रामबली गुप्ता's Posts - Open Books Online2024-03-28T15:26:04Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTAhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991289971?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3hswsvgkdgv4s&xn_auth=noपिया का पत्रtag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:BlogPost:10986482023-02-11T04:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>आज खुशी से झूमूँ सखि री पत्र पिया का आया है<br></br> भाव भरे अक्षर-अक्षर ने ये तन-मन हर्षाया है</p>
<p></p>
<p>लिखते, प्रिये! तुम्हीं से सब कुछ, सुख-दुख की सहभागी तुम<br></br> तुमने इस जीवन में खुशियों का सावन बरसाया है </p>
<p></p>
<p>रहता था निर्वासित सा मन जीवन के निर्जन वन में<br></br> पावन प्यार भरा गृह इसको तुमने ही लौटाया है</p>
<p></p>
<p>कहते- पीर भरा यह जीवन जो तपते मरुथल सा था<br></br> पाकर तेरा स्नेह सलिल अब हरा भरा हो आया है</p>
<p></p>
<p>नीरव हिय का रंगमहल था साज-बाज सब सूने थे<br></br> तेरी पायल…</p>
<p>आज खुशी से झूमूँ सखि री पत्र पिया का आया है<br/> भाव भरे अक्षर-अक्षर ने ये तन-मन हर्षाया है</p>
<p></p>
<p>लिखते, प्रिये! तुम्हीं से सब कुछ, सुख-दुख की सहभागी तुम<br/> तुमने इस जीवन में खुशियों का सावन बरसाया है </p>
<p></p>
<p>रहता था निर्वासित सा मन जीवन के निर्जन वन में<br/> पावन प्यार भरा गृह इसको तुमने ही लौटाया है</p>
<p></p>
<p>कहते- पीर भरा यह जीवन जो तपते मरुथल सा था<br/> पाकर तेरा स्नेह सलिल अब हरा भरा हो आया है</p>
<p></p>
<p>नीरव हिय का रंगमहल था साज-बाज सब सूने थे<br/> तेरी पायल की छम छम ने सुर से इसे सजाया है</p>
<p></p>
<p>सुन सखिया हैं आगे लिखते-- निर्मल मन मन्दिर मेरा<br/> प्रभु की मूर्ति बना कर इसमें तुमको प्रिये! बिठाया है</p>
<p></p>
<p>दिन जैसे-तैसे बीते हर रजनी इंदु निहार कटे<br/> पल-पल प्रिये! तुम्हें यादों मे अपने गले लगाया है</p>
<p></p>
<p>दायित्वों ने दूर किया पर शीघ्र लौट कर आऊँगा<br/> तुमसे दूर भला सजनी यह हृदय कहाँ रह पाया है</p>
<p></p>
<p>कुछ दिन की है बात प्रिये! बस फिर अपना मिलना होगा<br/> यही सोच कर मन को अपने मैंने सदा मनाया है</p>
<p></p>
<p>शेष सखी अब तू ही पढ़ ले और न मैं पढ़ पाऊँगी<br/> 'बली' हृदय का नेह उमड़कर आँखों में भर आया है</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>कृष्ण नहीं दरकार है भइयाtag:openbooks.ning.com,2023-01-25:5170231:BlogPost:10969802023-01-25T02:36:59.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>ग़ज़ल</p>
<p></p>
<p>यह कैसा संसार है भइया<br></br> दीप तले अँधियार है भइया</p>
<p></p>
<p>जनता के हिस्से की रोटी<br></br> खा जाती सरकार है भइया</p>
<p></p>
<p>जाति धरम के बाद यहाँ क्या<br></br> जनमत का आधार है भइया</p>
<p></p>
<p>अधर अरुण कलियाँ धनु भौहें<br></br> अंजन हाय कटार है भइया</p>
<p></p>
<p>इस जग में कुछ निश्छल भी है<br></br> हाँ वह माँ का प्यार है भइया</p>
<p></p>
<p>आज जरूरत है दुर्गा की<br></br> कृष्ण नहीं दरकार है भइया</p>
<p></p>
<p>करता चल कुछ काम भले भी<br></br> जीना दिन दो चार है…</p>
<p>ग़ज़ल</p>
<p></p>
<p>यह कैसा संसार है भइया<br/> दीप तले अँधियार है भइया</p>
<p></p>
<p>जनता के हिस्से की रोटी<br/> खा जाती सरकार है भइया</p>
<p></p>
<p>जाति धरम के बाद यहाँ क्या<br/> जनमत का आधार है भइया</p>
<p></p>
<p>अधर अरुण कलियाँ धनु भौहें<br/> अंजन हाय कटार है भइया</p>
<p></p>
<p>इस जग में कुछ निश्छल भी है<br/> हाँ वह माँ का प्यार है भइया</p>
<p></p>
<p>आज जरूरत है दुर्गा की<br/> कृष्ण नहीं दरकार है भइया</p>
<p></p>
<p>करता चल कुछ काम भले भी<br/> जीना दिन दो चार है भइया</p>
<p></p>
<p>-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>ग़ज़ल-सफलता के शिखर पर वे खड़े हैं -रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2020-07-06:5170231:BlogPost:10118122020-07-06T18:07:32.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>1222 1222 122</p>
<p></p>
<p>सफलता के शिखर पर वे खड़े हैं<br></br>सदा कठिनाइयों से जो लड़े हैं</p>
<p></p>
<p>बताओ नाम तो उन पर्वतों के<br></br>हमारे हौसलों से जो बड़े हैं</p>
<p></p>
<p>नहीं हैं नैन ये गर सच कहूँ तो<br></br>सुघर चंदा में दो हीरे जड़े हैं</p>
<p></p>
<p>जो प्यासी आत्मा को तृप्त कर दें<br></br>नहीं हैं होंठ, वे मधु के घड़े हैं</p>
<p></p>
<p>ये सच है कर्मशीलों के लिए तो<br></br>सितारे भूमि पर बिखरे पड़े हैं</p>
<p></p>
<p>ये दिल के घाव अब तक हैं हरे क्यों<br></br>यकीनन शूल शब्दों के गड़े…</p>
<p>1222 1222 122</p>
<p></p>
<p>सफलता के शिखर पर वे खड़े हैं<br/>सदा कठिनाइयों से जो लड़े हैं</p>
<p></p>
<p>बताओ नाम तो उन पर्वतों के<br/>हमारे हौसलों से जो बड़े हैं</p>
<p></p>
<p>नहीं हैं नैन ये गर सच कहूँ तो<br/>सुघर चंदा में दो हीरे जड़े हैं</p>
<p></p>
<p>जो प्यासी आत्मा को तृप्त कर दें<br/>नहीं हैं होंठ, वे मधु के घड़े हैं</p>
<p></p>
<p>ये सच है कर्मशीलों के लिए तो<br/>सितारे भूमि पर बिखरे पड़े हैं</p>
<p></p>
<p>ये दिल के घाव अब तक हैं हरे क्यों<br/>यकीनन शूल शब्दों के गड़े हैं</p>
<p></p>
<p>उन्हीं ने आँधियों के रुख हैं मोड़े<br/>'बली' जो सामने इनके अड़े हैं</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2020-04-26:5170231:BlogPost:10053252020-04-26T17:33:50.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>देखा जब से उनको हिय में हुई अजब सी हलचल।<br></br>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>उनके अरुण अधर ज्यों फूलों की हों कोमल कलियाँ।<br></br>जिनसे फूटें स्वर मधुरिम तो गूँजें मन की गलियाँ।।<br></br>केशों के झुरमुट में उनका मुखमंडल यों भाये।<br></br>घन के मध्य झरोखे में ज्यों इंदु मंद मुसकाये।।</p>
<p></p>
<p>दृग पराग के प्याले हों ज्यों करते हर पल छल-छल।<br></br>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>खिलता यौवन-पुष्प सुरभि यों चहुँ दिश बिखराता…</p>
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>देखा जब से उनको हिय में हुई अजब सी हलचल।<br/>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>उनके अरुण अधर ज्यों फूलों की हों कोमल कलियाँ।<br/>जिनसे फूटें स्वर मधुरिम तो गूँजें मन की गलियाँ।।<br/>केशों के झुरमुट में उनका मुखमंडल यों भाये।<br/>घन के मध्य झरोखे में ज्यों इंदु मंद मुसकाये।।</p>
<p></p>
<p>दृग पराग के प्याले हों ज्यों करते हर पल छल-छल।<br/>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>खिलता यौवन-पुष्प सुरभि यों चहुँ दिश बिखराता है।<br/>दूर दिशाओं से अलि का दल खिंचा चला आता है।।<br/>पुरवाई यदि आँचल उनका तन से तनिक उड़ाए।<br/>जनम-जनम का पागल मन यह सुध-बुध खोता जाए।।</p>
