Neeraj Neer's Posts - Open Books Online2024-03-28T12:18:12ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeerhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991288793?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3n2u2yx3lm415&xn_auth=noबूँद जो थी अब नदी हो गयीtag:openbooks.ning.com,2018-07-01:5170231:BlogPost:9378882018-07-01T13:02:15.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>२१२२ २१२२ १२</p>
<p>बूँद जो थी अब नदी हो गयी</p>
<p>दिल्लगी दिल की लगी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>जिंदगी का अर्थ बस दर्द था</p>
<p>तुम मिले आसूदगी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>आ गया जो मौसमे गुल इधर</p>
<p>शाख सूखी थी हरी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>बिन तुम्हारे एक पल यूँ लगा</p>
<p>जैसे पूरी इक सदी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>जिंदगी गुलपैरहन सी हुई </p>
<p>आप से जो दोस्ती हो गयी </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>२१२२ २१२२ १२</p>
<p>बूँद जो थी अब नदी हो गयी</p>
<p>दिल्लगी दिल की लगी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>जिंदगी का अर्थ बस दर्द था</p>
<p>तुम मिले आसूदगी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>आ गया जो मौसमे गुल इधर</p>
<p>शाख सूखी थी हरी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>बिन तुम्हारे एक पल यूँ लगा</p>
<p>जैसे पूरी इक सदी हो गयी</p>
<p> </p>
<p>जिंदगी गुलपैरहन सी हुई </p>
<p>आप से जो दोस्ती हो गयी </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गएtag:openbooks.ning.com,2018-06-24:5170231:BlogPost:9359292018-06-24T06:05:05.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>दूरियां नजदीकियां बन तो गयी हैं आजकल</p>
<p>पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>माँ पिता सारे मरासिम गुम हुए इस दौर में </p>
<p>रोटियों के फेर में मजबूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>भूल जाओगे मुझे तुम एक दिन मालूम था</p>
<p>इश्क में मेरे मगर मशहूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>पत्थरों पर सर पटककर फायदा कोई नहीं</p>
<p>उसके दर पर ख्वाब चकनाचूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>रात काली नागिनों सी डस रही है आजकल</p>
<p>हमनशीं थे कल तलक मगरूर…</p>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>दूरियां नजदीकियां बन तो गयी हैं आजकल</p>
<p>पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>माँ पिता सारे मरासिम गुम हुए इस दौर में </p>
<p>रोटियों के फेर में मजबूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>भूल जाओगे मुझे तुम एक दिन मालूम था</p>
<p>इश्क में मेरे मगर मशहूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>पत्थरों पर सर पटककर फायदा कोई नहीं</p>
<p>उसके दर पर ख्वाब चकनाचूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>रात काली नागिनों सी डस रही है आजकल</p>
<p>हमनशीं थे कल तलक मगरूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>जो चमकते चाँद से रहते सदा ही शादबां</p>
<p>इश्क से चूके तो वे बेनूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>टीन के खाली कनस्तर की तरह थे बज रहे</p>
<p>मिल गयी कुर्सी उन्हें भरपूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>देती है ताक़त सियासत जम्हूरियत में इस कदर </p>
<p>बन गए नेता तो वे मख्मूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>मुफलिसी में इश्क का नीरज मज़ा कुछ और है</p>
<p>हाथ खाली भी मिले मसरूर कितने हो गए</p>
<p> </p>
<p>था कतल का काम जिनका बस चुनावों से कबल </p>
<p>जीत कर वो आये हम मश्कूर कितने हो गए </p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p> </p>आदमी तो बनोtag:openbooks.ning.com,2017-07-08:5170231:BlogPost:8654762017-07-08T10:04:36.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>१२२ १ २२ १२२ १२<br/>समंदर मिलेगा नदी तो बनो <br/>मिलेगा खुदा आदमी तो बनो</p>
<p></p>
<p>अँधेरा मिटेगा अभी के अभी <br/>जलो तुम जरा रौशनी तो बनो</p>
<p></p>
<p>तुम्हें भी मिलेगी ख़ुशी एक दिन <br/>कभी तुम किसी की ख़ुशी तो बनो</p>
<p></p>
<p>करो गर मुहब्बत तो ऐसे करो <br/>किसी की कभी जिंदगी तो बनो<br/> <br/>जो भी चाहिए दूसरों से तुम्हें <br/>खुदा के लिए तुम वही तो बनो</p>
<p>नीरज कुमार नीर </p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p>१२२ १ २२ १२२ १२<br/>समंदर मिलेगा नदी तो बनो <br/>मिलेगा खुदा आदमी तो बनो</p>
<p></p>
<p>अँधेरा मिटेगा अभी के अभी <br/>जलो तुम जरा रौशनी तो बनो</p>
<p></p>
<p>तुम्हें भी मिलेगी ख़ुशी एक दिन <br/>कभी तुम किसी की ख़ुशी तो बनो</p>
<p></p>
<p>करो गर मुहब्बत तो ऐसे करो <br/>किसी की कभी जिंदगी तो बनो<br/> <br/>जो भी चाहिए दूसरों से तुम्हें <br/>खुदा के लिए तुम वही तो बनो</p>
<p>नीरज कुमार नीर </p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल : इस्लाह हेतूtag:openbooks.ning.com,2017-05-06:5170231:BlogPost:8545602017-05-06T02:25:34.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>1222 1222 1222 1222<br></br>नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है <br></br>कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है. </p>
<p></p>
<p>चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना <br></br>कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है. </p>
<p></p>
<p>ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी <br></br>वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है. </p>
<p></p>
<p>कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन <br></br>जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है. </p>
<p></p>
<p>तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने…</p>
<p>1222 1222 1222 1222<br/>नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है <br/>कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है. </p>
