वक्त दोहराता है अपने आप को<br></br> कैसे कैसे दिन दिखाता आपको<br></br> <br></br> भूलना हम जिसको चाहें बारहा<br></br> फिर वही मंज़र दिखाता आपको<br></br> <br></br> जो सबक माज़ी में तुम भूले उसे<br></br> याद फिर-फिर से दिलाता आपको<br></br> <br></br> जिस के संग जैसा किया है सामने<br></br> वक्त बस शीशा दिखाता आपको<br></br> <br></br> शह नहीं है खेल बस शतरंज का<br></br> मात वो देना सिखाता आपको<br></br> <br></br> तुम अगर सच्चे थे तब वो आज है<br></br> फिर वो क्यूँ झूठा कहाता आपको<br></br> <br></br> सांच को ना आंच होती है कभी…<br></br></p>
<p>वर्तमान राजनैतिक व्यवस्ठा पर तंज<br/> <br/> वक्त दोहराता है अपने आप को<br/> कैसे कैसे दिन दिखाता आपको<br/> <br/> भूलना हम जिसको चाहें बारहा<br/> फिर वही मंज़र दिखाता आपको<br/> <br/> जो सबक माज़ी में तुम भूले उसे<br/> याद फिर-फिर से दिलाता आपको<br/> <br/> जिस के संग जैसा किया है सामने<br/> वक्त बस शीशा दिखाता आपको<br/> <br/> शह नहीं है खेल बस शतरंज का<br/> मात वो देना सिखाता आपको<br/> <br/> तुम अगर सच्चे थे तब वो आज है<br/> फिर वो क्यूँ झूठा कहाता आपको<br/> <br/> सांच को ना आंच होती है कभी<br/> वक्त ये खुद ही सिखाता आपको<br/> <br/> जो शज़र बोता बबूल का ‘प्रदीप’<br/> कांटे भी वो ही चुभाता आपको<br/> <br/> -प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित</p>सत्ता के गलियारेtag:openbooks.ning.com,2019-08-22:5170231:BlogPost:9909522019-08-22T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">जिनको हमने चुनकर भेजा,सत्ता के गलियारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">उनको लड़ते देखा जैसे, श्वान लड़ें बाज़ारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">कब क्या कैसे गुल ये खिलाते,कोई जान नहीं पाया</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">इनके असली रंग हैं दीखते, तीज और त्योहारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">चोर उच्चके…</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जिनको हमने चुनकर भेजा,सत्ता के गलियारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">उनको लड़ते देखा जैसे, श्वान लड़ें बाज़ारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">कब क्या कैसे गुल ये खिलाते,कोई जान नहीं पाया</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">इनके असली रंग हैं दीखते, तीज और त्योहारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">चोर उच्चके इनके आगे,पानी भरते फ़िरते हैं </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">इनकी गिनती होती अब तो, बड़े बड़े अय्यारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जब-जब भी आवाज़ उठी है,इनके जुल्मों सितमों की</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तब-तब मारा काटा फेंका, लाशों को अंगारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">कहने को आज़ादी है पर,सब के मुँह पर ताले हैं</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जुबां जो खोली नाम मिलेगा, अपना भी गद्दारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">झूठे वादे झूठे इरादे, झूठी तकरीरें इनकी</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">वोट की खातिर नोट भी ये तो, बंटवाते कतारों में </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">किसको फुर्सत है जनता के, दू:ख में जो शामिल होगा</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">अपने अपने अहम में तन के, बैठे सब चौबारों में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">.</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> -प्रदीप देवीशरण भट्ट –</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">1-5-2016 मौलिक व अप्रकाशित</span></p>मेरे प्रिय विभु मेरे प्रिय मोरांडी-tag:openbooks.ning.com,2019-08-19:5170231:BlogPost:9905952019-08-19T11:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">(13 अगस्त-2018-इटली का मोरांडी पुल हादसा)</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">अटठावन वर्ष की उम्र भी कोई उम्र होती है</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ना तो पूर्ण रुपेण युवा और ना ही पूरे वृद्ध</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम्हारा यूँ इस तरह अकस्मात ही चले जाना</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पूरे शहर को कर गया है अचम्भित और विक्षिप्त…</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">(13 अगस्त-2018-इटली का मोरांडी पुल हादसा)</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">अटठावन वर्ष की उम्र भी कोई उम्र होती है</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ना