<p></p>
<p>हाय! महकती काया उनकी जैसे महके संदल!<br/>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>जतन करो कुछ मित्रो! उनसे मिलना निश्चित होए।<br/>बिना मिलन के उनसे मन यह धैर्य निरंतर खोए।<br/>अधिक कहूँ क्या समझो इतना जीना है अब दूभर।<br/>उनके बिन है मृत्यु सुनिश्चित विरह अगिन में जल कर।।</p>
<p></p>
<p>नैन मिले हैं उनसे जब से रहे हृदय यह बेकल।<br/>दिन को चैन और रातों को नींद नहीं है इक पल।।</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>गरीबी न दे ऐ खुदा जिंदगी में-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2019-04-23:5170231:BlogPost:9815892019-04-23T11:53:49.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>महाभुजंगप्रयात सवैया<br/><br/></p>
<p>कड़ी धूप या ठंड हो जानलेवा न थोड़ी दया ये किसी पे दिखाती।<br/>कि लेती कभी सब्र का इम्तिहां और भूखा कभी रात को ये सुलाती।।<br/>जरूरी यहाँ धर्म-कानून से पूर्व दो वक्त की रोटियाँ हैं बताती।<br/>गरीबी न दे ऐ खुदा! जिंदगी में कि इंसान से ये न क्या क्या कराती?</p>
<p></p>
<p>शिल्प-लघु गुरु गुरु(यगण)×8</p>
<p></p>
<p>रचनाकार- रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>महाभुजंगप्रयात सवैया<br/><br/></p>
<p>कड़ी धूप या ठंड हो जानलेवा न थोड़ी दया ये किसी पे दिखाती।<br/>कि लेती कभी सब्र का इम्तिहां और भूखा कभी रात को ये सुलाती।।<br/>जरूरी यहाँ धर्म-कानून से पूर्व दो वक्त की रोटियाँ हैं बताती।<br/>गरीबी न दे ऐ खुदा! जिंदगी में कि इंसान से ये न क्या क्या कराती?</p>
<p></p>
<p>शिल्प-लघु गुरु गुरु(यगण)×8</p>
<p></p>
<p>रचनाकार- रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>वागीश्वरी सवैया-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2019-04-17:5170231:BlogPost:9810172019-04-17T04:59:16.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>सूत्र-सात यगण +गा; 122×7+2</p>
<p></p>
<p>पड़ी जान है मुश्किलों में करूँ क्या कि नैना मिले और ये हो गया।<br/>गई नींद भी औ' लुटा चैन मेरा न जाने जिया ये कहां खो गया।।<br/>जिया के बिना भी जिया जाय कैसे अरे! कौन काँटें यहां बो गया।<br/>हुआ बावरा या नशा प्यार का है संभालो मुझे हाय! मैं तो गया।।</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>सूत्र-सात यगण +गा; 122×7+2</p>
<p></p>
<p>पड़ी जान है मुश्किलों में करूँ क्या कि नैना मिले और ये हो गया।<br/>गई नींद भी औ' लुटा चैन मेरा न जाने जिया ये कहां खो गया।।<br/>जिया के बिना भी जिया जाय कैसे अरे! कौन काँटें यहां बो गया।<br/>हुआ बावरा या नशा प्यार का है संभालो मुझे हाय! मैं तो गया।।</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>महाभुजंगप्रयात सवैया-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2019-04-13:5170231:BlogPost:9807092019-04-13T02:02:39.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>सूत्र-आठ यगण प्रति पद; 122x8</p>
<p></p>
<p></p>
<p>चुनो मार्ग सच्चा करो कर्म अच्छे जहां में तुम्हारा सदा नाम होगा।<br></br>करो यत्न श्रद्धा व निष्ठा भरे तो न पूरा भला कौन सा काम होगा।।<br></br>न निर्बाध है लक्ष्य की साधना जूझना मुश्किलों से सरे-आम होगा।<br></br>इन्हें जीतना पीढ़ियों के लिए भी तुम्हारा नया एक पैगाम होगा।।1।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>करे सामना धैर्य से मुश्किलों का न कर्तव्य से पैर पीछे हटाए।<br></br>नहीं हार से हार माने जहां में कभी कोशिशों से न जो जी चुराए।।<br></br>अँधेरा घना या निशा हो घनेरी…</p>
<p>सूत्र-आठ यगण प्रति पद; 122x8</p>
<p></p>
<p></p>
<p>चुनो मार्ग सच्चा करो कर्म अच्छे जहां में तुम्हारा सदा नाम होगा।<br/>करो यत्न श्रद्धा व निष्ठा भरे तो न पूरा भला कौन सा काम होगा।।<br/>न निर्बाध है लक्ष्य की साधना जूझना मुश्किलों से सरे-आम होगा।<br/>इन्हें जीतना पीढ़ियों के लिए भी तुम्हारा नया एक पैगाम होगा।।1।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>करे सामना धैर्य से मुश्किलों का न कर्तव्य से पैर पीछे हटाए।<br/>नहीं हार से हार माने जहां में कभी कोशिशों से न जो जी चुराए।।<br/>अँधेरा घना या निशा हो घनेरी दिये आस के जो दिलों में जलाए।<br/>वही आसमां पे लिखे कीर्ति-गाथा जहां को सदा राह सच्ची दिखाए।।2।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>गीतिका(आधार छंद-दोहा) -रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-11-19:5170231:BlogPost:9613912018-11-19T07:51:09.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p><span>सोच समझ कर बोलिए, बातें सदा विनीत</span><br></br><span>छूटा धनु से बाण जो, लौटा कब हे! मीत</span><br></br><br></br><span>तीर-धनुष-तलवार से, बड़े दया औ' प्रेम</span><br></br><span>इन्हें बना लें शस्त्र यदि, जग को लेंगे जीत।</span><br></br><br></br><span>द्वेष-दंभ सम अरि सखे! यहाँ मनुज के कौन</span><br></br><span>बिन इनके संहार के, उपजे कब हिय प्रीत</span><br></br><br></br><span>सतत प्रयासों के करें, ऐसे तीव्र प्रहार</span><br></br><span>पर्वत पथ खुद छोड़ दें, होकर भय से भीत</span><br></br><br></br><span>अधर-सुधा घट भौंह-धनु, मुख…</span></p>
<p><span>सोच समझ कर बोलिए, बातें सदा विनीत</span><br/><span>छूटा धनु से बाण जो, लौटा कब हे! मीत</span><br/><br/><span>तीर-धनुष-तलवार से, बड़े दया औ' प्रेम</span><br/><span>इन्हें बना लें शस्त्र यदि, जग को लेंगे जीत।</span><br/><br/><span>द्वेष-दंभ सम अरि सखे! यहाँ मनुज के कौन</span><br/><span>बिन इनके संहार के, उपजे कब हिय प्रीत</span><br/><br/><span>सतत प्रयासों के करें, ऐसे तीव्र प्रहार</span><br/><span>पर्वत पथ खुद छोड़ दें, होकर भय से भीत</span><br/><br/><span>अधर-सुधा घट भौंह-धनु, मुख उज्ज्वल सम चंद्र</span><br/><span>दृग-मद सर मृदु बोल ज्यों, रति ने गाया गीत</span><br/><br/><span>उसके आने से सदा, हो चेतन तन प्राण</span><br/><span>मन के सूने साज तब, छेड़ें मृदु संगीत</span><br/><br/><span>श्री के सम्मुख शारदे! घटा तुम्हारा मान</span><br/><span>हाय! भरत की भूमि पर, आई कैसी रीत</span><br/><br/><span>धरे सुखद छवि हिय करें, कल का स्वागत भ्रात</span><br/><span>करके जीवन का दुखद, विस्मृत विगत अतीत</span><br/><br/><span>जग-जन-हित शुचि कर्म का, हो यदि मन में भाव</span><br/><span>वृक्षारोपण सा कहाँ, है तब कार्य पुनीत</span><br/><br/></p>
<h4>रचनाकार- रामबली गुप्ता</h4>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>मत्तगयंद सवैया-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-10-13:5170231:BlogPost:9531662018-10-13T16:18:25.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p></p>
<p></p>