<p></p>
<p>चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना <br/>कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है. </p>
<p></p>
<p>ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी <br/>वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है. </p>
<p></p>
<p>कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन <br/>जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है. </p>
<p></p>
<p>तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने <br/>तुम्हारी प्रीत की खुश्बू अभी भी मुझमे बसती है. </p>
<p></p>
<p>कभी जो मुड़ के देखोगे मुझे तो जान जाओगे <br/>कि रिश्ता टूट जाने में कहीं तेरी भी गलती है. </p>
<p><br/>नीरज कुमार नीर</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>जंगल और शहरtag:openbooks.ning.com,2016-02-04:5170231:BlogPost:7380422016-02-04T16:54:41.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं <br></br>जंगल के भीतर <br></br>और जंगली बंदर निकल आए हैं <br></br>जंगल से शहर में, बस्तियों में.... <br></br>बंदरों को अब नहीं भाते <br></br>जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल <br></br>उनके जी चढ़ गया है <br></br>चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद<br></br>आदमियों के हाथों से, <br></br>दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं <br></br>वे अपने पसंदीदा व्यंजन<br></br>इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले <br></br>शर्मीले बंदर <br></br>अब किटकिटाते हैं दाँत <br></br>कभी कभी गड़ा भी देते हैं <br></br>भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से…</p>
<p>शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं <br/>जंगल के भीतर <br/>और जंगली बंदर निकल आए हैं <br/>जंगल से शहर में, बस्तियों में.... <br/>बंदरों को अब नहीं भाते <br/>जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल <br/>उनके जी चढ़ गया है <br/>चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद<br/>आदमियों के हाथों से, <br/>दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं <br/>वे अपने पसंदीदा व्यंजन<br/>इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले <br/>शर्मीले बंदर <br/>अब किटकिटाते हैं दाँत <br/>कभी कभी गड़ा भी देते हैं <br/>भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से <br/>इन्सानों की सभ्य दुनियाँ में है बड़ी शिकायत <br/>बंदरों ने चैन से जीना मुश्किल कर दिया है <br/>दिन दहाड़े लूट ले रहे हैं <br/>चिप्स, समोसे और कचोरियाँ <br/>सुरक्षित नहीं बचे रास्ते<br/>हलवाई की दुकान से घर तक के <br/>सरकारें चिंतित हैं <br/>वे बनाएगी योजना <br/>और बंदर आ जाएंगे एक दिन <br/>पुलिस की गोली के निशाने पर <br/>शहर और बस्तियाँ शांत हो जाएंगी <br/>और जंगल खामोश ।<br/><br/>(गाँव के सीधे सादे आदिवासियों के लिए जो नक्सली बन रहे हैं )</p>
<p>..... नीरज कुमार नीर ......</p>कुएं में लोकतन्त्रtag:openbooks.ning.com,2016-01-20:5170231:BlogPost:7330302016-01-20T14:43:48.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>एक कुआं था <br></br>बहुत बड़ा कुआं <br></br>शीतल जल से पूर्ण <br></br>वहाँ रहते थे अनेकों मेढक <br></br>कुएं के मालिक ने कुएं में<br></br>डाल दिये कुछेक साँप<br></br>एवं फूंका मंत्र <br></br>जिससे उस कुएं में कायम हो गया लोकतन्त्र <br></br>एक मोटा मेढक बना उसका प्रधान <br></br>उसने कराया कुएं में सर्वे <br></br>और पाया कि साँपों की संख्या वहाँ है कम <br></br>मोटा मेढक और उसके चमचे हुए बहुत हैरान <br></br>उन्होने बनाया एक नियम <br></br>जिससे हो सके साँपो का उत्थान <br></br>सभी साँपो को मिले एक मेढक खाने को रोज<br></br>ऐसा हुआ प्रावधान<br></br>कहा गया बहुत…</p>
<p>एक कुआं था <br/>बहुत बड़ा कुआं <br/>शीतल जल से पूर्ण <br/>वहाँ रहते थे अनेकों मेढक <br/>कुएं के मालिक ने कुएं में<br/>डाल दिये कुछेक साँप<br/>एवं फूंका मंत्र <br/>जिससे उस कुएं में कायम हो गया लोकतन्त्र <br/>एक मोटा मेढक बना उसका प्रधान <br/>उसने कराया कुएं में सर्वे <br/>और पाया कि साँपों की संख्या वहाँ है कम <br/>मोटा मेढक और उसके चमचे हुए बहुत हैरान <br/>उन्होने बनाया एक नियम <br/>जिससे हो सके साँपो का उत्थान <br/>सभी साँपो को मिले एक मेढक खाने को रोज<br/>ऐसा हुआ प्रावधान<br/>कहा गया बहुत जरूरी है <br/>साँप का विकास<br/>तभी तो बना रहेगा प्रगतिशील होने का <br/>एहसास <br/>धीरे धीरे साँप खा गए सारे मेढक <br/>और अंत में उस मोटे मेढक को भी..... <br/>अब उस कुएं में बचे हैं सिर्फ साँप <br/>अनेक साँप <br/>वे खा रहे हैं एक दूसरे को <br/>कुएं का मालिक माँज रहा है <br/>अपनी बाल्टी <br/>वह मुस्कुरा रहा है <br/>बैठकर कुएं की मुंडेर पर <br/>साँपो की लड़ाई जारी है .... <br/>........ नीरज कुमार नीर ....</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>आईने की दुनियाtag:openbooks.ning.com,2015-12-28:5170231:BlogPost:7272272015-12-28T15:04:23.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>उसे कुछ दिखाई नहीं देता <br></br>सिवा <br></br>अपने आप के <br></br>अपनी आँखों के सामने <br></br>उसने रखा है <br></br>आईना <br></br>वह रहता है आत्ममुग्ध <br></br>समझता है स्वयं को ही <br></br>सबसे सुंदर <br></br>सर्वश्रेष्ठ <br></br>उसने देखा नहीं है <br></br>कोई और चेहरा <br></br>उसे कुछ सुनाई भी नहीं देता <br></br>बंद कर रखे हैं <br></br>उसने अपने कान <br></br>वह सुनता है <br></br>सिर्फ अपने आप को ही <br></br>गूँजती है उसके कान में<br></br>अपनी ही आवाज <br></br>मानता है अपनी बात को ही <br></br>एक मात्र सत्य <br></br>चाहता है समूची दुनियाँ को <br></br>बनाना अपने जैसा <br></br>आँखों…</p>
<p>उसे कुछ दिखाई नहीं देता <br/>सिवा <br/>अपने आप के <br/>अपनी आँखों के सामने <br/>उसने रखा है <br/>आईना <br/>वह रहता है आत्ममुग्ध <br/>समझता है स्वयं को ही <br/>सबसे सुंदर <br/>सर्वश्रेष्ठ <br/>उसने देखा नहीं है <br/>कोई और चेहरा <br/>उसे कुछ सुनाई भी नहीं देता <br/>बंद कर रखे हैं <br/>उसने अपने कान <br/>वह सुनता है <br/>सिर्फ अपने आप को ही <br/>गूँजती है उसके कान में<br/>अपनी ही आवाज <br/>मानता है अपनी बात को ही <br/>एक मात्र सत्य <br/>चाहता है समूची दुनियाँ को <br/>बनाना अपने जैसा <br/>आँखों के सामने आईना रखा आदमी <br/>मैं प्रतिबद्ध हूँ <br/>उसका प्रतिरोध करने के लिए <br/>मैं जानता हूँ <br/>दुनिया आईने में नहीं देखि जा सकती</p>
<p>..... नीरज कुमार नीर/ मौलिक एवं अप्रकाशित </p>एक तरही गजलtag:openbooks.ning.com,2015-12-15:5170231:BlogPost:7239122015-12-15T17:16:47.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>2122 2122 2122 22/112 <br></br> <br></br>शाम लिख ले सुबह लिख ले ज़िंदगानी लिख ले <br></br>नाम अपने हुस्न के मेरी जवानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>कब्ल तोहमत बेवफ़ाई की लगाने से सुन <br></br>नाम मेरा है वफा की तर्जुमानी लिख ले ।</p>
<p></p>
<p>जो बनाना चाहता है खुशनुमा संसार को <br></br>अपने होंठो पे मसर्रत की कहानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>मंहगाई बढ़ रही है रात औ दिन चौगुनी<br></br>वादे अच्छे दिन के निकले लंतरानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>लाल होगी यह जमी गर इन्सानो के खूँ से <br></br>रह न जाएगा अंबर भी आसमानी लिख ले…</p>
<p>2122 2122 2122 22/112 <br/> <br/>शाम लिख ले सुबह लिख ले ज़िंदगानी लिख ले <br/>नाम अपने हुस्न के मेरी जवानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>कब्ल तोहमत बेवफ़ाई की लगाने से सुन <br/>नाम मेरा है वफा की तर्जुमानी लिख ले ।</p>
<p></p>
<p>जो बनाना चाहता है खुशनुमा संसार को <br/>अपने होंठो पे मसर्रत की कहानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>मंहगाई बढ़ रही है रात औ दिन चौगुनी<br/>वादे अच्छे दिन के निकले लंतरानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>लाल होगी यह जमी गर इन्सानो के खूँ से <br/>रह न जाएगा अंबर भी आसमानी लिख ले ।</p>
<p></p>
<p>रात का सागर अगर है गहरा तो यह तय है <br/>कल किनारों पर न होगी सरगरानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>होके इंसां रह नहीं सकते इन्सानो के संग <br/>उसके घर पर रहते हैं संग आग पानी लिख ले।</p>
<p></p>
<p>आसमां में घूमने वाले जरा देख नीचे <br/>कम नहीं है कुछ यहाँ भी शादमानी लिख ले ।<br/>और अंत में : <br/>कर गया जो फेल दसवीं की परीक्षा पप्पू <br/>अब करेगा गाँव की अपने प्रधानी लिख ले । <br/>..... नीरज कुमार नीर/ मौलिक एवं अप्रकाशित </p>आता है जीना जिंदगी हूँ मैंtag:openbooks.ning.com,2015-10-28:5170231:BlogPost:7100132015-10-28T17:38:39.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं <br/>जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल <br/>आता है जीना जिंदगी हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>जो सोचना है सोचिए साहब <br/>मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>साहिल से यारी मैं करूँ कैसे <br/>जाना है आगे इक नदी हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>अच्छा किसे लगता भला जलना <br/>पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं । <br/> <br/>नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं <br/>जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल <br/>आता है जीना जिंदगी हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>जो सोचना है सोचिए साहब <br/>मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>साहिल से यारी मैं करूँ कैसे <br/>जाना है आगे इक नदी हूँ मैं। </p>
<p></p>
<p>अच्छा किसे लगता भला जलना <br/>पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं । <br/> <br/>नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित</p>अब आँखों से ही बरसेंगेtag:openbooks.ning.com,2015-10-26:5170231:BlogPost:7093042015-10-26T09:21:17.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>अंबर से मेघ नहीं बरसे</p>
<p>अब आँखों से ही बरसेंगे</p>
<p> </p>
<p>शोक है</p>
<p>मनी नहीं खुशियाँ</p>
<p>गाँव में इस बार</p>
<p>दशहरा पर</p>
<p>असमय गर्भ पात हुआ है</p>
<p>गिरा है गर्भ</p>
<p>धान्य का धरा पर</p>
<p>कृषक के समक्ष</p>
<p>संकट विशाल है</p>
<p>पड़ा फिर से अकाल है</p>
<p>खाने के एक निवाले को</p>
<p>रमुआ के बच्चे तरसेंगे</p>
<p> </p>
<p>व्यवस्था बहुत बीमार है</p>
<p>अकाल सरकारी त्योहार है</p>
<p>कमाने का खूब है</p>
<p>अवसर</p>
<p>बटेगी राहत की रेवड़ी</p>
<p>खा जाएँगे नेता,…</p>
<p>अंबर से मेघ नहीं बरसे</p>
<p>अब आँखों से ही बरसेंगे</p>
<p> </p>
<p>शोक है</p>
<p>मनी नहीं खुशियाँ</p>
<p>गाँव में इस बार</p>
<p>दशहरा पर</p>
<p>असमय गर्भ पात हुआ है</p>
<p>गिरा है गर्भ</p>
<p>धान्य का धरा पर</p>
<p>कृषक के समक्ष</p>
<p>संकट विशाल है</p>
<p>पड़ा फिर से अकाल है</p>
<p>खाने के एक निवाले को</p>
<p>रमुआ के बच्चे तरसेंगे</p>
<p> </p>
<p>व्यवस्था बहुत बीमार है</p>
<p>अकाल सरकारी त्योहार है</p>
<p>कमाने का खूब है</p>
<p>अवसर</p>
<p>बटेगी राहत की रेवड़ी</p>
<p>खा जाएँगे नेता, अफसर</p>
<p>शहर के बड़े बंगलों में</p>
<p>कहकहे व्हिस्की में घुलेंगे</p>
<p> </p>
<p>तीन साल की पुरानी धोती</p>
<p>चार साल की फटी साड़ी</p>
<p>अब एक साल और</p>
<p>चलेगी</p>
<p>पर भूख का इलाज कहाँ है</p>
<p>भंडार में अनाज कहाँ है</p>
<p>छह साल की मुनियाँ</p>
<p>अपने पेट पर रख कर हाथ</p>
<p>मलेगी</p>
<p>टीवी पर चीखने वाले </p>
<p>बिना मुद्दे के ही गरजेंगे</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>रमेशर छोड़ेगा अब गाँव</p>
<p>जाएगा दिल्ली, सूरत, गुड़गांव</p>
<p>शहर में रखेगा पाँव </p>
<p>जिंदा मांस खाने वालों से</p>
<p>नोचवाएगा</p>
<p>तब जाकर</p>
<p>दो जून की रोटी पाएगा ।</p>
<p>पीछे गाँव में बीबी, बच्चे</p>
<p>मनी ऑर्डर की राह तकेंगे</p>
<p>पोस्ट मैन भी कमीशन लेगा</p>
<p>तब जाकर</p>
<p>चूल्हा जलेगा </p>
<p>बाबा बादल की आशा में</p>
<p>आसमान को सतत तकेंगे</p>
<p></p>
<p>नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित </p>एकात्म बोध /कविता : नीरजtag:openbooks.ning.com,2015-09-26:5170231:BlogPost:7016372015-09-26T07:07:25.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>तेजी से घूम रहे चक्र पर <br/>हम ठेल दिये गए हैं <br/>किनारों की ओर <br/>जहां <br/>महसूस होती है सर्वाधिक<br/>इसकी गति <br/>ऊंची उठती है उर्मियाँ <br/>जैसे जैसे हम बढ़ते हैं <br/>केंद्र की ओर<br/>सायास<br/>स्थिरता बढ़ती जाती है <br/>प्रशांत हो जाती है तरंगे <br/>सत्य का बोध <br/>अनावृत होने लगता है <br/>अनुभव होता है एकात्म का ....<br/>.............. नीरज कुमार नीर</p>
<p>तेजी से घूम रहे चक्र पर <br/>हम ठेल दिये गए हैं <br/>किनारों की ओर <br/>जहां <br/>महसूस होती है सर्वाधिक<br/>इसकी गति <br/>ऊंची उठती है उर्मियाँ <br/>जैसे जैसे हम बढ़ते हैं <br/>केंद्र की ओर<br/>सायास<br/>स्थिरता बढ़ती जाती है <br/>प्रशांत हो जाती है तरंगे <br/>सत्य का बोध <br/>अनावृत होने लगता है <br/>अनुभव होता है एकात्म का ....<br/>.............. नीरज कुमार नीर</p>हिन्दी चमक रही है / गीतtag:openbooks.ning.com,2015-09-14:5170231:BlogPost:6974102015-09-14T02:29:38.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>भारत के अंबर पर देखो</p>
<p>सूर्य सी हिन्दी चमक रही है</p>
<p>माँ भारती के उपत्यका में</p>
<p>खुशबू बनकर महक रही है</p>
<p> </p>
<p>विभिन्न प्रांतों का सेतुबंधन</p>
<p>सरल सर्वजन सर्वप्रिय है</p>
<p>दक्षिण से उत्तर पूर्व पश्चिम</p>
<p>दम दम दम दम दमक रही है</p>
<p> </p>
<p>संस्कारों की वाहक हिन्दी</p>
<p>सभी भाषाओं में यह गंगा</p>
<p>प्रगति पथ पर नित आरूढ़ ये</p>
<p>पग नवल सोपान धर रही है</p>
<p> </p>
<p>यूरोप अमेरिका ने माना</p>
<p>है यह भाषा समर्थ सक्षम</p>
<p>हम भारतियों के दिल में…</p>
<p>भारत के अंबर पर देखो</p>
<p>सूर्य सी हिन्दी चमक रही है</p>
<p>माँ भारती के उपत्यका में</p>
<p>खुशबू बनकर महक रही है</p>
<p> </p>
<p>विभिन्न प्रांतों का सेतुबंधन</p>
<p>सरल सर्वजन सर्वप्रिय है</p>
<p>दक्षिण से उत्तर पूर्व पश्चिम</p>
<p>दम दम दम दम दमक रही है</p>
<p> </p>
<p>संस्कारों की वाहक हिन्दी</p>
<p>सभी भाषाओं में यह गंगा</p>
<p>प्रगति पथ पर नित आरूढ़ ये</p>
<p>पग नवल सोपान धर रही है</p>
<p> </p>
<p>यूरोप अमेरिका ने माना</p>
<p>है यह भाषा समर्थ सक्षम</p>
<p>हम भारतियों के दिल में देखो</p>
<p>धड़कन बन कर धडक रही है </p>
<p>नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित </p>उसकी देह अब भी मांसल है / अतुकांत कविताtag:openbooks.ning.com,2015-09-13:5170231:BlogPost:6973222015-09-13T11:47:14.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए </p>
<p>वह एक लड़की थी <br></br>उन्नत नितंबों <br></br>पुष्ट उरोजों वाली <br></br>श्यामल घनेरे केश <br></br>बल खाते पर्वतों के बीच <br></br>लहराते <br></br>लगता बाढ़ की पगलाई नदी <br></br>मेघों के मध्य <br></br>घाटी में से गुजर रही हो <br></br>खुलकर खिलखिला कर हँसती <br></br>कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते <br></br>उसके सपनों में आता <br></br>फिल्मी राजकुमार <br></br>जिसके साथ वह <br></br>गीत गाती झूमती नाचती <br></br>फूलों के बाग में <br></br>स्कूल कॉलेज से आती जाती <br></br>सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु <br></br>सबके…</p>
<p>सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए </p>
<p>वह एक लड़की थी <br/>उन्नत नितंबों <br/>पुष्ट उरोजों वाली <br/>श्यामल घनेरे केश <br/>बल खाते पर्वतों के बीच <br/>लहराते <br/>लगता बाढ़ की पगलाई नदी <br/>मेघों के मध्य <br/>घाटी में से गुजर रही हो <br/>खुलकर खिलखिला कर हँसती <br/>कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते <br/>उसके सपनों में आता <br/>फिल्मी राजकुमार <br/>जिसके साथ वह <br/>गीत गाती झूमती नाचती <br/>फूलों के बाग में <br/>स्कूल कॉलेज से आती जाती <br/>सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु <br/>सबके लिए स्पृह्यनीय <br/>फिर एक दिन <br/>कुछ उछृंखल हाथों ने तोड़ दिये <br/>सितार के तन्तु <br/>सबने ने फेर ली निगाहें <br/>वैसे उसकी देह अब भी मांसल है <br/>नितंब उन्नत हैं <br/>उरोजों में पुष्टता है <br/>पर कोई नहीं रखता अब <br/>उसे पाने की चाहत <br/>उसकी आँखों पर पड़ा है अब <br/>एक बड़ा चश्मा <br/>और चेहरा दुपट्टे से ढँका है ।<br/>.................. नीरज कुमार नीर</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>कोण तलाशते लोगtag:openbooks.ning.com,2015-08-29:5170231:BlogPost:6924882015-08-29T05:44:55.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>तुम गोलाई में तलाशते हो कोण<br></br>सीधी सरल रेखा को बदल देते हो <br></br>त्रिकोण में <br></br>हर बात में तुम तलाशते हो <br></br>अपना ही एक कोण <br></br>तुम्हें सुविधा होती है <br></br>एक कोण पकड़कर <br></br>अपनी बात कहने में <br></br>बिन कोण के तुम <br></br>भीड़ के भंवर में <br></br>उतरना नहीं चाहते <br></br>तुम्हें या तो तैरना नहीं आता <br></br>या तुम आलसी हो <br></br>स्वार्थी और सुविधा भोगी भी <br></br>तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है <br></br>इस इस देश में गढ़ डाले है <br></br>तुमने हजारो लाखों कोण <br></br>हर कोण से तुम दागते हो तीर <br></br>ह्रदय को…</p>
<p>तुम गोलाई में तलाशते हो कोण<br/>सीधी सरल रेखा को बदल देते हो <br/>त्रिकोण में <br/>हर बात में तुम तलाशते हो <br/>अपना ही एक कोण <br/>तुम्हें सुविधा होती है <br/>एक कोण पकड़कर <br/>अपनी बात कहने में <br/>बिन कोण के तुम <br/>भीड़ के भंवर में <br/>उतरना नहीं चाहते <br/>तुम्हें या तो तैरना नहीं आता <br/>या तुम आलसी हो <br/>स्वार्थी और सुविधा भोगी भी <br/>तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है <br/>इस इस देश में गढ़ डाले है <br/>तुमने हजारो लाखों कोण <br/>हर कोण से तुम दागते हो तीर <br/>ह्रदय को लक्ष्य करके <br/>जब देश नहीं रहेगा <br/>खींचकर बाहर लाये जायेंगे <br/>कोनो में छुपे लोग <br/>कोनों को फिर मूँद दिया जाएगा <br/>अंधे पत्थरों से .... <br/>नीरज कुमार नीर/ मौलिक एवं अप्रकाशित </p>लड़कियां और उड़हूल के फूल : नीरज कुमार नीरtag:openbooks.ning.com,2015-08-02:5170231:BlogPost:6848182015-08-02T05:45:24.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>लड़कियाँ होती अगर <br/>उड़हूल के फूलों की तरह <br/>और तोड़ ली जाती <br/>बिन खिले<br/>अधखिले <br/>खिल जाती फिर भी <br/>समय के साथ <br/>पर लड़कियाँ तो होती हैं <br/>गुलाब की तरह</p>
<p><br/>नीरज कुमार नीर /<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>लड़कियाँ होती अगर <br/>उड़हूल के फूलों की तरह <br/>और तोड़ ली जाती <br/>बिन खिले<br/>अधखिले <br/>खिल जाती फिर भी <br/>समय के साथ <br/>पर लड़कियाँ तो होती हैं <br/>गुलाब की तरह</p>
<p><br/>नीरज कुमार नीर /<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>बस तुम नहीं आतीtag:openbooks.ning.com,2015-08-02:5170231:BlogPost:6847282015-08-02T03:29:10.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>खोल रखे है मैंने</p>
<p>खिड़कियाँ और सभी दरवाजे</p>
<p>भीतर आते हैं</p>
<p>धूप , चाँदनी ,</p>
<p>निशांत समीर ,</p>
<p>दोपहर के गरम थपेड़े ,</p>
<p>पूस की शीत लहर ,</p>
<p>बरखा बूंदे</p>
<p>तमस, प्रकाश</p>
<p>पुष्प सुवास, उमसाती गँधाती अपराह्न की हवा</p>
<p>और सभी कुछ</p>
<p>अपनी मर्जी से</p>
<p>और अक्सर उतर आता है</p>
<p>खाली आकाश भी</p>
<p>बस तुम नहीं आती</p>
<p>कितने बरस बीत गए</p>
<p>पर तुम नहीं आती</p>
<p>खोल रखे होंगे</p>
<p>तुमने भी शायद</p>
<p>खिड़कियाँ और दरवाजे</p>
<p>..... नीरज कुमार…</p>
<p>खोल रखे है मैंने</p>
<p>खिड़कियाँ और सभी दरवाजे</p>
<p>भीतर आते हैं</p>
<p>धूप , चाँदनी ,</p>
<p>निशांत समीर ,</p>
<p>दोपहर के गरम थपेड़े ,</p>
<p>पूस की शीत लहर ,</p>
<p>बरखा बूंदे</p>
<p>तमस, प्रकाश</p>
<p>पुष्प सुवास, उमसाती गँधाती अपराह्न की हवा</p>
<p>और सभी कुछ</p>
<p>अपनी मर्जी से</p>
<p>और अक्सर उतर आता है</p>
<p>खाली आकाश भी</p>
<p>बस तुम नहीं आती</p>
<p>कितने बरस बीत गए</p>
<p>पर तुम नहीं आती</p>
<p>खोल रखे होंगे</p>
<p>तुमने भी शायद</p>
<p>खिड़कियाँ और दरवाजे</p>
<p>..... नीरज कुमार नीर</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>शहीदtag:openbooks.ning.com,2015-07-18:5170231:BlogPost:6783672015-07-18T14:48:17.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>बहुत सोचा तो लगा <br></br>सच ही तो कहते हैं <br></br>वे तो भर्ती होते हैं मरने के लिए <br></br>अवगत होते हैं <br></br>अपने कार्य के निहित खतरों से <br></br>पर एक बात समझ नहीं आयी <br></br>जब सामने से चलती हैं गोलियां <br></br>उनके पास भी तो होता है <br></br>भाग खड़े होने का विकल्प <br></br>पर वे भागते क्यों नहीं <br></br>देते हैं गोलियों का जवाब <br></br>पीघला देते हैं लोहे को <br></br>अपने सीने में कैद करके <br></br>बारूद को कर देते हैं बर्फ <br></br>वे धोखा नहीं दे पाते<br></br>अपनी मातृभूमि को <br></br>राजनेताओं की तरह <br></br>मेरी समझ में कुछ कमी है शायद…</p>
<p>बहुत सोचा तो लगा <br/>सच ही तो कहते हैं <br/>वे तो भर्ती होते हैं मरने के लिए <br/>अवगत होते हैं <br/>अपने कार्य के निहित खतरों से <br/>पर एक बात समझ नहीं आयी <br/>जब सामने से चलती हैं गोलियां <br/>उनके पास भी तो होता है <br/>भाग खड़े होने का विकल्प <br/>पर वे भागते क्यों नहीं <br/>देते हैं गोलियों का जवाब <br/>पीघला देते हैं लोहे को <br/>अपने सीने में कैद करके <br/>बारूद को कर देते हैं बर्फ <br/>वे धोखा नहीं दे पाते<br/>अपनी मातृभूमि को <br/>राजनेताओं की तरह <br/>मेरी समझ में कुछ कमी है शायद ... <br/>...... नीरज कुमार नीर ...</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>नदी के बीच वाला पाया (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2015-07-05:5170231:BlogPost:6730362015-07-05T09:30:00.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>एक नदी पर एक पुल था , जिसमे सात पाये थे। एक बार सबसे बीच वाले पाए ने सबसे किनारे वाले पाए से कहा “जानते हो यह पुल मेरी वजह से ही है। नदी की जलधारा का सबसे ज्यादा प्रवाह मैं ही झेलता हूँ। मैं हमेशा पानी में डूबा रहता हूँ, तुमलोगों का क्या किनारे खड़े रहते हो, बरसात में कभी कभी नदी की जलधारा तुम तक पहुँचती है वरना सालो भर ऐसे ही खड़े रहते हो, तुम्हारी उपयोगिता ही क्या है। मेरे कारण ही लाखों लोग इस पुल का प्रयोग कर नदी के आर पार जा पाते हैं । “<br></br> किनारे वाले पाये ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ…</p>
<p>एक नदी पर एक पुल था , जिसमे सात पाये थे। एक बार सबसे बीच वाले पाए ने सबसे किनारे वाले पाए से कहा “जानते हो यह पुल मेरी वजह से ही है। नदी की जलधारा का सबसे ज्यादा प्रवाह मैं ही झेलता हूँ। मैं हमेशा पानी में डूबा रहता हूँ, तुमलोगों का क्या किनारे खड़े रहते हो, बरसात में कभी कभी नदी की जलधारा तुम तक पहुँचती है वरना सालो भर ऐसे ही खड़े रहते हो, तुम्हारी उपयोगिता ही क्या है। मेरे कारण ही लाखों लोग इस पुल का प्रयोग कर नदी के आर पार जा पाते हैं । “<br/> किनारे वाले पाये ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ दिनो बाद किनारे वाले दोनों पाये ढह गए। अब उस पुल का सड़क से संपर्क टूट गया। उस पुल का प्रयोग बंद हो गया। उसी पुल के बगल में एक नया पुल बन गया। लोग उसी पुल से आने जाने लगे । बीच वाला पाया चुपचाप पानी में खड़ा नए बने पुल और उस पर आते जाते लोगों को देखता रहता। <br/> नीरज कुमार नीर <br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>राय बहादुर : लघु कथाtag:openbooks.ning.com,2015-06-28:5170231:BlogPost:6691842015-06-28T12:55:10.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>“मेरे ग्रैंड फादर राय बहादुर थे” ..... उस व्यक्ति ने बुद्धिजीवियों की सभा में अकड़ के साथ यह बात कही । सभा के आयोजक ने भी गर्व से अपना सर ऊंचा कर लिया । वहाँ उपस्थित लोग जो उस व्यक्ति को मिल रहे विशेष सम्मान, तवज्जो , उसके समृद्ध पहनावे एवं उसकी मंहगी गाड़ी से पहले ही नतमस्तक हो रहे थे, यह सुनकर थोड़े और विनीत भाव दिखलाने लगे। उसे मंच पर सबसे ऊंची कुर्सी दी गयी । सब उसके साथ एक फोटो खिचवा लेना चाहते थे । महेश सभा में सबसे पीछे की कुर्सी पर उपेक्षित सा बैठा अपने मलिन कपड़ों को देख रहा था। वह…</p>
<p>“मेरे ग्रैंड फादर राय बहादुर थे” ..... उस व्यक्ति ने बुद्धिजीवियों की सभा में अकड़ के साथ यह बात कही । सभा के आयोजक ने भी गर्व से अपना सर ऊंचा कर लिया । वहाँ उपस्थित लोग जो उस व्यक्ति को मिल रहे विशेष सम्मान, तवज्जो , उसके समृद्ध पहनावे एवं उसकी मंहगी गाड़ी से पहले ही नतमस्तक हो रहे थे, यह सुनकर थोड़े और विनीत भाव दिखलाने लगे। उसे मंच पर सबसे ऊंची कुर्सी दी गयी । सब उसके साथ एक फोटो खिचवा लेना चाहते थे । महेश सभा में सबसे पीछे की कुर्सी पर उपेक्षित सा बैठा अपने मलिन कपड़ों को देख रहा था। वह ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर कहना चाह रहा था कि उसके दादा जी एक स्वतन्त्रता सेनानी थे , जिनकी सारी संपत्ति अंग्रेज़ो ने जब्त कर ली थी .... पर वह चुप रहा .... </p>रात रानीtag:openbooks.ning.com,2015-06-20:5170231:BlogPost:6668522015-06-20T14:41:22.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>रात रानी क्यों नहीं खिलती हो तुम <br></br>भरी दुपहरी में <br></br>जब किसान बोता है <br></br>मिट्टी में स्वेद बूंद और <br></br>धरा ठहरती है उम्मीद से <br></br>जब श्रमिक बोझ उठाये <br></br>एक होता है <br></br>ईट और गारों के साथ <br></br>शहर की अंधी गलियों में<br></br>जहां हवा भी भूल जाती है रास्ता । <br></br>तुम्हारी ताजा महक <br></br>भर सकती है उनमें उमंग <br></br>मिटा सकती है उनकी थकान <br></br>दे सकती है उत्साह के कुछ पल <br></br>कड़ी धूप का अहसास कम हो सकता है ।<br></br>पर तुम महकते हो रात में <br></br>जब किसान और श्रमिक <br></br>अंधेरे की चादर ओढ़े…</p>
<p>रात रानी क्यों नहीं खिलती हो तुम <br/>भरी दुपहरी में <br/>जब किसान बोता है <br/>मिट्टी में स्वेद बूंद और <br/>धरा ठहरती है उम्मीद से <br/>जब श्रमिक बोझ उठाये <br/>एक होता है <br/>ईट और गारों के साथ <br/>शहर की अंधी गलियों में<br/>जहां हवा भी भूल जाती है रास्ता । <br/>तुम्हारी ताजा महक <br/>भर सकती है उनमें उमंग <br/>मिटा सकती है उनकी थकान <br/>दे सकती है उत्साह के कुछ पल <br/>कड़ी धूप का अहसास कम हो सकता है ।<br/>पर तुम महकते हो रात में <br/>जब किसान और श्रमिक <br/>अंधेरे की चादर ओढ़े <br/>थकान से चूर चले जाते हैं <br/>नींद के आगोश में । <br/>तुम महकते हो <br/>जब ऊंचे प्राचीरों वाले बंगले में <br/>दमदमाती है डिओड्रेण्ट और परफ़्यूम की महक <br/>जहां गौण हो जाता है तुम्हारा होना <br/>तुम्हारा अस्तित्व होता है निरर्थक । <br/>रात रानी क्यों नहीं खिलती हो तुम <br/>भरी दुपहरी में ?<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>जो छला जाए कभी विश्वास मत देनाtag:openbooks.ning.com,2015-05-27:5170231:BlogPost:6591262015-05-27T16:58:57.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>मौत देना मौत का अहसास मत देना, <br/>जो छला जाए कभी विश्वास मत देना ।</p>
<p></p>
<p>पंख दे पाओ नहीं गर तो वही अच्छा <br/>सामने मेरे खुला आकाश मत देना।</p>
<p></p>
<p>दश्त देना, धूप देना , गरमियाँ देना <br/>ऐसे में लेकिन खुदाया प्यास मत देना ।</p>
<p></p>
<p>है हमे मंजूर अंधेरा उम्र भर का <br/>जुगनुओं से ले मुझे प्रकाश मत देना । <br/>---------------<br/>नीरज कुमार नीर <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>मौत देना मौत का अहसास मत देना, <br/>जो छला जाए कभी विश्वास मत देना ।</p>
<p></p>
<p>पंख दे पाओ नहीं गर तो वही अच्छा <br/>सामने मेरे खुला आकाश मत देना।</p>
<p></p>
<p>दश्त देना, धूप देना , गरमियाँ देना <br/>ऐसे में लेकिन खुदाया प्यास मत देना ।</p>
<p></p>
<p>है हमे मंजूर अंधेरा उम्र भर का <br/>जुगनुओं से ले मुझे प्रकाश मत देना । <br/>---------------<br/>नीरज कुमार नीर <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>क्या होगा तबtag:openbooks.ning.com,2015-05-03:5170231:BlogPost:6502692015-05-03T13:17:49.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>जब करूंगा अंतिम प्रयाण <br></br>ढहते हुए भवन को छोडकर <br></br>निकलूँगा जब बाहर <br></br>किस माध्यम से होकर गुज़रूँगा ?<br></br>वहाँ हवा होगी या निर्वात होगा? <br></br>होगी गहराई या ऊंचाई में उड़ूँगा <br></br>मुझे ऊंचाई से डर लगता है<br></br>तैरना भी नहीं आता <br></br>क्या यह डर तब भी होगा <br></br>मेरा हाथ थामे कोई ले चलेगा <br></br>या मैं अकेले ही जाऊंगा <br></br>चारो ओर होगा प्रकाश <br></br>या अंधेरे ने मुझे घेरा होगा <br></br>मुझे अकेलेपन और अंधकार से भी डर लगता है <br></br>क्या यह डर तब भी होगा?<br></br>भय तो विचारों से होते हैं उत्पन्न <br></br>क्या…</p>
<p>जब करूंगा अंतिम प्रयाण <br/>ढहते हुए भवन को छोडकर <br/>निकलूँगा जब बाहर <br/>किस माध्यम से होकर गुज़रूँगा ?<br/>वहाँ हवा होगी या निर्वात होगा? <br/>होगी गहराई या ऊंचाई में उड़ूँगा <br/>मुझे ऊंचाई से डर लगता है<br/>तैरना भी नहीं आता <br/>क्या यह डर तब भी होगा <br/>मेरा हाथ थामे कोई ले चलेगा <br/>या मैं अकेले ही जाऊंगा <br/>चारो ओर होगा प्रकाश <br/>या अंधेरे ने मुझे घेरा होगा <br/>मुझे अकेलेपन और अंधकार से भी डर लगता है <br/>क्या यह डर तब भी होगा?<br/>भय तो विचारों से होते हैं उत्पन्न <br/>क्या विचार तब भी मेरा पीछा करेंगे ?<br/>लक्ष्य सुज्ञात होगा<br/>या भटकूंगा लक्ष्यहीन <br/>क्या होगा तब ? <br/> <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>बारातीtag:openbooks.ning.com,2015-04-25:5170231:BlogPost:6455272015-04-25T06:33:17.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>मौसा, मौसी, ताऊ, फूफा <br></br>दुल्हे के सब साथी <br></br>बज रहे हैं गाजे बाजे <br></br>नाच रहे बाराती.</p>
<p></p>
<p>मेट्रो सी चमक रही <br></br>दिल्ली वाली भाभी <br></br>चक्करघिन्नी सी घूमे अम्मा <br></br>टांग कमर में चाभी<br></br>घुटनों का दर्द छुपाये <br></br>देख सभी को मुस्काती <br></br> <br></br>नई सूट पहन कर भैया,<br></br>नाश्ते का पैकेट बाँट रहा <br></br>अपने लिए भी कोई <br></br>कटरीना, करीना छांट रहा <br></br>लहंगा चोली पहन के छोटी <br></br>घूमती है इतराती <br></br> <br></br>जनक जीवन की मुश्किल बेला <br></br>विदा हो रही सीता <br></br>भीतर में कुछ टूट रहा…</p>
<p>मौसा, मौसी, ताऊ, फूफा <br/>दुल्हे के सब साथी <br/>बज रहे हैं गाजे बाजे <br/>नाच रहे बाराती.</p>
<p></p>
<p>मेट्रो सी चमक रही <br/>दिल्ली वाली भाभी <br/>चक्करघिन्नी सी घूमे अम्मा <br/>टांग कमर में चाभी<br/>घुटनों का दर्द छुपाये <br/>देख सभी को मुस्काती <br/> <br/>नई सूट पहन कर भैया,<br/>नाश्ते का पैकेट बाँट रहा <br/>अपने लिए भी कोई <br/>कटरीना, करीना छांट रहा <br/>लहंगा चोली पहन के छोटी <br/>घूमती है इतराती <br/> <br/>जनक जीवन की मुश्किल बेला <br/>विदा हो रही सीता <br/>भीतर में कुछ टूट रहा <br/>भर गयी है रिक्तता <br/>पत्थर सी आँखों में <br/>जल बुँदे बहती आती .. <br/><br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>हॉकी खेलने जाती लड़कियांtag:openbooks.ning.com,2015-04-04:5170231:BlogPost:6382092015-04-04T08:00:00.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>पैरों में एक जोड़ी हवाई चप्पल,</p>
<p>और छोटी छोटी ख़्वाहिशों से चमकती आँखों के साथ</p>
<p>हाथों में स्टिक लिए</p>
<p>कुछ लड़कियां हॉकी खेलने जाती है</p>
<p>भागती है गेंद के पीछे</p>
<p>गेंद में छुपा बैठा है पेट भर खाने का सुख</p>
<p>पहाड़ के उस पार</p>
<p>जंगलों के बीचों बीच नंगे पाँव</p>
<p>एक वृद्ध आदिवासी दंपति</p>
<p>सखुआ के पत्तों को हटाकर</p>
<p>पौधों की जड़ें खोद</p>
<p>रात के खाने का इंतजाम करता है।</p>
<p>उसने कभी हॉकी का स्टिक नहीं देखा है</p>
<p>पर वह सपने देखता है</p>
<p>गेंद से…</p>
<p>पैरों में एक जोड़ी हवाई चप्पल,</p>
<p>और छोटी छोटी ख़्वाहिशों से चमकती आँखों के साथ</p>
<p>हाथों में स्टिक लिए</p>
<p>कुछ लड़कियां हॉकी खेलने जाती है</p>
<p>भागती है गेंद के पीछे</p>
<p>गेंद में छुपा बैठा है पेट भर खाने का सुख</p>
<p>पहाड़ के उस पार</p>
<p>जंगलों के बीचों बीच नंगे पाँव</p>
<p>एक वृद्ध आदिवासी दंपति</p>
<p>सखुआ के पत्तों को हटाकर</p>
<p>पौधों की जड़ें खोद</p>
<p>रात के खाने का इंतजाम करता है।</p>
<p>उसने कभी हॉकी का स्टिक नहीं देखा है</p>
<p>पर वह सपने देखता है</p>
<p>गेंद से निकलते गरम माड़ और भात का। </p>
<p> मौलिक एवं अप्रकाशित </p>ऊर्ध्वारोहणtag:openbooks.ning.com,2015-02-24:5170231:BlogPost:6216642015-02-24T03:18:17.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>एक सत्यान्वेषी , <br></br>मुक्ति का अभिलाषी <br></br>था उर्ध्वारोही। <br></br>कर रहा था आरोहण <br></br>पर्वत की दुर्लंघ्य ऊचाईयां का। <br></br>पर्वत से उतरती नदी ने कहा : <br></br>मैदानों में तो जीवन कितना सरल , सुगम है, <br></br>यहाँ जीवन है कितना दुष्कर। <br></br>अविचलित रहकर इसपर <br></br>दिया उसने उत्तर <br></br>मैंने भीतर जाकर देखा है, <br></br>वाह्य सौंदर्य तो धोखा है। <br></br> मैदानों में जीवन सरल है, <br></br>पर राह लक्ष्य की वक्र है। <br></br>जीवन रथ मे लगे <br></br> कर्म फल के दुष्चक्र हैं। <br></br>मैं राह सीधी लेना चाहता हूँ। <br></br>इसलिए नीचे…</p>
<p>एक सत्यान्वेषी , <br/>मुक्ति का अभिलाषी <br/>था उर्ध्वारोही। <br/>कर रहा था आरोहण <br/>पर्वत की दुर्लंघ्य ऊचाईयां का। <br/>पर्वत से उतरती नदी ने कहा : <br/>मैदानों में तो जीवन कितना सरल , सुगम है, <br/>यहाँ जीवन है कितना दुष्कर। <br/>अविचलित रहकर इसपर <br/>दिया उसने उत्तर <br/>मैंने भीतर जाकर देखा है, <br/>वाह्य सौंदर्य तो धोखा है। <br/> मैदानों में जीवन सरल है, <br/>पर राह लक्ष्य की वक्र है। <br/>जीवन रथ मे लगे <br/> कर्म फल के दुष्चक्र हैं। <br/>मैं राह सीधी लेना चाहता हूँ। <br/>इसलिए नीचे से ऊपर जाना चाहता हूँ ।<br/>दोनों महार्णव मिलन को आतुर <br/>चल दिये, <br/>अपने अपने यौक्तिक मार्ग पर । <br/>नदी नीचे जाकर लवण बन गयी। <br/>........ <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित <br/>……….<br/>MOB No. 08873257666</p>कहाँ गए वो लोगtag:openbooks.ning.com,2014-10-19:5170231:BlogPost:5830362014-10-19T10:15:50.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>कहाँ गए वो लोग</p>
<p></p>
<p>औरों के गम में रोने वाले <br></br>संग दालान में सोने वाले। <br></br>साँझ ढले मानस का पाठ <br></br>सुनने और सुनाने वाले ।</p>
<p></p>
<p>होती थी जब बेटी विदा <br></br>पड़ोस की चाची रोती थी<br></br>फूल खिले किसी के आँगन <br></br>मिलकर सोहर गाने वाले</p>
<p></p>
<p>पाँव में भले दरारें थी <br></br>पर निश्छल निर्दोष हंसी <br></br>शादी के महीनो पहले <br></br>ब्याह के गीत गाने वाले</p>
<p></p>
<p>पूजा हो या कार्य प्रयोजन <br></br>पूरा गाँव उमड़ता था<br></br>किसी के घर विपत्ति हो <br></br>सामूहिक रूप से लड़ता था…</p>
<p>कहाँ गए वो लोग</p>
<p></p>
<p>औरों के गम में रोने वाले <br/>संग दालान में सोने वाले। <br/>साँझ ढले मानस का पाठ <br/>सुनने और सुनाने वाले ।</p>
<p></p>
<p>होती थी जब बेटी विदा <br/>पड़ोस की चाची रोती थी<br/>फूल खिले किसी के आँगन <br/>मिलकर सोहर गाने वाले</p>
<p></p>
<p>पाँव में भले दरारें थी <br/>पर निश्छल निर्दोष हंसी <br/>शादी के महीनो पहले <br/>ब्याह के गीत गाने वाले</p>
<p></p>
<p>पूजा हो या कार्य प्रयोजन <br/>पूरा गाँव उमड़ता था<br/>किसी के घर विपत्ति हो <br/>सामूहिक रूप से लड़ता था <br/>किसी के भी संबंधी को <br/>अपना कुटुंब बताने वाले ।</p>
<p></p>
<p>गाँव की पंचायतों में <br/>स्वयं परमेश्वर बसता था। <br/>सहकारी परंपरा से <br/>सारा कार्य निबटता था। <br/>किसी के घर के चूने पर <br/>मिलकर छप्पर छाने वाले ।</p>
<p></p>
<p>कहाँ गए वो लोग। <br/>कहाँ गए वो लोग।</p>
<p>.... नीरज नीर</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ : नीरज नीरtag:openbooks.ning.com,2014-10-16:5170231:BlogPost:5821512014-10-16T03:37:21.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ,<br></br>नापना गगन वितान चाहता हूँ ।</p>
<p></p>
<p>फुनगियों पर अँधेरा है <br></br>आसमान में पहरा है। <br></br>जवाब है जिसको देना<br></br>वो हाकिम ही बहरा है। <br></br>तमस मिटे नव विहान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br></br>नापना गगन वितान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>अंबर कितना पंकील है, <br></br>धरा पर लेकिन सूखा है। <br></br>दल्लों के घर दूध मलाई, <br></br>मेहनत कश पर भूखा है।<br></br>पेट भरे ससम्मान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br></br>नापना गगन वितान चाहता…</p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ,<br/>नापना गगन वितान चाहता हूँ ।</p>
<p></p>
<p>फुनगियों पर अँधेरा है <br/>आसमान में पहरा है। <br/>जवाब है जिसको देना<br/>वो हाकिम ही बहरा है। <br/>तमस मिटे नव विहान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br/>नापना गगन वितान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>अंबर कितना पंकील है, <br/>धरा पर लेकिन सूखा है। <br/>दल्लों के घर दूध मलाई, <br/>मेहनत कश पर भूखा है।<br/>पेट भरे ससम्मान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br/>नापना गगन वितान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>शिक्षा और रोटी के बदले,<br/>धर्म ही लेकिन लेते छीन . <br/>स्वयं ही को श्रेष्ठ बताते <br/>बाकी सबको कहते हीन। <br/>धर्म का ध्येय निर्वाण चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br/> नापना गगन वितान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>घूमते धर्म की पट्टी बांध <br/>संवेदना से कितने दूर <br/>बात अमन की करते लेकिन <br/>कृत्य करते वीभत्स क्रूर <br/>सबको समझे इंसान चाहता हूँ।</p>
<p></p>
<p>पंख नहीं है उड़ान चाहता हूँ ,<br/>नापना गगन वितान चाहता हूँ । <br/>….<br/>नीरज नीर</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p></p>पानी को तलवार से काटते क्यों हो ? /नीरज नीरtag:openbooks.ning.com,2014-09-06:5170231:BlogPost:5732392014-09-06T06:18:10.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?</p>
<p>हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,<br></br>सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,<br></br>आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे, <br></br>वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,<br></br>चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को <br></br>रोच परचम झूठ का…</p>
<p>पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?</p>
<p>हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,<br/>सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,<br/>आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे, <br/>वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,<br/>चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को <br/>रोच परचम झूठ का छापते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>धर्म और ईमान के गर मुहाफ़िज़ हो <br/>मज़लूमों को फिर भला मारते क्यों हो ?</p>
<p></p>
<p>नीरज कुमार नीर <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>कांच की दीवार :नीरज कुमार नीरtag:openbooks.ning.com,2014-06-23:5170231:BlogPost:5519222014-06-23T14:30:00.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>तुम्हारे और मेरे बीच है <br></br> कांच की एक मोटी दीवार <br></br> जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है <br></br> और पैदा करती है विभ्रम <br></br> तुम्हारे मेरे पास होने का</p>
<p>मैं कह जाता हूँ अपनी बात <br></br> तुम्हें सुनाने की उम्मीद में <br></br> तुम्हारे शब्दों का खुद से ही <br></br> कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.</p>
<p>क्या तुम समझ पाती होगी <br></br> मैं जो कहता हूँ <br></br> क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ <br></br> जो तुम कहती हो ..</p>
<p>कांच की इस दीवार पर <br></br> डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें <br></br> ताकि विभ्रम की स्थिति में <br></br> मुझे…</p>
<p>तुम्हारे और मेरे बीच है <br/> कांच की एक मोटी दीवार <br/> जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है <br/> और पैदा करती है विभ्रम <br/> तुम्हारे मेरे पास होने का</p>
<p>मैं कह जाता हूँ अपनी बात <br/> तुम्हें सुनाने की उम्मीद में <br/> तुम्हारे शब्दों का खुद से ही <br/> कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.</p>
<p>क्या तुम समझ पाती होगी <br/> मैं जो कहता हूँ <br/> क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ <br/> जो तुम कहती हो ..</p>
<p>कांच की इस दीवार पर <br/> डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें <br/> ताकि विभ्रम की स्थिति में <br/> मुझे सत्य बता सकें .</p>
<p>कांच के उस पार से <br/> तुम्हे देखना अच्छा लगता है <br/> अच्छा लगता है तुम्हारी <br/> अनसुनी बातों का <br/> खुद के हिसाब से अर्थ लगाना ..</p>
<p></p>
<p>नीरज कुमार नीर </p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>प्यार और बेड़ियाँtag:openbooks.ning.com,2014-06-22:5170231:BlogPost:5514282014-06-22T09:30:00.000ZNeeraj Neerhttp://openbooks.ning.com/profile/NeerajKumarNeer
<p>एक पुरुष करता है <br/> अपनी स्त्री से बहुत प्यार. <br/> उसने डाल दी है <br/> उसके पांवों में बेड़ियाँ. <br/> वह उसे खोना नहीं चाहता. <br/> स्त्री भी करती है<br/> उससे बेपनाह मुहब्बत. <br/> वह भी उसे खोना नहीं चाहती. <br/> पर वह नहीं डाल पाती है <br/> उसके पैरों में बेड़ियाँ. <br/> बेड़ियाँ मिलती हैं बाजार में <br/> खरीदी जाती हैं पैसों के बल पर.</p>
<p><br/> नीरज कुमार नीर ..<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>एक पुरुष करता है <br/> अपनी स्त्री से बहुत प्यार. <br/> उसने डाल दी है <br/> उसके पांवों में बेड़ियाँ. <br/> वह उसे खोना नहीं चाहता. <br/> स्त्री भी करती है<br/> उससे बेपनाह मुहब्बत. <br/> वह भी उसे खोना नहीं चाहती. <br/> पर वह नहीं डाल पाती है <br/> उसके पैरों में बेड़ियाँ. <br/> बेड़ियाँ मिलती हैं बाजार में <br/> खरीदी जाती हैं पैसों के बल पर.</p>
<p><br/> नीरज कुमार नीर ..<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>