तो पूर्ण रुपेण युवा और ना ही पूरे वृद्ध</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम्हारा यूँ इस तरह अकस्मात ही चले जाना</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पूरे शहर को कर गया है अचम्भित और विक्षिप्त</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">पसर गई है चारों ओर निरवता और खौफ</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जो गिरने के जिम्मेदार हैं वो घूम रहे हैं बेलौफ</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">साठ बरस पहले तुम थे सुंदर प्यारे शिशु</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नाम दिया था मैंने तुमको विभा का विभु</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तब तुम थे सबके लिए एक अबूझ पहेली</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">हम लोहे और सीमेंट के संग करते थेअट्खेली</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैं किसी की दोस्त थी और किसी की सहेली</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तेरी ओट में हमने कितनी बरसातें थीं झेली</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">हम दोनों युवा हुए मैं उड गई आकाश में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम वहीं धरा पर खडे रहे मेरी याद में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">और ढोते रहे असंख्य अंजान लोगों को</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">इस पार से उस पार अनवरत और लगातार</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मैं छुट्टियों में घर आती छत से तुम्हें निहारती</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम मुझे देखकर मुसकुरा देते विभा के विभु</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम्हें आज क्या हुआ जो नहीं रह सके खडे</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">बिना चेतावनी के भरभरा कर गिर पडे</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">तुम्हारे इस विद्रोह से तैतालीस लोग चल बसे</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जाने कितने वाहन नदी की गाद में जा धसे</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">लोग चीख और चिल्ला रहे हैं अपनों के गम में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">शायद हम दोनों मिले फिर से अगले जनम में</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">- प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्राशित</span></p>नया भारतtag:openbooks.ning.com,2019-08-15:5170231:BlogPost:9904222019-08-15T03:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p>बरसों से जो ख्वाब थे देखे, पूरे हमने कर डाले<br></br> मंसूबे हर एक दुश्मन के, बिना सर्फ़ के धो डाले<br></br> <br></br> धाराओं के जाल में, मज़लूमों का जो हक थे मार रहे<br></br> हमने ऐसी धाराओं के हर्फ वो सारे धो डाले<br></br> <br></br> सदियों से जो जमी हुई थी, साफ़ नही कर पाया कोई<br></br> हमने ऐसी जमी मैल के, बर्फ वो सारे धो डाले<br></br> <br></br> तीन दुकाने चलती रहती थीं, कश्मीर की घाटी में<br></br> हमने ऐसे बीन बीन कर, ज़र्फ वो सारे धो डाले<br></br> <br></br> बार बार समझाया सबको, पर वो समझ नही पाए<br></br> हमने 'दीप' फ़िर मजबूरी में कम-ज़र्फ़…</p>
<p>बरसों से जो ख्वाब थे देखे, पूरे हमने कर डाले<br/> मंसूबे हर एक दुश्मन के, बिना सर्फ़ के धो डाले<br/> <br/> धाराओं के जाल में, मज़लूमों का जो हक थे मार रहे<br/> हमने ऐसी धाराओं के हर्फ वो सारे धो डाले<br/> <br/> सदियों से जो जमी हुई थी, साफ़ नही कर पाया कोई<br/> हमने ऐसी जमी मैल के, बर्फ वो सारे धो डाले<br/> <br/> तीन दुकाने चलती रहती थीं, कश्मीर की घाटी में<br/> हमने ऐसे बीन बीन कर, ज़र्फ वो सारे धो डाले<br/> <br/> बार बार समझाया सबको, पर वो समझ नही पाए<br/> हमने 'दीप' फ़िर मजबूरी में कम-ज़र्फ़ वो धो डाले<br/> <br/> -प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकशित<br/> <br/> सर्फ- फ़ेनिल लहर/कपडे धोने वाला पदार्थ<br/> हर्फ-शब्द/लफ्ज़<br/> बर्फ-मी,पाला,हिम<br/> जर्फ-पात्र/ समार्थ्य</p>मैं कोई तारा नही खुर्शीद हूँtag:openbooks.ning.com,2019-08-06:5170231:BlogPost:9896992019-08-06T11:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मुझसे ना उलझे कोई ये जान ले</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई श्लाघा नही ताकीद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">तेरी मंज़िल तक तुझे पहुँचाऊगाँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई छलिया नही मुर्शिद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">हंस रहे हैं मुझपे वो ये जान…</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मुझसे