<p>हे! जगदीश! सुनो विनती अब, भक्त तुम्हें दिन-रैन पुकारे।<br/>व्याकुल नैन निहार रहे पथ, पावन दर्शन हेतु तुम्हारे।।<br/>कौन भला जग में अब हे हरि संकट से यह प्राण उबारे।<br/>आ कर दो उजियार प्रभो! हिय, जीवन के हर लो दुख सारे।।</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p>सूत्र-भगण×7+गुरु गुरु; 211×7+22</p>
<p></p>
<p></p>
<p>हे! जगदीश! सुनो विनती अब, भक्त तुम्हें दिन-रैन पुकारे।<br/>व्याकुल नैन निहार रहे पथ, पावन दर्शन हेतु तुम्हारे।।<br/>कौन भला जग में अब हे हरि संकट से यह प्राण उबारे।<br/>आ कर दो उजियार प्रभो! हिय, जीवन के हर लो दुख सारे।।</p>
<p></p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p>सूत्र-भगण×7+गुरु गुरु; 211×7+22</p>छप्पय छंद-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-10-09:5170231:BlogPost:9522982018-10-09T18:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>ज्योतिपुंज जगदीश! रहो नित ध्यान हमारे।<br/> कलुष-द्वेष-दुर्भाव, हृदय-तम हर लो सारे।।<br/> सत्य-स्नेह-सद्भाव, समर्पण का प्रभु! वर दो।<br/> जला ज्ञान का दीप, प्रभा-शुचि हिय में भर दो।<br/> दो बल-पौरुष-सद्बुद्धि हरि! मार्ग चुनेें सद्कर्म का।<br/> हर जनजीवन के त्रास हम, फहरायें ध्वज धर्म का।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p></p>
<p></p>
<p>शिल्प-प्रथम चार पद रोला छंद और अंतिम दो पद उल्लाला छंद के संयोग से छप्पय छंद की निष्पत्ति होती है।</p>
<p>ज्योतिपुंज जगदीश! रहो नित ध्यान हमारे।<br/> कलुष-द्वेष-दुर्भाव, हृदय-तम हर लो सारे।।<br/> सत्य-स्नेह-सद्भाव, समर्पण का प्रभु! वर दो।<br/> जला ज्ञान का दीप, प्रभा-शुचि हिय में भर दो।<br/> दो बल-पौरुष-सद्बुद्धि हरि! मार्ग चुनेें सद्कर्म का।<br/> हर जनजीवन के त्रास हम, फहरायें ध्वज धर्म का।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>
<p></p>
<p></p>
<p>शिल्प-प्रथम चार पद रोला छंद और अंतिम दो पद उल्लाला छंद के संयोग से छप्पय छंद की निष्पत्ति होती है।</p>बन के सूरज सा जमाने में निकलते रहिये-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-09-14:5170231:BlogPost:9483932018-09-14T08:09:57.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>ग़ज़ल</p>
<p></p>
<p>2122 1122 1122 22</p>
<p></p>
<p>बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये<br></br> हर अँधेरे को' उजाले मे' बदलते रहिये</p>
<p></p>
<p>जिंदगी एक सफर खुशियों' भरा हो अपना<br></br> यूँ ही बस आप मेरे साथ तो चलते रहिये</p>
<p></p>
<p>दिल के' मन्दिर में उजाले की' वज़ह आप ही हैं<br></br> अब तो इस दिल में' सदा दीप सा' जलते रहिये</p>
<p></p>
<p>मैं जो' हूँ साथ जमाने से' भला डर कैसा<br></br> हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिये</p>
<p></p>
<p>मेरे' हर गीत-ग़ज़ल-नज़्म-तरानों में' यूँ ही<br></br> बन के' नित…</p>
<p>ग़ज़ल</p>
<p></p>
<p>2122 1122 1122 22</p>
<p></p>
<p>बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये<br/> हर अँधेरे को' उजाले मे' बदलते रहिये</p>
<p></p>
<p>जिंदगी एक सफर खुशियों' भरा हो अपना<br/> यूँ ही बस आप मेरे साथ तो चलते रहिये</p>
<p></p>
<p>दिल के' मन्दिर में उजाले की' वज़ह आप ही हैं<br/> अब तो इस दिल में' सदा दीप सा' जलते रहिये</p>
<p></p>
<p>मैं जो' हूँ साथ जमाने से' भला डर कैसा<br/> हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिये</p>
<p></p>
<p>मेरे' हर गीत-ग़ज़ल-नज़्म-तरानों में' यूँ ही<br/> बन के' नित शब्द नये प्यार के ढलते रहिये</p>
<p></p>
<p>दिल की बगिया में बहारों के सुमन मुस्काएँ<br/> इसमें बस आप सुबह शाम टहलते रहिये</p>
<p></p>
<p>लूटते चैनो-अमन जो भी वतन का साहिब!<br/> ऐसे' साँपो के' उठे फन को' कुचलते रहिये</p>
<p></p>
<p>रचना-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>गीत-भावना में प्रेम का रस घोल प्यारे-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-02-17:5170231:BlogPost:9144122018-02-17T15:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>भावना में प्रेम का रस घोल प्यारे।<br></br> प्रेम जीवन में बड़ा अनमोल प्यारे।<br></br> भावना में.........</p>
<p></p>
<p>शब्द-शर मुख से निकल कर लौटते कब?<br></br> घाव ये गहरे करें हिय में लगें जब।<br></br> कर न दें आहत किसी को शब्द तेरे,<br></br>मृृदु मधुुुर मकरन्द वाणी बोल प्यारे।<br></br> भावना में ........</p>
<p></p>
<p>मत बड़ा छोटा किसी को मान जग में।<br></br> काम आ जाए भला कब कौन मग में?<br></br> स्नेह का सम्बन्ध ही सबसे उचित है,<br></br> तथ्य यह मन की तुला में तोल प्यारे।<br></br> भावना…</p>
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>भावना में प्रेम का रस घोल प्यारे।<br/> प्रेम जीवन में बड़ा अनमोल प्यारे।<br/> भावना में.........</p>
<p></p>
<p>शब्द-शर मुख से निकल कर लौटते कब?<br/> घाव ये गहरे करें हिय में लगें जब।<br/> कर न दें आहत किसी को शब्द तेरे,<br/>मृृदु मधुुुर मकरन्द वाणी बोल प्यारे।<br/> भावना में ........</p>
<p></p>
<p>मत बड़ा छोटा किसी को मान जग में।<br/> काम आ जाए भला कब कौन मग में?<br/> स्नेह का सम्बन्ध ही सबसे उचित है,<br/> तथ्य यह मन की तुला में तोल प्यारे।<br/> भावना में........</p>
<p></p>
<p>क्यों मनुज ही, पशु-विहग को भी क्षुधा है।<br/> स्नेह तो सबके लिए अनुपम सुधा है।<br/> स्नेह के बस में सकल जग जगतपति भी,<br/> स्नेह से हिय स्नेहनिधि का मोल प्यारे।<br/> भावना में..........</p>
<p></p>
<p>है मनुज तू मनुजता का मान भी रख।<br/> बंधु-बांधव के लिये सम्मान भी रख।<br/> सौख्य देकर सौख्य ही प्रतिफल मिले औ'-<br/> दुख मिटेंगे द्वार सुख के खोल प्यारे।<br/> भावना में.........</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>नव प्रेम राग सिरजाय चली-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-02-13:5170231:BlogPost:9139612018-02-13T20:58:18.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<div>लच-लचक-लचक लचकाय चली,</div>
<div>कटि-धनु से शर बरसाय चली।<br></br>कजरारे चंचल नयनों से,<br></br>हिय पर दामिनि तड़पाय चली।।1।।<br></br><br></br>फर-फहर फहर फहराय चली,<br></br>लट-केश-घटा बिखराय चली।<br></br>अलि मनबढ़ सुध-बुध खो बैठे,<br></br>अधरों से मधु छलकाय चली।।2।।<br></br><br></br>सुर-सुरभि-सुरभि सुरभाय चली,<br></br>चहुँ ओर दिशा महकाय चली।<br></br>चम्पा-जूही सब लज्जित हैं,<br></br>तन चंदन-गंध बसाय चली।।3।।<br></br><br></br>लह-लहर-लहर लहराय चली,<br></br>तन से आँचल सरकाय चली।<br></br>नव-यौवन-धन तन-कंचन से,<br></br>रति मन में अति भड़काय…</div>
<div>लच-लचक-लचक लचकाय चली,</div>
<div>कटि-धनु से शर बरसाय चली।<br/>कजरारे चंचल नयनों से,<br/>हिय पर दामिनि तड़पाय चली।।1।।<br/><br/>फर-फहर फहर फहराय चली,<br/>लट-केश-घटा बिखराय चली।<br/>अलि मनबढ़ सुध-बुध खो बैठे,<br/>अधरों से मधु छलकाय चली।।2।।<br/><br/>सुर-सुरभि-सुरभि सुरभाय चली,<br/>चहुँ ओर दिशा महकाय चली।<br/>चम्पा-जूही सब लज्जित हैं,<br/>तन चंदन-गंध बसाय चली।।3।।<br/><br/>लह-लहर-लहर लहराय चली,<br/>तन से आँचल सरकाय चली।<br/>नव-यौवन-धन तन-कंचन से,<br/>रति मन में अति भड़काय चली।।4।।<br/><br/>झन-झनन-झनन झनकाय चली,<br/>पायल-चूड़ी खनकाय चली।<br/>हिय के हर तार झंझोर सखे!<br/>नव-प्रेम-राग सिरजाय चली।।5।।</div>
<div>मौलिक एवं अप्रकाशित</div>विधाता छंद-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2018-01-31:5170231:BlogPost:9116862018-01-31T06:24:01.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p></p>
<p>न किंचित स्वार्थ हो हिय औ', भुला कर वैर जो सारे।<br></br>अमीरी औ' गरीबी के, मिटा कर भेद सब प्यारे!<br></br>करें सहयोग हर जन का, सभी के काम जो आते।<br></br>सदा वे श्रेष्ठ जन जग में, सुयश-सम्मान हैं पाते।।1।।</p>
<p></p>
<p>धरे हिय धैर्य औ' साहस, निरन्तर यत्न जो करते।<br></br>न किंचित राह की बाधा, न मुश्किल से किन्हीं डरते।<br></br>सहें हर यातना पथ की, शिखर पर किन्तु चढ़ते हैं।<br></br>वही प्रतिमान नव बन कर, अमिट इतिहास गढ़ते हैं।।2।।</p>
<p></p>
<p>सदा सुरभित सुमन बन कर, दिलों में जो यहाँ खिलते।<br></br>भुला कर…</p>
<p></p>
<p>न किंचित स्वार्थ हो हिय औ', भुला कर वैर जो सारे।<br/>अमीरी औ' गरीबी के, मिटा कर भेद सब प्यारे!<br/>करें सहयोग हर जन का, सभी के काम जो आते।<br/>सदा वे श्रेष्ठ जन जग में, सुयश-सम्मान हैं पाते।।1।।</p>
<p></p>
<p>धरे हिय धैर्य औ' साहस, निरन्तर यत्न जो करते।<br/>न किंचित राह की बाधा, न मुश्किल से किन्हीं डरते।<br/>सहें हर यातना पथ की, शिखर पर किन्तु चढ़ते हैं।<br/>वही प्रतिमान नव बन कर, अमिट इतिहास गढ़ते हैं।।2।।</p>
<p></p>
<p>सदा सुरभित सुमन बन कर, दिलों में जो यहाँ खिलते।<br/>भुला कर भेद जो सारे, सभी से प्यार से मिलते।।<br/>दिया सौहार्द का बन कर, घना तम द्वेष का हरते।<br/>जगत में पूज्य वे नर जो, मनुजता के लिए मरते।।3।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>रचना-रामबली गुप्ता</p>कुंडलियाँ-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-12-13:5170231:BlogPost:9029782017-12-13T07:42:04.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>जीवन में निज यत्न से, करिये ऐसे काम।<br></br>आप रहें या ना रहें, रहे सदा पर नाम।<br></br>रहे सदा पर नाम, नया इतिहास बनाएँ।<br></br>बनें जगत प्रतिमान, लोग यश गाथा गाएँ।<br></br>अगर समर्पण-स्नेह-धैर्य-साहस रख मन में।<br></br>हों इस हेतु प्रयास, सफल होंगे जीवन में।।1।।</p>
<p></p>
<p>जग में कठिन न है सखे, करना कोई काम।<br></br>दृढ निश्चय कर के बढ़ो, होगा जग में नाम।।<br></br>होगा जग में नाम, लक्ष्य पाना जो ठानो।<br></br>हर बाधा स्वयमेव, मिटेगी सच यह मानो।।<br></br>गिरि-सरि आयें राह , चुभें या काँटें पग में।<br></br>लक्ष्य प्राप्त कर…</p>
<p>जीवन में निज यत्न से, करिये ऐसे काम।<br/>आप रहें या ना रहें, रहे सदा पर नाम।<br/>रहे सदा पर नाम, नया इतिहास बनाएँ।<br/>बनें जगत प्रतिमान, लोग यश गाथा गाएँ।<br/>अगर समर्पण-स्नेह-धैर्य-साहस रख मन में।<br/>हों इस हेतु प्रयास, सफल होंगे जीवन में।।1।।</p>
<p></p>
<p>जग में कठिन न है सखे, करना कोई काम।<br/>दृढ निश्चय कर के बढ़ो, होगा जग में नाम।।<br/>होगा जग में नाम, लक्ष्य पाना जो ठानो।<br/>हर बाधा स्वयमेव, मिटेगी सच यह मानो।।<br/>गिरि-सरि आयें राह , चुभें या काँटें पग में।<br/>लक्ष्य प्राप्त कर मान, बढ़ाओ अपना जग में।।2।।</p>
<p></p>
<p>रचना-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>चुनावी दोहे-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-12-11:5170231:BlogPost:9028772017-12-11T14:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p></p>
<p>आज चुनावी रंग में, रँगे गली औ' गाँव।<br></br> प्रत्याशी हर व्यक्ति के, पकड़ रहे हैं पाँव।।1।।</p>
<p></p>
<p>पोस्टर बैनर से पटे, हैं सब दर-दीवार।<br></br> सभी मनाएँ प्रेम से, लोकतंत्र-त्यौहार।।2।।</p>
<p></p>
<p>सोच-समझ कर ही चुनें, जन प्रतिनिधि हे मीत!<br></br> सच्चे नेता यदि मिलें, लोकतंत्र की जीत।।3।।</p>
<p></p>
<p>धन-जन-बल-षडयंत्र से, वोट रहे जो मोल।<br></br> अरि वे राष्ट्र-समाज के, मत दें हिय में तोल।।4।।</p>
<p></p>
<p>जाति-धर्म के भेद हर आग्रह से हो मुक्त।<br></br> चुनें सहज नेतृत्व निज, कर्मठ…</p>
<p></p>
<p>आज चुनावी रंग में, रँगे गली औ' गाँव।<br/> प्रत्याशी हर व्यक्ति के, पकड़ रहे हैं पाँव।।1।।</p>
<p></p>
<p>पोस्टर बैनर से पटे, हैं सब दर-दीवार।<br/> सभी मनाएँ प्रेम से, लोकतंत्र-त्यौहार।।2।।</p>
<p></p>
<p>सोच-समझ कर ही चुनें, जन प्रतिनिधि हे मीत!<br/> सच्चे नेता यदि मिलें, लोकतंत्र की जीत।।3।।</p>
<p></p>
<p>धन-जन-बल-षडयंत्र से, वोट रहे जो मोल।<br/> अरि वे राष्ट्र-समाज के, मत दें हिय में तोल।।4।।</p>
<p></p>
<p>जाति-धर्म के भेद हर आग्रह से हो मुक्त।<br/> चुनें सहज नेतृत्व निज, कर्मठ सद्गुण युक्त।।5।।</p>
<p></p>
<p>मुर्गा मीट शराब पर, बेचें जो ईमान।<br/> भला उन्हें होता कहाँ, भले-बुरे का ज्ञान।।6।।</p>
<p></p>
<p>झूठे वादों से यहाँ, भुना रहे हैं वोट।<br/>चरणों में हर व्यक्ति के, धूर्त रहे हैं लोट।।7।।</p>
<p></p>
<p>धन-बल-पद के लोभ में, बिना पड़े हे मीत!<br/>चुन कर जन-नेतृत्व नव, करें राष्ट्र से प्रीत।।8।।</p>
<p></p>
<p>जनता-राष्ट्र-समाज के, हित की बातें आज।<br/> नेता जी ना भूलना, मिलते ही ये ताज।।9।।</p>
<p></p>
<p>रचना-रामबली गुप्ता</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>पूनम का रजनीश लजाया-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-11-23:5170231:BlogPost:8984122017-11-23T01:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
मत्तगयन्द सवैया<br />
<br />
सूत्र=211×7+22; सात भगण+गागा<br />
<br />
सुंदर पुष्प सजा तन-कंचन केश-घटा बिखराय चली है।<br />
हैं मद पूरित नैन-सरोवर, ओष्ठ-सुधा छलकाय चली है।।<br />
अंग सुगंध लिए सम चंदन मत्त गयंद लजाय चली है।<br />
लूट लिया हिय चैन सखे! कटि यूँ गगरी रख हाय! चली है।।1।।<br />
<br />
यौवन ज्यों मकरन्द भरा घट और सुवासित कंचन काया।<br />
भौंह कमान कटार बने दृग, केश घने सम नीरद-छाया।।<br />
देख छटा मुख की अति सुंदर, पूनम का रजनीश लजाया।<br />
ओष्ठ-खिली कलियाँ अति कोमल, देख हिया-अलि है ललचाया।।2।।<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
-रामबली गुप्ता
मत्तगयन्द सवैया<br />
<br />
सूत्र=211×7+22; सात भगण+गागा<br />
<br />
सुंदर पुष्प सजा तन-कंचन केश-घटा बिखराय चली है।<br />
हैं मद पूरित नैन-सरोवर, ओष्ठ-सुधा छलकाय चली है।।<br />
अंग सुगंध लिए सम चंदन मत्त गयंद लजाय चली है।<br />
लूट लिया हिय चैन सखे! कटि यूँ गगरी रख हाय! चली है।।1।।<br />
<br />