ना उलझे कोई ये जान ले</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई श्लाघा नही ताकीद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">तेरी मंज़िल तक तुझे पहुँचाऊगाँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई छलिया नही मुर्शिद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">हंस रहे हैं मुझपे वो ये जान लें</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई उजबक नहीं राशीद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">बादलों को चीरकर निकालूँगा फ़िर</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई तारा नहीं ख़ुर्शीद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मत नवाज़ों उस बुलंदी तक मुझे</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मै कोई आली नही मुरीद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मेरे दर पर मत करो सज़दा ‘प्रदीप’</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मैं कोई पत्थर नहीआबिद हूँ</span></p>
<p style="font-weight: 400;"></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकशित</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">खुर्शिद-सूरज,</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मुर्शिद- मार्गदर्शक,</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">मुरीद-शिष्य /चेला,</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">राशीद- बुद्दिमान</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">आबिद पुजारी</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">ताकीद=चेतावनी</span></p>
<p style="font-weight: 400;"><span style="font-size: 10pt;">श्लाघा=प्रशंसा</span></p>शहर के हंकाईtag:openbooks.ning.com,2019-07-30:5170231:BlogPost:9891012019-07-30T07:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p><span style="font-size: 10pt;">लहू बुज़ुर्गो का मिट्टी में बहाने वालो</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">दागदारोँ को सरेआम बचाने वालो</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">बच्चोँ के हाथ में शमशीर थमाने वालो</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">बात फूलोँ की तुम्हारे मुँह से नहीं अच्छी लगती</span><br></br> <br></br> <span style="font-size: 10pt;">खुदा के नाम पे दुकानों को चलाने वालो</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">धर्म् के नाम पर इंसा को बाँट्ने वालो…</span><br></br></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">लहू बुज़ुर्गो का मिट्टी में बहाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">दागदारोँ को सरेआम बचाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">बच्चोँ के हाथ में शमशीर थमाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">बात फूलोँ की तुम्हारे मुँह से नहीं अच्छी लगती</span><br/> <br/> <span style="font-size: 10pt;">खुदा के नाम पे दुकानों को चलाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">धर्म् के नाम पर इंसा को बाँट्ने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">जुल्म गरीबों पे दिन रात ढहाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">बात फूलोँ की तुम्हारे मुँह से नहीं अच्छी लगती</span><br/> <br/> <span style="font-size: 10pt;">शहर में अपनी हंकाई दिखाने वालो</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">आस्तिनों में नये शोहदों को पालने वालोँ</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">पराई बेटियों के गिरेबाँ में झाँकने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">बात फूलोँ की तुम्हारे मुँह से नहीं अच्छी लगती</span></p>
<p><br/> <span style="font-size: 10pt;">ज़ुबाँ और दिल में अलग राज़ छुपाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">सीधी चालोँ को भी उल्टा के चलाने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">इल्मवालोँ को भी महफिल से हकालने वालो</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">बात फूलोँ की तुम्हारे मुँह से नहीं अच्छी लगती</span></p>
<p><br/> <span style="font-size: 10pt;">-प्रदीप भट्ट-मौलिक व अप्रकाशित</span></p>बच्चा ज्यों-ज्यों होता बडाtag:openbooks.ning.com,2019-07-29:5170231:BlogPost:9890922019-07-29T08:30:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<div><span>बच्चा <strong>ज्यों-ज्यों</strong> होता <span class="replaced">बड़ा</span></span><br></br><span><span class="replaced">हँसता</span> कभी रोता <span class="replaced">ज़रा</span></span><br></br><span><span class="replaced">उँगली</span> थामे <span class="replaced">दौड़</span> रहा वह</span><br></br><span>गिरता कभी होता <span class="replaced">खड़ा</span></span></div>