यौवन ज्यों मकरन्द भरा घट और सुवासित कंचन काया।<br />
भौंह कमान कटार बने दृग, केश घने सम नीरद-छाया।।<br />
देख छटा मुख की अति सुंदर, पूनम का रजनीश लजाया।<br />
ओष्ठ-खिली कलियाँ अति कोमल, देख हिया-अलि है ललचाया।।2।।<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
-रामबली गुप्तामुख-शशि उज्ज्वल औ' धनु-भौहेंtag:openbooks.ning.com,2017-11-13:5170231:BlogPost:8964722017-11-13T02:37:04.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
सरसी छंद<br />
<br />
शिल्प-16,11 पर यति, चार चरण और दो पद, पदांत में गुरु-लघु।<br />
<br />
भाव शब्द-कल गुरु लघु यति का, रखकर समुचित ध्यान।<br />
दोहा तोटक रोला सरसी, रचिये छंद सुजान।।1।।<br />
<br />
सोलह ग्यारह पर यति प्रति पद, गुरु-लघु पद के अंत।<br />
चार चरण दो पद का सरसी, गायें सुर-नर-संत।।2।।<br />
<br />
मुख-शशि उज्ज्वल औ' धनु-भौहें, तिरछे नैन-कटार।<br />
हाय! डसें लट-अहि केशों के, हिय पर बारम्बार।।3।।<br />
<br />
अरुण अधर-कोमल किसलय नव, दृग-मद पूर्ण तड़ाग।<br />
यौवन-पुष्प खिला ज्यों लेकर घट भर मधुर पराग।।4।।<br />
<br />
तेरी पायल की छम-छम में, वह जीवन संगीत।<br />
छेड़ हृदय के तार…
सरसी छंद<br />
<br />
शिल्प-16,11 पर यति, चार चरण और दो पद, पदांत में गुरु-लघु।<br />
<br />
भाव शब्द-कल गुरु लघु यति का, रखकर समुचित ध्यान।<br />
दोहा तोटक रोला सरसी, रचिये छंद सुजान।।1।।<br />
<br />
सोलह ग्यारह पर यति प्रति पद, गुरु-लघु पद के अंत।<br />
चार चरण दो पद का सरसी, गायें सुर-नर-संत।।2।।<br />
<br />
मुख-शशि उज्ज्वल औ' धनु-भौहें, तिरछे नैन-कटार।<br />
हाय! डसें लट-अहि केशों के, हिय पर बारम्बार।।3।।<br />
<br />
अरुण अधर-कोमल किसलय नव, दृग-मद पूर्ण तड़ाग।<br />
यौवन-पुष्प खिला ज्यों लेकर घट भर मधुर पराग।।4।।<br />
<br />
तेरी पायल की छम-छम में, वह जीवन संगीत।<br />
छेड़ हृदय के तार जगाये, मन में पावन प्रीत।।5।।<br />
<br />
हाय! चली बलखाकर गोरी, ज्यों मदमस्त गयंद।<br />
पीछे भ्रमित भ्रमर पीने को, अधरों के मकरंद।।6।।<br />
<br />
करके घायल नैनों से क्यों, लूट लिया हिय चैन।<br />
बावरिया बन दिन भर भटकूँ, जाग बिताऊँ रैन।।7।।<br />
<br />
शिक्षा से ही हो सकता है, उन्नत सकल समाज।<br />
यह ही मूल प्रगति का जिससे, सुधरे कल औ' आज।।8।।<br />
<br />
बचपन समय सुहाना सुखकर, खुशियों से भरपूर।<br />
स्वार्थ द्वेष मद छल प्रपंच से, रहता है नित दूर।।9।।<br />
<br />
मात-पिता की सेवा में है, हर तीरथ हर धाम।<br />
स्नेह मान-सम्मान इन्हें दें, हर दिन सुबहो शाम।।10।।<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
-रामबली गुप्ताग़ज़ल-गलतियाँ किससे नही होतीं-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-09-24:5170231:BlogPost:8837902017-09-24T23:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
ग़ज़ल<br />
2122 2122 2122 212<br />
<br />
गलतियाँ किससे नही होतीं भला संसार में<br />
है मगर शुभ आचरण निज भूल के स्वीकार में<br />
<br />
शून्य में सामान्यतः तो कुछ नही का बोध पर<br />
है यहाँ क्या शेष छूटा शून्य के विस्तार में<br />
<br />
आधुनिकता के दुशासन ने किया ऐसे हरण<br />
द्रौपदी निर्वस्त्र है खुद कलियुगी अवतार में<br />
<br />
सूर्य को स्वीकार गर होता न जलना साथियों<br />
तो भला क्या वो कभी करता प्रभा संसार में<br />
<br />
व्यर्थ ही व्याख्यान आदर्शों पे देने से भला<br />
अनुसरण कुछ कीजिये इनका निजी व्यवहार में<br />
<br />
लालसा दिल में यही मिल जाय वो मीठा शहद<br />
जो मिला था माँ की लोरी…
ग़ज़ल<br />
2122 2122 2122 212<br />
<br />
गलतियाँ किससे नही होतीं भला संसार में<br />
है मगर शुभ आचरण निज भूल के स्वीकार में<br />
<br />
शून्य में सामान्यतः तो कुछ नही का बोध पर<br />
है यहाँ क्या शेष छूटा शून्य के विस्तार में<br />
<br />
आधुनिकता के दुशासन ने किया ऐसे हरण<br />
द्रौपदी निर्वस्त्र है खुद कलियुगी अवतार में<br />
<br />
सूर्य को स्वीकार गर होता न जलना साथियों<br />
तो भला क्या वो कभी करता प्रभा संसार में<br />
<br />
व्यर्थ ही व्याख्यान आदर्शों पे देने से भला<br />
अनुसरण कुछ कीजिये इनका निजी व्यवहार में<br />
<br />
लालसा दिल में यही मिल जाय वो मीठा शहद<br />
जो मिला था माँ की लोरी थपकियों और प्यार में<br />
<br />
प्रेम पूजा प्रेम ईश्वर प्रेम के ही पंथ सब<br />
प्रेम ही कुरआन गीता बाइबिल के सार में<br />
<br />
श्रम दिलों को जीतने में चाहिए उतना बली<br />
चाहिए जितना हमें निज अहं के संहार में<br />
<br />
रचना-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितजयति जयति जय...-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-08-27:5170231:BlogPost:8767202017-08-27T17:20:28.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>गीत</p>
<p>आधार छंद-आल्हा/वीर छंद</p>
<p></p>
<p>जयति जयति जय मात भारती, शत-शत तुझको करुँ प्रणाम।<br></br>जननी जन्मभूमि वंदन है, प्रथम तुम्हारी सेवा काम।<br></br>जयति जयति जय........</p>
<p></p>
<p>जन्म लिया तेरी माटी में, खेला गोद तुम्हारी मात!<br></br>लोट तुम्हारे रज में तन को, मिला वीर्य-बल का सौगात।।<br></br>तुझसे उपजा अन्न ग्रहण कर, पीकर तेरे तन का नीर।<br></br>ऋणी हुआ शोणित का कण-कण, ऋणी हुआ यह सकल शरीर।।</p>
<p></p>
<p>अब तो यह अभिलाषा कर दूँ, अर्पित सब कुछ तेरे नाम।<br></br>जननी जन्मभूमि वन्दन है प्रथम…</p>
<p>गीत</p>
<p>आधार छंद-आल्हा/वीर छंद</p>
<p></p>
<p>जयति जयति जय मात भारती, शत-शत तुझको करुँ प्रणाम।<br/>जननी जन्मभूमि वंदन है, प्रथम तुम्हारी सेवा काम।<br/>जयति जयति जय........</p>
<p></p>
<p>जन्म लिया तेरी माटी में, खेला गोद तुम्हारी मात!<br/>लोट तुम्हारे रज में तन को, मिला वीर्य-बल का सौगात।।<br/>तुझसे उपजा अन्न ग्रहण कर, पीकर तेरे तन का नीर।<br/>ऋणी हुआ शोणित का कण-कण, ऋणी हुआ यह सकल शरीर।।</p>
<p></p>
<p>अब तो यह अभिलाषा कर दूँ, अर्पित सब कुछ तेरे नाम।<br/>जननी जन्मभूमि वन्दन है प्रथम तुम्हारी सेवा काम।<br/>जयति जयति जय........</p>
<p></p>
<p>शत्रु न तुझको छूने पाये, बन जाऊँ मैं तेरी ढाल।<br/>टूट पड़ूँ अरि-दल पर ऐसे, जैसे काल महाविकराल।<br/>तेरे काम न आया यदि माँ, होने से पहले चिर मौन।<br/>मिट न सका तुझ पर तो होगा, मात! अभागा मुझ सा कौन?</p>
<p></p>
<p>बिलख रही हो मातृभूमि यदि, धिक-धिक है सुत को आराम।<br/>जननी जन्मभूमि वंदन है, प्रथम तुम्हारी सेवा काम।<br/>जयति जयति जय........</p>
<p></p>
<p>सीमा पर कर रहे तुम्हारा, जो बैरी मद में उपहास।<br/>शीघ्र कराना होगा अब तो, उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास।।<br/>दो आशीष शीश पर माते! आज उठाऊँ मैं तलवार।<br/>कुछ तो ऋण-परिशोध करुँ माँ, रण में अरि का कर संहार।।</p>
<p></p>
<p>'बली' आन पर चलो मिटें अब, सुत को है माँ का पैगाम।<br/>जननी जन्मभूमि वंदन है, प्रथम तुम्हारी सेवा काम।।<br/>जयति जयति जय.......</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>रचनाकार-रामबली गुप्ता</p>दोहे-गुरु पूर्णिमा विशेष-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-07-09:5170231:BlogPost:8657112017-07-09T17:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
जग में बिन गुरु ज्ञान के, नर-पशु एक समान।<br />
गुरु के शुचि सानिध्य में, बनता मूढ़ सुजान।।1।।<br />
<br />
ज्ञान जगत का मूल है, संस्कृति का आधार।<br />
किन्तु बिना गुरु ज्ञान कब, पाये यह संसार?2।।<br />
<br />
निज गुरु पद में बैठ नित, खुद को लो यदि जान।<br />
कलुष-भेद हिय-तम मिटे, हो शुचि तन-मन-प्रान।।3।।<br />
<br />
ज्ञान ज्योति गुरु दीप सम, और तिमिर-अज्ञान।<br />
अर्पित कर श्रम-स्नेह-घृत, बनते शिष्य सुजान।।4।।<br />
<br />
नित गुरु-पद वंदन करें, इसमें चारो धाम।<br />
गुरु को श्री-हरि-पार्थ भी, नत हो करें प्रणाम।।5।।<br />
<br />
गुरु की बातें जो सुने, नित्य लगाकर ध्यान।<br />
उसका बढ़ता…
जग में बिन गुरु ज्ञान के, नर-पशु एक समान।<br />
गुरु के शुचि सानिध्य में, बनता मूढ़ सुजान।।1।।<br />
<br />
ज्ञान जगत का मूल है, संस्कृति का आधार।<br />
किन्तु बिना गुरु ज्ञान कब, पाये यह संसार?2।।<br />
<br />
निज गुरु पद में बैठ नित, खुद को लो यदि जान।<br />
कलुष-भेद हिय-तम मिटे, हो शुचि तन-मन-प्रान।।3।।<br />
<br />
ज्ञान ज्योति गुरु दीप सम, और तिमिर-अज्ञान।<br />
अर्पित कर श्रम-स्नेह-घृत, बनते शिष्य सुजान।।4।।<br />
<br />
नित गुरु-पद वंदन करें, इसमें चारो धाम।<br />
गुरु को श्री-हरि-पार्थ भी, नत हो करें प्रणाम।।5।।<br />
<br />
गुरु की बातें जो सुने, नित्य लगाकर ध्यान।<br />
उसका बढ़ता निशि-दिवस, बुद्धि-ज्ञान-बल-मान।।6।।<br />
<br />
शिष्य-हृदय यदि भूमि तो, गुरु श्रमशील किसान।<br />
सींचे नित निज नेह से, बोए निर्मल ज्ञान।।7।।<br />
<br />
-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितग़ज़ल-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-07-04:5170231:BlogPost:8648232017-07-04T06:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
ग़ज़ल<br />
1222 1222 1222 1222<br />
<br />
जो लड़कर आँधियों से जीत का इनआम लेता है<br />
ज़माना फ़ख्र से उसका युगों तक नाम लेता है<br />
<br />
सहारा जो यहाँ हर डूबते इन्सां का बन जाये<br />
खुदा भी हाथ उसका मुश्किलों में थाम लेता है<br />
<br />
दुआओं की कमी होती नहीं उसको कभी यारों<br />
बज़ुर्गों का यहाँ जो हाल सुबहो-शाम लेता है<br />
<br />
पता सबको है मुश्किल की घड़ी होती बहुत छोटी<br />
कहाँ हर आदमी हिम्मत से लेकिन काम लेता है<br />
<br />
खुदा को भी शिकायत होगी शायद अपने बन्दे से<br />
कि वो है खुदग़रज़ दुख में ही उसका नाम लेता है<br />
<br />
उसे होती नहीं है रास्ते की मुश्किलों की फ़िक्र<br />
पहुँचकर ही…
ग़ज़ल<br />
1222 1222 1222 1222<br />
<br />
जो लड़कर आँधियों से जीत का इनआम लेता है<br />
ज़माना फ़ख्र से उसका युगों तक नाम लेता है<br />
<br />
सहारा जो यहाँ हर डूबते इन्सां का बन जाये<br />
खुदा भी हाथ उसका मुश्किलों में थाम लेता है<br />
<br />
दुआओं की कमी होती नहीं उसको कभी यारों<br />
बज़ुर्गों का यहाँ जो हाल सुबहो-शाम लेता है<br />
<br />
पता सबको है मुश्किल की घड़ी होती बहुत छोटी<br />
कहाँ हर आदमी हिम्मत से लेकिन काम लेता है<br />
<br />
खुदा को भी शिकायत होगी शायद अपने बन्दे से<br />
कि वो है खुदग़रज़ दुख में ही उसका नाम लेता है<br />
<br />
उसे होती नहीं है रास्ते की मुश्किलों की फ़िक्र<br />
पहुँचकर ही जो मंज़िल पर 'बली' आराम लेता है<br />
<br />
-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितगीत-हे हरि हर लो हिय के दुख सब-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-06-11:5170231:BlogPost:8617822017-06-11T14:15:06.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
हे हरि हर लो हिय के दुख सब।<br />
<br />
सकल चराचर जग के स्वामी! कृपा करो कर शीश रखो अब।<br />
हे हरि हर लो......<br />
<br />
चतुर्वेद-वेदांग-पुराणों से भी ऊपर ज्ञान तुम्हारा।<br />
वन-वन गिरि-गिरि भटका नर पर तुमको जान न पाया हारा।<br />
भेद मिटाकर सभी प्यार का जिसने दिल में दीप जलाया।<br />
नही किसी मंदिर-मस्जिद में उसने तुमको खुद में पाया।<br />
<br />
सत्य न यह स्वीकारे जग में ऐसा कौन मनुज या मज़हब?<br />
हे हरि हर लो.......<br />
<br />
सूर्य-चंद्र की ज्योति तुम्हीं गति ग्रह-उपग्रह ने तुमसे पाई।<br />
जग के हर कण-तृण में तुमने अनुपम माया है दर्शाई।<br />
अनिल-अनल-जल-थल-नभ में…
हे हरि हर लो हिय के दुख सब।<br />
<br />
सकल चराचर जग के स्वामी! कृपा करो कर शीश रखो अब।<br />
हे हरि हर लो......<br />
<br />
चतुर्वेद-वेदांग-पुराणों से भी ऊपर ज्ञान तुम्हारा।<br />
वन-वन गिरि-गिरि भटका नर पर तुमको जान न पाया हारा।<br />
भेद मिटाकर सभी प्यार का जिसने दिल में दीप जलाया।<br />
नही किसी मंदिर-मस्जिद में उसने तुमको खुद में पाया।<br />
<br />
सत्य न यह स्वीकारे जग में ऐसा कौन मनुज या मज़हब?<br />
हे हरि हर लो.......<br />
<br />
सूर्य-चंद्र की ज्योति तुम्हीं गति ग्रह-उपग्रह ने तुमसे पाई।<br />
जग के हर कण-तृण में तुमने अनुपम माया है दर्शाई।<br />
अनिल-अनल-जल-थल-नभ में तुम, भू पर जीवन भी तुम लाये।<br />
व्यक्त तुम्हारी महिमा शब्दों में क्या नर कोई कर पाये?<br />
<br />
कर-पद-मुख बिन ही तुम जग में करते हर क्षण सारे करतब।<br />
हे हरि हर लो.........<br />
<br />
किया तुम्हें अनुभूत शून्य-भू-जलनिधि-प्रस्तर-गिरि हर नर में।<br />
और सुना खगकुल कलरव में, बहती सरि के कलकल स्वर में।<br />
शीतल सौरभयुक्त पवन का हल्का झोंका जब भी आया।<br />
मानो सुखद स्पर्श तुम्हारा व्याकुल तन-मन ने हो पाया।<br />
<br />
औ' ममता में देखा तुमको माँ ने माथा चूमा जब-जब।<br />
हे हरि हर लो......<br />
<br />
आज द्वेष-मद-लोभ-स्वार्थ के वशीभूत नर नाचे नंगा।<br />
धोते-धोते पाप सभी के मलिन हुई यह पावन गंगा।<br />
जाति-धर्म के भेद परशु बन काट रहे मानवता का तरु।<br />
प्रेमपूर्ण शुचि हरा-भरा थल हाय! बना जैसे जलता मरु।<br />
<br />
'बली' घने तम को हरने हरि! परम् ज्योति बन आओगे कब?<br />
हे हरि हर लो.....<br />
<br />
रचनाकार-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितदीपक सा उजियार करोगे-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-02-26:5170231:BlogPost:8390492017-02-26T01:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
ग़ज़ल<br />
22 22 22 22<br />
<br />
जब जलना स्वीकार करोगे<br />
दीपक-सा उजियार करोगे<br />
<br />
स्नेह-समर्पण शस्त्र अगर हों<br />
हर दिल पर अधिकार करोगे<br />
<br />
दुर्ग दिलों के जीत सके तो<br />
जय सारा संसार करोगे<br />
<br />