<div><span>देखें बचपन तो जी ललचाए</span><br></br><span>काश हम भी बच्चे बन <span class="replaced">जाएँ</span></span><br></br><span>अट्खेली से सबै…</span></div>
<div><span>बच्चा <strong>ज्यों-ज्यों</strong> होता <span class="replaced">बड़ा</span></span><br/><span><span class="replaced">हँसता</span> कभी रोता <span class="replaced">ज़रा</span></span><br/><span><span class="replaced">उँगली</span> थामे <span class="replaced">दौड़</span> रहा वह</span><br/><span>गिरता कभी होता <span class="replaced">खड़ा</span></span></div>
<div><span>देखें बचपन तो जी ललचाए</span><br/><span>काश हम भी बच्चे बन <span class="replaced">जाएँ</span></span><br/><span>अट्खेली से सबै लुभाए</span><br/><span>हाथों में <span class="replaced">सुंदर-सा कड़ा</span></span></div>
<div><span>बचपन से यौवन प्रवेश में</span><br/><span>चाहे फिर हो किसी वेष में</span><br/><span>चंचल चितवन तरणताल में</span><br/><span>प्रेम से सबका भरता <span class="replaced">घड़ा</span></span></div>
<div><span>जोश उमंगो के सागर में</span><br/><span>बढता जाता नई राहों में</span><br/><span>झुठे सच्चे अफसाने लेकर वो</span><br/><span>अपनी <span class="replaced">ज़िद</span> पर रहता <span class="replaced">अड़ा</span></span></div>
<div><span>जीवन के इस चक्रव्यूह में</span><br/><span>कभी छाँव और कभी धूप में</span><br/><span>चिंता के चिंतन स्वरूप में</span><br/><span>प्रश्न मार्ग अवरुद्ध <span class="replaced">पड़ा</span></span></div>
<div><span>हम भी <span class="replaced">ख़ुश</span> हैं वो भी <span class="replaced">ख़ुश</span> है</span><br/><span>बस लेकिन इतना सा दुख है</span><br/><span>यौवन मद में चूर हुआ है</span><br/><span>नित करता अपमान <span class="replaced">बड़ा</span></span></div>
<div><span>प्रदीप देवीशरन भट्ट-2001</span></div>
<div><span>मौलिक व अप्रकशित्</span></div>दिल का खाली कोनाtag:openbooks.ning.com,2019-07-19:5170231:BlogPost:9876482019-07-19T08:00:00.000Zप्रदीप देवीशरण भट्टhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepDevisharanBhatt
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">दिल के बदले दिया सपना सलोना</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नहीं खाली था शायद दिल में कोना</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ये माना मैंने तुम सबसे हसीं हो</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मगर सोना तो फ़िर भी होता सोना</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ना वादा </span><span style="font-size: 13.3333px;">तुम </span><span style="font-size: 10pt;">करो मिलने का कोई…</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">दिल के बदले दिया सपना सलोना</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नहीं खाली था शायद दिल में कोना</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">ये माना मैंने तुम सबसे हसीं हो</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">मगर सोना तो फ़िर भी होता सोना</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">ना वादा </span><span style="font-size: 13.3333px;">तुम </span><span style="font-size: 10pt;">करो मिलने का कोई</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">बड़ा मुश्किल है हमसे बाट जोहना</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">चलो तुम ही बता दो कैसे रक्खे</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नहीं आता हमें है दिल संजोना</span></p>
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<p><span>ये ऐसा रोग है जिसमें सभी को</span></p>
<p><span>कभी हंसना कभी पड्ता है रोना</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">हुआ माज़ी में जो तुम भूल जाओ</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">नही अच्छा है अब दामन भिगोना</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">अभी भी वक़्त है तुम मान जाओ</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">करूँ या फ़िर कोई मैं जादू टोना</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">गिला तुमसे नही है ‘दीप’ कोई</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">जो पाया है उसे तुम न खोना</span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> </span></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">-प्रदीप देवीशरण भट्ट-15.07.2019 मौलिक व अप्रकाशित</span></p>
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