दिल में दर्प बढ़ा दानव-सा<br />
उसका कब संहार करोगे<br />
<br />
राष्ट्र-हितों पर मिट न सके तो<br />
जीवन यह बेकार करोगे<br />
<br />
दिल पर रखकर हाथ बता दो<br />
"हमसे कितना प्यार करोगे"<br />
<br />
दृष्टि रखोगे अर्जुन-सी तो<br />
लक्ष्य पे ही हर वार करोगे<br />
<br />
उर-अँधियार मिटा पाये तो<br />
खुद का साक्षात्कार करोगे<br />
<br />
हिल जाएगा भूधर का तल<br />
चोट जो बारम्बार करोगे<br />
<br />
लुट जाएगा चैन 'बली' गर<br />
नैन किसी से चार…
ग़ज़ल<br />
22 22 22 22<br />
<br />
जब जलना स्वीकार करोगे<br />
दीपक-सा उजियार करोगे<br />
<br />
स्नेह-समर्पण शस्त्र अगर हों<br />
हर दिल पर अधिकार करोगे<br />
<br />
दुर्ग दिलों के जीत सके तो<br />
जय सारा संसार करोगे<br />
<br />
दिल में दर्प बढ़ा दानव-सा<br />
उसका कब संहार करोगे<br />
<br />
राष्ट्र-हितों पर मिट न सके तो<br />
जीवन यह बेकार करोगे<br />
<br />
दिल पर रखकर हाथ बता दो<br />
"हमसे कितना प्यार करोगे"<br />
<br />
दृष्टि रखोगे अर्जुन-सी तो<br />
लक्ष्य पे ही हर वार करोगे<br />
<br />
उर-अँधियार मिटा पाये तो<br />
खुद का साक्षात्कार करोगे<br />
<br />
हिल जाएगा भूधर का तल<br />
चोट जो बारम्बार करोगे<br />
<br />
लुट जाएगा चैन 'बली' गर<br />
नैन किसी से चार करोगे<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
रामबली गुप्तादोहे-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2017-02-05:5170231:BlogPost:8346092017-02-05T12:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
कृपा करो जगदीश हे! करो जगत कल्याण।<br />
प्रेम दया सद्भाव दो, हो शुभ तन-मन-प्राण।।1।।<br />
<br />
हो कण-कण में व्याप्त तुम, हे! जग पालनहार।<br />
पद-पावन में तीर्थ सब, है सुरसरि की धार।।2।।<br />
<br />
सदा तुम्हारी भक्ति में, रहूँ समर्पित नाथ!<br />
ऐसा दो वरदान अब, रखो शीश पर हाथ।।3।।<br />
<br />
प्रभो! सकल ब्रह्माण्ड के, एक तुम्ही हो नाथ।<br />
सदा कामना है यही, रहे कृपा-कर माथ।।4।।<br />
<br />
सूर्य-चंद्र-तारक सभी, जीव-जन्तु इत्यादि।<br />
सबका तुम से अंत हरि! है तुमसे ही आदि।।5।।<br />
<br />
चतुर्वेद-वेदांग औ' सभी धर्म-ग्रंथादि।<br />
पार न हरि का पा सके, जान न पाये आदि।।6।।<br />
<br />
हे…
कृपा करो जगदीश हे! करो जगत कल्याण।<br />
प्रेम दया सद्भाव दो, हो शुभ तन-मन-प्राण।।1।।<br />
<br />
हो कण-कण में व्याप्त तुम, हे! जग पालनहार।<br />
पद-पावन में तीर्थ सब, है सुरसरि की धार।।2।।<br />
<br />
सदा तुम्हारी भक्ति में, रहूँ समर्पित नाथ!<br />
ऐसा दो वरदान अब, रखो शीश पर हाथ।।3।।<br />
<br />
प्रभो! सकल ब्रह्माण्ड के, एक तुम्ही हो नाथ।<br />
सदा कामना है यही, रहे कृपा-कर माथ।।4।।<br />
<br />
सूर्य-चंद्र-तारक सभी, जीव-जन्तु इत्यादि।<br />
सबका तुम से अंत हरि! है तुमसे ही आदि।।5।।<br />
<br />
चतुर्वेद-वेदांग औ' सभी धर्म-ग्रंथादि।<br />
पार न हरि का पा सके, जान न पाये आदि।।6।।<br />
<br />
हे हरि! उर पावन करो, दो नित निर्मल ज्ञान।<br />
सदा जगत हित हेतु ही, निकलें मेरे प्रान।।7।।<br />
<br />
जो मानवता हेतु है सदा समर्पित आज।<br />
सच्चा ईश्वर भक्त वह यही भक्ति का राज।।8।।<br />
<br />
जिनके मन में हो भरा, दया-प्रेम-सद्भाव।<br />
पार उतारें हरि सदा, उनकी डगमग नाव।।9।।<br />
<br />
कर दो ज्योतिर्मय हृदय, हरि! हर लो अज्ञान।<br />
धन-जन-बल-सौंदर्य का, कभी न हो अभिमान।।10।।<br />
<br />
इस नश्वर संसार में, शाश्वत है नर-धर्म।<br />
मनुज भले मिटता यहाँ, मिटे न उसका कर्म।।11।।<br />
<br />
निज सद्कर्मों से यहाँ कर लो जीवन धन्य।<br />
रखो नये प्रतिमान यूँ, चलें उन्हीं पर अन्य।।12।।<br />
<br />
असत-अधर्म-अनीति से, जो नित साधें स्वार्थ।<br />
अंत हेतु उनके सदा, जन्में श्री-हरि-पार्थ।।13।।<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितसवैये-दीपावली विशेष-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2016-10-29:5170231:BlogPost:8110972016-10-29T12:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>मत्तगयंद सवैया (सूत्र=211×7+22; भगण×7+गागा)<br></br> <br></br> ज्योति जले घर-द्वार सजे सब, हैं उतरे वसुधा पर तारे।<br></br> आज बनी रजनी वधु सुंदर ज्यों पहने मणि के पट प्यारे।।<br></br> थाल लिए जुगनू सम दीपक, नाच रहे खुश हो जन सारे।<br></br> आश-दिये हरते उर से तम, भाग रहे डर के अँधियारे।।1।।<br></br> <br></br> किरीट सवैया (सूत्र=211×8; भगण×8)<br></br> <br></br> कोटिक दीप जले वसुधा पर, है कितना यह दृश्य सुहावन।<br></br> झूम रहे नव आश भरे उर, पूज रहे मिल आज सभी जन।।<br></br> ज्योति जलाकर स्वागत में तव राह निहार रहे सबके मन।<br></br> हे! कमला…</p>
<p>मत्तगयंद सवैया (सूत्र=211×7+22; भगण×7+गागा)<br/> <br/> ज्योति जले घर-द्वार सजे सब, हैं उतरे वसुधा पर तारे।<br/> आज बनी रजनी वधु सुंदर ज्यों पहने मणि के पट प्यारे।।<br/> थाल लिए जुगनू सम दीपक, नाच रहे खुश हो जन सारे।<br/> आश-दिये हरते उर से तम, भाग रहे डर के अँधियारे।।1।।<br/> <br/> किरीट सवैया (सूत्र=211×8; भगण×8)<br/> <br/> कोटिक दीप जले वसुधा पर, है कितना यह दृश्य सुहावन।<br/> झूम रहे नव आश भरे उर, पूज रहे मिल आज सभी जन।।<br/> ज्योति जलाकर स्वागत में तव राह निहार रहे सबके मन।<br/> हे! कमला गणनायक के सँग, आज पधार करें गृह पावन।।2।।<br/> <br/> महाभुजंगप्रयात सवैया(सूत्र=122×8; यगण×8)<br/> <br/> दिलों से मिटा द्वेष सारे पुराने, लिए प्यार के मैं तराने चला हूँ।<br/> सभी के दिलों में जने प्यार सच्चा, नई ज्योति ऐसी जगाने चला हूँ।।<br/> न नैराश्य हो जिंदगी में किसी की, दिये आश के मैं जलाने चला हूँ।<br/> गमों का अँधेरा मिटे मूल से ही, धरा दीप से यूँ सजाने चला हूँ।।3।।<br/> <br/> रचना-रामबली गुप्ता<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>सवैये-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2016-10-24:5170231:BlogPost:8099722016-10-24T10:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
<p>वागीश्वरी सवैया [सूत्र- 122×7+12 ; यगण x7+लगा]</p>
<p><br></br> करो नित्य ही कृत्य अच्छे जहां में सखे! बोल मीठे सभी से कहो।।<br></br> दिलों से दिलों का करो मेल ऐसा, न हो भेद कोई न दुर्भाव हो।।<br></br> बनो जिंदगी में उजाला सभी की, सभी सौख्य पाएं उदासी न हो।।<br></br> रखो मान-सम्मान माँ भारती का, सदा राष्ट्र की भावना में बहो।।</p>
<p></p>
<p><br></br> <br></br> मत्तगयन्द सवैया [सूत्र-211×7+22 ; भगणx7+गागा]<br></br><br></br> यौवन ज्यों मकरन्द भरा घट, और सुवासित कंचन काया।<br></br> भौंह कमान कटार बने दृग, केश घने सम…</p>
<p>वागीश्वरी सवैया [सूत्र- 122×7+12 ; यगण x7+लगा]</p>
<p><br/> करो नित्य ही कृत्य अच्छे जहां में सखे! बोल मीठे सभी से कहो।।<br/> दिलों से दिलों का करो मेल ऐसा, न हो भेद कोई न दुर्भाव हो।।<br/> बनो जिंदगी में उजाला सभी की, सभी सौख्य पाएं उदासी न हो।।<br/> रखो मान-सम्मान माँ भारती का, सदा राष्ट्र की भावना में बहो।।</p>
<p></p>
<p><br/> <br/> मत्तगयन्द सवैया [सूत्र-211×7+22 ; भगणx7+गागा]<br/><br/> यौवन ज्यों मकरन्द भरा घट, और सुवासित कंचन काया।<br/> भौंह कमान कटार बने दृग, केश घने सम नीरद-छाया।।<br/> देख छटा मुख की अति सुंदर, पूनम का रजनीश लजाया।<br/> ओष्ठ खिली कलियाँ अति कोमल, देख हिया अलि का हरसाया।।</p>
<p></p>
<p>रचना-रामबली गुप्ता<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>ग़ज़ल-लिए दर्द दिल में पुराने चला हूँ-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2016-10-20:5170231:BlogPost:8089032016-10-20T05:30:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
वह्र-122 122 122 122<br />
<br />
लिए दर्द दिल में पुराने चला हूँ<br />
गमे इश्क के गीत गाने चला हूँ<br />
<br />
जहाँ पल खुशी के बिताये थे तुम सँग<br />
वहीं आज आँसू बहाने चला हूँ<br />
<br />
बयाँ हाले' दिल भी करूँ क्या किसी से<br />
मैं' सब खुद से' ही अब छिपाने चला हूँ<br />
<br />
थी ये जिंदगी आप ही की ऐ' साहिब<br />
उसे आप ही पे लुटाने चला हूँ<br />
<br />
मुबारक तुम्हें चाँद सूरज सितारे<br />
अँधेरों को' मैं आजमाने चला हूँ<br />
<br />
खुली आँख का ख्वाब था प्यार तेरा<br />
यकीं आज दिल को दिलाने चला हूँ<br />
<br />
छुपा कर गमों को सरे बज़्म यारों<br />
है' मुश्किल मगर मुस्कुराने चला हूँ<br />
<br />
लिए आँसुओं का छलकता हुआ…
वह्र-122 122 122 122<br />
<br />
लिए दर्द दिल में पुराने चला हूँ<br />
गमे इश्क के गीत गाने चला हूँ<br />
<br />
जहाँ पल खुशी के बिताये थे तुम सँग<br />
वहीं आज आँसू बहाने चला हूँ<br />
<br />
बयाँ हाले' दिल भी करूँ क्या किसी से<br />
मैं' सब खुद से' ही अब छिपाने चला हूँ<br />
<br />
थी ये जिंदगी आप ही की ऐ' साहिब<br />
उसे आप ही पे लुटाने चला हूँ<br />
<br />
मुबारक तुम्हें चाँद सूरज सितारे<br />
अँधेरों को' मैं आजमाने चला हूँ<br />
<br />
खुली आँख का ख्वाब था प्यार तेरा<br />
यकीं आज दिल को दिलाने चला हूँ<br />
<br />
छुपा कर गमों को सरे बज़्म यारों<br />
है' मुश्किल मगर मुस्कुराने चला हूँ<br />
<br />
लिए आँसुओं का छलकता हुआ जाम<br />
'बली' जश्न गम का मनाने चला हूँ<br />
<br />
रचना-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितग़ज़ल-बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये-रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2016-10-09:5170231:BlogPost:8063902016-10-09T07:26:40.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
वह्र-2122 1122 1122 22<br />
<br />
बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये,<br />
हर अँधेरे को' उजाले मे' बदलते रहिये।<br />
<br />
जिंदगी एक सफर खुशियों' भरा हो साहिब!<br />
हर कदम आप मेरे साथ जो' चलते रहिये।।<br />
<br />
दिल के' मन्दिर में उजाले की' वज़ह आप सनम,<br />
अब तो इस दिल मे' सदा ज्योति सा' जलते रहिये।<br />
<br />
दिल की बगिया में बहारों के सुमन मुस्काएं,<br />
इसमें गर रोज सनम आप टहलते रहिये।<br />
<br />
मैं जो' हूँ साथ जमाने से' भला डर कैसा?<br />
हो के मायूस न यूं शाम से ढलते रहिये।<br />
<br />
मेरे' हर गीत-ग़ज़ल-नज़्म-तरानों में' सनम!<br />
बन के' अब शब्द नये प्यार के ढलते…
वह्र-2122 1122 1122 22<br />
<br />
बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये,<br />
हर अँधेरे को' उजाले मे' बदलते रहिये।<br />
<br />
जिंदगी एक सफर खुशियों' भरा हो साहिब!<br />
हर कदम आप मेरे साथ जो' चलते रहिये।।<br />
<br />
दिल के' मन्दिर में उजाले की' वज़ह आप सनम,<br />
अब तो इस दिल मे' सदा ज्योति सा' जलते रहिये।<br />
<br />
दिल की बगिया में बहारों के सुमन मुस्काएं,<br />
इसमें गर रोज सनम आप टहलते रहिये।<br />
<br />
मैं जो' हूँ साथ जमाने से' भला डर कैसा?<br />
हो के मायूस न यूं शाम से ढलते रहिये।<br />
<br />
मेरे' हर गीत-ग़ज़ल-नज़्म-तरानों में' सनम!<br />
बन के' अब शब्द नये प्यार के ढलते रहिये।।<br />
<br />
दिल की बगिया में खिले प्यार के फूलों को सनम!<br />
यूं जफ़ा के पा' तले भी न मसलते रहिये।।<br />
<br />
लूटते चैन अमन जो भी वतन का साहब!<br />
ऐसे' साँपो के' उठे फण को' कुचलते रहिये।<br />
<br />
रचना-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित<br />
<br />
पा=पैरगीत-सखि! री! मन न धरे अब धीर -रामबली गुप्ताtag:openbooks.ning.com,2016-09-23:5170231:BlogPost:8021032016-09-23T00:00:00.000Zरामबली गुप्ताhttp://openbooks.ning.com/profile/RAMBALIGUPTA
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
विरही मन ले वन-वन डोलूँ, सही न जाये पीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
<br />
ना चिट्ठी ना पाती आयो, ना कोई संदेश।<br />
जाय बसे कौने सौतन घर, प्रियतम कौने देश।।<br />
राह तकत बीते दिन-रैना छिन-छिन घटत शरीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
<br />
बीते कितने साल-महीने, बीत गए मधुमास।<br />
कितने सावन-भादो बीते, पर ना छूटी आस।।<br />
अँखियाँ पिय दर्शन की प्यासी, झर-झर बरसत नीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
<br />
सेज-सिँगार भयो सब सूना, कजरा बहि-बहि जात।<br />
पिय बिन सूनी भई जिंदगी, गजरा काँट बुझात।।<br />
अब तो उपवन भी ना जाऊँ, न ही…
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
विरही मन ले वन-वन डोलूँ, सही न जाये पीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
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ना चिट्ठी ना पाती आयो, ना कोई संदेश।<br />
जाय बसे कौने सौतन घर, प्रियतम कौने देश।।<br />
राह तकत बीते दिन-रैना छिन-छिन घटत शरीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
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बीते कितने साल-महीने, बीत गए मधुमास।<br />
कितने सावन-भादो बीते, पर ना छूटी आस।।<br />
अँखियाँ पिय दर्शन की प्यासी, झर-झर बरसत नीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
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सेज-सिँगार भयो सब सूना, कजरा बहि-बहि जात।<br />
पिय बिन सूनी भई जिंदगी, गजरा काँट बुझात।।<br />
अब तो उपवन भी ना जाऊँ, न ही नदी के तीर।<br />
सखि! री! मन न धरे अब धीर।<br />
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देव-देवियाँ सभी मनाऊँ, शिव-शंकर गजराज।<br />
अब तो पिय आ जायें मोरे, श्रद्धा पूरे आज।।<br />
जियरा में जब हूक उठे सखि! छतिया देवे चीर।<br />
सखी री! मन न धरे अब धीर।<br />
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-रामबली गुप्ता<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित