Somesh kumar's Posts - Open Books Online2024-03-28T17:44:51Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuarhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991293703?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=3h6kgqj61u331&xn_auth=noखोयी कहानीtag:openbooks.ning.com,2018-07-17:5170231:BlogPost:9402792018-07-17T03:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>कई दिनों से तलाश रहा हूँ</p>
<p>एक भूली हुई डायरी</p>
<p>कुछ कहानियाँ</p>
<p>जो स्मृतियों में धुंधली हो गई हैं |</p>
<p></p>
<p>कई सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद</p>
<p>मुड़ कर देखता हूँ</p>
<p>कदमों के निशान</p>
<p>जो ढूढें से भी नहीं मिलते हैं |</p>
<p></p>
<p>कामयाबी के बाद बाँटना चाहता हूँ</p>
<p>हताशा और निराशा</p>
<p>के वो किस्से</p>
<p>जो रहे हैं मेरी जिंदगी के हिस्से |</p>
<p></p>
<p>पर उसे सुनने का वक्त</p>
<p>किसी पे नहीं है</p>
<p>और ये सही है की</p>
<p>नाकामयाबी सिर्फ अपने हिस्से की चीज़ है…</p>
<p>कई दिनों से तलाश रहा हूँ</p>
<p>एक भूली हुई डायरी</p>
<p>कुछ कहानियाँ</p>
<p>जो स्मृतियों में धुंधली हो गई हैं |</p>
<p></p>
<p>कई सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद</p>
<p>मुड़ कर देखता हूँ</p>
<p>कदमों के निशान</p>
<p>जो ढूढें से भी नहीं मिलते हैं |</p>
<p></p>
<p>कामयाबी के बाद बाँटना चाहता हूँ</p>
<p>हताशा और निराशा</p>
<p>के वो किस्से</p>
<p>जो रहे हैं मेरी जिंदगी के हिस्से |</p>
<p></p>
<p>पर उसे सुनने का वक्त</p>
<p>किसी पे नहीं है</p>
<p>और ये सही है की</p>
<p>नाकामयाबी सिर्फ अपने हिस्से की चीज़ है |</p>
<p></p>
<p>इसलिए अपनी खोई हुई कहानियाँ</p>
<p>और नाकामयाबी</p>
<p>हर किसी को अज़ीज़ है |</p>
<p>खोयी कहानी का ढांचा</p>
<p></p>
<p>यूँ तो अब भी याद है</p>
<p>पर उसे फिर लिखने से मन कतरा रहा है</p>
<p>कामयाबी सिर चढ़ी है</p>
<p>और अतीत को झूठला रहा है |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>पेड़ तले पौधाtag:openbooks.ning.com,2018-07-16:5170231:BlogPost:9402612018-07-16T05:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p></p>
<p>जिंदगी यूँ तो लौट आएगी</p>
<p>पटरी पर</p>
<p>पर याद आएगा सफ़र का</p>
<p>हर मोड़</p>
<p>कुछ गडमड सड़कों के</p>
<p>हिचकोले</p>
<p>कुछ सपाट रस्तों पर बेवजह</p>
<p>फिसलना</p>
<p>और वक्त-बेवक्त तेरा</p>
<p>साथ होना |</p>
<p>याद आएगा एक पेड़</p>
<p>घना छाँवदार </p>
<p>जिसके आसरे एक पौधा</p>
<p>पेड़ बना |</p>
<p>मौसमों की हर तीक्ष्णता का</p>
<p>सह वार </p>
<p>पौधे को सदा दिया</p>
<p>ओट प्यार |</p>
<p>निश्चय ही मौसम बदलने से</p>
<p>होगा कुछ अंकुरित </p>
<p>पर वो रसाल है मेरी जड़ो…</p>
<p></p>
<p>जिंदगी यूँ तो लौट आएगी</p>
<p>पटरी पर</p>
<p>पर याद आएगा सफ़र का</p>
<p>हर मोड़</p>
<p>कुछ गडमड सड़कों के</p>
<p>हिचकोले</p>
<p>कुछ सपाट रस्तों पर बेवजह</p>
<p>फिसलना</p>
<p>और वक्त-बेवक्त तेरा</p>
<p>साथ होना |</p>
<p>याद आएगा एक पेड़</p>
<p>घना छाँवदार </p>
<p>जिसके आसरे एक पौधा</p>
<p>पेड़ बना |</p>
<p>मौसमों की हर तीक्ष्णता का</p>
<p>सह वार </p>
<p>पौधे को सदा दिया</p>
<p>ओट प्यार |</p>
<p>निश्चय ही मौसम बदलने से</p>
<p>होगा कुछ अंकुरित </p>
<p>पर वो रसाल है मेरी जड़ो में</p>
<p>नहीं होगा विस्मृत |</p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>दिल का साँचाtag:openbooks.ning.com,2018-07-05:5170231:BlogPost:9383062018-07-05T01:54:47.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>नींद आँखों से खफा –खफा है /</p>
<p>चली है ठंडी हवा वो याद आ रह है /</p>
<p>लिखा था मौसम किसी कागज़ पे/</p>
<p>टहलती आँख लफ्ज़ फड़फड़ा रहा है /</p>
<p></p>
<p>सिलवटें बिस्तरों पे नहीं सलामत /</p>
<p>दिल का साँचा हुबहू बचा हुआ है/</p>
<p>नक्ल करके नाम तो पा सकता हूँ /</p>
<p>पर मेरा वजूद इसमें क्या है?</p>
<p></p>
<p>वो आज भी रहता है मेरे आसपास /</p>
<p>मेरे बच्चे में मुस्कुरा रहा है |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित…</p>
<p>नींद आँखों से खफा –खफा है /</p>
<p>चली है ठंडी हवा वो याद आ रह है /</p>
<p>लिखा था मौसम किसी कागज़ पे/</p>
<p>टहलती आँख लफ्ज़ फड़फड़ा रहा है /</p>
<p></p>
<p>सिलवटें बिस्तरों पे नहीं सलामत /</p>
<p>दिल का साँचा हुबहू बचा हुआ है/</p>
<p>नक्ल करके नाम तो पा सकता हूँ /</p>
<p>पर मेरा वजूद इसमें क्या है?</p>
<p></p>
<p>वो आज भी रहता है मेरे आसपास /</p>
<p>मेरे बच्चे में मुस्कुरा रहा है |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>स्वप्न,यथार्थ और प्रेरणा (कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-07-02:5170231:BlogPost:9382082018-07-02T04:29:08.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>पुश्तैनी घर में होने वाले रोज़-रोज़ के झगड़े से तंग आ चुका था और मंशा थी की अपना एक अलग घोसला बनाया जाए |श्री वर्मा जी जो की मेरे शिक्षक,मार्गदर्शक एवं प्रेरणाश्रोत रहे हैं उनसे इस सिलसिले में मिलने पहुँचा |</p>
<p>मिलते ही उन्होंने प्रश्न किया-सबसे पहले यह बताओ की कितनी नकद राशि है और घर लेने की क्या योजना है |</p>
<p>“पैसे तो छह-सात लाख के आसपास हैं बाकि पैसे लोन करा लूँगा |सोच रहा हूँ की कोई जड़ सहित मकान या फ़्लोर मिल जाए |”मैंने हिचकिचाते हुए कहा</p>
<p>“लेकिन या परंतु बाद में ---सबसे पहले…</p>
<p>पुश्तैनी घर में होने वाले रोज़-रोज़ के झगड़े से तंग आ चुका था और मंशा थी की अपना एक अलग घोसला बनाया जाए |श्री वर्मा जी जो की मेरे शिक्षक,मार्गदर्शक एवं प्रेरणाश्रोत रहे हैं उनसे इस सिलसिले में मिलने पहुँचा |</p>
<p>मिलते ही उन्होंने प्रश्न किया-सबसे पहले यह बताओ की कितनी नकद राशि है और घर लेने की क्या योजना है |</p>
<p>“पैसे तो छह-सात लाख के आसपास हैं बाकि पैसे लोन करा लूँगा |सोच रहा हूँ की कोई जड़ सहित मकान या फ़्लोर मिल जाए |”मैंने हिचकिचाते हुए कहा</p>
<p>“लेकिन या परंतु बाद में ---सबसे पहले निर्णय बताओं की चाहते क्या हो ?”</p>
<p>“जी !मैं तो जड़ से बना मकान ही चाहता हूँ |”मैंने दबी जुबान में कहा |</p>
<p>“आज की महंगाई में कम से कम चालीस लाख ---और उसके आधे नकद होने चाहिएँ |”</p>
<p>“तो फ़िर फ़्लोर ही देख लेते हैं |” मैंने दबी जुबान में कहा</p>
<p></p>
<p>“जिंदगी में हमेशा समझौता ही करते रहोगे |तुम्हें मालूम भी ही बिल्डर फ़्लैट एवं जड़ से बने मकान में कितना फ़र्क है |”</p>
<p>“जी !---पर पैसे कहाँ से आएँगे |”</p>
<p>“तुम्हें नौकरी करते दस साल बीत गए हैं फिर भी तुम्हारें पास दस लाख भी नहीं हैं ---कितनी बार कहा की खाली समय में कुछ ट्यूशन पकड़ लो ---जो दो चार रुपए अतिरिक्त आमदनी होगी उससे दूध-तेल का खर्च निकल आएगा ---बूंद-बूंद से ही तो घड़ा भरता है |तुम सबसे बड़े आलसी और कामचोर हो और सोचते हो सब कुछ पका-पकाया मिल जाए |”</p>
<p></p>
<p>“सर !समय कहाँ हैं ?---घर की समस्या हैं |---बच्चे छोटे हैं |----माँ-बाप बीमार रहते हैं |”मैंने अपनी समस्याएँ गिनानी शुरू की |</p>
<p></p>
<p>“तुम ये कहना चाहते हो की तुम सबसे जिम्मेवार और व्यस्त व्यक्ति हो !पर मुझे लगता है ---तुम सबसे बड़े आलसी और कामचोर हो और सोचते हो सब कुछ पका-पकाया मिल जाए | तुम्हारे पास सात घंटे की नौकरी के बाद सुबह-शाम में से एक या दो घंटे भी नहीं निकल रहे !”</p>
<p></p>
<p>“मैं कुछ समय अपनी रूचि को देना चाहता हूँ ---आप को तो पता है मेरा लिखने में मन लगता है |” मैंने गर्दन झुकाए हुए ही कहा |</p>
<p>“लिखने से अब तक कितना कमाया ?—उसने तुम्हें कौन सी पहचान दी ?”</p>
<p></p>
<p>“जी एक पैसा भी नहीं ---पर लिखने से संतोष मिलता है |”</p>
<p></p>
<p>“वो संतोष किस काम का जहाँ तुम्हें और तुम्हारें परिवार को अपनी हर जरूरत के लिए मन मारना पड़े----मुझे देख लो रिटायरमेंट के आसपास पहुँच गया हूँ फिर भी होम ट्यूशन कराकर आता हूँ ---दूसरे-तीसरे रोज़ नकद मिल आते हैं ऐसा लगता है की बोनस मिला हो –खर्च करने में भी मज़ा आता है |”</p>
<p></p>
<p>“पर ट्यूशन भी तो एक प्रकार का बंधन हैं |”</p>
<p></p>
<p>“बिना त्याग-बिना मेहनत करे कुछ नहीं मिलता|---देअर इज़ नो फ्री लंच----वास्तविकताओं से भागकर भानुमती का किला बनाना जिंदगी का हल नहीं है ----नहिं सुप्त्स्ये सिंहस्य प्रवेश्न्ति मुखे मृगा------तुम औरों को देखकर अजगर हुए जा रहे हो ---अजय अपने पिता का एकलौता पुत्र है |उनका अपना मकान है और साहब रिटायर हुए हैं तो मोटी रकम मिली है ---राहुल की पत्नी उसी की तरह सरकारी नौकर है |यहाँ उसकी आय तुमसे दोगुनी है –अगर तुम उन्हें देखकर चलोगे तो पिछड़ते चले जाओगे |”</p>
<p></p>
<p>“मैं खुद सोच रहा हूँ की पाँचवी तक की ट्यूशन शुरू कर दूँ |” मैंने हल्की आवाज़ में कहा|</p>
<p></p>
<p>“तुम पोस्ट-ग्रेजुएट हो---प्राईमरी अध्यापक हो और तुम पाँचवी तक सोच रहे हो|वहाँ पैसे कम मिलेंगे और संघर्ष उतना ही है ----बड़ी क्लासों को क्यों नहीं ?”</p>
<p></p>
<p>“अनुभव नहीं है |डर लगता है |”</p>
<p></p>
<p>“अनुभव कोई बाज़ार में तो मिलेगा नहीं और जहाँ तक डर या झिझक की बात है वो अपनी क्षमताओं का न पहचान सकने के कारण हैं |जब मुझे ट्यूशन शुरू करनी थी तो मैं भी असमंजस में था |मैं अंग्रेजी का पोस्ट ग्रेजुएट,10 को गणित की ट्यूशन कैसे दूँ |तब मेरे साथी वीर सिंह ने मेरा हौसला बढ़ाया |---उन्होंने मुझे कुछ किताबें बताई---मुझे याद दिलाया की दसवी में मेरी गणित में मेरिट थी---समस्या आने पर मुझे मार्गदर्शन दिया---और मेरे पीरियड गणित क्लासों में लगवा दिए ---उसके बाद से मैंने मुड़ कर नहीं देखा और अब तो मैं इंटर वालों को भी बिना इंटरवल पढ़ाता हूँ |----तुम शुरू करो जहाँ दिक्कत हो मैं खड़ा हूँ |”</p>
<p>मैं अभी भी उन्हें शंका से देख रहा था |शायद उन्होंने मेरा भाव ताड़ लिया और फिर बोले -क्षमता सबमें होती है |समस्या है केवल उसे पहचानने की और चुनौतियों से लड़ने की |पिछले साल की बात है |मेरे जानकर डाक्टर की पुत्री महाशय चुन्नीलाल स्कूल में पढ़ती थी |डाक्टर साहब अपने क्लिनिक और एन.जी.ओ. में व्यस्त थे और बेटी पर ध्यान नहीं दे पाए और सितम्बर परीक्षा में कैमिस्ट्री में फेल हो गई |बच्ची हताश एवं निराश थी और डाक्टर साहब बुरी तरह परेशान |नवम्बर में उन्होंने मुझे अप्रोच किया और कोई अच्छा ट्यूटर ढूढ़ने को कहा |मैंने अपने स्कूल के साथी कमल किशोर से सम्पर्क किया और उनसे उसे पढ़ाने का आग्रह किया |उन्होंने कहा की इतने कम दिन में कुछ नहीं होगा |बार-बार आग्रह पर उन्होंने कहा की वो एक सप्ताह बाद गाँव से लौटकर बताएँगे |फिर उन्होंने कहा की वो मेरे आग्रह पर उसे पढ़ा देंगे | पर पुरे सात सौ रुपए घंटे लेंगे और बच्ची उनके घर आएगी |डाक्टर साहब ने ये शर्त भी स्वीकार कर ली |पहले दिन जब बच्ची गई तो उन्होंने उससे तरह-तरह के सवाल पूछें,स्कूल-कार्य देखा और उसे बुरी तरह से लताड़ा |उन्होंने कहा की वह लड़की नालायक है और वो कभी पास नहीं हो सकती और उसे अगले साल आर्ट में दाखिला ले लेना चाहिए |समुन मायूस और हताश होकर घर लौट आई और बुरी तरह डिप्रेश हो गयी |डाक्टर साहब का मुँह लटक गया और कमल किशोर ने वही बात मुझसे दोहराई |मैंने सिर्फ़ इतना कहा की भाई-साहब अब परिणाम जो भी हो मुझे सुमन को उबारने की एक कोशिश तो करनी ही है |कमल किशोर ने मेरी तरफ़ व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखा | “तो क्या वो लड़की फेल हो गई ?” मैंने जिज्ञासा से पूछा “हिम्मते बंदे मददे खुदा ---मैंने सबसे पहले उस लड़की की काउंसलिंग की और उस अपनी ताकत पहचानने को कहा |वहीं स्कूल में मैंने पिछले वर्षों में विज्ञान के टॉपर बच्चों का पता लगाया और उनका फ़ोन नम्बर निकाला | रोहन नाम का एक लड़का जो बी.एस.सी. क्र रहा था और पिछले वर्ष ही स्कूल से पास-आउट था उससे मेरा सम्पर्क हुआ और वह 15 दिसम्बर को मुझसे मिला |मैंने उसे सारी स्थिति से अवगत कराया और कहा की यह चुनौती उसके अध्यापक कमल किशोर ने दी है |</p>
<p></p>
<p>“फिर रोहन ने भी नहीं पढ़ाया !” मैंने उत्सुकता से पूछा |</p>
<p></p>
<p>"रोहन ने कहा की उसे पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं है और समय बहुत कम है |तब मैंने पूछा की क्या उसे केमिस्ट्री आती है |</p>
<p>“हाँ |” रोहन ने जवाब दिया |</p>
<p></p>
<p>“मैं तुम्हें 400 रुपए घंटे दिला सकता हूँ और रही पढ़ाने की बात |जैसा मैं कहूँ वैसा करते जाना |उसने एक सप्ताह का समय माँगा और मैंने भी डूबते को तिनके का आसरा वाली बात मान डाक्टर साहब को लड़के पर भरोसा करने को कहा |”</p>
<p></p>
<p>“अब नाव आपके भरोसे है ?’ डाक्टर साहब ने इतना भर कहा |</p>
<p></p>
<p>दिसम्बर के अंतिम सप्ताह से रोहन ने पढ़ाना शुरू किया |मैंने बाज़ार से पॉइंट टू पॉइंट केमिस्ट्री मंगा दी |रोहन से कहा की वो सबसे पहले आसन पाठों से पूछे गए प्रश्न तैयार करवाए और रोज़ पाँच-छह प्रश्नों का टेस्ट दे और उसे अगले दिन चैक करे और जरूरत पड़े तो अगले दिन फिर अभ्यास करवाए |रोहन ने लगभग पच्चीस क्लासें ली |</p>
<p></p>
<p>“तो उसके पास-मार्क आ गए ?” मैंने उत्सकुता जाहिर की|</p>
<p></p>
<p>“सच और साहस है जिनके मन में अंत में जीत उसी की हुई ---उस लड़की के केमिस्ट्री में 72 मार्क्स आए और कुल 80 % कमल किशोर जी को जब मैंने उसकी रिपोर्ट कार्ड दिखाई तो उन्होंने शर्म महसूस की----सुमन का दिल्ली बी.टी.सी. में दाखिला हो गया और रोहन ने अब अपना एक कोचिंग सेंटर खोल लिया है |” ऐसा कहकर वो मेरी तरफ़ चुपचाप देखने लगे |</p>
<p>“सोच तो मैं भी रहा हूँ कई दिनों से पर टाईम ?” मैंने कुछ शंका से कहा|</p>
<p></p>
<p>“देअर इज़ आलवेज़ 24 आवर्स इन अ डे ---विजेता अपने समय और संसाधनो को मैनेज करते हैं और निकम्मे कमियों का रोना रोते हैं ---हेमंत जो तुम्हारा जूनियर है ,बाल भारती में पढ़ाता है,कोचिंग सेंटर चलाता है अपने भाई के सेंटर का एग्जाम इंचार्ज है उससे मेरे पड़ोसी के बच्चे ने घर पर पढ़ने की जिद पकड़ ली ---हेमंत ने समयाभाव के चलते मना कर दिया |स्कूल में हेमंत ने मुझे अपना आदर्श बताया था |जब यह बात पड़ोसी को पता चली तो उन्होंने मुझसे आग्रह किया |मैंने हेमंत से बात की तो उसने मुझसे पाँच दिन का समय लिया |फिर उसने सुबह पाँच बजे पढ़ाने का समय दिया |हेमंत को उस अभिभावक ने 1000 रुपए घंटे दिए और पड़ोसी का बच्चा आज इंजिनियरिंग करके 1000000 के पैकज में गुरुग्राम में नौकरी कर रहा है |यहाँ एक ने रिसोर्स मैनेज किया दूसरे ने समय को ---इसे ही मैनेजमेंट कहते हैं |”</p>
<p>“सॉरी सर !मैं आपकी बात समझ गया |”कहकर मैंने उनके चरण छुए और घर आ गया |</p>
<p></p>
<p>मैंने अगले ही अपना ट्यूशन-बैनर बनवा दिया और गली-मौहल्ले में अपने निर्णय की घोषणा कर दी है |अभी तीन ही दिन बीते हैं और कुछ घरों से ट्यूशन की क्वेरी आने लगी है |यह कहानी लिखते समय में सोच रहा हूँ की अब मैं अगली कहानी कौन सी लिखूँगा और उसके लिए समय कहाँ से आएगा |क्या मेरा ट्यूशन सेंटर चलेगा और क्या मैं लिखने और ट्यूशन में तालमेल स्थापित कर पाऊँगा |सबसे बड़ी बात क्या मेरा यह कदम मेरे परिवार को वो सारी खुशियाँ उपलब्ध करवा पाएगा जिसे मैंने अपने लेखक बनने की जिद्द के कारण हासिए पर रखा है |इनके जवाब समय ही देगा |बरहाल में अपने प्रेरक से प्रभावित हो स्वप्न की दुनिया से निकलकर यथार्थ के धरातल पर पहला कदम रख चुका हूँ |</p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>पराई मछलियाँtag:openbooks.ning.com,2018-06-03:5170231:BlogPost:9325602018-06-03T12:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>कलावती से आज मैं पहली बार अकेले नेहरु पार्क में मिल रहा था |इससे पहले उससे विज्ञान मेले में मिला था |वहीं पर उससे मुलकात हुई थी |उसका माडल मेरे माडल के साथ ही था |वह हमेशा खोई-खोई और उदास लगती थी |मैंने ही उससे बात शुरू की और पत्नी द्वारा बनाया गया टिफ़िन शेयर किया |लाख कोशिशों के बाद वह ज़्यादा नहीं खुली पर बात-बात में पता चला की वह अपने पति से अलग अपने बेटे को लेकर मायके में रहती है |उसकी नौकरी पक्की नहीं है और वह अपने और बेटे के भविष्य को लेकर काफ़ी परेशान है |विज्ञान मेले के आखिरी दिन मैंने…</p>
<p>कलावती से आज मैं पहली बार अकेले नेहरु पार्क में मिल रहा था |इससे पहले उससे विज्ञान मेले में मिला था |वहीं पर उससे मुलकात हुई थी |उसका माडल मेरे माडल के साथ ही था |वह हमेशा खोई-खोई और उदास लगती थी |मैंने ही उससे बात शुरू की और पत्नी द्वारा बनाया गया टिफ़िन शेयर किया |लाख कोशिशों के बाद वह ज़्यादा नहीं खुली पर बात-बात में पता चला की वह अपने पति से अलग अपने बेटे को लेकर मायके में रहती है |उसकी नौकरी पक्की नहीं है और वह अपने और बेटे के भविष्य को लेकर काफ़ी परेशान है |विज्ञान मेले के आखिरी दिन मैंने उसका विश्वास जीत लिया और उसका फ़ोन नंबर प्राप्त कर लिया |उसके बाद हमारी रोज़ थोड़ी-थोड़ी बात होने लगी |मुझे अपनी बगुला होने पर गर्व महसूस हो रहा था |समय और अनुभवों से मैंने सीख लिया था की कौन सी मछली अपने ताल में असंतुष्ट है और दूसरे तालाब में जाने के लिए इस बगुले की पीठ पर आँख बंद करके सवार हो जाएगी |उस रोज़ से मेरे दिमाग में यही योजना थी की इस मछली को कैसे खाया जाए पर आज जब मेरे सामने वह टिफ़िन खोले बैठे है |मैं डरा हुआ हूँ और मुझे यह भ्रम हो रहा है की वह मछली नहीं कोई शार्क है जिसके बड़े जबड़ो में मैं,मेरा अस्तित्व और मेरा परिवार सब फँस जाएगा |तभी मुझे फ़ोन आता है |फ़ोन में कोई खास बात नहीं थी पर मैंने उसे कहा की किसी दोस्त के यहाँ एमरजेंसी है और मैं वहाँ से निकल गया |मैंने उसे एक मैसेज कर दिया है –अगर तुम्हारी भावनाओं को आहत किया हो तो सॉरी |पर मैं अपने परिवार को और धोखा नहीं दे सकता |फिर मैंने इस आखिरी मछली का नम्बर भी ब्लॉक कर दिया |अब एक सुकून था मैं न किसी की जूठन खा रहा हूँ ना किसी की प्लेट पर अनायास ही कब्ज़ा कर रहा हूँ |</p>
<p></p>
<p>10 मई 2018 बच्चों को पंकि्त-बद्ध करके मैं अल्पाहार वाले नियत स्थान पर ले आया |जसविन्द्र कौर जोकि सुरजीत की मम्मी थी कुछ और माताओं के साथ वहाँ बैठी थी |महीने का आखिरी दिन का मतलब दिल्ली के सरकारी स्कूलों का अर्धावकाश | पिछली दो तीन बार से ये माताएँ आखिरी दिन स्कूलों में रुक जाती हैं |</p>
<p>“सर,दो घंटे में ही आना-जाना पड़ेगा |हमें यहीं रहने दीजिए |एकबार ही बच्चों को लेकर लौट जाएँगे |” जसविन्द्र ने कहा तो प्रिंसिपल राजेश ने सहमति में सिर हिला दिया |बस तबसे इस तिकड़ी का यही नियम है | अनिल अपना फ़ोन अटेंड करके जैसे ही अपनी पंक्ति पर लौटा | जसविन्द्र कौर ने आवाज़ देकर पुकारा “सर,एथे आओ |”</p>
<p>“जी |”</p>
<p>“आप वैजिटेरियन हो या नॉन-वैजिटेरियन |”</p>
<p>“वक्त पर जो मिले वो खा लेते हैं |”</p>
<p>“ये तो सब खाता है |” विजयपाल जो वहीं खड़े थे और शायद पहले ही इस गिरोह की चुहुल में फँस चुके थे ने ज़ोर से हँसते हुए कहा |जबकि सुनील वर्मा वहीं पास खड़े हँस रहे थे |</p>
<p>“साफ़-साफ़ बताओं ना !”</p>
<p>“कहा तो जो आप खिला दोगे वो खा लेंगे |”मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा |</p>
<p>“आप बताओ क्या खाना चाहते हो ? वैसे मैं चिकन बड़ा सोणा बनाती हूँ |”</p>
<p>“लगता है तुम्हें अपने मुँह मिठू बनने का चाव है |</p>
<p>“ठीक है मैं एक दिन आपकों बनाकर खिलाती हूँ तब तो आप यकीन करोगे ना !”</p>
<p>“ये तो तभी बता पाऊँगा |”</p>
<p>“आप ये सब खुद बना लेते हो |”</p>
<p>“जी नहीं मैं सिर्फ़ खाने का शौक रखता हूँ |बनाने का दायित्त्व मेरी पत्नी का है |”</p>
<p>“वो फ़िश भी बना लेती हैं |”</p>
<p>“और क्या !अभी तो ये कल ही कह रहा था की इसके घर फ़िश बनी थी |”विजयपाल ने फ़िर कहा |</p>
<p>“अच्छा,ये विजयपाल सर क्या वैजिटेरियन हैं ?”</p>
<p>“किसने कहा !” मैंने शरारती मुस्काराहट से विजयपाल की तरफ़ देखा</p>
<p>“विजयपाल सर !खिलाना नहीं |पर झूठ तो मत बोलों ” जसविन्द्र ने हँसते हुए अपनी बात रखी</p>
<p>“नहीं-नहीं मेरे घर में कोई छूता तक नहीं |यहाँ तक की मैं किरायेदारों को भी नहीं बनाने देता |”</p>
<p>“सर ये तो जुल्म है की अगर आप नहीं खाते तो औरों को भी नहीं खाने दोगे |”</p>
<p>“छि : खाने के लिए क्या यही सब बचा है !”</p>
<p>विजयपाल ने नाक भौ सिकौड़ी तो जसविन्द्र बोली-सर पराई थाली में खाओ या ना खाओ पर कद्र तो करो |”</p>
<p>“हम दोनों ही शाकाहारी हैं |केवल अनिल ही है जो सब खाता है |वैसे भी हमने इसे खुला छोड़ रखा है जहाँ जाए मुँह मारे |इसे जो खिलाना है खिलाओ |”</p>
<p>सुनील वर्मा ने फिर बॉल मेरे पाले में डाल दी |</p>
<p>“मुझे कोई दिक्कत नहीं |अगर कोई प्यार से बनाकर लाए तो खाने में क्या दिक्कत है |वैसे मुझे लएग पीस बहुत पसंद है |” मैंने शरारती नजरों से जसविन्दर की तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“लएग-पीस में क्या है !मैं तो पूरी मुर्गी भून लाऊँ |बस आप खाने से इंकार ना करना |”</p>
<p>सुनील वर्मा ने आँख के ईशारे से मुझे वहाँ से निकल चलने को कहा |और हम सभी स्टाफ रूम में आ गए |</p>
<p>“ये सब शातिर खिलाड़ी हैं इनसे दूर ही रहा कर |” सुनील वर्मा ने समझाते हुए कहा</p>
<p>“मैं थोड़े गया था और ये सब तो आप लोगों का ही शगूफा था |मैंने तो आज तक उससे बात भी नहीं की थी वैसे मुझे आपकी खुला छोड़ने वाली बात बुरी लगी |”मैंने मुँह बनाते हुए कहा</p>
<p>“मेरा वो मतलब नहीं था बस जुबान फिसल गई |बुरा लगा हो तो सॉरी |”सुनील वर्मा ने कहा</p>
<p>“ये सरदारनी कुछ ज़्यादा ही बोल रही है |इससे दूर ही रहना |बहुत चालाक होती हैं ये---“ विजयपाल जी ने मुँह बनाते हुए कहा</p>
<p>“आपही तो गए थे हाल-चाल पूछने |” सुनील वर्मा ने उन्हें छेड़ते हुए कहा</p>
<p>“मैंने तो इतना ही कहा था की यहाँ रुकी हो तो अल्पाहार चख कर जाना तो सरदारनी ने ही मज़ाक छेड़ दिया की सर अगर आप बनाकर लाओगे तो खा लेंगे |”</p>
<p>“फिर---“ </p>
<p>“मैंने पूछा की क्या खाना है तो बोली की उसे नॉन-वैज पसंद है |”</p>
<p>“यानि की तंदूर आपने गर्म किया है |” अनिल ने विजयपाल जी को छेड़ते हुए कहा</p>
<p>“मुर्गी तो सुनील जी की है वैसे भी कोई न कोई बहाना करके रोज़ इनके आगे-पीछे होती है |”</p>
<p>“उसका बच्चा मेरी क्लास में पढ़ता है इसलिए उस पर बहाना है |बहाने से उसने मेरा फ़ोन नम्बर ले लिया और एक दिन व्हाटसएप्प पर एक नॉन-वैज जोक भेज दिया |”</p>
<p>“अगले दिन जब मैंने उसे डाँट लगाई तो कहने लगी की शायद बच्चों ने भेज दिया हो ----हम इन चक्करों में नहीं पड़ते वैसे भी पराई मक्खनी के चक्कर में अपनी रुखी-सूखी से भी लोग हाथ धो बैठते हैं और फिर धोबी का कुत्ता ना घर का ना घाट का |”</p>
<p>“आप तो डरा रहे हो |” मैंने गम्भीर होते हुए कहा</p>
<p>“मैं आगाह कर रहा हूँ |तुम्हें मछली खाने का शौक है वो भी दूसरे की थाली की |पर ये समझ लो सब मछली एक सी नहीं होती |अगर तुम्हें मछलियों की पहचान न हो तो पराई थाली में मुँह ना मारो |वरना कभी-कभी ऐसी मछलियाँ भी थाली में आ जाती हैं जिनके काँटे एकबार गले में फँस जाएँ तो जानलेवा साबित होते हैं |आजकल ये बात आम है |ऐसी औरते आजकल एक गिरोह का हिस्सा हैं |भोले-भाले शरीफ़ लोगों को फँसाना और फिर उन्हें ब्लैकमेल करना ये इनका धंधा है |”विजयपाल जी काफ़ी गम्भीर मुद्रा में थे</p>
<p>“अरे उस पवन सर्राफ़ के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था |एक लड़की उसकी दुकान पर काम करने आई और एक महीने में ही पवन इस पर लट्टू |अगली ने उसे मिलने के लिए अपने घर पर बुलाया और वहाँ पर फ़िल्म बना ली |पहले प्यार के झाँसे में इससे पैसे लेती रही|बाद में जब इसने देने से मना कर दिया तो पुलिस में बलात्कार का मामला दर्ज करा दिया |पुलिस वालों ने भी पवन को ही धमकाया और बेचारे को करोड़ो का वारा न्यारा करना पड़ा |और ये खबर तो अख़बार में भी छपी थी बस पवन का नाम नहीं आया था |”सुनील जी ने जानकारी दी</p>
<p>तब तक प्रिंसिपल राजेश भी आकर बैठ गए |वे ध्यान से सब सुन रहे थे |उन्होंने बताना शुरू किया -तीन दिन पहले की बात है |मेरे पड़ोसी की नरायना में फैक्ट्री है |रात ग्यारह बजे जब वो घर लौट रहे थे तो एक एक लड़की ने उनसे लिफ्ट माँगी |भले मानुष ने उसे लिफ्ट दे दी |थोड़ी देर बाद ही वह उसके कंधों पर और इधर-उधर हाथ रखने लगी |जब उसने डाटा तो वह गाड़ी के बॉक्स में हाथ डालने लगी |उसने एक लाख की कलेक्शन वहीं लिफ़ाफे में डाल रखी थी |पर लड़की को शायद पता नही लगा |वो फ़िर से वही हरकते करने लगी तो इसने गाड़ी रोक दी |लड़की ने कहा की अगर उसने उसे गाड़ी से उतारने की कोशिश की तो पीछे ऑटो में उसके साथी आ रहे हैं |वो चिल्ला देगी तब उसके साथी उसे पीटेंगे भी और पुलिस में भी ले जाएँगे |बेचारा गाड़ी चलाता रहा और आजू-बाजू पि.सी.आर तलाशता रहा |लड़की ने कहा की उसे पैसों की जरूरत है |वो उसे दस हज़ार रुपए दे दे और बदले में खुद को संतुष्ट कर ले |इसने इंकार कर दिया और कहा की उसके पास पैसे नहीं है |जब लड़की को उसकी बातों पर विश्वास हो गया तो बोली की अगर वो उसे घर जाने के लिए 500 रुपए दे देगी तो वह मामले को यहीं रफ़ा-दफ़ा कर देगी |इसने सोचा की 500 रुपए में जान बचती है तो इससे भला क्या ! इसने कार की सीट के नीचे से पैसे निकाले तो लड़की को और पैसे नजर आए |वो बोली की तुमने मेरा वक्त बर्बाद किया है इसलिए 2000 दो |जब इसने दो से हज़ार दिए तो अगली कहने लगी की उसके साथ चार लोग और हैं |कम से कम चार हज़ार चाहिए |बेचारा मरता क्या ना करता किसी तरह गला बचाया |-</p>
<p>इसलिए पराई मछलियों को खाने की तो छोड़ो उनकी महक से भी दूर रहो |</p>
<p>“क्या उन्होंने रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई ?ऐसे तो यह गिरोह रोज़ किसी को शिकार बनाएगा |”अनिल ने पूछा</p>
<p>“उसका कहना है की उसे रोज़ उसी रस्ते से आना-जाना है |पुलिस अगर उन्हें पकड़ भी लें तो कुछ ले देकर वो सब बाहर आ जाएँगे और कल बदले की भावना से और बुरा भी कर सकते हैं |”</p>
<p>हूँ |इसका मतलब मुझे लैग-पीस और फ़िश का करार रद्द कर देना चाहिए |” मैंने विचार करते हुए कहा</p>
<p>“तुम अगर कहानी वाले धूर्त बगुले बन सकते हो तो जरुर खाओ |पर हर शुरुआत का एक अंत है |वैसे भी ये बाबा लोग भी तो वही करते हैं |मछलियाँ मजबूरियों में इन तक आती है और ये कहते हैं की तेरा तालाब जल्दी सूख जाएगा और सब नष्ट हो जाएगा और इन्हें सब्जबाग दिखाते हैं और इस बहाने वे ढेरों मछलियों का शिकार करते हैं पर अंत में कोई केकड़ा उनकी भी गर्दन काट देता है |”</p>
<p>“कहना क्या चाहते हो आप |” मैंने फ़िर पूछा</p>
<p>“बक्करवाला के स्कूल टीचर के साथ यही तो हुआ था |नौकरी के साथ प्रोपर्टी का धंधा था |देखने में सुंदर था और हंसमुख |बातों-बातों में औरतों को पटा लेता |एक बार एक बच्चे की माँ इसके झाँसे में आ गई और प्रेग्नेट हो गयी |उसका पति फौजी था |जब वह छुट्टी पर आया तो उसे शक हुआ और उसने एक दिन दोनों को इसके एक फ़्लैट पर पकड़ लिया और वहीं मार दिया |”</p>
<p>“पर ऐसा हर बार तो नहीं होता |”मैंने तर्क किया |</p>
<p>मेरे दिमाग में सीमा यानि केशव की माँ का चेहरा घूमा |अनपढ़ थी उसे मैंने दस्तखत सिखाए थे |दस्तखत सिखाने के लिए जब मैंने उसका हाथ पकड़ा था तो उसका चेहरा लाल पड़ गया था |बाद में वो सहज मछली सी मेरी मोहब्बत के जाल में फँस गई वो अलग बात ही की चंद रसभरी बातों के अलावा उसने मुझे आगे बढ़ने नहीं दिया और टपटपाती जीभ को और ललचा कर अपने बहुत से काम सीधे किए |------कुछ समय पहले जब मैंने उसे मार्किट में देखा तो उसका बदला रंग-ढंग देखकर मैं आँखे फाड़कर देखता रह गया |जींस टॉप और कटे हुए बाल |उसने मुझे देखकर अनदेखा कर दिया था और मैं समझ गया की यह मछली अब मेरी प्लेट में समा नहीं सकती |</p>
<p>“क्या सोच रहे हो ?” प्रिंसिपल सर ने ध्यानाकर्षित किया</p>
<p>“कुछ नहीं |”</p>
<p>तब सुनील वर्मा बोल पड़े -असंतोष जब हावी हो जाए और आप-गलत सही में फ़र्क न कर सको |तो अक्सर इसी तरह का परिणाम निकलता है |कई बार काँटे में मछली नहीं शार्क भी फँस जाती है और तब वह शिकार नहीं शिकारी हो जाती है |मेरे पिछले स्कूल में मीना नाम की टीचर थी |पति से अलग रह रही थी |वो भी दूसरे|पहला वाला पारा पीकर मर गया और मीना पर उसका मुक्द्म्मा भी चल रहा था |वो लंबे कद और भूरे गेहूं रंग की भरे-पूरे जिस्म की स्वामिनी थी | |कमर तक बाल और बड़ी-बड़ी मछरी सी गढ़ी आँखे |कुछ-कुछ रेखा जैसी |बात करने का लहज़ा ऐसा की कोई भी उस पर लट्टू हो जाए |अच्छे-अच्छे आदमी उसके हाव-भाव से पिंजरे के तोते हो जाएँ | आई तो यहाँ सजा के ग्राउंड पर थी पर पहले दिन से ही उसने जाल डालना शुरू कर दिया |कभी वह अंडे की भुजिया लाती |कभी ब्रेड-कटलेट तो कभी आलू पराठा और जिस मेल टीचर को अकेला पाती उसी के पास टिफ़िन लेकर पहुँच जाती |वो पर्स में हमेशा महँगी चॉकलेट रखती और किसी का भी मूड अपसेट देखती तो उसे चॉकलेट देती और दो चार मज़ाक कर लेती |हमारा एक रसिक तबियत का साथी सचिन झा उसके झाँसे में आ गया |और दोनों की एकांत बैठक होने लगी | झा ने उसके आग्रह पर अपनी पहचान पर एक जाननेवाले के यहाँ कमरा किराए पर दिला दिया |मीना ने उसे एक रोज़ कमरे पर बुलाया और किवाड़ बंद कर दिया |बेचारा जैसे-तैसे जान छुड़ाकर भागा |शाम को जब वो अपने घर गया तो वह उसकी पत्नी के पास बैठी बतिया रही थी |बेचारा साँसे टाँगे रहा और वो हँसती रही |अगले दिन आते ही मेरे साथी ने तबादले की अर्जी डाल दी |कुछ समय बाद उसका पुरुष साथियों से झगड़ा हो गया तो उसने छेड़छाड़ का आरोप लगाकर विभाग में अर्जी दे दी |सभी छह लोगों के साथ उसका तबादला हो गया |पुरुष साथी बस इतने से बच गए क्योंकि उसके खिलाफ़ पुराने स्कूल प्रिंसिपल से झगड़ने और पहले पति की हत्या रचने का मामला भी चल रहा था | उसका तबादला बेगमपुर कर दिया गया था |सुनने में आया की अपनी इन्वेस्टीगेशन के दौरान उसने किसी पुलिसवाले को भी अपने जाल में फँसा लिया था |</p>
<p>“सर,आपको मम्मी बुला रही हैं |”सुरजीत जोकि बिना पूछे अंदर आ गया मेरे पास आकर बोला और सभी लोग मुझे देखकर मुस्कुराने लगे |मैं झेंपते हुए बाहर आया |</p>
<p>“अपणा नंबर दऽसो |” उसने बड़े अधिकारभाव से कहा</p>
<p>“मुझे याद नहीं |” “तो मेरे नम्बर ले लो और घंटी दे दो |”</p>
<p>“मेरे फ़ोन का बैलंस खत्म हो गया है |” मैंने जान छुड़ाने की गरज से कहा |</p>
<p>उसने सुरजीत की कॉपी का एक पन्ना फाड़ा और उस पर अपना नम्बर लिखकर मुस्कुराते हुए दिया और चली गयी |</p>
<p>“ये औरत बहुत चालू है |” सुनील जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा |</p>
<p>उस शाम विद्यालय में चले विमर्श और आसपास होती ऐसी घटनाओं को सोच-सोचकर मेरा सिर फटा जा रहा था |पत्नी को जब सिरदर्द का पता लगा तो वह सिर मालिश करने लगी |बाद में उसकी छाती से लगकर और उसके तन का स्पर्श पाकर मुझे अजीब सी शांति मिली |---रात को भोजन के वक्त पत्नी ने तड़के वाली दाल और फुलका परोसा तो पड़ोस में भुनी जाती मछलियों की तीव्र गंध मन को विचलित करने लगी |सुबह का डिस्कशन फ़िर दिमाग में उठने लगा |मैंने उठकर खिड़की बंद की और मज़े से दाल-फुल्का खाने लगा | सुबह जब मैं उठा तो तरोताज़ा और ऊर्जा से भरा था |मैंने उठते ही उस दिन सारे नंबर ब्लॉक कर दिए सिवाए एक के |और उसे लिखा आज नेहरु पार्क में मिलते हैं |</p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>आ नहीं पाऊँगाtag:openbooks.ning.com,2018-05-28:5170231:BlogPost:9317782018-05-28T12:11:32.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>आ नहीं पाऊँगा फ़ोन काटकर राजबीर कुर्सी पर बैठ गया |हालाँकि समय ऐसा नहीं था की वो बैठे |घर में ढेरों काम बाकी थे और वक्त बहुत कम |मामा जी अभी-अभी कानपुर से आए हैं |ताऊ दो घंटे में पहुँच जाएँगे |मौसी कल ही दीपक के साथ आ चुकी हैं |सभी लोगों के नाश्ते का प्रबंध करना है और हलवाई का अता-पता नहीं है |</p>
<p>रिश्तेदारों के लिए शहर नया है और पड़ोसियों से कोई उम्मीद बेकार |कुल मिलाकर अमित ही था जो उसकी मदद कर सकता था पर अब !</p>
<p></p>
<p>“फ़िक्र ना कर मैं और तेरी भाभी एक रोज़ पहले पहुँच जाएँगे और तेरी…</p>
<p>आ नहीं पाऊँगा फ़ोन काटकर राजबीर कुर्सी पर बैठ गया |हालाँकि समय ऐसा नहीं था की वो बैठे |घर में ढेरों काम बाकी थे और वक्त बहुत कम |मामा जी अभी-अभी कानपुर से आए हैं |ताऊ दो घंटे में पहुँच जाएँगे |मौसी कल ही दीपक के साथ आ चुकी हैं |सभी लोगों के नाश्ते का प्रबंध करना है और हलवाई का अता-पता नहीं है |</p>
<p>रिश्तेदारों के लिए शहर नया है और पड़ोसियों से कोई उम्मीद बेकार |कुल मिलाकर अमित ही था जो उसकी मदद कर सकता था पर अब !</p>
<p></p>
<p>“फ़िक्र ना कर मैं और तेरी भाभी एक रोज़ पहले पहुँच जाएँगे और तेरी टेंशन आधी |” एक हफ़्ते पहले जब राजबीर ने गाजियाबाद में रह रहे अमित को फोन किया तो उसके यही शब्द थे |</p>
<p>दो साल पहले तक अमित उसका पड़ोसी था | जब अमित पाँच साल का था तभी उसके फौजी पिता ड्यूटी पर आंतकवादियों से मुकाबला करते हुए शहीद हो गए थे |माँ ने पेंशन और ट्यूशन से अमित को पाला था |दो साल पहले ही गीता कालोनी का घर बेचकर उन्होंने गाजियाबाद घर बनाया था |</p>
<p>वह और राजबीर बचपन से साथ पढ़े और खेले थे और उनकी दोस्ती दाँत-कांटे की दोस्ती थी |राजबीर थोड़ा दब्बू था जबकि अमित दबंग |क्लास में किसी से राजबीर का पंगा हो जाए तो अमित तुरंत उसके बचाव में कूद पड़ता |जब राजबीर की पतंग किसी पड़ोसी की छत पर अटक जाती तो अमित छत फांदता हुआ उसकी पतंग ले आता |राजबीर की पतंग वापस दिलाने के चक्कर में उसने सिर भी फोड़ा और गालियाँ भी खाईं |दसवी की बोर्ड परीक्षा में अमित ही के कारण वह गणित में पास हो सका अन्यथा उसने तो हथियार डाल दिए थे |ग्यारहवी क्लास में राजबीर को आर्ट मिली और कुशार्ग अमित कॉमर्स में दाखिल हुआ |राजबीर की दिल्ली जल बोर्ड में चपरासी की नौकरी लग गई और अमित गाजियाबाद नगर निगम में अकाउंटेंट लग गया था |गाजियाबाद से रोज़ दिल्ली का सफ़र करने में दिक्कत आने लगी तो अमित अपनी माँ के साथ वहीं शिफ्ट हो गया |</p>
<p>जिस दिन अमित शिफ्ट हो रहा था राजबीर बहुत उदास था |</p>
<p>“यार,तेरे बिना जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाएगी |” राजबीर ने पनीली आँखों से कहा</p>
<p>“साले,गाजियाबाद जा रहा हूँ अमेरिका नहीं ,दो घंटे का सफ़र है ,जब दिल चाहेगा मिल लेंगे |” अमित ने उसे गले लगाते हुए कहा हुआ भी वही |</p>
<p></p>
<p>दोनों कुआरें थे इसलिए कोई बंधन नहीं था |इसलिए दोनों दोस्त सप्ताहांत में अवश्य मिलते |साथ में घूमते,बीयर पीते और खुबसुरत लड़कियों को देखकर अपने-अपने ख्याली पुलाव पकाते और एक दूसरे को चिढ़ाते | चूँकि अमित एकलौती संतान था |इसलिए मायरा का रिश्ता आते ही माँ ने हाँ कर दी |</p>
<p>“चाची,आप मेरी सौतन ला रही हो |”राजबीर ने मज़ाक में पूछा |</p>
<p>“मैं तो तेरी एक और दोस्त ला रही हूँ |वैसे मायरा की एक बहन और है कह तो तेरी भी बात चलाऊँ |”माँ ने उसे छेड़ते हुए कहा |</p>
<p>“ना चाची ना ! मुझे नहीं पड़ना इस झंझट में ---“</p>
<p>“तू तो बड़ा मतलबी है बे ! दोस्त बलि का बकरा बन जाए और आप हैं की कहते हैं की हम तो आज़ाद परिंदे रहेंगे |”</p>
<p>“तू तो जानता है की अभी पिंकी का रिश्ता करना है |” राजवीर ने गम्भीर होकर कहा तो अमित ने उसके कंधों पर अपना हाथ रख दिया |</p>
<p></p>
<p>अमित की शादी के बाद दोनों का मिलना कम हो गया और अब मिलने की जगह अमित का घर हो गई | पहली बार मायरा भाभी के हाथों के लज़ीज़ व्यंजनों को खाते हुए जब राजबीर ने तारीफ़ की तो अमित बनावटी नाराजगी में बोला</p>
<p>“वाह !भाई तू तो बिन पेंदी का लोटा निकला,भाभी के आते ही पाला बदल लिया ---“</p>
<p>“आखिर समझदार जो हैं वैसे भी आप तो कुछ बना कर खिलाने से रहे ---“ मायरा ने जवाब दिया</p>
<p>“मेरे लिए तो दोनों ही बराबर हो –“ राजबीर ने सधा सा जवाब दिया</p>
<p>“समझ गया मियाँ,दोनों हाथ से लड्डू खाना चाहते हो ---मायरा वो पीहू ही थी ना जिसके साथ इनके सबसे ज़्यादा फोटों ---“सुनकर राजबीर का चहेरा ख़ुशी और शर्म के मिश्रित भाव से लाल हो गया |</p>
<p>समय के साथ दोनों की व्यस्तता कुछ और बढ़ी |बामुश्किल महीने में अक्सर एक बार मिल पाते और फ़ोन पर ही हालचाल हो जाता |</p>
<p>“साले !जब से भाभी आ गईं,तेरे पास मेरे लिए वक्त ही नहीं |” फ़ोन पर बीयर के नशे में धुत राजबीर बोला</p>
<p>“जब तेरी शादी होगी,तब समझेगा |”</p>
<p>“जब समझूँगा,तब समझूँगा पर अभी का क्या !” राजवीर नशे की झोंक में बोला</p>
<p>“तुमने ही राजबीर को सिर चढ़ा रखा है,रात के एक बज रहे हैं ----“ मायरा की चिढ़ती हुई आवाज़ राजबीर के कानों में पड़ी और फ़ोन कट गया “पिंकी को लड़के वाले देखने आ रहे है |तू भी आ जाता तो बड़ी हिम्मत रहती |” राजबीर ने</p>
<p>अमित से कहा</p>
<p>“पिंकी,मेरी भी बहन है,पर कल मायरा को गाईना को दिखाना है,डेट नजदीक आ रही है |”</p>
<p>“कोई नहीं भाई ये तो ख़ुशी की बात है |मैं कब बन जाऊँगा चाचा ?”</p>
<p>“शायद अगले हफ़्ते |” फिर राजबीर ने कुछ और सलाह-मशिवरा किया और फ़ोन रख दिया |</p>
<p></p>
<p>लड़के वालों को पिंकी पसन्द आ गई |शादी की तारीख एक महीने के भीतर की निकलवाई गई |लड़का फ़ौजी था |छुट्टी में आया था |वो इसी छुट्टी में शादी करना चाहता था वरना एक साल और इंतज़ार करना होगा |जो लड़के को गवारा नहीं था |राजबीर परेशान था उसने अमित को फ़ोन किया | अमित आ तो नहीं पाया पर उसने पास के एक सरकारी बैंक का पता दिया जहाँ उसका जानकार काम करता था | राजबीर को आसानी से कर्ज मिल गया और टेंट,हलवाई,शादी-स्थल भी अमित ने फ़ोन पर ही फिक्स कर दिए |</p>
<p>राजबीर को वो दिन याद आया जब शिफ्ट होते वक्त वह बहुत उदास था और अमित ने कहा था –वक्त के चलते हम दूर जरुर हो रहे हैं पर इंसान चाहे तो दिलों से हमेशा नजदीक और जुड़ा रह सकता है |</p>
<p>काफ़ी काम निपट गया था परन्तु शादी का घर ऐसा घर होता है जो बेटी के बिदा होने तक कामों से भरा होता है |दो महीने हो चुके थे दोनों दोस्तों को मिले हुए पर दोनों ही समय के आगे विवश | इसी बीच मायरा ने बिटिया को जन्म दिया |राजबीर भतीजी को देखने जाना चाहता था पर नौकरी और शादी की तैयारी से उसे फुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी |</p>
<p>“तू मायरा की चिंता मत कर |वह समझदार है |तेरी भतीजी भी ठीक है |फोटों मेल करी है देख कर बताना किस पर गई है |और कोई दिक्कत हो तो बेझिझक फ़ोन करियो |” अमित ने कहा</p>
<p>“तू कब आएगा ?”</p>
<p>“बोला तो,दो दिन की छुट्टी अप्लाई कर रखी है |माँ,मायरा ,तेरी भतीजी सब आएँगे |” अभी दफ्तर में बहुत काम है बाद में बात करते हैं |</p>
<p>आज वह अमित के आने का इंतजार कर रहा था और अचानक से यह खबर |उसे लगा उसके पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है |</p>
<p>“क्या हुआ बेटा?तबियत तो ठीक है ?ताऊजी को फ़ोन किया और अमित कहाँ रह गया |”</p>
<p>“माँ मुझे गाजियाबाद जाना है अभी |” राजबीर ने धीमे स्वर में कहा</p>
<p>“अभी | इस वक्त !”</p>
<p>तब तक मौसीजी एवं मामा भी वहीं आ गए थे |</p>
<p>“अमित और भाभी का कल रात एक्सीडेंट हो गया था और आज सुबह भाभी ---“कहते –कहते उसका गला अवरुद्ध हो गया | माँ भी वहीं आवाक खड़ी हो गईं |फिर खुद को संयत करते हुए बोली –पर घर में इतने सारे काम ----|</p>
<p>राजबीर सिर झुकाए बैठा रहा |</p>
<p>“बेटा जब घर में शुभ काम हों तो किसी के अशुभ में शामिल नहीं होते |” मौसी ने उसका माथा सहलाते हुए कहा</p>
<p>“क्या यह शुभ-अशुभ हमारे हाथों में होता है ?” राजबीर ने रोते हुए कहा |</p>
<p>“हमारे हाथों में तो नहीं होता पर यही रिवाज है |” मामा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा</p>
<p>“तो यह रिवाज सबके लिए एक जैसा क्यों नहीं होता ?”</p>
<p>“तू उस गाजियाबाद में रहने वाले छोकरे के लिए इतना परेशान हो रहा है |”</p>
<p>“मामा वो सिर्फ मेरा दोस्त नहीं,बचपन का साथी है,मैं आपको नहीं समझा सकता |” राजबीर ने अवरुद्ध गले से ही कहा |</p>
<p>“देहात में तो जिसका शादी-ब्याह होता है वो सवा महीने तक किसी गमी में शामिल नहीं होता |यहाँ तक की लोग घरों में आने वाले तेरहवी के कार्ड तक को तुरंत फाड़ देते हैं और तू अपना काम छोड़कर वहाँ जाना चाहता है |” मौसी ने फिर कहा</p>
<p>“ये सब अंधविश्वास हैं मैं इन्हें नहीं मानता –“ अब राजवीर को दुःख से ज्यादा गुस्सा आ रहा था |</p>
<p>“नहीं मानता तो जा |पर जब कल ऊँच-नीच होगी तो पूछेंगे |” मामा ने नाराज़ होते हुए कहा</p>
<p>“मामा जब गुड़िया दीदी के ब्याह के एक दिन पहले बड़े मामाजी हार्ट-अटैक से चल बसे थे तो आप ने शुभ-अशुभ का विचार नहीं किया |आप ने ना बड़ी मामी को बताया और ना दीदी को ---|कितनी चालाकी से आपने उनकी लाश अस्पताल के मुर्दाघर में रख छोड़ी और गुड़िया दीदी का विवाह भी किया |”</p>
<p>“मेरे पास रास्ता ही क्या था ?मुझे जो सही लगा किया |अगर शादी टाल देते तो अगले एक साल तक विवाह नहीं कर पाते |लोग तरह-तरह की बाते करते और क्या पता फिर कोई आफ़त आ जाती |” मामा ने आहत होते हुए कहा</p>
<p>“बेटा जब सिर पर आफ़त आती है तो उसका सामना करना ही होता है पर जान बुझकर अपने गले में साँप डालना तो मुर्खता ही है |”मामी ने कहा |</p>
<p>“राजबीर भाई,हलवाई आ गया है पूछ रहा है भट्टी कहाँ लगानी है ?” मौसरे भाई सचिन ने कहा तो राजबीर चुपचाप उसके साथ बाहर आ गया | “भईया हलवाई का सारा सामान आ चुका है,आप मुझे और मोनू को बाकि काम बता दीजिए और चुपचाप चले जाइए |---कोई समस्या होगी आप फ़ोन उठा लेना हम बाकि सब मैनेज कर लेंगे |वैसे भी शादी तो कल है |” सचिन ने आत्मविश्वास से कहा</p>
<p>“मुझको आते-आते शाम हो जाएगी और फ़ोन हमेशा उठा पाना मुश्किल होगा |”</p>
<p>“कोई बात नहीं हम दोनों देख लेंगे |पर आप जाओ |अमित भाई को आप की जरूरत होगी |”</p>
<p>पिछले तीन दिनों से बंद व्हाट्सएप्प उसने ऑन किया |अमित के प्रोफाइल पर मायरा की और उसकी बेटी की फ़ोटो लगी थी |एक संदेश भी था -जानता हूँ तू यहाँ आने के लिए बेचैन होगा पर मेरे ख्याल से यह मुनासिब वक्त नहीं है | अगर घर में शुभ काम हो तो किसी की गमी में शामिल नहीं होते |यूँ तो मेरा भी दिल कर रहा है कोई ऐसा कंधा मिले जिस पर मैं सर रखकर रो सकूँ |पर तू अगर यहाँ आएगा तो वहाँ के बहुत से काम अटक जाएँगे |रायना के घर वाले तो यहीं के थे इसलिए सब पहुँच गए हैं और मैं तेरा इंतजार नहीं करना चाहता |यूँ तो पिंकी मेरी बहन है और मैं हमेशा कामना करूंगा की उसका जीवन सुखमय हो |पर अगर आज तू आया और कल कोई ऊँच-नीच हुई तो लोग मेरे गम को उस घटना से जोड़ेंगे और मुझे यह सच में बुरा लगेगा |और दोनों मन ही मन एक अफ़सोस लेकर रह जाएँगे |इसलिए आग्रह है की तुम मत आना -------और मेरी विवशता तो तुम ---|</p>
<p></p>
<p>राजबीर बुझे मन से आने वाले उत्सव की तैयारी में लग जाता है | </p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>दिव्य-कृति(कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-05-25:5170231:BlogPost:9313992018-05-25T11:10:17.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>“सर,इस सेम की बेल को खंबे पर लिपटने में मुश्किल आएगी |” मैंने सुरेंदर जी की तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“हाँ,मैं सोच रहा था की सामने वाली इमली में कील ठोककर बेल को उधर मोड़ दिया जाए |”</p>
<p>“ पेड़ में कील ! क्या यह पेड़ के लिए जानलेवा नहीं होगा |” मैंने कुछ परेशान होकर पूछा</p>
<p>“लोग पेड़ों में पूरा का पूरा मन्दिर बना देते हैं और तुम कहते हो की कील से पेड़ को नुकसान होगा |” उन्होंने मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए कहा</p>
<p>“सर ,मैंने पेड़ों से मार्ग की बात तो सुनी है पर क्या हमारे देश में कोई ऐसा पेड़…</p>
<p>“सर,इस सेम की बेल को खंबे पर लिपटने में मुश्किल आएगी |” मैंने सुरेंदर जी की तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“हाँ,मैं सोच रहा था की सामने वाली इमली में कील ठोककर बेल को उधर मोड़ दिया जाए |”</p>
<p>“ पेड़ में कील ! क्या यह पेड़ के लिए जानलेवा नहीं होगा |” मैंने कुछ परेशान होकर पूछा</p>
<p>“लोग पेड़ों में पूरा का पूरा मन्दिर बना देते हैं और तुम कहते हो की कील से पेड़ को नुकसान होगा |” उन्होंने मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए कहा</p>
<p>“सर ,मैंने पेड़ों से मार्ग की बात तो सुनी है पर क्या हमारे देश में कोई ऐसा पेड़ भी है जिसमें मन्दिर हो !”</p>
<p>“देखों,मैं इस कथन की सत्यता की पुष्टि नहीं करता पर कानपुर स्कूल में मेरा दंतिया जिले का एक साथी था भानु और उसने अपने जिले में एक ऐसा मन्दिर होने की बात कही थी |ये कहानी जिस मन्दिर के बारे में है उस जगह की दतिया का रोम भी कहा जाता है |”</p>
<p>मैं विस्मय से उनकी बात सुन रहा था |</p>
<p>“अच्छा ,तुमनें दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर के नीम पेड़ से बीयर निकलने वाली खबर तो सुनी होगी |”</p>
<p>“हाँ,दाँवों के मुताबिक उस पेड़ से 3 महीनें तक प्रतिदिन 10 लीटर तक बियर जैसा द्रव निकलता रहा जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे |” मैंने गूगल करके कहा</p>
<p>“क्या तुम्हारें हिसाब से यह कुदरती घटना है या मानवीय ?”</p>
<p>“पेड़ों की छाल कटने-फटने पर ऐसे द्रवों का निकलना तो कुदरती है |इस क्रिया से पेड़ अपने घाव भरते हैं |पर इतनी अधिक मात्रा में द्रव का निकलना असाधारण है |”</p>
<p>“और अगर किसी पेड़ पर साक्षात शिवाकृति उभर जाए और पेड़ के भीतर से त्रिशूल निकले तो ?”</p>
<p>“मैं तो इसे अलौकिक घटना कहूँगा |” मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा</p>
<p>वो मुझे इशारे से अपने साथ चलने को कहते हैं और स्कूल-परिसर के गूलर के पेड़ का तना दिखाते हैं |</p>
<p>“कुछ दिखा ?”</p>
<p>“हाँ,तने पर कई कीले हैं जो की तीन साल पहले स्कूल में काम करने आए मजदूर गाड़ गए थे |”</p>
<p>“एक और चीज़ है जिधर तुम्हारा ध्यान नहीं गया |समय के साथ यह कीलें पेड़ के कुछ और भीतर चली गयीं हैं |”<br/> “क्या इस इशारे में कहानी का रहस्य है ?” मैंने परेशान होकर पूछा</p>
<p>“अच्छा पेड़ों की उम्र कैसे निकालते हैं ?” बिना मेरा जवाब दिए उन्होंने अगला सवाल दाग दिया</p>
<p>“तने के छल्लों को गिन कर |”</p>
<p>“बिल्कुल सही |पेड़ जैसे-जैसे बढ़ते हैं उनका तना मोटा होता जाता है और समय के साथ उनकी पुरानी छाल हट जाती है और नई मोटी छाल आती जाती है |”</p>
<p>“सर ! आप कहानी सुना रहे हैं या मुझें पेड़ों के विकास का विज्ञान पढ़ा रहे हैं |” मैंने उबते हुए कहा |</p>
<p></p>
<p>वो ज़ोर से हँसे और बोले –अविष्कार की बुनियादी आवश्कता है की ज्ञान को सही व अभिनव तरीके से इस्तेमाल किया जाए |बढ़ई लीलाधर शर्मा ने भी ऐसा ही किया और मज़ाक-मज़ाक में उसने एक भव्य शिव-मन्दिर की नीव रख दी |लीलाधर शर्मा एक नम्बर का गंजेड़ी और निठल्ला था |गाँव में लोगों की टोका-टाकी से बचने के लिए वो पशु चराने के बहाने पास के जंगल में निकल जाता और पूरा दिन वहीं गाँजा पीता रहता |एक शाम को वह गाँव के मन्दिर के चबूतरे पर बैठा गांजा पी रहा था |तभी मन्दिर के पुरोहित वहाँ आ गए |उन्होंने लीलाधर को डाँटा |</p>
<p>“काहे भोले बाबा भी तो गांजा-भाँग पियत हैं |”</p>
<p>“तू बढ़ई क जात ,भगवान के मामले में कुतर्क करता है |”</p>
<p>“बाबाजी,जब शंकर जी के नाम पर भांग घोटते हो और पूरे गाँव में प्रसादी कहकर पिलाते हो तब –“</p>
<p>“भागता है की नहीं |ये गाँव का मन्दिर है तुम्हारे दादा की बपौती नहीं ” तमतमाए महेश पंडित ने लाठी दिखाते हुए कहा</p>
<p>लीलाधर भाग आया |वह नशे में जरुर था पर मान-अपमान का उसे पूरा बोध था |एक बार तो उसका जी आया की पंडित महेश को पकड़ कर पटखनी दे |पर वह इसके परिणाम से परिचित था |पंडित महेश चौबे का परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से इस ग्राम मन्दिर के अविवादित पुरोहित थे |आसपास के गाँवों में भी उनकी अच्छी धाक थी |लोग उनकी बातों पर आँख मूंदकर कर भरोसा करते थे |उनके एक इशारे पर लीलाधर और उनके परिवार को गाँव से बाहर किया जा सकता था |उन्हें बल से नहीं बुद्धि से पराजित करना होगा |कई दिनों तक वह पंडित महेश से बदला लेने की योजना पर विचार करता रहा पर उसे कोई उपाय न सूझा |एक दिन वो अपने दुआरे नींम के पेड़ के तले बैठा था तभी उसका ध्यान नीम में गड़ी कील पर गया |उसी दिन उसने एक छोटा सा लोहे का त्रिशूल गढ़ा और अगली सुबह जंगल में पहुँच गया |उसने जंगल में मध्यम आकर का गोल तने वाला एक पीपल वृक्ष चुना और बड़ी कुशलता से उसमें चीरा लगाकर त्रिशूल उसमें डाल दिया |फिर उसने उसी पीपल के एक पतली टहनी काटी और कुशलता से उसमें टहनी छीलकर चीरे वाली जगह भर दिया|लगभग एक महीने में वह टहनी चीरे में भली प्रकार चिपक गई |उसके बाद उसने त्रिशूल की ठीक नीचे वाली जगह पर आकर शिवाकृति गढ़ने लगा |इस काम में उसे छह माह लग गए |समय के साथ-साथ चीरा पूरी तरह समा गया और शिवाकृति भी ऐसे उभरने लगी मानों वह अपने आप पेड़ में बनी हो |उसने अगले दो वर्षों का इंतजार किया और फिर एक सुबह उठकर ग्राम मंदिर पहुँचा |उस समय महेश चौबे सुबह की आरती करा रहे थे |कुछ और ग्रामीण भी वहाँ उपस्थित थे |</p>
<p>आरती समाप्त होते ही वह शिव प्रतिमा के सामने लोट पड़ा –“अलौकिक,दिव्य,प्रभु सुबह-सुबह आप सपना में आए पर जो रूप आप दिखाए वो इहाँ तो नहीं है |”</p>
<p>“कैसा बड़बड़ा रहा है लीलाधर ?” वहाँ खड़े एक ग्रामीण ने पूछा</p>
<p>“का बताएँ चचा ,आज भोर में सपना देखें,भोले बाबा सपना में कह रहे थे की मैं पास वाले जंगल के एक पीपल में वास किए हूँ |तू मेरी चर्चा चारों और फैला जो मेरा दर्शन करेगा उसका सब दुःख ,संताप मिटेगा |”</p>
<p>“साsला सुबह-सुबह भांग खाया है |शंकर जी को क्या कौनों और काम नहीं है जो तुझ गंजेड़ी-भंगेड़ी के सपने में आएँगे |”महेश चौबे ने उसकी बात काटते हुए कहा</p>
<p>“महाराज !आपहि तो कहते हैं की सुबह का सपना अधिकतर सच्चा हो जाता है |”लीलाधर अपना पक्ष रखते हुए बोला |</p>
<p>“धत,साsला,भंगेड़ी,लोगन को और काम भी हैं |सब तेरी तरह निकम्मा नहीं है |” महेश चौबे ने उसे उलहाना दी</p>
<p>“हम त जा रहे हैं,जिसे भोले बाबा पर विश्वास नहीं वो मत आए |बाद में कौनों विपत्ति संकट आए तो हमें दोष मत देना |” कहता हुआ लीलाधर चल पड़ा |</p>
<p>“ए रुकों हम भी आते हैं |” एक ग्रामीण बोला</p>
<p>“का पता वो सच कह रहा हो |चलकर देखने में का हर्ज़ा है |” दूसरा ग्रामीण बोला</p>
<p>पंडित महेश और एकाध और लोगों को छोड़ सभी लोग उसके पीछे हो लिए</p>
<p> </p>
<p>तीन-चार घंटे की मशक्कत के बाद लीलाधर ग्रामीनों को उस पेड़ के पास ले आया |</p>
<p>“देखने में तो भोलेनाथ ही लग रहे हैं,नाग भी है,जटा से गंगा भी निकलती लग रही हैं पर त्रिशूल तो नहीं है |” एक वयोवृद्ध ने चित्राकृति का मुआयना किया |</p>
<p>“सपना में जो त्रिशूल दिखा था वह पेड़ के भीतर दिख रहा था |”</p>
<p>“पेड़ के भीतर काहे ----भोले बाबा को किसका डर |” एक ग्रामीण बोला</p>
<p>“जानते नहीं हो का की भोलेबाबा कितने भोले और दयालु हैं |किसी दुष्ट के हाथ वह त्रिशूल लग जाए तो आफत आ सकती है जैसे भस्मासुर के समय में हुआ था |शायद इसीलिए त्रिशूल भीतर छुपा कर रखें हो |” दूसरा ग्रामीण बोला</p>
<p>लीलाधर ने आँख बंद करने का नाटक किया और फिर कहा-इस जगह चीरा लगाओ |नियत स्थान पर चीर लगाने पर त्रिशूल की नोक नजर आने लगी |</p>
<p>“इससे ज़्यादा काटने पर पेड़ को नुकसान होगा और भोले बाबा नाराज हो जाएँगे |“ लीलाधर ने कहा तो आगे पेड़ से छेड़छाड़ नहीं की गयी |</p>
<p>उधर बात आग की तरह आसपास के गाँवों-कस्बों में फ़ैल गई और लोग भोलेनाथ के दर्शन को आने लगे |महेश चौबे ने जैसे ही सुना दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे |</p>
<p>“चमत्कार-चमत्कार !यहाँ तो भगवान शिव का मन्दिर बनना चाहिए |” उन्होंने सुझाव दिया</p>
<p>ग्रामीणों ने एकमत से उनका समर्थन किया |</p>
<p>पंडित महेश पूजा की तैयारी करने लगे तो वहाँ खड़े किसी ग्रामीण ने जोर से कहा-भोलानाथ लीलाधर के सपने में आए रहे यानि की लीलाधर को दिव्य-दृष्टि और भोलेबाबा का आशीर्वाद है इसलिए पूजा कराने का हक भी उन्हें ही मिलना चाहिए |</p>
<p>पंडित महेश मन मसोस कर रह गए |</p>
<p>“ऐसे दिव्य स्थान पर नियमपूर्वक पूजा होनी चाहिए अन्यथा अनिष्ट हो सकता है और लीलाधर को पूजा-पद्धति का क्या ज्ञान !” पंडित महेश ने अगला दाँव फैंका <br/> “आपहि त कहते हैं की पूजा के लिए भावना होनी चाहिए,वेद ज्ञान तो बाद में आता है |” फिर भीड़ में से कोई बोला</p>
<p>“हम ग्राम पुरोहित हैं पीढ़ियों से हमारा परिवार भगवान भोले की सेवा में समर्पित रहा इसलिए हमें यहाँ पूजा का हक मिलना चाहिए |” महेश ने इस बार याचनापूर्वक कहा |</p>
<p>“इसीलिए तो कह रहे हैं की आप ग्राम का मन्दिर सम्भालिए और यहाँ पूजा-पाठ की फ़िक्र लीलाधर पर छोड़ दीजिए |”</p>
<p>लाख कोशिशों के बावजूद पंडित महेश की एक न चली और उन्हें ग्राम-मन्दिर की पुरोहिती से संतोष करना पड़ा|समय के साथ मन्दिर के दर्शनार्थी बढ़ते गए और उसके साथ ही बढ़ई लीलाधर शर्मा,पंडित लीलाधर शर्मा हो गए और उनकी दिव्यदृष्टि का लाभ लेने बड़े-बड़े लोग आने लगे और उनके मान-सम्मान में बेतहाशा वृद्धि हुई |समय के साथ मन्दिर बड़ा होता गया ,वहाँ भक्तों के लिए सुविधाएँ बढाई गईं और वह जगह पहले कस्बा और फिर एक उपनगर हो गया |लम्बे समय तक लीलाधर मन्दिर और नगर के अविवादित चेयरमैन रहे |</p>
<p>साठ की उम्र के आसपास लीलाधर को एक भयानक लाईलाज बीमारी ने घेरा हुए तो उन्हें अपराधबोध हुआ |जब उन्हें अपनी मृत्यु समीप नजर आई तो उन्होंने अपने कुछ बेहद परिचितों को बुलाया और उनसे क्षमा माँगते हुए अपनी दिव्य कृति का सच बताया |</p>
<p>पर मन्दिर कमेटी के अन्य सदस्य लोगों की आस्था और विश्वास को ध्वस्त नहीं करना चाहते थे |इसलिए यह राज़ राज़ ही बना रहा और आज भी लोग पूरी आस्था से दतिया के भोलेनाथ के उस मन्दिर जाते हैं और अपने दुःखों का निवारण प्राप्त करते हैं |</p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>कैंसर इन लवtag:openbooks.ning.com,2018-05-04:5170231:BlogPost:9280392018-05-04T05:30:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>पन्द्रह दिन पूर्व</p>
<p></p>
<p>निधि का फोन था |मैंने फोन उठाकर कहा की अभी कुछ व्यस्त हूँ |बाद में बात करते हैं |</p>
<p>“दो मिनट में मैं घर पहुँच जाऊँगी |” उसने कुछ बुझी आवाज़ में कहा</p>
<p>“सब ठीक-ठाक है ?” मैंने चिंता जताते हुए कहा |</p>
<p>“बहुत से भूचाल हैं |”</p>
<p>“ससुराल में फिर कुछ हुआ ?”</p>
<p>“वो तो लगा ही रहना है |मुझे लगता है मैं इन लोगों के साथ तालमेल नहीं बिठा सकती |पर कुछ और बताना है पिंकी के बारे में --” निधि का गला भर्राया हुआ था</p>
<p>“क्या हुआ !”</p>
<p>“मुझे लगता है…</p>
<p>पन्द्रह दिन पूर्व</p>
<p></p>
<p>निधि का फोन था |मैंने फोन उठाकर कहा की अभी कुछ व्यस्त हूँ |बाद में बात करते हैं |</p>
<p>“दो मिनट में मैं घर पहुँच जाऊँगी |” उसने कुछ बुझी आवाज़ में कहा</p>
<p>“सब ठीक-ठाक है ?” मैंने चिंता जताते हुए कहा |</p>
<p>“बहुत से भूचाल हैं |”</p>
<p>“ससुराल में फिर कुछ हुआ ?”</p>
<p>“वो तो लगा ही रहना है |मुझे लगता है मैं इन लोगों के साथ तालमेल नहीं बिठा सकती |पर कुछ और बताना है पिंकी के बारे में --” निधि का गला भर्राया हुआ था</p>
<p>“क्या हुआ !”</p>
<p>“मुझे लगता है की पिंकी की रिपोर्ट पोज़टिव आएगी ---‘</p>
<p>“ये तो सब भगवान की लीला है |” मैंने गम्भीर मुद्रा में जवाब दिया</p>
<p>“शायद यह रवि की बद्दुआ है |”</p>
<p>“रवि की बद्दुआ !”</p>
<p>हाँ ,रवि बार-बार पिंकी से कहता की उसे खूब सारी दवाई खानी होती है -- पिंकी ने भी कहा की दवाई तो वो भी खाती है | तब रवि ने झल्ला कह कहा था कि कभी अगर हमारी दवाईयाँ बदल जाएँगी तो तुझे समझ आए की कैंसर की तकलीफ़ क्या होती है |”</p>
<p>“क्या तुम मुझे नई कहानी का शीर्षक दे रही हो ?” मैंने कुछ सोचते हुए पूछा</p>
<p>“नहीं मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ की कुछ लोगों के लिए प्रेम कैंसर की होता है |जैसे की यहाँ प्रेम ही कैंसर की वजह हो बैठा | “</p>
<p>“अच्छा !क्या कीsस करने से कैंसर हो सकता है |” कुछ देर सोचकर निधि ने पूछा</p>
<p>“क्या बेवकूफी भरा सवाल है !कभी ऐसा सुना है |”</p>
<p>“पिंकी ने डेढ़ साल पहले पूछा था ----जब रवि का कैंसर उभरा था |” निधि ने जवाब दिया</p>
<p>“ -----अच्छा घर आने वाला है |फ़ोन रखती हूँ |”</p>
<p>निधि ने फ़ोन रख दिया और मुझे इस उलझन में छोड़ गई की मैं पिंकी की कथा लिखूँ या नहीं |</p>
<p>पिंकी यानि मेरी दोस्त निधि की कॉलेज-फ्रेंड |पिंकी से कभी मेरी मुलाकात नहीं हुई | और बात !</p>
<p>“क्या मुझसे दोस्ती करोगी ?” एक दिन निधि से पिंकी का नम्बर लेकर मैंने उसे एस.एम.एस किया था</p>
<p>“तुम कौन----और मेरा नम्बर किसने दिया तुम्हें ?”</p>
<p>“नम्बर देने वाले से क्या मतलब ?तुम्हें दोस्ती करनी है या नहीं ?” मैंने अगला संदेश भेजा</p>
<p>एक मिनट बाद ही मेरे फ़ोन की घंटी बज उठी |</p>
<p>“सुनो ,आप जो कोई हो---मुझे परेशान मत करो,मैं पहले से एक रिलेशन में हूँ और दोबारा मुझें संदेश मत भेजना |”</p>
<p>और उसने बिना मेरी बात सुने फ़ोन रख दिया |यह पिंकी से मेरा पहला और आखिरी संवाद था |उसके बाद पिंकी के बारे में जितना कुछ जाना वो सिर्फ़ निधि के माध्यम से ही जाना |</p>
<p></p>
<p>तीन महीने पहले निधि ने बताया था की डाक्टर ने पिंकी को बायोस्पी की सलाह दी है |</p>
<p>“बेचारी बहुत डरी है !उसने नेट पर भी सर्च किया है |लक्षण मिलते हैं |पलक तक के बाल झड़ रहे हैं |अक्ल-ढाड भी कुछ थेड़ा हो गया है | बचपन में उसके पाँव में चोट लगी थी अब उस पैर में घाव बन गया है और डाक्टर ने एन्केल शू पहनने को कहा है -----“एक साँस में बोलती चली गई थी निधि</p>
<p>“हम कर ही क्या सकते हैं प्रार्थना के सिवाय !-----जितनी चाभी भरी राम ने ---“मैंने निधि को समझाने की गरज से कहा</p>
<p>“तुम सही कहते हो |पहले मैं समझती थी की मैं सबसे बदनसीब लड़की हूँ |पर अब,जब आसपास देखती हूँ तो अपने को बहुत सुखी अनुभव करती हूँ |-----बेचारी पिंकी !उसका तो सारा जीवन दर्द और अधूरेपन में गुजर गया |वो ना तो अपना प्यार हासिल कर सकी,ना शादी का जोड़ा पहन सकी और ना कोई और खुशी ही उसे नसीब हुई |”</p>
<p>“रवि को भी तो कैंसर है ?कौन सा कैंसर है ?”मैंने याद दिलाने के लहजे से पूछा था</p>
<p>“उसने लीवर कैंसर बताया था ---पर कई बार मुझे शक होता है |शायद पिंकी से पीछा छुड़ाने के लिए उसने ऐसा कहा हो ---वो पिंकी को पसंद ही नहीं करता |ये तो ये पागल ही है जो उसके लिए घुलती रहती है |”</p>
<p>“डेढ़ साल से ऊपर हो गया |बंदा कोई अच्छा इलाज भी नहीं करा रहा |उसकी आर्थिक हालत भी इतनी अच्छी नहीं है |इसलिए शक तो लाजिमी है |” मैंने अपनी बात जोड़ी</p>
<p>“मुझे तो वो मतलबी और झक्की लगा |----जब उसका मन होगा बात कर लेगा नहीं तो फोन बंद कर देगा-----पिंकी को बोल भी चुका है की मेरा पीछा छोड़ दे |बस अपनी परेशानियों का रोना रोता है |इसलिए पिंकी कभी उससे अपनी परेशानी शेयर नहीं करती |यहाँ तक की अगर वो किसी से बात करे और इसका फ़ोन नहीं उठाए तो चिढ़ जाता है |”</p>
<p>“इसमें चिढ़ने की बात क्या है ?”</p>
<p>“उसे लगता है की पिंकी उसकी चुगली करती है |उसे पिंकी का मुझसे बात करना भी पसंद नहीं है |एक बार पिंकी मुझसे बात कर रही थी तो पूछने लगा किससे बात कर रही थी |-----जब पिंकी ने कहा तो की निधि से तो बोला चुगली कर रही थी मेरी |पिंकी ने गलती से कह दिया की परेशान थी |उससे परेशानी बाँट रही थी |कई दिनों तक उसका सिर खाता रहा की वो उसे पराया समझती है ----विश्वास नहीं करती वैगरह-वैगरह |” </p>
<p>“कौन सी परेशानी थी उसे ?”मैंने पूछा</p>
<p>“पिंकी का छोटा भाई घर से भाग गया है | उसे नशे और जुए की लत है |पिंकी के घर पर कुछ लोग धमकी देकर गए हैं| वो जुए में एक लाख हार गया है और वे लोग घरवालों से पैसे लेने आए थे |”</p>
<p>“पर इसमें रवि कर भी क्या सकता है ?”</p>
<p>“कम से कम सुनकर उसके मन का बोझ तो हल्का कर ही सकता है |----मुझे लगता है वो पिंकी को चीट कर रहा है |”</p>
<p>“ऐसा क्यों ?”</p>
<p>“वो दो नम्बरों से व्हाट्सएप्प चला रहा है |उसने पिंकी से दूसरा नम्बर छुपा रखा है | पर एक दिन गलती से उससे पिंकी को संदेश भेज दिया |बाद में कहने लगा की उसके दोस्त का नम्बर है |पर जब हमने उसका नम्बर सेव किया तो डी.पी. पर उसकी फोटों निकली ----पर पिंकी फिर भी उसके लिए पागल है |”</p>
<p>“हो सकता है उसे अपने लिए स्पेस चाहिए हो-----जैसा की तुमने बताया पिंकी उसके लिए पागल है –इसलिए उसने ऐसा किया हो |”</p>
<p>“इसके लिए दूसरा नम्बर लेने और छिपाने की क्या जरूरत है |”</p>
<p>“मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ |व्यस्तता एक मजबूरी होती है पर प्यार करने वाले अपने व्यस्ततम क्षणों से भी समय निकल लेते हैं और जहाँ कुछ छिपाया जाए वहाँ तो फ़रेब ही नजर आता है |”</p>
<p>“वो बेचारी इससे शादी करना चाहती थी |पर इसने बहन की शादी का हवाला देकर बात टाल दी ---कहता है की जब नौकरी तक पक्की नहीं तो शादी कर के क्या होगा |उसका पापा भी बीमार रहता है |ऐसा उसने पिंकी को बताया था |पर फिर भी मैं उस पर यकीन नहीं कर पा रही ”</p>
<p>“क्यों ?”</p>
<p>“पिंकी ने एकबार मुझसे बिना पूछे मेरी फ़ोटो उसे भेजी थी |----तब शायद इन दोनों में वैसा लगाव नहीं था |इसने कहा की निधि तो पक्की नौकरी में है वो कच्चे आदमी से शादी क्यों करेगी ----उस समय वो शादी के लिए मरा जा रहा था |”</p>
<p>“क्या पिंकी और उसकी जाति समान है ?”</p>
<p>“मेरे ख्याल से –क्योंकि पिंकी और मेरी जाति भी एक है |”</p>
<p>“मुझे तो ये सारा मामला अर्थतन्त्र का लगता है |रवि अंधे प्रेम में यकीन नहीं करता |अगर उसे कैंसर न हुआ |अगर वो जीता रहा तो वो ऐसी लड़की से शादी करेगा जो उसकी आर्थिक समस्याओं को कम कर सके |”</p>
<p>“शायद यही बात हो ---सबसे बड़ा रुपैया |” निधि ने सहमति जताई</p>
<p> </p>
<p>“राहुल ने भी तो इसी वजह से पिंकी को छोड़ा था |है की नहीं ?”</p>
<p>“राहुल का मामला अलग था |वो केयरिंग था और इसे सच्चा प्यार करता था |उसने कभी इसे अँधेरे में नहीं रखा |वो जब तक इसकी जिंदगी में रहा कभी इसे रोने नहीं दिया |पिंकी के जन्मदिन पर उसने उसे बड़ा से टैडी गिफ्ट किया था जो आज भी पिंकी के दुःख-सुख का साथी है | ”</p>
<p>“पर वो भी तो पिंकी को छोड़ गया |”</p>
<p>“उसने पहले ही पिंकी को बता दिया था की वो उससे दोस्ती निभाएगा,प्यार निभाएगा पर शादी नहीं कर सकेगा |वो उसे कॉलेज लाता ले जाता ,फिल्म दिखाता,गिफ्ट देता और फोन पर लम्बी बातें करता |”</p>
<p>“तुमने ही तो बताया था की वो दोनों कई बार राहुल के दोस्त के फ़्लैट में अकेले मिले थे !”</p>
<p>“तो क्या भावनात्मक सम्बन्धों में शरीर का मेल पाप है |तुम ही तो कहते हो की प्रेम राधा-कृष्ण से परिभाषित होता है |मुझे तो लगता है की उनका प्रेम कुछ ऐसा ही था |राहुल कृष्ण की तरह पिंकी के जीवन में रहा और प्रेम की अनुभूति करा के अपनी दुनिया में खो गया |”</p>
<p>“राहुल सिंगापुर गया था ?” मैंने कुछ याद करते हुए पूछा</p>
<p>“गायब होने से पहले उसने पिंकी को ऐसा ही बताया था |पर तीन महीने बाद उसने पिंकी से मिलने के लिए सम्पर्क किया |मिलने पर उसने पिंकी को बताया की उसकी शादी हो गयी है |पर वह उसे मिस कर रहा था |ये उनकी आखिरी मुलाकात थी|”</p>
<p>“तुम भी तो मिली थी उससे ?”</p>
<p>“पिंकी जब पहली बार उससे मिलने गयी थी तो मुझे भी साथ ले गई थी |वो मूलतः नेपाली पंडित था |बहुत सुंदर और बड़ी सज्जनता से बात करता था -----राहुल ने ही पिंकी को अप्रोच किया था |”</p>
<p>“क्या वो भी तुम्हारे कॉलेज़ में था ?”</p>
<p>“नहीं हमारा कॉलेज ‘सत्यवती महिला कॉलेज’ था |”</p>
<p>“पिंकी को उसका एक पड़ोसी रजत उसके स्कूल के दिनों से ही पसंद करता था |आते-जाते इसके चक्कर लगाया करता था |”</p>
<p>“फिर –“</p>
<p>“उसने पिंकी से दोस्ती की और फिर प्यार का प्रपोज़ल |”</p>
<p>“फिर उनका ब्रेकअप क्यों हुआ ?”</p>
<p>“क्योंकि उसे पिंकी का प्यार नहीं,कुछ और चाहिए था |”</p>
<p>“यह तो सभी प्रेमियों की जरूरत है |शरीर तो मानवीय प्रेम का एक अनिवार्य तत्व है |हम बिना देखे तो किसी को प्यार नहीं करते |प्रेम की शुरुआत शरीर,उसके सौन्दर्य से ही होती है ,भावनाएँ तो उसके बाद पनपती हैं |”</p>
<p>“लेकिन बिना भावनाओं के शरीर का समर्पण तो प्रेम नहीं हो सकता |यह तो केवल भूख मिटाने जैसा हुआ |” निधि ने तर्क किया</p>
<p>“तुम्हारी बात भी सही है पर मुझे यह गलत लगता है की राहुल तुमकों कृष्ण लगता है और रजत/रवि में तुमकों रावण दिखते हैं ?ये तो पक्षपात है |”</p>
<p>“तुम लड़के हो इसलिए यह बात नहीं समझोगे |-------अधिकतर लड़के लड़की से केवल उसके शरीर के लिए प्रेम का स्वांग रचते हैं |पर जो उनकी भावनाओं को समझता है वो लड़कियों के कृष्ण हो जाते हैं |”निधि ने समझाने की गरज से कहा |</p>
<p>“अच्छा,अब मुझे काम भी निपटाने हैं,ये बहस तो चलती रहेगी |”कहते हुए मैंने फोन रख दिया</p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong><u>आज का दिन</u></strong></p>
<p>मैंने लंच का टिफ़िन खोला ही था की निधि का फ़ोन आ जाता है |</p>
<p>“सुनों,पिंकी की रिपोर्ट पोज़टिव आई है |उसे ब्लड कैंसर है !” मुझे निधि की आवाज़ में उदासी महसूस हो रही थी</p>
<p>“बहुत दुःख की बात है |” मैंने उसे सांत्वना देते हुए कहा</p>
<p>“पिंकी और रवि एक दिन के लिए आगरा गए थे |वहाँ उन्होंने नाईट स्टे किया |वैसे रवि पिछले डेढ़ साल से यही चाहता था |” निधि ने गहरी साँस लेते हुए कहा |</p>
<p>“क्या पिंकी ने रवि को यह बात बताई |”</p>
<p>“हाँ,और यह जानकर वह बहुत रोया |”</p>
<p>“बेचारे,दोनों !”</p>
<p>“रवि को कैंसर नहीं है |”</p>
<p>“क्या !”</p>
<p>“उसकी एक किडनी खराब है |उसने यह बात आगरा में पिंकी को बताई |”</p>
<p>“कमबख्त ये इश्क,ये कैंसर और यह बद्दुआ |” मेरे मुँह से इतना भर निकला |</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
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<p> </p>जाति-पाति पूछे हर कोईtag:openbooks.ning.com,2018-04-29:5170231:BlogPost:9271482018-04-29T11:56:28.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p> <strong>जाति-पाती पूछे हर कोई</strong></p>
<p></p>
<p>“हो गईल चन्दवा क शादी |” पत्नी मोबाईल कान से लगाए मेरी तरफ देखते हुए बोली</p>
<p>मैं दफ्तर से लौटा तो समझ गया की पत्नी जी अपनी माता से फ़ोन पर लगी पड़ी हैं |मैंने बिना कोई रूचि दिखाए अपना बैग रखा और हाथ-मुँह धोने चला गया |</p>
<p>थोड़ी देर बाद पत्नी चाय लेकर आई और सामने बैठ गयी |मैं समझ गया कि वो मुझे कुछ बताने के लिए बेताब है और यह भी कि यह चंदा के विषय में है पर सिद्ध-पुरुष की तरह मैं प्लेट से कचरी उठाकर खाने लगा और अपने व्हाट्सएप्प को…</p>
<p> <strong>जाति-पाती पूछे हर कोई</strong></p>
<p></p>
<p>“हो गईल चन्दवा क शादी |” पत्नी मोबाईल कान से लगाए मेरी तरफ देखते हुए बोली</p>
<p>मैं दफ्तर से लौटा तो समझ गया की पत्नी जी अपनी माता से फ़ोन पर लगी पड़ी हैं |मैंने बिना कोई रूचि दिखाए अपना बैग रखा और हाथ-मुँह धोने चला गया |</p>
<p>थोड़ी देर बाद पत्नी चाय लेकर आई और सामने बैठ गयी |मैं समझ गया कि वो मुझे कुछ बताने के लिए बेताब है और यह भी कि यह चंदा के विषय में है पर सिद्ध-पुरुष की तरह मैं प्लेट से कचरी उठाकर खाने लगा और अपने व्हाट्सएप्प को चैक करने लगा |</p>
<p>“जानते हो चंदा की शादी हो गई |” पत्नी ने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“हूँ s |” मैंने बिना उसकी तरफ देखते हुए कहा</p>
<p>“अच्छा है,कलह कटी,बेचारे दुबेजी उस रोज़ से किसी से आँख नहीं मिला पा रहे थे |” पत्नी ने आगे बात बढ़ाते हुए कहा |</p>
<p>“दो दिन में लड़का भी मिल गया ?” मैंने पत्नी की तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“हाँ,कोई दोहाजू है,उसकी पन्द्रह साल की एक लड़की है,खेती-बारी ठीक-ठाक है और क्या चाहिए !”</p>
<p>“पर चंदा तो केवल बाईस साल की है और यह आदमी कम से कम चालीस का होगा----यह तो बहुत बड़ी सजा है !” मैंने तर्क करते हुए कहा</p>
<p>“वो जो कांड करी है उसके आगे तो यह सजा कुछ भी नहीं गई होती उस अहीर के घर और जब गाय-भैंस का साना –पानी करना पड़ता और गोबर फैंकना होता तो अक्ल खुलती उसकी |”</p>
<p>“क्यों गाय-भैंस खिलाना और गोबर फैंकना बुरा काम है |”</p>
<p>“बुरा तो नहीं है पर जिसे हथेलियों पर रखा गया हो उसे जब ये सब करना पड़ता है तो आँख खुलती है ---एक थी ना हमारे यहाँ मिश्राजी की बेटी वो भी पड़ोसी-गाँव के पासी के साथ भाग गई थी अब जाती है दूसरे के खेतों पर घास करने -----|”</p>
<p>“ठीक है उसने गलती की |पर उसके माँ-बाप को तो समझना चाहिए था |क्या ऐसे कहीं भी लड़की ब्याह देने से उनकी इज्जत लौट आएगी |”</p>
<p>“उसे भी तो यह बात समझनी चाहिए थी अगर उसे कोई और पसंद था तो घर वालों को बताना चाहिए था |</p>
<p>शादी के ठीक दिन भाग कर उसने गाँव और अपने माँ-बाप की जो थू-थू कराई है |वो तो शुक्र है की उसकी बुआ की लड़की शादी के लिए मान गयी वरना-----”</p>
<p>“तुम ही तो बता रही थी कि चंदा जिस के साथ भागी वो लड़का अहीर था और उसके पिताजी की जीप चलता था |हो सकता है उसने बताया हो पर घरवाले ना माने हों ---“ मैंने अपना तर्क रखते हुए कहा</p>
<p>“छह महीने से तो कोई और जीप चला रहा है---शायद ये चक्कर पुराना हो----पर जो भी हो उसे प्यार करने के लिए अहीर ही मिला था ---वो भी दो बच्चों का बाप |उसके चाचा तो बहुत खफ़ा थे साफ़ बोल दिए थे की इसे वापिस लाए तो वो घर से मतलब खत्म कर लेंगे वो तो पुलिस के दबाब में इसे वापिस लाना पड़ा | ”</p>
<p>“पहले तो तुम लोग कह रहे थे की अहीर नहीं कोई और है |वो तो घर पर ही था न !” मैंने उत्सुकता जताई</p>
<p>“बड़ा शातिर था अहिरा !सुबह गाँव में रहता था और शाम को बनारस चंदा के पास चला जाता था |पुलिस ने दोनों के नम्बर सर्विलांस पर लगाए थे उसी से पकड़ में आया |”</p>
<p>“तुम तो कह रही थी की पुलिस वाले दोनों की शादी करवाने वाले थे |मैं कहता था न की शादी तो करवा ही नहीं सकते,गैरक़ानूनी होती |”</p>
<p>“मुझे क्या मालूम वो तो अम्मा कह रहीं थीं |”</p>
<p> </p>
<p>“अच्छा किया की घरवालों ने उसे वापिस रख लिया वरना ऐसी लड़कियों की बहुत फ़जीहत होती है पर फिर भी जल्दबाजी में शादी इसे मैं गलत मानता हूँ |”<br/> “जिस लड़की के हल्दी चढ़ी हो और सारे नाते-रिश्तेदार इकट्ठे हों वो घर से भाग जाए वो सही है |वैसे वो लड़की बहुत सीधी है |गाँव में किसी से आँख ऊँची करके भी बात नहीं करती थी |पता नहीं वो अहिरा कौन सी भांग पिलाया या कोई जादू-टोना किया की बेचारी उसके झाँसे में आ गई |”</p>
<p>“ये दिल का मामला ऐसा ही होता है और इसके लिए किसी जाति विशेष पर लांछन मेरे विचार में गलत है |”</p>
<p>“ |तुम नहीं समझोंगे |पहले ये अहीर-गौड़ बड़े आदमियों के सामने बैठते तक नहीं थे पर कुछ लड़कियों की नासमझी के कारण आज वे मुँह पर गाली देकर चले जाते हैं |”</p>
<p>“क्या तुम्हारे गाँव में किस बडजात ने किसी निचली औरत के साथ कभी गलत काम नहीं किया ?”</p>
<p>“गलत काम वालों का मुझें पता नहीं हैं | ? पर जो लोग नीच लड़कियों से शादी करें हैं ऐसे लोगों से गाँव-समाज उठना-बैठना बंद कर लेता है |</p>
<p>“पर इस जाति-पात में क्या रखा है ?मेरे विचार से तो यह केवल एक राजनैतिक एवं समाजिक हथकंडा है जिसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों पर नियंत्रण करना मात्र है |ऐसा क्यों हैं की तथाकथित निचली जातियाँ प्राय गरीब हैं |”</p>
<p>“वो सब मुझे नहीं पता |मैं इतना जानती हूँ की समाज में हर चीज़ का अपना महत्त्व है |जाति का भी अपना महत्त्व है |अगर सब लोग बराबर हो जाएँगे तो समाजिक-संतुलन खत्म हो जाएगा |-----अभी देख लो ,गाँव के जितने नीच जाति के लड़के हैं वो अब हम लोगों का कोई काम करने को तैयार नहीं हैं ---पिताजी के जमाने में इन लोगों के बाप एक आवाज़ पर दौड़े आते थे और घंटो घुटनों पर बैठे रहते थे |आज तो रुपया-पैसा देने पर भी कोई जल्दी नहीं मिलता |”</p>
<p>“ऐसा इसलिए की तुम्हारे पिताजी तब एक रहीस होते थे और आज तुम्हारे गाँव के पासी-चमार भी इतने पैसे वाले हैं की उनके घर तुम्हारे घर से ज्यादा बड़े हैं और उनके पास बड़ी गाड़ियाँ हैं |”</p>
<p>“पैसा आने से जाति थोड़े बदल जाती है |यह जाति-पात,ऊँच-नीच तो भगवान के घर से तय होता है |जिसे राजपूत होना होता है वो राजपूत के घर पैदा होता है और जिसे अहीर वो अहीर के घर |”</p>
<p>पत्नी की बात से मैं चिढ़ने लगा था इसलिए मैंने कुछ नाराजगी से कहा</p>
<p>“मेरे विचार में तुम्हारा पढ़ना-लिखना व्यर्थ है |और तुम्हारी जैसी सोच के कारण ही समाज में जाति और ऊँच-नीच बने रहेंगे |”</p>
<p>“अपनी यह मास्टरी अपने तक रखों ---इतने ही क्रन्तिकारी थे तो क्यों नहीं कर ली उस तेलिन से शादी |” पत्नी ने तंज़ मारते हुए कहा |</p>
<p>पत्नी ने मेरे जख्मों पर नमक डालना शुरू कर दिया |अब मुझे महसूस हुआ की बहस और बढ़ाने से मेरी भावनाओं का ही छीछालेदर होगा |मैं जाति-पात की इस बहस से बचना चाहता हूँ |मैंने जब उस लड़की से मोहब्बत की थी तो उसकी आँखों और मीठी बातों पर मोहित हुआ था |हमनें एक-दूसरे को केवल नाम वो भी प्यार के नाम से बुलाया था |उपनाम अथवा जातिगत संज्ञाए उस समय समझ आई जब वह जीवनसाथी बनने की राह में सबसे बड़ी दीवार के रूप में दिखाई दी |और वह ऐसी दीवार साबित हुई जिसे हम दोनों में से किसी ने नहीं लाँघा |मैं अंधे प्रेम की हिमायत नहीं करता पर जाति-धर्म के कारण अपने अधूरेपन पे बिलखते साथियों को देखकर निराश हो जाता हूँ |</p>
<p>कई साथी कहते हैं की नगरीकरण एवं शिक्षा से जाति प्रथा दुर्बल हुई है पर मुझे लगता है की केवल प्रारूप बदला है |जिस वर्ग के पास संसाधन ज्यादा है उसकी जाति सशक्त है |आज आईएस,इंजिनीयर,डाक्टर,शिक्षक नई जाति के रूप में उभर रहे हैं |उसी तरह जैसे कभी लोहार,बढ़ई,तेली आदि उपजे थे |अंत में यही समझ आता है की जाति शाश्वत है जैसे की प्रेम |प्रेम को हर बार जाति के बन्धनों से निकल कर जीतना होगा |क्योंकि- ‘जाति-पाती पूछे हर कोई |’</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>रातरानी और भौरा(कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-03-29:5170231:BlogPost:9221832018-03-29T18:30:34.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p></p>
<p> “ रात महके तेरे तस्सवुर में</p>
<p> दीद हो जाए तो फिर सहर महके “</p>
<p>“अमित अब बंद भी करो !बोर नहीं होते |कितनी बार सुनोगे वही गजल |” सुनिधि ने चिढ़ते हुए कहा</p>
<p>प्रतिक्रिया में अमित ने ईयरफोन लगाया और आँखें बंद कर लीं |</p>
<p>कुछ देर बाद सुनिधि ने करवट बदली और अपना हाथ अमित की छाती पर रख दिया |पर अमित अपने ही अहसासों में खोया रहा और उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी |</p>
<p>“ऐसा लगता है तुम मुझे प्यार नहीं करते |” सुनिधि ने हाथ हटाते हुए कहा पर अमित अभी भी अपने ख्यालों में खोया…</p>
<p></p>
<p> “ रात महके तेरे तस्सवुर में</p>
<p> दीद हो जाए तो फिर सहर महके “</p>
<p>“अमित अब बंद भी करो !बोर नहीं होते |कितनी बार सुनोगे वही गजल |” सुनिधि ने चिढ़ते हुए कहा</p>
<p>प्रतिक्रिया में अमित ने ईयरफोन लगाया और आँखें बंद कर लीं |</p>
<p>कुछ देर बाद सुनिधि ने करवट बदली और अपना हाथ अमित की छाती पर रख दिया |पर अमित अपने ही अहसासों में खोया रहा और उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी |</p>
<p>“ऐसा लगता है तुम मुझे प्यार नहीं करते |” सुनिधि ने हाथ हटाते हुए कहा पर अमित अभी भी अपने ख्यालों में खोया रहा |प्ले लिस्ट अपने आप रिस्फ्ल हुई तो –</p>
<p>“आओगे जब तुम ओ साजना</p>
<p>अँगना फूल खिलेंगे ----“</p>
<p>सुनिधि ने कुछ देर बाद फिर एक ईयरफोन अपने कान में लगाया और झुंझला के लीड खींची और उसे नाराजगी से देखने लगी |</p>
<p>“तुम्हारी प्रोब्लम क्या है ?” अमित ने गुस्से से कहा</p>
<p>“वही तो मैं जानना चाहती हूँ कि तुम्हारी प्रोब्लम क्या है |”सुनिधि ने भी उसी टोन में जवाब दिया</p>
<p>“क्या अपनी पसंद के गाने सुनना गुनाह है ?”</p>
<p>“नहीं !बिलकुल नहीं ! पर अपना बाग होते हुए दूसरे बगीचे की खुशबू पाने की कोशिश गुनाह है |”</p>
<p>“मैंने ऐसा क्या कर दिया ?”</p>
<p>“अपनी बीबी के रहते दूसरी औरतों को ताड़ना और उनके बारे में सोचना -----उनके परफ्यूम की शिनाख्त करना ---मुझें लगता है की तुम बीमार हो |किसी डाक्टर से क्यों नहीं मिलते ----“</p>
<p>“तुम सारी की सारी औरतें बस -----अनपढ़ हो या पढ़ी लिखी -----शहरी हो या देहाती----आदमी किसी दूसरी औरत को देख ले या थोड़ी बात कर ले तो बस तुम्हें एक ही मतलब नजर आता है |बीमार मैं नहीं बल्कि तुम और वे सारी औरते हैं जो तुम्हारी तरह सोचती हैं |वस्तुतः तुम सब एक ही बीमारी से पीड़ित हो |”</p>
<p>“कौन सी बीमारी ?”</p>
<p>“शक !”</p>
<p>“सही कह रहे हो और इसका भी रिजन है |”</p>
<p>“क्या रीजन है ?”</p>
<p>“तुम लोग औरत देखते नहीं हो कि पूंछ हिलाना,लार टपकाना शुरू ---“</p>
<p>“बिहैव योर सेल्फ |”</p>
<p>“यू बिहैव योर सेल्फ |”</p>
<p>झुंझला कर अमित फोन बिस्तर पर पटकता है और बालकनी में आकर सिगरेट पीने लगता है |एक सिगरेट—दो सिगरेट—तीन सिगरेट |तंबाकू की गंध उसके फेफड़ों में समा जाती है और सुगंध ग्रन्थियों में चिपकी परफ्यूम की खुशबू कुछ फींकी हो जाती है |वो वापस कमरे में लौटता है |सुनिधि आँख लाल और गाल गीले किए हुए लेटी थी |</p>
<p>“ओ माई फ्लावर !” अमित पीछे से जाकर उसे दबोच लेता है पर निधि पूरी ताकत से उसे दूसरी तरफ धकेल देती है |</p>
<p>“यह तो भँवरे की इन्सल्ट है |”अमित ने फिर उसकी छाती पर हाथ रखते हुए कहा</p>
<p>“तो चले जाओ उस फूल के पास जो तुम्हारी कद्र करे |”सुनिधि ने इस बार फिर हाथ हटाने की कोशिश की पर प्रतिरोध हल्का था</p>
<p>“जानेमन ! मेरा तो फूल भी तुम,गुलदस्ता भी तुम और बगीचा भी तुम |” इस बार अमित ने उसे जोर से खींचते हुए अपनी करवट कर लिया</p>
<p>“छि ! तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही है |क्यों पीते हो सिगरेट |” सुनिधि ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा |</p>
<p>“ताकि तुम्हारी खुशबू का शुरुर कम हो जाए |क्यों लगती हो ये परफ्यूम !” अमित ने अपने होंट सुनिधि के होंठ पर रखते हुए कहा</p>
<p>“ताकि तुम मेरी खुशबू में खो जाओ और मैं तुम्हारी----“</p>
<p>“और कुछ |”</p>
<p>“ और हमारे आँगन में एक फूल खिल सके |”</p>
<p>“अच्छा तो ये बात है |”कहते हुए अमित उसे अपने और करीब खींच लेता है |जो बाग कुछ समय पहले तूफानी हवाओं से अस्त-व्यस्त होने को था |बसंत की मद्धम हवाओं के स्पर्श से तरंगित हो उठा था |</p>
<p>थोड़ी देर बाद सुनिधि सो जाती है पर अमित एक बार फिर उस गंध की और बरबस आकर्षित होता है |वि|चारों का गुलदस्ता फिर महकने लगता है |</p>
<p>क्या आज वो पार्टी में आई थी ?पर इस तथ्य की पुष्टि भी तो नहीं की जा सकती ---वो न तो उसका नाम जानता है और ना उसके रूप-रंग से परिचित है ---उसकी पहचान का तो एकमात्र सुराग है वो सुगंध |पर बहुत से लोग एक ही तरह की सुगंध या परफ्यूम का इस्तेमाल करते हैं और रोज़ आफ़िस,सफ़र और पार्टियों में उसे उस प्रफुयम की गंध चाहे-अनचाहे मिल जाती है |पर वह फूल जिसकी खुशबू वह तीन सालों से साँसों में सहेजे है वह कौन सा है |</p>
<p>कभी-कभी उसे लगता की वह किसी मानसिक रोग का शिकार हो रहा है और उसे अपनी इस समस्या का हल निकालना चाहिए |उसकी यह समस्या उसके वैवाहिक जीवन को प्रभावित करने लगी है और सुनिधि उसे आवारा और गैर-जिम्मेवार पति के तौर पर देखने लगी है |कई बार वह सोचता है की सुनिधि को सारी बात बता दे <br/> पर फिर उसे याद आता है अपना वादा जो उसने उस अंजान खुश्बू को कर दिया था |दूसरा डर यह था की उसने सुहागरात को सुनिधि को कह दिया था कि उसका कोई पास्ट नहीं है |</p>
<p>ममेरे भाई महेश की शादी से लौटने के एक माह बाद उसके पास एक बेनामी बैरन आई थी –</p>
<p>मुझे यकीन है की आप भी मेरी तरह उस रात के खूबसुरत अहसासों को अपने दिल में सजाएँ हैं |पर आप भी समझते होंगे की उस रात को जो कुछ हुआ वह अप्रत्याशित था |ना तो मेरी कोई ऐसी इच्छा थी ना आपकी कोई मंशा |हम दोनों तो एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे फिर भी जो कुछ हुआ वह बहुत ही खुबसूरत और अनमोल अनुभव है | पर उस रात के बाद से मैं आपको प्यार करने लगी हूँ |और मुझे मह्सूस होता है की शायद कुछ ऐसा ही आप महसूस कर रहे होंगे |यकीन मानिए आपके होठों का स्पर्श और हाथों की छुअन अब तक मेरे जिस्म पर महक रही है |मुझे यकीन है की आप भी शायद कुछ ऐसा ही विचार रखते होंगे |शायद आप भी मुझे प्यार करने लगे होंगे |और प्यार हमें विश्वास और बलिदान करना सिखाता है |बड़ी मुश्किल से आपका पता निकाला है और इस भरोसे के साथ आपकों यह पत्र लिख रही हूँ की आप अहसास की इस खुशबू को खुद तक सीमित रखेंगे और मेरे यकीन की पर्चियां नहीं उड़ायेंगे |एक वादा चाहती हूँ कि आप उस रात की घटना का जिक्र किसी से नहीं करेंगे और पत्र पढ़ते ही इसे नष्ट कर डालेंगे |</p>
<p>आपके स्पर्श से बिखरी आपकी अनजानी महक |</p>
<p>अमित ने वैसा ही किया |अनजाने में उसने वादा तो कर दिया |पर अब वादे का फूल दिमाग के बंद पैक्ट में पड़ा-पड़ा सड़ने लगा था उसमें कीड़े पड़ने लगे थे |रातरानी की जिस खुशबू को वह महसूस कर भूल आया था उस खत के बाद वही खुशबू उसके इर्द-गिर्द घेरा बनाए उसकी साँसों को जकड़े हुए थी |</p>
<p>वो खुद को उस अंजान लड़की से किए वादे के तले घुटता महसूस कर रहा था |उसने भाई की शादी के एल्बम से उस कद-काठी की शिनाख्त करने की कोशिश की ---उसने ममेरी भाभी से मज़ाक-मज़ाक में उसकी सभी बहनों के नाम पूछें</p>
<p>“ब्याहने को तो बहुत सी हैं भैया जी ! आपकों किस से गठबंधन करना है ?” भाभी ने भी चुटकी लेते हुए कहा</p>
<p>अमित उलझन में पड़ गया |उसे तो मालूम भी नहीं था कि वो कौन थी |गोरी थी या सांवली थी |लंबी थी या ठिगनी थी |शादीशुदा थी या कुंआरी थी |उसके पास तो केवल एक ही क्लू था |वो खुशबू |छह महीने तक काफ़ी खोजबीन के बाद निराश होकर उसने कोशिश छोड़ दी |फिर उसका ब्याह सुनिधि से हो गया |पर खुशबू की वह बेड़िया उसके मन को आज़ाद ना कर सकीं |</p>
<p>शादी की दूसरी रात उसने सुनिधि को टोकते हुए कहा-परफ्यूम मत लगाया करो |मुझे पसंद नहीं है परफ्यूम |</p>
<p>“ये वाला या कोई सा नहीं |”</p>
<p>“कोई भी नहीं—मुझे चिढ़ होती है परफ्यूम से –नकली महक से –“</p>
<p>“कोई खास वजह |”</p>
<p>“क्या हर चीज़ की वजह होनी जरूरी है ?”</p>
<p>“नहीं |मेरा वो मतलब नहीं था |अच्छा किसी पार्टी में जाना हो तब तो लगा सकती हूँ |”</p>
<p>“ठीक है |पर जितना कम हो सके उतना ही लगाना ---”</p>
<p>एक बाद अमित के मित्र की पार्टी में जाना था |सूट-बूट टाई पहने अमित जाने को तैयार था कि सुनिधि ने परफ्यूम का एक स्प्रे उसके कपड़ों पर कर दिया |</p>
<p>“व्ह्ट्स दी हैल यू आर डूइंग !” अमित ने कोट फैंकते हुए कहा |</p>
<p>“परफ्यूम ही तो लगाया है |ऐसी कौन सी बड़ी आफत आ गई !”</p>
<p>“मैंने तुम्हें पहले ही समझाया था कि आई हेट परफ्यूम !” अमित ने झल्ला कर जूते भी फैंक दिए |</p>
<p>“वजह भी नहीं बताओगे और नाराज भी हो जाओगे |” सुनिधि ने मायूस होते हुए कहा</p>
<p></p>
<p>कैसे बताए अमित की वो वचनबद्ध है कुछ भी ना बताने के लिए |कैसे बताता की स्वाति-नक्षत्र की चंद बूंदों ने उसे चातक बना छोड़ा है और इस व्रत का पालन वह आजीवन करेगा |</p>
<p></p>
<p>ममेरे भाई मनोज की बरात सहारनपुर के एक गाँव में गई थी |दिल्ली में पढ़ रहा अमित सीधे बारात में शामिल हुआ था |गाड़ी लेट हो जाने के कारण वह द्वारचार में भी शामिल नहीं हो पाया था |खाना खाने के बाद वो विवाह देखने के लिए कुछ देर मंडप में बैठा |अलग-अलग आयु की महिलाएँ मंडप में बैठीं मंगलगीत और गलियाँ गा रहीं थीं |हर स्त्री अपने आप में अनोखी थी |शादी-शुदा औरतें सजी-धजी थीं तो अधेड़ उम्र वाली हल्की साड़ी में बैठीं थीं |बहुत सी अविवाहित लड़कियाँ भीं बैठीं थीं जो गलियों और हँसी-मजाक में गाँव की भाभियों के साथ मोर्चा सम्भालें हुईं थीं और वर दल को पस्त किए थीं |कुछ देर बाद उसे थकावट महसूस हुई तो सोने की गरज से वह इधर-उधर देखने लगा |</p>
<p></p>
<p>कुछ ही दूरी पर उसे बारतियों के लिए रखीं हुई चारपाई दिखाईं दीं |वहाँ आसपास और लोग भी खटिया पर लेटे थें |कुछ सो रहे थे,कुछ बतिया रहे थे |शादी का शोर और मंडप की तेज़ मरकरी की चकाचौंध वहाँ तक पहुँचती थी |अमित की एकांत और अँधेरे में सोने की आदत थी |उसने आसपास नज़र दौड़ाई |उस जगह से बीस मीटर की दूरी पर गली थी |गली में दूसरे घर की साइड की दीवार की तरफ़ खासा अँधेरा था |उसने खटिया वहीं डाल ली |खटिया डालते समय वहीं दीवार के साथ सूख रही साड़ी खटिया में फँस कर साथ में आ गई |कुछ देर तो वह उसका सिराहन बनाए रहा पर जब मच्छरों ने परेशान करना शुरू किया तो उसने साड़ी ओढ़ ली और उंघने लगा |</p>
<p>सहसा उसने देखा की वह किसी बड़े बगीचे में बैठा है जहाँ तरह-तरह के फूल हैं |कुछ बेहद खूबसूरत और खुशबू से लबरेज़ |तो कुछ सादे पर दिलकश |कुछ मुरझाते हुए से |तो कुछ ऐसे भी जो खिलने को आतुर हैं |अचानक से रातरानी की तीव्र गंध उसके नथुनों में समाहित हुई और वह उस खुशबू में सराबोर होने लगा |उसने महसूस किया की कोई होंठ ठीक उसके होंठों से लगा है और उसकी छाती के पास मुलायम सा स्पर्श उसे बार-बार कंपन दे रहा है |उसने देखा की जिस बाग में वह बैठा है वहाँ एक भौरा इधर-उधर मंडरा रहा है और अंत में वह एक खूबसूरत फूल पर बैठ जाता है और फूल अपनी पंखुडियां बंद कर लेता है |</p>
<p></p>
<p>“अमित,चलों बिदाई हो रही है ---और तुम ये साड़ी किसकी उतार लाए |”छोटे ममेरे भाई धनंजय ने मुस्कुराते हुए उसे जगाकर कहा |</p>
<p>उसने झट से साड़ी खटिया पर फैंकी तो उसे खटिया पर रातरानी की एक मसला हुआ फूल दिखा |थोड़ी ही दूरी पर रातरानी की गाछ लगी हुई थी |उसने चुपके से वह फूल उठाकर जेब में रख लिया और बाद में अपनी डायरी में रख लिया |शहर लौटने के बाद वह कई रोज़ तक इस सवाल में उलझा रहा कि उस रात जो कुछ हुआ वह एक स्वप्न था या सच |</p>
<p></p>
<p>जब वह अजनबी खत उसे मिला तो उसे तसल्ली हुई की उस रात किसी रातरानी ने उस भौरें को अपना सर्वस्व सौंप दिया था |पर उस रात से एक जिज्ञासा कौंध उठीं थी की वह रातरानी थी कौन ?वचन देकर वह बंध चुका था |वह न तो खुल के सवाल कर सकता था |ना अपनी उलझन किसी से बाँट सकता था |तीन साल होने को आए पर आज तक समझ नहीं आया की रातरानी की वह खुशबू कहाँ से आई थी |</p>
<p></p>
<p>“सुनती हो जया भाभी का फोन आया था ?”</p>
<p>“अच्छा !क्या कह रहीं थीं ?”</p>
<p>|“उनके पीहर में उनके छोटे भाई सुरेन्द्र की शादी है |कह रहीं थीं कि आना है |तुम्हारा फ़ोन नम्बर माँग रहीं थीं |”</p>
<p>“हाँ,मेरे पास भी फोन आया था |”</p>
<p>“फिर क्या करें ?”</p>
<p>“चलना पड़ेगा वैसे भी मेरी छोटी मौसी का ससुराल वहीं हैं |इसी बहाने उनसे भी मुलाकात हो जाएगी ”</p>
<p>“क्या शादी से पहले कभी वहाँ गई थीं ?”</p>
<p>“एक बार गई थी |तीन-चार साल पहले ?”</p>
<p>“चलों ठीक है ! तैयारी कर लो |मैं दफ्तर में छुट्टी की अर्जी दे देता हूँ |”</p>
<p></p>
<p>वह तिलकोत्सव की शाम को जया के गाँव पहुँचते हैं |सुनिधि जया के साथ स्त्री-दल में शामिल हो जाती है और नाचने गाने में रम जाती है |अमित जयंत और दूसरे पुरुषों के साथ पार्टी में रम जाता है |पूरा वातावरण केवड़े,इत्र और भांति-भांति की गंधों से भर हुआ था |उसे अपना सिर भारी मालूम हुआ |उसने आराम की इजाजत माँगी |</p>
<p>“अभी से थक गए !अभी तो पूरी रात बाकी है |मनोरंजन का पूरा प्रबंध है |कानपुर का सबसे फैमस आर्केस्टरा बुलाए हैं ---“ ज्या के मंझले भाई समीर ने पैग बनाते हुए कहा |</p>
<p></p>
<p>आर्केस्ट्रा का प्रोग्राम शुरू होता है |</p>
<p></p>
<p>“अमित बाबू,जो गाना सुनना है सुनिए,बस नोट उड़ाते रहिए और पूरा आनंद लीजिए –“</p>
<p>“दिल्ली से आए दिलदार अमित बाबू की फरमाईश पर गुलशन बेगम गीत प्रस्तुत कर रहीं हैं ”आर्केस्ट्रा के एंकर ने घोषणा की</p>
<p>और</p>
<p>“1-फूल तुम्हें भेजा है खत में/फूल नहीं मेरा दिल है----“</p>
<p></p>
<p>“2-तू धरती पे चाहे जहाँ भी रहेगी/तुझे तेरी खुश्बू से पहचान लुंगा “</p>
<p></p>
<p>“3-भँवरे ने खिलाया फूल/फूल को ले गया राजकुंवर ---“</p>
<p></p>
<p>शामियाना उजड़ा तो अमित ने सोने की इजाजत माँगी |वहीं नीम के पेड़ के नीचे उसका बिस्तर लगा दिया गया |पर दरवाजे पर जेनसेट की आवाज़ और बिजली की चौंध नसे वो सो नहीं पा रहा था |कुछ देर बाद वह अपना बिस्तर खींच कर साथ वाली गली में ले गया |ओढ़ने की चादर कुछ छोटी थी |इसलिए जब उसने मुँह ढका तो पैरों पर मच्छर काटने लगे |उसने आसपास नज़र दौड़ाई |पास ही दीवार पर एक साड़ी सूख रही थी |उसने साड़ी खींच कर ओढ़ ली |उसकी आँख लग गई |</p>
<p></p>
<p>सहसा उसे रातरानी की खुशबू अपने नथुनों में समाती लगी |उसने महसूस किया किसी का हाथ उसकी छाती पर रखा है |उसे लगा वह सुखद स्वप्न में है इसलिए उसने आँख नहीं खोली |फिर उसे महसूस हुआ की कोई उसे हिला कर जगाने का प्रयास कर रहा है |उसने हड़बड़ा कर आँख खोली |</p>
<p>“आप यहाँ सो रहे हैं --- चलिए भीतर चलिए |” सामने सुनिधि खड़ी थी</p>
<p>“कहाँ ?” उसने आँख मलते हुए सुनिधि को देखा |</p>
<p></p>
<p>“फ़िक्र मत कीजिए |यही मेरी मौसी का घर है |आप तो आते ही भईया लोगों के साथ बैठ गए इसलिए मौसी से मिलवा नहीं पाई |”</p>
<p>वह सुनिधि के साथ उस घर में प्रवेश करता है तो रातरानी के खुशबू और तेज़ हो जाती है |</p>
<p></p>
<p>“आइए दामाद जी---हम आपकी मौसी सास हैं पर देखिए उम्र में सुनिधि से केवल छह सल बड़ी हैं ---आप चाहें तो हमें बड़ी साली भी मान सकते हैं |”</p>
<p>“जी |” उस समय उसे सोने की हड़बड़ाहट थी |</p>
<p></p>
<p>सुबह मौसी सास ने चाय के साथ उन दोनों को जगाया |</p>
<p>“मौसाजी नहीं दिख रहे |” उसने चाय का घूंट भरते हुए कहा</p>
<p>“फौज में हैं |अभी ड्यूटी पर मिजोरम में हैं |” उन्होंने छोटा सा जवाब दिया</p>
<p>“मैं यहाँ तीन साल पहले जया भाभी के विवाह में भी शरीक हुआ था |”</p>
<p>“अच्छा,पर तब तो तुसमे कोई परिचय नहीं था |तब सुनिधि नहीं मिली थी ना आपको |”</p>
<p>“जी |अगर जानते की आप हमारी फ्यूचर सास हैं तो खूब सेवा करवाते आपसे –--“ उसने दिल्लगी करते हुए कहा</p>
<p>“कोई नहीं—वो कसर आज पूरी कर लें –बताएँ क्या खाएँगे |”</p>
<p></p>
<p>तभी एक दो साल की बच्ची रोती हुई आई |उसकी शक्ल कुछ-कुछ रातरानी सी और कुछ-कुछ भौरें सी लगती थी |</p>
<p>“चार साल बाद बड़ी मुश्किल से हुई है यह |---मौसी की एकांत की एकमात्र साथी ” सुनिधि ने कहा |</p>
<p>मौसी तब तक बच्ची को लेकर कमरे से बाहर जा चूकीं थीं |</p>
<p></p>
<p>चाय पीकर वह सुनिधि के साथ आँगन में बैठ गया |वहीं आँगन में तुलसी का चौबारा था |चौबारे पर एक दिया जल रहा था और आसपास रातरानी के फूल चढ़े हुए थे |</p>
<p></p>
<p>शहर लौटते समय वह मौसी से मिलने आए |सहसा उसकी नजर मौसी पर पड़ी |मौसी की नजरें उसकी नजरों से टकराई |मौसी नजरें झुका कर रातरानी को देखने लगीं |खुशबू का एक तेज़ झोका उसके नथुनों में समा गया और रातरानी की हरी-भरी गाछ देखकर वह रोमांचित हो उठा |भँवरा फूल की कैद से मुक्त हो चुका था |अब वह उड़ने के लिए आज़ाद था |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>“</p>
<p> </p>इश्क ने हाल पूछाtag:openbooks.ning.com,2018-03-25:5170231:BlogPost:9213012018-03-25T09:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>रात भर महकती रही यादें</p>
<p>लुत्फ़ आया बहुत जुदाई का</p>
<p>विरह से उठा रोग दबा हुआ</p>
<p>पता लेता हूँ अब दवाई का |</p>
<p> </p>
<p>सिक्के जेब को काटने लगे</p>
<p>खर्च ने हाल पूछा कमाई का</p>
<p>नमक-मिर्च से मुँह जलाकर</p>
<p>पूछा भाव फिर से मिठाई का |</p>
<p> </p>
<p>हर रात सिराहन से शिकायतें</p>
<p>ढिंढोरा कब तलक ढिठाई का</p>
<p>हथेलियाँ-हथेलियों के लिए तड़पी</p>
<p>इश्क ने हाल पूछा रुसवाई का |</p>
<p> </p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>रात भर महकती रही यादें</p>
<p>लुत्फ़ आया बहुत जुदाई का</p>
<p>विरह से उठा रोग दबा हुआ</p>
<p>पता लेता हूँ अब दवाई का |</p>
<p> </p>
<p>सिक्के जेब को काटने लगे</p>
<p>खर्च ने हाल पूछा कमाई का</p>
<p>नमक-मिर्च से मुँह जलाकर</p>
<p>पूछा भाव फिर से मिठाई का |</p>
<p> </p>
<p>हर रात सिराहन से शिकायतें</p>
<p>ढिंढोरा कब तलक ढिठाई का</p>
<p>हथेलियाँ-हथेलियों के लिए तड़पी</p>
<p>इश्क ने हाल पूछा रुसवाई का |</p>
<p> </p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>शुतरमुर्ग(लघुकथा )tag:openbooks.ning.com,2018-03-20:5170231:BlogPost:9200822018-03-20T14:30:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>तीसरे माले पर वो करवट बदलते हैं तो खटिया चर्र-चर्र बोलती है |अंगोछा उठाकर पहले पसीना पोंछते है फिर उस से हवा करने लगते हैं |</p>
<p>“साsला पंखा भी ---“ बड़बड़ा कर बैठ जाते हैं और एक साँस में बोतल का शेष पानी गटक जाते हैं</p>
<p>“अब क्या ? अभी तो पूरी रात है |”</p>
<p>भिनभिनाते मच्छर को तड़ाक से मसल देते हैं |</p>
<p></p>
<p>दूसरे माले का टी.वी. सुनाई देता है – “तू मेरा मैं तेरी जाने सारा हिंदुस्तान |”</p>
<p>“बुढ़िया को क्या पड़ी थी पहले जाने की ---“</p>
<p>गला फिर सूखने लगा तो जोर–जोर से खाँसना…</p>
<p>तीसरे माले पर वो करवट बदलते हैं तो खटिया चर्र-चर्र बोलती है |अंगोछा उठाकर पहले पसीना पोंछते है फिर उस से हवा करने लगते हैं |</p>
<p>“साsला पंखा भी ---“ बड़बड़ा कर बैठ जाते हैं और एक साँस में बोतल का शेष पानी गटक जाते हैं</p>
<p>“अब क्या ? अभी तो पूरी रात है |”</p>
<p>भिनभिनाते मच्छर को तड़ाक से मसल देते हैं |</p>
<p></p>
<p>दूसरे माले का टी.वी. सुनाई देता है – “तू मेरा मैं तेरी जाने सारा हिंदुस्तान |”</p>
<p>“बुढ़िया को क्या पड़ी थी पहले जाने की ---“</p>
<p>गला फिर सूखने लगा तो जोर–जोर से खाँसना शुरू कर दिया |</p>
<p>फिर टी.वी. –“हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाभी खो जाए –“</p>
<p>वो उठकर एक बार बैठते हैं |घुटनों को सहलाते हैं |और फिर जोर से बोतल को नीचे की तरफ़ फैंक देते हैं |</p>
<p>“टूटा जो दिल किसी का ---“ शायद टी.वी. म्यूट हो जाता है |</p>
<p>“क्या हुआ ?” निचले माले के कमरे से बाहर निकल कर बेटा चिल्लाता है |</p>
<p>“कुछ नहीं |बोतल दीवार पर रख कर भूल गया था |बिल्ली ने गिरा दिया है |जरा पानी भर के देते जाओ |”</p>
<p>वो सहमे-सहमे से कमरे में आते हैं और आँखे बंद कर लेट जाते हैं |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>घुटनें एवं छड़ी(कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-03-18:5170231:BlogPost:9200222018-03-18T17:30:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>रामदीन |” अख़बार एक तरफ रखते हुए और चाय का घूंट भरते हुए पासवान बाबू ने आवाज़ लगाई <br></br> “जी बाबू जी |”<br></br> “मन बहुत भारी हो रहा है |दीपावली गुजरे भी छह महीने हो गए | सोचता हूँ दोनों बेटे बहुओं से मिल लिया जाए|---- ज़िन्दगी का क्या भरोसा !”</p>
<p>“ऐसा क्यों कहते हैं बाबूजी !हम तो रोज़ रामजी से यही प्रार्थना करते हैं की बाबूजी को लंबा और सुखी जीवन दे |”</p>
<p>“ये दुआ नहीं मुसीबत है |बुढ़ापा ---अकेलापन----तेरे माई जिंदा थी तब अलग बात थी पर अब ---“ वो गहरी साँस भरते हुए कहते हैं</p>
<p>“हम क्या…</p>
<p>रामदीन |” अख़बार एक तरफ रखते हुए और चाय का घूंट भरते हुए पासवान बाबू ने आवाज़ लगाई <br/> “जी बाबू जी |”<br/> “मन बहुत भारी हो रहा है |दीपावली गुजरे भी छह महीने हो गए | सोचता हूँ दोनों बेटे बहुओं से मिल लिया जाए|---- ज़िन्दगी का क्या भरोसा !”</p>
<p>“ऐसा क्यों कहते हैं बाबूजी !हम तो रोज़ रामजी से यही प्रार्थना करते हैं की बाबूजी को लंबा और सुखी जीवन दे |”</p>
<p>“ये दुआ नहीं मुसीबत है |बुढ़ापा ---अकेलापन----तेरे माई जिंदा थी तब अलग बात थी पर अब ---“ वो गहरी साँस भरते हुए कहते हैं</p>
<p>“हम क्या इस घर में नहीं रहते –“ रामदीन ने नाराज होते हुए कहा <br/> “अरे !मेरा वो मतलब नहीं था |-----ला मेरी छड़ी कहाँ है ?-“ उन्होंने घुटनों को सहलाते हुए कहा</p>
<p>“टहलने जा रहे हैं क्या ?रुकिए मैं घुटनों पर तेल मल देता दूँ |” रामदीन ने छड़ी बढ़ाते हुए कहा और वो वापस कुर्सी पर बैठ गए</p>
<p>“डाक्टर कह रहा था कि अब घुटने बदलवाने में देर नहीं करनी चाहिए |कम से कम पन्द्रह दिन अस्पताल में रहना पड़ेगा |बिना किसी अपने के आपरेशन कैसे करवा लूँ ?------ना हुआ तो बड़कू या छोटकू के यहाँ से ही करवा लूँगा |”</p>
<p>“जैसा बाबूजी सही समझें |” रामदीन ने तेल मलते हुए कहा</p>
<p>उसी शाम की ट्रेन पकड़ कर वह बड़े बेटे के पास लखनऊ पहुँच जाते हैं |</p>
<p>“यूँ बाबूजी अचानक ! ” पायलगी करके बड़ी बहू ने पूछा</p>
<p>“तुम लोगों से मिलने को दिल कर आया तो चला आया |”</p>
<p>“बहुत अच्छा किए |आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई |”</p>
<p>“बोगी में ऊपर वाला बर्थ मिला था |कोई बदलने को तैयार ही नहीं हुआ |घुटना पहले ही जवाब दे चुका है |” उन्होंने घुटनों को सहलाते हुए कहा</p>
<p>“समय बहुत बदल गया है |अब बड़े-बूढ़ों का लिहाज़ कौन करता है ?आप फ़िक्र ना करें | दर्द का मलहम रखा हुआ है------ लगा लीजिएगा |” कहती हुई वह रसोईघर में नौकर को ताकीद करने चली जाती है</p>
<p>शाम के वक्त</p>
<p>“क्या हुआ पिताजी आप की हेल्थ इतनी डाउन ! “ दफ्तर से लौटे बेटे दिनेश ने पूछा</p>
<p>“शुगर बढ़ गया |” उन्होंने धीमे से उत्तर दिया</p>
<p>“आप जरुर मनमानी करते होंगे |जिद्दी तो शुरु से हैं ही |अब अम्मा नहीं हैं तो कौन लगाए आप पे लगाम |”</p>
<p>“मैं तो वही खाता हूँ जो डाक्टर कहता है ----पर बुढ़ापा भी तो एक रोग ही है |”</p>
<p>“क्या आप दुनियाँ के अकेले बूढ़े हैं !”</p>
<p>“नहीं मेरा वो मतलब नही था |”</p>
<p>“फिर क्या मतलब था ---मैं आज ही एक सीनयर सिटीजन होम में बतौर गेस्ट गया था ---वहाँ पर भी बूढ़े थे पर कोई भी नाखुश नहीं था |</p>
<p>“जाने वो सब| ----अच्छा सुन डाक्टर कह रहा था कि घुटनों का ऑपरेशन करवा लेना चाहिए |”</p>
<p>“क्यों दिक्कत क्या है ? अच्छे खासे तो हैं |डाक्टरों का तो ये पेशा है |मैं तो यही कहूँगा की जब तक काम चले छड़ी से ही काम चलाएँ |कल मैं पेन-किलर ले आऊँगा ” कहता हुआ दिनेश कमरे से बाहर निकल जाता है</p>
<p></p>
<p><strong><u>एक सप्ताह बाद</u></strong></p>
<p></p>
<p>“पिताजी,राजू का फ़ोन आया था |”</p>
<p>“क्या बात हुई ?”</p>
<p>“मैंने बता दिया की आप यहाँ हैं तो कहने लगा कि बाबूजी को मेरे यहाँ भी भेज दो |”</p>
<p>“यहाँ के फ़ोन पे मुझसे बात नहीं की उसने !”</p>
<p>“वो कनाडा गया है ,किसी ऑफिस-टूर पर | इन्टरनेट कॉल की थी---परसों लौट आएगा |”</p>
<p>“तो फिर परसों की ही टिकट कराना और देख नीचे की ही बर्थ बुक कराना |ऊपर की बर्थ बड़ी तकलीफ देती है |अब घुटने भी तो साथ नहीं दे रहे |”अपनी छड़ी पकड़कर उठने की कोशिश करते हैं |</p>
<p>तीन दिन बाद छोटे बेटे राजू के शहर पूणे के पहुँच जाते हैं |स्टेशन से बाहर निकलने पर |</p>
<p>“पासवान अंकल |”</p>
<p>“हाँ,तुम कौन ?”</p>
<p>“मैं रामदीन का बेटा अजय ,यहीं ऑटो चलाता हूँ |पापा ने कल फ़ोन किया था कि आप पूणे आ रहे हैं तो चला आया |”</p>
<p>“बहुत अच्छा किया |अब मुझे इस पते पर ले चलों |”</p>
<p>ऑटो से उतरकर वह उसकी तरफ दो सौ का नोट बढ़ाते हैं</p>
<p>“क्या पोता कभी दादा से किराया लेता है ?”</p>
<p>“पर दादा पोते को आशीष तो दे सकता है |”</p>
<p>“अगर आप की जिद्द है तो सौ दे दीजिए |वैसे भी इतना ही किराया बनता है |”</p>
<p>“भीतर चलों |”</p>
<p>“माफ़ करें दादाजी,अभी एक बुकिंग उठानी है ---आप मेरा नम्बर लिख लीजिए अगर कभी जरूरत हो तो बेहिचक याद कीजिए |”</p>
<p>वह ऑटो स्टार्ट करके चला जाता है और वे सोसाईटी के गेट पर अपनी एंट्री दर्ज करते हैं |</p>
<p>अपार्टमेंट के गेट के भीतर से आवाज़ आती है –कौन |</p>
<p>“मैं जमुना पासवान,राजू का पिता |”</p>
<p>“माफ़ कीजिए साहब,साहब दफ्तर गए हैं और मैडम किसी पार्टी में और बिना प्रूफ के दरवाज़ा खोलने की मनाही है |”</p>
<p>“मैं उसका बाप हूँ |” उन्होंने झल्लाते हुए कहा</p>
<p>“अच्छा,आप पाँच मिनट वेट कीजिए,मैं मैडम या सर से फ़ोन पर कन्फर्म करता हूँ |”</p>
<p>लगभग दस मिनट बाद मोतियों सा चमकते फ़्लैट का दरवाज़ा खुलता है और उनकी आँखे विस्मित हो जाती है |खून का घूँट भर वे अंदर प्रवेश करते हैं |</p>
<p>“माफ़ कीजिए साहब,मैं नौकर आदमी,पहले मालूम होता तो आपकों सोसाइटी के गेट पर लेने आ जाता |” तभी भीतर कमरे से गुर्राता झबरीले बालों वाला कुत्ता आ जाता है और भौकना शुरु कर देता है |</p>
<p>“नहीं टॉमी,ये अंकल जी हैं |इन्हें नमस्ते करो |” और कुत्ता अपने दोनों पंजे उठाकर उनका अभिवादन करता है</p>
<p>और वे उसका माथा सहलाने लगते हैं</p>
<p>“अंकल जी ,क्या खाइएगा,मैसिकन,चायनीज,कंटीनेंटल,या साऊथ इन्डियन |”</p>
<p>“खिचड़ी बना सकते हो |”</p>
<p>“ठीक है आप इंतजार कीजिए |” वह किचन में चला जाता है</p>
<p>देर शाम को छोटी बहू शाम को आती है तो वे एल.ई.डी स्क्रीन पर समाचार देख रहे होते हैं</p>
<p>“सॉरी डेडीजी,इम्पोर्टेन्ट पार्टी थी और नौकर को कहना भूल गई थी---राजू तो मुझे कल ही बता के गया था |”</p>
<p>“बेटी तुमने दारू पी है ---“</p>
<p>“नहीं डेडी,ये तो सोस्लाईट कर्टसी के चलते लेनी पड़ती है |अच्छा आपने खाना खाया |बंटी तो चला गया होगा |बहुत महंगाई है शहर में 6 घंटे रहता है और पूरे पन्द्रह हज़ार देने पड़ते हैं |”कहती हुई वह बेडरूम में चली जाती है और वहाँ का टी.वी. ऑन हो जाता है |</p>
<p>“बाबूजी ये क्या बोरिंग खबरें लगा कर बैठें हैं आज दिल्ली-पूणे का आई.पी.एल आ रहा है |” राजू ने सोफे पे बैठते ही चैनल चेंज करते हुए कहा</p>
<p>वे छोटे बेटे की और देखते रह जाते हैं</p>
<p>“पूनम बहुत जिद्दी है |वही सास-बहू का ड्रामा देखना है |इसीलिए तो मजबूरन ये दूसरा टी.बी. लेना पड़ा |पूरे नब्बे हज़ार का पड़ा है |”</p>
<p>“अच्छा,आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई |घर में दो ही कर हैं |एक मैं ऑफिस लेकर चला जाता हूँ और दूसरी पूनम ड्राईव करती है |”</p>
<p>“नहीं बेटा,स्टेशन के बाहर आसानी से ऑटो मिल गया था |”</p>
<p>“क्या खाएँगे आप ? बाहर से मँगवा देता हूँ |हम दोनों तो शाम को केवल कुछ फ्रूट खाते हैं |”</p>
<p>“शाम को खाया था |भूख नहीं है |”</p>
<p>“जैसी आपकी मर्ज़ी ----पर देख लीजिए किसी बात के लिए झिझकियेगा मत –आप के बेटे का घर है |”</p>
<p>“डाक्टर ने घुटनों का ऑपरेशन कराने को कहा है----अब लेट्रिंग-पेशाब भी करने में तकलीफ़ होती है |”</p>
<p>“कितने पैसे चाहिएँ ?अभी थोड़ी तंगी चल रही है |”</p>
<p>“पैसों का इंतजाम तो है पर कोई अपना ----“</p>
<p>“सॉरी पिताजी,कम्पनी का मनेजिंग डारेक्टर मतलब बड़ी जिम्मेदारी आप तो सरकारी मास्टर रहें हैं आप नहीं समझेंगे कि कॉरपरेट में जितना बड़ा हाथी उस पर उतनी ही ज़्यादा जोंक |”</p>
<p>“अच्छा पिताजी ,पटना वाले प्लाट का क्या कर रहे हैं |अब तो करोड़ों का हो गया होगा !”</p>
<p>“सोच रहा हूँ जीते जी उसे निकाल दूँ |”</p>
<p>“बहुत अच्छा,कब जाएँगे ?मैं फ्लाईट की टिकट निकाल दूँगा |उसमें लोअर या अपर का चक्कर ही नहीं होता |”</p>
<p>“सोच रहा हूँ कल ही निकल जाऊँ |”</p>
<p>“ठीक है |मैं फ्लाईट चैक कर लेता हूँ |”</p>
<p><br/><strong><u>आज का दिन एक रिश्तेदार की शादी में</u></strong></p>
<p></p>
<p>पासवान बाबू एक टेबल पर छड़ी टिकाए आराम से बैठे थे |</p>
<p>“लीजिए बाबूजी |” रामदीन ने उनकी पसंद का गाजर का हलवा और टिक्की रखते हुए कहा</p>
<p>“तुमनें कुछ खाया ?”</p>
<p>“जा रहा हूँ |मुझें क्या मैं औरों की तरह खड़ा होकर खा सकता हूँ |”</p>
<p>“नहीं तू भी अपनी प्लेट भरकर यहीं ले आ ---अकेले अच्छा नहीं लगता |”</p>
<p>“हमारे रहते हुए आपको नौकर के साथ बैठेंगे “ राजू और दिनेश उनकी बगल की खाली कुर्सियों पर बैठते हुए बोले</p>
<p>वो चुप्प बैठे रहे |</p>
<p>“ये जाहिल तो आपकों मार ही डालेगा !---भला शूगर के मरीज को ये सब खाना चाहिए |”</p>
<p>दिनेश ने उनके सामने से प्लेट उठाते हुए कहा</p>
<p>“रहने दो ---मैंने ही जिद्द की थी---मेरी इच्छा थी खाने की | ”</p>
<p>“मत खाइए बाबूजी,आपको कुछ हो जाएगा तो हमारा क्या होगा ?ये नौकर,जरा हमारे खाने के लिए भी कुछ ले आ |” राजू ने बगल में किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रामदीन को देखकर कहा</p>
<p>“उसे नौकर मत कहो |वो मेरे लिए बेटे जैसा है |”</p>
<p>“पिताजी आप बड़े भावुक हैं ---पर खून के रिश्तों से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं होता----रामदीन का पुलिस वैरिफिकेशन करवाया की नहीं----आजकल अकेले रहने वाले बुजुर्गों को इन असमाजिक तत्वों से बहुत खतरा है-----विल तो करवा ही ली होगी आपने ---अच्छा आपने घुटनों का इलाज करवाया की नहीं |” दिनेश बोलता रहता है</p>
<p>वो दूसरी तरफ मुँह फेर लेते हैं |</p>
<p>“पिताजी हाथ थोड़े तंग चल रहे हैं |एक विला खरीदा है |---पटना वाल प्लाट तो अच्छी कीमत में बिका होगा ----हम हमें हमारे हिस्से के पैसे दे दीजिए |”</p>
<p>“अच्छा तो तुम हिस्सा माँगने आए हो !पर पटना का प्लाट मेरी और तुम्हारी माँ की पहली निशानी है |मैं उसे नहीं बेचने वाला |”</p>
<p>“पर आपके बाद कौन सा हम वहाँ रहने आएँगे |वैसे भी जो आपका है वो हमारा ही तो है |” राजू ने बेहयाई से कहा</p>
<p>तब तक रामदीन खाने की दो प्लेटे सजा कर ले आया था</p>
<p>“छड़ी गिर गई है |” उन्होंने धीरे से कहा |</p>
<p>रामदीन छड़ी उठाकर देता है |वो दोनों एक-दूसरे का मुँह ताकते बैठे रहते हैं </p>
<p>“बेटा मुझे घर ले चलों |” उन्होंने रामदीन की तरफ देखते हुए कहा</p>
<p>रामदीन ने बढ़कर उन्हें सहारा दिया</p>
<p>“पिताजी आप क्या चाहते हैं की आपके बाद हम दोनों भाईयों में उस अदना से प्लाट को लेकर सिर फूट्टौवल होता रहे |”</p>
<p>उन्होंने एक हाथ रामदीन के कंधे पर रखा और दूसरे हाथ में पकड़ी छड़ी को लहराते हुए ज़ोर से बोले –“मेरे घुटनों से अब मेरा बोझ नहीं उठता |अब ये छड़ी ही मेरा सहारा है |मैं जमुना पासवान पुत्र स्वर्गीय कामता पासवान पूरे होशों-हवास में यह घोषणा करता हूँ कि रामदीन आज से मेरा तीसरा बेटा है |मेरी मृत्यु के बाद पटना वाली जमीन का मालिकाना हक इसी का होगा और मेरे खाते में जितने पैसे हैं उनसे मेरा क्रियाकर्म करने के बाद जो भी पैसे बचें उसे गोधूलि आश्रम को दे दिए जाएँ |मेरे इस घोषणा को ही मेरी वसीयत समझा जाए | “</p>
<p>इतना कहते-कहते उनका सिर रामदीन के कंधे पर लुढ़क जाता है |</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं मुद्रित )</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>दोनों हाथ (नए ढंग से पुनःप्रस्तुति का प्रयास )tag:openbooks.ning.com,2018-03-17:5170231:BlogPost:9196032018-03-17T05:55:20.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>आदित्य और नियति(शादी के पहले छह महीने )</p>
<p></p>
<p>खाना लगा दूँ ?” घर लौटे आदित्य से नियति ने पूछा</p>
<p>“दोस्तों के साथ बाहर खा लिया |”</p>
<p>“बता तो देते |” नियति ने मुँह गिराते हुए कहा</p>
<p>“कई बार तो कह चुका हूँ कि जब दोस्तों के साथ बाहर जाता हूँ तो खाने पर इंतजार मत किया करो |”आदित्य ने तेज़ आवाज़ में कहा</p>
<p>नियति की आँखों में आँसू आ गए आदित्य</p>
<p>“अच्छा बाबा सॉरी !अब प्लीज़ ये इमोशनल ड्रामा बंद करो |” आदित्य ने कान पकड़ते हुए कहा और नियति अपने आँसू पोछने लगी</p>
<p>रात को…</p>
<p>आदित्य और नियति(शादी के पहले छह महीने )</p>
<p></p>
<p>खाना लगा दूँ ?” घर लौटे आदित्य से नियति ने पूछा</p>
<p>“दोस्तों के साथ बाहर खा लिया |”</p>
<p>“बता तो देते |” नियति ने मुँह गिराते हुए कहा</p>
<p>“कई बार तो कह चुका हूँ कि जब दोस्तों के साथ बाहर जाता हूँ तो खाने पर इंतजार मत किया करो |”आदित्य ने तेज़ आवाज़ में कहा</p>
<p>नियति की आँखों में आँसू आ गए आदित्य</p>
<p>“अच्छा बाबा सॉरी !अब प्लीज़ ये इमोशनल ड्रामा बंद करो |” आदित्य ने कान पकड़ते हुए कहा और नियति अपने आँसू पोछने लगी</p>
<p>रात को नियति को अपनी तरफ खींचते हुए-अब मुँह क्यों गोलगप्पा बना हुआ है |इतनी रोमांटिक रात को ऐसे ही बर्बाद कर दोगी !</p>
<p>“आदित्य मेरा मूड नहीं है |”</p>
<p>“पर मेरा मूड तो है-----“</p>
<p>“प्लीज़ आदित्य ----“</p>
<p>“गो इन हेल !”</p>
<p>और आदित्य दूसरी तरफ मुँह करके सो जाता है और नियति रात भर विचारों के ज्वार-भाटे से जूझती है |नींद ना आने पर वो आदित्य के सीने पर हाथ रखती है |आदित्य की नींद खुल जाती है और दैहिक समर्पण की निश्छल धार से कछारों पर जमा कचरा बह जाता है |</p>
<p>“मैं तुम्हारे लिए कितनी महत्त्वपूर्ण हूँ ?” आदित्य की छाती के बालों को सहलाती नियति ने पूछा</p>
<p>“तुम मेरी ज़िन्दगी हो |मेरी बेटर-हाफ़ हो |------तुम वो औरत हो जिसके बिना मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता | आई लव यू !” आदित्य ने उसका माथा चुमते हुए कहा |</p>
<p>“क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बातों में विरोधाभास है |”</p>
<p>“मेरा सब कुछ तुम्हारा है ----मेरा तन मेरा मन मेरा धन ---फिर तुम्हें ऐसा क्यों लगता है ---मुझे लगता है जरुर किसी वाहियात सीरियल का असर है तुम्हारे दिमाग में |” आदित्य नाराज होते हुए बोला</p>
<p>“क्या जरूरतों को पूरा कर देना भर प्यार है ?”</p>
<p>“मतलब |”</p>
<p>“आपका जब जी चाहे दोस्तों के साथ बाहर निकल जाओ -----जो पसंद ना आए उसे छुओं भी ना ----दिल ना करे तो मुझे हाथ भी ना लगाओ ----मैं ऊँची आवाज़ में बोल दूँ तो मेरे मायके तक फ़ोन कर दो |”</p>
<p>“मैं तुम्हारा पति हूँ !मैं इसीलिए इतनी मेहनत करता हूँ कि तुम्हें कोई कमी ना हो |-----और तुम हो कि |”</p>
<p>“और मैं भी तो तुम्हारी पत्नी हूँ ---अभी तो तुमने कहा था बैटर-हाफ़ |” उसने धीमी आवाज़ में कहा</p>
<p>“वो तो ठीक है—पर समाज ऐसे ही चलता है---अपने घर में देख लो---मेरे घर में देख लो ---अड़ोस-पड़ोस में----औरत की एक भूमिका है---एक दायरा है----जब तक वो दायरे में रहती है घर घर बना रहता है |जहाँ औरते आदमी से होड़ करती हैं घर बिखर जाता है |”</p>
<p>“सॉरी|” अपनी भूमिका एवं स्थिति का आंकलन करती हुई नियति धीमे से बोली</p>
<p>वैसे भी उसे पता था कि वो आदित्य से बहस में जीत नहीं सकती |जहाँ नियति ने आवाज़ ऊँची की आदित्य का पुरुषीय अहंकार उसके बदन से बहस करने लगेगा और प्रकृति का ये असंतुलन उसे ही हार मानने को विवश कर देगा |</p>
<p>“यह कौन सी परिपाटी है की शादी के बाद लड़की ही लड़के के घर जाए ?” शादी तय होने के बाद एक दिन नियति ने पूछा था</p>
<p>“मेरी जान हम तो आपके लिए आपके घर बस जाएँ |पर अपने पिताजी और भाईयों से तो पूछ लो ----वो क्यों नहीं गए ?”</p>
<p>और नियति निरुत्तर हो गई |पितृ-सत्तात्मक समाज के बनाए नियमों के विरुद्ध जाने का साहस उसमे ना था |वो देहात में पली-बढ़ी एवं वहीं के संस्कारों में ढली लड़की थी |उसने देखा था कि माँ घर में सबसे पहले जगती है और सबसे बाद में सोती है |उसने देखा था कि घर में सबका पेट भर के माँ आखिरी में बचा-खुचा खा लेती है और कई बार माँ केवल पानी पीकर भी सो जाती है |उसने देखा था कि दादा घर के नलकूप पर जंघिया पहनकर नहा सकते हैं पर अम्मा के सिर से गलती से भी पल्लू गिर गया तो उन्हें पिताजी दादाजी अपनी गालियों से उन्हें संस्कारो की याद दिलाते थे |उसे संस्कारों में ही ये घुट्टी पिलाई गई थी कि स्त्री का अपना कोई वर्चस्व नहीं है |माईके में वो किसी की अमानत है और ससुराल में किसी की दौलत |जब कॉलेज में गई तो हृदय अपने हमउम्र साथी को देखकर फड़फड़ाया पर संस्कारों ने बागी नहीं होने दिया |बीच में ही पढ़ाई छुड़वा दी गई |वो सोचने लगी कि क्या स्त्री होना इतना बड़ा अपराध है |ऐसे में जब विवाह तय करते समय आदित्य ने प्रश्न पूछने को कहा तो</p>
<p>“आप पति-पत्नी के रिश्ते को कैसे परिभाषित करोगे ?”</p>
<p>“मेरे विचार में पति-पत्नी शरीर के दोनों हाथ है |एक में गति होती है,लय होती है,निपुणता होती है और दूसरा कुछ कमज़ोर और धीमा होता है पर दोनों मिलकर असाध्य को भी साध्य कर सकते हैं |”</p>
<p>मंत्रमुग्ध हो गई थी उसके इस जवाब से |क्या पता था उसे कि मजबूत हाथ को अपनी शक्ति एवं कुशलता पर घमंड भी होता है और वो दूसरे हाथ की कमजोरी की खिल्लियाँ भी उड़ाता है |</p>
<p>एक बार बहस होने पर नियति ने आदित्य को उसकी दोनों हाथ वाली बात याद दिलाई</p>
<p>झल्लाए हुए आदित्य ने कहा-मैं अपने सीधे हाथ से लिखता हूँ,खाता हूँ और ढेरों काम करता हूँ पर उलटे हाथ का इस्तेमाल संडास में ही करता हूँ |</p>
<p> </p>
<p>शादी से पहले आदित्य</p>
<p></p>
<p>“क्या माल है भाई !” दिल्ली हाट पे आइसक्रीम खा रहे मोहित ने कहा</p>
<p>“यार अब तुम विवाहित हो |पत्नी-व्रता बनों |” आदित्य ने समझाते हुए कहा</p>
<p>“भाई उपदेश मत दे,इससे चिपक थोड़े रहा हूँ----आँखों से चुस्की काटने में क्या हर्ज़ है |”</p>
<p>“और भाभी ऐसा करे तो ?”</p>
<p>“जब तक वो अपनी सीमा नहीं लांघती तब तक मुझे कोई आपत्ति नहीं है |”</p>
<p>“कौन सी सीमा ?”</p>
<p>“सीधी सी बात है अगर वो मुझसे नाखुश है तो बता दे |अगर मैं उसे खुश नहीं रख सकता तो मुझे उसे बाँधने का कोई अधिकार नहीं है |बस सब कुछ सहमति से होना चाहिए |अगर मैं खूंटे का बैल नहीं बन सकता तो क्यों उसके लिए खूंटा बनूँ |ट्रस्ट मी. |” मोहित ने खाली स्टिक नीचे फैंकते हुए कहा</p>
<p>“मैंने वो फिल्म डाउनलोड कर ली और देख भी ली |” मोहित ने बात बढ़ाते हुए कहा</p>
<p>“कौन सी ?”</p>
<p>“लिपस्टिक अंडर माई बुर्का |”<br/> “अच्छा|क्या स्टोरी है ?”</p>
<p>“मुझे तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात लगी ----वही औरतों का आज़ादी---एक मुस्लिम लड़की मॉडल बनने के लिए चोरी करती है---एक शादी-शुदा मुस्लिम औरत जिसका खसम किसी दूसरी के चक्कर में फँसा है और एक अधेड़ अविवाहित औरत जो एक नौजवान पर लट्टू हो जाती है और बाद में सब सद्गति को प्राप्त होती हैं |”</p>
<p>“मतलब मर जाती हैं ?” आदित्य ने जिज्ञासा व्यक्त की</p>
<p>“नहीं |चोरनी पकड़ी जाती है |उस औरत को उसका आदमी उसकी औकात बताता है और बूढी बुआजी की सबके सामने आईना दिखाया जाता है |”</p>
<p>“पर क्या विवाहोतर सम्बन्ध सही हैं ?—और उन बूढों का क्या जो अपनी बेटी और पोतियों जैसी बच्चियों का भी दैहिक शोषण करने से बाज नहीं आते और कई बार तो निज सम्बन्धों की मर्यादा भी भंग कर देते हैं |कल ही मैं एक खबर देख रहा था जिसमें एक बहू ने अपने ससुर पर पोती से गलत काम करने की शिकायत की है |”</p>
<p>“ऐसे आदमी को तो भरे चौराहे जूते मारने चाहिएं पर आदमी तो खुला सांड है जहाँ चारगाह देखेगा वहाँ जाएगा ही |मेरे विचार में तो अगर बाहर की पूड़ी खाने का मौक़ा मिले तो उसे छोड़ना मुर्खता है और जहाँ तक बूढ़ों कि बात है यह तो विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि मर्द कभी बुढ़ा नहीं होता |”</p>
<p>“अच्छा उस औरत का क्या हुआ जो तुम्हारे मोहल्ले में धंधा करती थी |”</p>
<p>“मोहल्ले वालों ने पीटकर पुलिस को दे दिया----उसकी कोई बेटी थी पन्द्रह साल की----पार्षद को पसंद आ गई थी ---पर वो मानी नहीं----अब जेल में जाने कैसे निपटेगी इन सफ़ेदपोश भेड़ियों से |”</p>
<p>“तू भी तो जाता था ना शादी से पहले ?”</p>
<p>“हाँ,मुझे बहुत दुःख है |बेचारी !”</p>
<p>“कह तो ऐसे रहा है जैसे वो तेरी प्रेमिका हो ! ”</p>
<p>“प्रेमिका से भी बढ़कर | फॉर मी शी वाज़ गोडेश---वो क्या मैं तो सारी सेक्स-वर्कर्स को देवी ही समझता हूँ | ”</p>
<p>“ये चरित्रहीन स्त्रियाँ और देवी !”</p>
<p>“हमारे देश में इसे गंदा काम माना जाता है उसी तरह जैसे भंगी के काम को | पर देखा जाए तो इनके बिना सारा समाज एक विशालकाय कूड़ा-घर है |ये इनकी कर्मठता है कि समाज के कई पुरुष गिद्ध और भेड़ियों की शक्ल अख्तियार नहीं कर पाते |अपना तन परोस करके ये कितनी ही बच्चियों और महिलाओं का रक्षाकवच बनती हैं |”</p>
<p>“पर जिस चीज़ को समाज गलत मानता हो वो गलत ही है |”</p>
<p>“ये हमारे भारतीय समाज का दोगलापन है |समाज हमें कुएँ का मेढक बनाए रखना चाहता है |कई देशों में सेक्स-वर्कर्स को एक प्रोफेसेन की मान्यता मिलती है |देह का यह धंधा हमारी सभ्यता जितना ही प्राचीन है |गणिका,नगरवधू ,भट्टिनी ना जाने कितने सम्बोधनों से युग-युगान्तरों से हमारी पुरुष प्रजाति स्त्रियों का भोग करती रही है और अवांछित बता कर समाज से अलग-थलग भी रखती है |”</p>
<p>“क्या तू किसी धंधे वाली से शादी कर सकता था ?”</p>
<p>“बस इतनी हिम्मत ही तो नहीं आ सकी |” मोहित ने गहरी साँस लेते हुए कहा</p>
<p>“पता है हम आदमियों की सबसे बड़ी समस्या क्या है ?” मोहित ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा</p>
<p>“नहीं |”</p>
<p>“हमारे भीतर का भेड़िया अभी भी हिंसक और जंगली है और हम खाल पहनकर स्वांग करते हैं कबूतर और खरगोश होने का |</p>
<p>“मतलब !”</p>
<p>“इन बाबाओं को देख लो |वीरेंदर बाबा,आशाराम,नित्यानन्द एक लम्बी लिस्ट है |साs ले प्रवचन देते हैं काम-धन से मोह त्यागने का और खुद देखों कैसे-कैसे कुकर्म करते हैं |ये धर्म और पाखंड ही स्त्रियों का सबसे बड़े शोषक हैं |कोई सा भी धर्म उठा लो हर जगह स्त्री-देह को सात्विकता ,पवित्रता,मर्यादा के नाम पर ठगा जा रहा है |और जो औरत समानता,आज़ादी की बात करती है उसे अराजक,बदचलन,चालू जाने क्या-क्या कहकर नीचा करने का प्रयास किया जाता है |”</p>
<p>“मेरे विचार में तो समानता का वे आन्दोलन घर से शुरु होता है क्या तू भाभी के साथ घर के काम में हाथ बंटाता है ?”</p>
<p>“पापा मना करते हैं ,कहते हैं आगे के लिए दिक्कत हो जाएगी |मम्मी भी बताती हैं कि उनके लाख बीमार रहने पर भी पिताजी ने उठकर एक गिलास पानी नहीं पिया |”</p>
<p>“पर बदलाव के लिए थोथले भाषण थोड़े काम आएँगे |अगर तेरी पत्नी बीमार है और तू काम को उसके नाम पर पड़ा रहने दे तो बदलाव कैसे आएगा |”</p>
<p>“यार,वो घर पर ही तो रहती है |काम ही क्या होता है घर पर |वैसे भी माँ भी हैं तो मैं क्यों किचन और बर्तन-भांडे में अपना वक्त बिताऊँ !”</p>
<p>“ऐसे भी एकल परिवार हैं जहाँ औरत नौकरी भी करती हैं और घर का सारा काम भी -----“</p>
<p>“अब क्या सारे समाज को बदलने का ठेका मैंने लिया है ?”</p>
<p>“अच्छा वो तेरे ऑफिस में जो नई लड़की आई है उसका क्या हुआ ?” आदित्य ने बात बदलते हुए कहा</p>
<p>“यार,शी इज़ अ हार्ड नट टू क्रेक ---शायद पहले से सैट है कहीं और “</p>
<p>“फिर तो भाभी के साथ ही जिस्म खेल वर्ना मर्डर टू का हिमेश रेशमिया हो जाएगा |”</p>
<p>और दोनों हँसते-हँसते विदा होते हैं |”</p>
<p> </p>
<p> आज का दिन </p>
<p></p>
<p>प्रसव के छह माह बाद अज्ञात बीमारी से नियति की मृत्यु हो जाती है |इस घटना को तीन महीने बीत चुके हैं |एक दिन पहले आदित्य की मोटर-साईकिल सड़क के गड्डे में फँस कर गिर गई थी इससे उसके सीधे हाथ में मोच आ गई |घर के सभी लोग गाँव गए हैं और वह शहर में अकेला है |</p>
<p>आदित्य सीधे हाथ में निपुण है |रोजमर्रा के काम अति-कठिन हो गए हैं |वो उल्टा हाथ जिसकी भूमिका वह सिर्फ पिछवाड़ा धोने वाला मानता था की मदद से ही काम हो पा रहे हैं |उसकी आँखों से आँसू ढलक पड़ते हैं और नियति उलटे हाथ की तरह उसके विचारों में दाखिल होती है</p>
<p>“आप किचन में मत घुसा कीजिए |जितनी मदद नहीं होती है उससे ज़्यादा मेरा काम बढ़ा देते हो ---देखिए कितने बर्तन गंदे कर दिए आप ने ---“ नियति ने मीठी झिड़क देते हुए कहा</p>
<p>“अच्छा,चख कर देखों,कैसा बना है,आज थोड़ा सा प्रयोग किया है |” आदित्य बोला</p>
<p>“लाजवाब !” नियति ने एक चम्मच मुँह में भरते हुए कहा</p>
<p>पर जब आदित्य अपना बनाया ही खाने बैठा तो एक लोटा पानी से जल्दी-जल्दी खाना निगलता गया |नियति चुपचाप खाती रही मुस्कुराते हुए |</p>
<p>“ये क्या बनाया है ! पूरी शीशी का तेल इसी सब्ज़ी में डाल दिया लगता है और मिर्च-मसाले |मारने का इरादा है क्या ?”</p>
<p>“सॉरी,हमारे घर पर तेल-मसाला ज़्यादा खाते हैं पर आगे से ध्यान रखूँगी |” नियति ने सहमते हुए कहा था</p>
<p>“तुम ही खाओ ये बकवास खाना |मैं बाहर जा रहा हूँ खाने |” नियति की पनीली आँखों की उपेक्षा करता हुआ वो बाहर निकल गया</p>
<p>आज वह अहसास करता है कि प्यार तेल मसालों का अनुपात नहीं है वरन यह बनाने,परोसने और खाने वाले की भावनाओं का समन्वय है |</p>
<p>सहसा उसकी दृष्टि हैंगर पर टंगी कमीजों पर जाती है |कई शर्ट नियति खुद पसंद करके लाई है |</p>
<p>वो कभी खुद कपड़े नहीं लाता |</p>
<p>“तुम्हारी पसंद बूढ़ों जैसी है----मैं खरीदूँगी तुम्हारे कपड़े |” नियति ने शहर आकर उसके कपड़ों का मुआयना करके घोषणा की</p>
<p>आदित्य नियति के साथ कपड़े खरीदने नहीं जाता और जो पसंद वो लाती उसे पसंद करने से पहले नियति को दुकान के तीन-चार फेरे लगाने पड़ते |अंत में ना-नुकर करके वो उसकी किसी एक पसंद पर हामी भर लेता |</p>
<p>“बहुत सुंदर शर्ट है |तुम पर सूट करती है |ऐसे ही कपड़े पहना करो ---“ आफिस-कलिग मिस. जया ने उसे कम्पलीमेंट दिया</p>
<p>“थैंक्स—ये अदिति लाई है |”</p>
<p>“वही तो मैं भी सोचूँ ----गुड! बहुत अच्छी पसंद है उनकी |”</p>
<p>वो मन ही मन खुश हुआ |पर अदिति के पूछने पर कहा किसी ने नोटिस ही नहीं किया |वो नहीं चाहता था कि उल्टा हाथ सीधे पर रौब झाड़े |</p>
<p>उसने कपड़ों की अलमारी खोली |पर वहाँ केवल पैन्ट थीं |शर्ट तो बाहर ही टंगी थी और उन्हें टांगना उसकी विवशता थी |उसे शर्ट तह करनी नहीं आती थी |अदिति के रहने तक सभी धुले-इस्त्री किए कपड़े उसके द्वारा नीयत शेल्फ में तह करके ही रखे जाते थे |कमबख्त ये उल्टा हाथ !</p>
<p>प्रतीक के जन्म के एक माह बाद से नियति बीमार रहने लगी |यद्यपि बर माँ जच्चा-बच्चा को सम्भालने के लिए गाँव से आ गईं थीं पर वे स्वयं कमर और पेट रोगों से पीड़ित थीं |</p>
<p>घर में बहू और सास के बीच शीत-युद्ध चल पड़ा था और आदित्य को जब इसकी भनक लगी तो उसने मोर्चा सम्भालने की कोशिश की |</p>
<p>पर सास और बहू दोनों ने उसके कामों में कमियाँ निकालकर उसकी मध्यस्ता की कोशिश को नकार दिया</p>
<p>“जब तक जिंदा हूँ तुम्हें झाड़ू-पोंछा करने की जरूरत नहीं है |” ऐसा कहते हुए नियति ने आदित्य के हाथ से पोंछा छीन लिया</p>
<p>नियति की बीमारी डाईगनोज नहीं हो पा रही थी |डॉक्टर ने हिदायत दी थी कि प्रतीक को माँ से इन्फेक्ट होने का खतरा है |रात को सोते समय आदित्य और नियति के पैरों की तरफ प्रतीक को लेकर सोता था और केवल फीडिंग के लिए नियति के हाथ में देता था |</p>
<p>रात में प्रतीक बिस्तर गिला कर जब रोने लगता तो चुपचाप उसकी पैन्ट बदल उसे हिलाते-डुलाते सुलाने का प्रयास करता और बड़े प्यार से सो रही नियति के माथे पर हाथ फेरते हुए कहता-</p>
<p>“गएट वेल सून !मैं तुम्हारे बिना खुद को इमेजिन नहीं कर पा रहा |”</p>
<p>ऐसी ही एक रात जब उसने नियति के माथे पर हाथ फेरा तो नियति ने उसकी हथेलियों को पकड़कर अपने गीले गालों पर रख दिया था |उस रोज़ सीधे हाथ ने उलटे की जरूरत को पूरी शिद्दत से महसूस किया था |</p>
<p>नियति के बड़े भाई की शादी एक महीने बाद ही थी |वो उसे लेने आ गए |आदित्य चाहता था की नियति का पूरा इलाज हो जाए |पर ना नियति मानी और ना उसके पीहर वाले |</p>
<p>“वहाँ पर अच्छे डाक्टरों की कमी है क्या ? आप बेकार में चिंता मत करो ---“ फ़ोन पर उसकी सास ने भरोसा दिया</p>
<p>एक हफ़्ते बाद नियति का फ़ोन आता है-“डाक्टर ने खूब सारी दवाई लिख दी है |कहता है टी.वी. है |दूसरा डाक्टर कहता है लखनऊ पी.जी.आई. चले जाओ ----कुछ समझ नहीं आ रहा |”</p>
<p>“अगर तुम्हें लौटना है तो मैं लेने आ जाऊँ !रहने दो |अब शादी के बाद ही लौटेंगे |”</p>
<p>फिर एक दिन बाद</p>
<p>“सुनों,अगर मुझे कुछ हो जाता है तो तुम प्रतीक को मेरे माइके छोड़ देना |मेरे सारे गहने भी यहीं हैं और अपनी पसंद से दूसरी शादी कर लेना |”</p>
<p>“बहsनचोsद |” उसने फ़ोन काट दिया |उस दिन वो अपना आपा खो बैठा |उलटे हाथ को सीधे की निपुणता पर शंका थी |</p>
<p>फिर कुछ सोचकर दोबारा फ़ोन करता है-“मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा |और आगे से ऐसी बात मत करना |”</p>
<p>लाख कोशिशों के बावजूद आदित्य नियति को शहर वापस नहीं ला पाया |किसी तरह वह अपने और नियति की आखिरी निशानी प्रतीक को अपने साथ वापस ले आया पर अदिति के स्त्री-धन से उसे हाथ धोना पड़ा |</p>
<p>दीदी जो इसी शहर में रहती हैं |स्टेशन से ही प्रतीक को अपने साथ ले गईं |समय-समय पर वो प्रतीक से मिलने जाता रहता है |प्रतीक एक साल का हो चुका है और दीदी से उसका लगाव बढ़ रहा है |</p>
<p>दीदी कहती है- प्रतीक को मुझे दे दे |और तू अपनी पसंद से दूसरा ब्याह कर ले |</p>
<p>कभी-कभी दीदी मज़ाक में प्रतीक से आदित्य को मामा कहने को कहती है |</p>
<p>प्रतीक का मामा कहना उसे अंदर तक लहुलुहान करता है |</p>
<p>"नहीं ! वह प्रतीक का पिता है और पिता ही बनकर रहेगा |वह नियति के अविश्वास को झूठा साबित करेगा |वह सीधे हाथ की ताकत को साबित करेगा |"</p>
<p>फ़ोन की घंटी से उसकी अतीतयात्रा टूटती है |पिताजी का फ़ोन है |</p>
<p>“बेटा एक बहुत अच्छा रिश्ता है |लड़की विधवा है |”</p>
<p>“किसी भी निर्णय से पहले मैं उससे बात करना चाहूँगा |” उसने कमरे में लगी नियति की तस्वीर को देखा |उल्टा हाथ सीधे हाथ को सहारा देने की कोशिश कर रहा था |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं एडिट की हुई )</p>आखिरी मुलाकात(कविता )tag:openbooks.ning.com,2018-03-14:5170231:BlogPost:9194482018-03-14T17:03:17.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>आखिरी मुलाकात</p>
<p></p>
<p>आखिरी लम्हा</p>
<p>आखिरी मुलाकात का</p>
<p>अथाह प्यास</p>
<p>जमी हुई आवाज़</p>
<p>उबलते अहसास</p>
<p>और दोनों चुप्प !</p>
<p></p>
<p>आतूूर सूरज</p>
<p>पर्दा गिराने को</p>
<p>मंशा थी खेल</p>
<p>और बढ़ाने को</p>
<p>आखिरी दियासलाई</p>
<p>अँधेरा था घुप्प !</p>
<p></p>
<p>सुन्न थे पाँव</p>
<p>कानफोड़ू ताने</p>
<p>दुधिया उदासी पे</p>
<p>लांछन मुस्काने</p>
<p>आ गया सामने</p>
<p> जो रहा छुप्प |</p>
<p></p>
<p>वक्त रुका नहीं</p>
<p>आँसू ढहे नहीं</p>
<p>पत्थर बहा…</p>
<p>आखिरी मुलाकात</p>
<p></p>
<p>आखिरी लम्हा</p>
<p>आखिरी मुलाकात का</p>
<p>अथाह प्यास</p>
<p>जमी हुई आवाज़</p>
<p>उबलते अहसास</p>
<p>और दोनों चुप्प !</p>
<p></p>
<p>आतूूर सूरज</p>
<p>पर्दा गिराने को</p>
<p>मंशा थी खेल</p>
<p>और बढ़ाने को</p>
<p>आखिरी दियासलाई</p>
<p>अँधेरा था घुप्प !</p>
<p></p>
<p>सुन्न थे पाँव</p>
<p>कानफोड़ू ताने</p>
<p>दुधिया उदासी पे</p>
<p>लांछन मुस्काने</p>
<p>आ गया सामने</p>
<p> जो रहा छुप्प |</p>
<p></p>
<p>वक्त रुका नहीं</p>
<p>आँसू ढहे नहीं</p>
<p>पत्थर बहा नहीं</p>
<p>हज़ारों उलझनें</p>
<p>बेतार का सिग्नल</p>
<p>किया लुप्प-लुप्प |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>खुशियों का बँटवारा(लघुकथा )tag:openbooks.ning.com,2018-03-12:5170231:BlogPost:9189672018-03-12T17:53:05.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>खुशियों का बँटवारा</strong></p>
<p></p>
<p>“पापा,बड़े कमरे में चलों “ मनीष ने मैच देख रहे अजीत गुप्ता का हाथ खींचते हुए कहा</p>
<p>“अरे चल रहा हूँ मेरे लाडले,इतनी उतावली क्या है !”</p>
<p>और कमरे में प्रवेश करते ही- सरप्राइज !</p>
<p>“क्यों पापा कैसी लगी डेकोरेशन !” मझली बेटी आनंदी ने पूछा</p>
<p>“एक्सीलेंट!”</p>
<p>“अभी एक और सरप्राइज है “ मिसीज अजीत ने चॉकलेट केक आगे बढ़ाते हुए कहा</p>
<p>“यार ! तुम भी बच्चों के साथ बच्ची बन रही हो |क्या यह उम्र है बर्थडे मनाने की ---केक काटने…</p>
<p><strong>खुशियों का बँटवारा</strong></p>
<p></p>
<p>“पापा,बड़े कमरे में चलों “ मनीष ने मैच देख रहे अजीत गुप्ता का हाथ खींचते हुए कहा</p>
<p>“अरे चल रहा हूँ मेरे लाडले,इतनी उतावली क्या है !”</p>
<p>और कमरे में प्रवेश करते ही- सरप्राइज !</p>
<p>“क्यों पापा कैसी लगी डेकोरेशन !” मझली बेटी आनंदी ने पूछा</p>
<p>“एक्सीलेंट!”</p>
<p>“अभी एक और सरप्राइज है “ मिसीज अजीत ने चॉकलेट केक आगे बढ़ाते हुए कहा</p>
<p>“यार ! तुम भी बच्चों के साथ बच्ची बन रही हो |क्या यह उम्र है बर्थडे मनाने की ---केक काटने की—“</p>
<p>“खुशिया मनाने की कोई उम्र होती है क्या ---अब चलों जल्दी से केक काटों “मिसीज अजीत ने मचलते हुए कहा</p>
<p>“ठीक है ! पर माँ-पापा को तो बुला लो -----जा मनीष बुला ला दादा-दादी को –“</p>
<p>“रुकों मनीष ---क्या जरूरत है बुढे-बुढ़िया की –---क्या दे देंगे अब वो तुम्हें “</p>
<p>“यार वो मेरे माँ-बाप हैं ---उनकी दुआ ही बहुत बड़ी चीज़ है |”</p>
<p>“और हमारी मेहनत ? “ मिसीज अजीत ने दोनों बेटियों और अपनी तरफ़ ईशारा करते हुए कहा</p>
<p>“ठीक है ----जिसमें सरकार खुश !---आओं केक काटा जाए |” मिस्टर अजीत ने मिसीज का हाथ पकड़ते हुए कहा</p>
<p>फिर-“हैपी बर्थडे टू यू-हैपी बर्थ डे टू यू !”</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>अहमियतtag:openbooks.ning.com,2018-03-11:5170231:BlogPost:9187762018-03-11T03:48:04.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>अहमियत</p>
<p></p>
<p>“सुनते हो !” रीमा ने सहमते हुए मोबाईल पर गेम खेल रहे प्रकाश को धीरे से छूकर कहा </p>
<p>“क्या यार ! तुम्हारे चक्कर में मेरा खिलाड़ी मारा गया -----बोलों क्या आफ़त आ गई |” प्रकाश ने झल्लाते हुए कहा</p>
<p>“मौसीं का फ़ोन आया था------नानी सीढ़ियों से गिर गईं हैं |” रीमा ने सहमते हुए कहा</p>
<p>“वेरी बैड ----ज़्यादा चोट तो नहीं आई ---“ प्रकाश ने बिना उसकी तरफ़ देखे गेम में लगे हुए ही कहा</p>
<p>“नहीं !” रीमा चुपचाप बगल में बैठ गई </p>
<p>"सबकी बैंड बजा रखी है मैंने ---मुझसे अच्छा…</p>
<p>अहमियत</p>
<p></p>
<p>“सुनते हो !” रीमा ने सहमते हुए मोबाईल पर गेम खेल रहे प्रकाश को धीरे से छूकर कहा </p>
<p>“क्या यार ! तुम्हारे चक्कर में मेरा खिलाड़ी मारा गया -----बोलों क्या आफ़त आ गई |” प्रकाश ने झल्लाते हुए कहा</p>
<p>“मौसीं का फ़ोन आया था------नानी सीढ़ियों से गिर गईं हैं |” रीमा ने सहमते हुए कहा</p>
<p>“वेरी बैड ----ज़्यादा चोट तो नहीं आई ---“ प्रकाश ने बिना उसकी तरफ़ देखे गेम में लगे हुए ही कहा</p>
<p>“नहीं !” रीमा चुपचाप बगल में बैठ गई </p>
<p>"सबकी बैंड बजा रखी है मैंने ---मुझसे अच्छा कोई खेल सकता है |" प्रकाश बड़बड़ाता रहा रीमा चुप्प बैठी रही </p>
<p>“बेटा,बेटा जल्दी से गाड़ी निकाल ----“ प्रकाश की माँ ने हपड़बड़ाते हुए कमरे में प्रवेश किया</p>
<p>“क्या माँ ----आप भी!----इतना बढ़िया खेल रहा था ! –“</p>
<p>“वो तेरी नानी बाथरूम में फिसल गईं हैं ---तेरे मामा का फ़ोन आया था |”</p>
<p>“क्या ---कैसे !” प्रकाश फटाफट फ़ोन बिस्तर पर फैंक कमरे से बाहर भागा और रीमा बिस्तर पर पड़े फ़ोन को देखती रही |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>प्रवासी पीड़ा(कविता )tag:openbooks.ning.com,2018-03-08:5170231:BlogPost:9181182018-03-08T12:37:31.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>प्रवासी पीड़ा</strong></p>
<p>शहर पराया गाँव भी छूटा</p>
<p>चाँदी के चंद टुकड़ों ने</p>
<p>हमको लूटा-हमको लूटा-हमको लूटा |</p>
<p>भूख खड़ी थी जब चौखट पे</p>
<p>कदम हमारे निकल पड़े थे</p>
<p>मिल गई रोटी शहर में आकर</p>
<p>पर अपनों का अपनेपन का</p>
<p>हो गया टोटा-हो गया टोटा-हो गया टोटा |</p>
<p></p>
<p>माल कमाया सबने देखा</p>
<p>रात जगे को किसने देखा</p>
<p>मेहमां-गाँव से ना उनको रोका</p>
<p>एक कमरे की ना मुश्किल समझी</p>
<p>दिल का हमको </p>
<p>कह दिया छोटा-कह दिया छोटा-कह दिया छोटा…</p>
<p><strong>प्रवासी पीड़ा</strong></p>
<p>शहर पराया गाँव भी छूटा</p>
<p>चाँदी के चंद टुकड़ों ने</p>
<p>हमको लूटा-हमको लूटा-हमको लूटा |</p>
<p>भूख खड़ी थी जब चौखट पे</p>
<p>कदम हमारे निकल पड़े थे</p>
<p>मिल गई रोटी शहर में आकर</p>
<p>पर अपनों का अपनेपन का</p>
<p>हो गया टोटा-हो गया टोटा-हो गया टोटा |</p>
<p></p>
<p>माल कमाया सबने देखा</p>
<p>रात जगे को किसने देखा</p>
<p>मेहमां-गाँव से ना उनको रोका</p>
<p>एक कमरे की ना मुश्किल समझी</p>
<p>दिल का हमको </p>
<p>कह दिया छोटा-कह दिया छोटा-कह दिया छोटा |</p>
<p></p>
<p>शहर में देखा भरा मोहल्ला</p>
<p>धक्कम पेली हल्लम-हुल्ला</p>
<p>जज्बातों की कीमत लगती</p>
<p>बातों की भी कीमत लगती</p>
<p>इंसानी रिश्तों का झीना</p>
<p>हो गया पल्ला-हो गया पल्ला-हो गया पल्ला |</p>
<p></p>
<p>गाँव में अब जो जाता हूँ</p>
<p>वीराना फैला पाता हूँ </p>
<p>उड़ गए सारे नए पखेरू</p>
<p>कित को अब सहचर हेरूँ</p>
<p>रह गई बाकी बूढ़ी काकी</p>
<p> नाटे दद्दा सुखे चच्चा </p>
<p>लंगड़े लल्ला लंगड़े लल्ला लंगड़े लल्ला |</p>
<p></p>
<p>कुछ रिश्ते जो अपने लगते थे</p>
<p>वो भी अब रूठें लगते हैं</p>
<p>माँग न लें अपना हक-हिस्सा</p>
<p>इसलिए ना उनको अच्छे लगते हैं</p>
<p>गाँवो की अभिलाषा लेकर</p>
<p>शहरों में घुटते रहते हैं</p>
<p>पाया शहर में बहुत मगर,गोरख</p>
<p>रहा निठल्ला रहा निठल्ला रहा निठल्ला |</p>
<p>सोमेश कुमार (2009 ,मौलिक एवं अमुद्रित) </p>आदमी एवं नदी (कविता )tag:openbooks.ning.com,2018-03-07:5170231:BlogPost:9176972018-03-07T14:30:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>आदमी और नदी</strong></p>
<p>पहाड़ों से निकलतीं थीं झूम-झूम कर</p>
<p>खो जाती थीं एक-दुसरे में घूम-घूम कर</p>
<p>विशद् धारा बन जाती थी</p>
<p> एक नदी कहलाती थी</p>
<p>समुंदर में जाकर प्रेम करती सुरूप</p>
<p>हो जाती एकरूप |</p>
<p></p>
<p>आदमी भी कुछ ऐसा था</p>
<p>स्वीकारता दुसरे को</p>
<p>चाहे दूसरा जैसा था</p>
<p>आदमी होना प्रथम था</p>
<p>बाद में ज़मीन-पैसा था |</p>
<p>आदमी का मेल-मिलाप /सभ्यता रचता था</p>
<p>इसी तरह एक राज्य/एक देश बसता था |</p>
<p></p>
<p>बाद में नदी को जरूरत के…</p>
<p><strong>आदमी और नदी</strong></p>
<p>पहाड़ों से निकलतीं थीं झूम-झूम कर</p>
<p>खो जाती थीं एक-दुसरे में घूम-घूम कर</p>
<p>विशद् धारा बन जाती थी</p>
<p> एक नदी कहलाती थी</p>
<p>समुंदर में जाकर प्रेम करती सुरूप</p>
<p>हो जाती एकरूप |</p>
<p></p>
<p>आदमी भी कुछ ऐसा था</p>
<p>स्वीकारता दुसरे को</p>
<p>चाहे दूसरा जैसा था</p>
<p>आदमी होना प्रथम था</p>
<p>बाद में ज़मीन-पैसा था |</p>
<p>आदमी का मेल-मिलाप /सभ्यता रचता था</p>
<p>इसी तरह एक राज्य/एक देश बसता था |</p>
<p></p>
<p>बाद में नदी को जरूरत के हिसाब से मोड़ा गया</p>
<p>उसे नहरों और फिर नालियों में तोड़ा गया |</p>
<p>आदमी भी जमीन-पैसे से बँटता गया</p>
<p>और अपने मूल स्वभाव से कटता गया |</p>
<p>नहरें बनने से सम्पन्नता आई/बंजर जमीने लहराईं </p>
<p>पर नैसर्गिक जंगल खो गए/हरे मैदान बंजर हो गए |</p>
<p></p>
<p>पैसे-ज़मीन ने आदमी को कुनबे में बाँटा</p>
<p>गरीब-अमीर दलित-ठाकुर नस्लों में बाँटा</p>
<p>इससे लाभ कम हुआ और बढ़ गया घाटा |</p>
<p>आदमी आदमियत भूल कर सब कुछ हो गया है</p>
<p>नदी की तरह जन्मा नैसर्गिक आदमी</p>
<p>अपनी बनाई हुई नहरों में खो गया है |</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>खोया बच्चा(कविता )tag:openbooks.ning.com,2018-03-04:5170231:BlogPost:9172932018-03-04T08:30:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>खोया बच्चा</strong></p>
<p> </p>
<p>हिन्दू घर से खोया बच्चा</p>
<p>माँ मम्मी कह रोया बच्चा</p>
<p>गुरूद्वारे का लंगर छक कर</p>
<p>मस्जिद में जा सोया बच्चा |</p>
<p> </p>
<p>गली मोहल्ला ढूंढ रहा था</p>
<p>उसकों घर घर थाने थाने</p>
<p>दीवारें सब हाँफ रहीं थीं </p>
<p>नींव लगी थी उन्हें बचाने |<br></br> </p>
<p>खुली नींद फिर वो भागा</p>
<p>एक पग में दस डग नापा</p>
<p>थक हार देखी एक बस्ती</p>
<p>निकली चर्च से हँसती अंटी |</p>
<p> </p>
<p>“तुम शायद घर भूल गया है !</p>
<p>चलों तुम्हें घर से…</p>
<p><strong>खोया बच्चा</strong></p>
<p> </p>
<p>हिन्दू घर से खोया बच्चा</p>
<p>माँ मम्मी कह रोया बच्चा</p>
<p>गुरूद्वारे का लंगर छक कर</p>
<p>मस्जिद में जा सोया बच्चा |</p>
<p> </p>
<p>गली मोहल्ला ढूंढ रहा था</p>
<p>उसकों घर घर थाने थाने</p>
<p>दीवारें सब हाँफ रहीं थीं </p>
<p>नींव लगी थी उन्हें बचाने |<br/> </p>
<p>खुली नींद फिर वो भागा</p>
<p>एक पग में दस डग नापा</p>
<p>थक हार देखी एक बस्ती</p>
<p>निकली चर्च से हँसती अंटी |</p>
<p> </p>
<p>“तुम शायद घर भूल गया है !</p>
<p>चलों तुम्हें घर से मिलवाऊँ</p>
<p>था मेरा भी तुम जैसा बेबी</p>
<p>चलों तुम्हें तस्वीर दिखाऊँ ! "</p>
<p> </p>
<p>ताजमहल से उस घर में</p>
<p>दीवारों पर तस्वीर लगी थी</p>
<p>बच्चे के सिर पे हाथ फेरकर</p>
<p>मदर मारिया बिलख रही थी |</p>
<p> </p>
<p>नहीं मानता था मजहब को</p>
<p>लव-जेहादी कह कर इसको</p>
<p>मार गए इसे गैर-ईसाई</p>
<p>इस बुढ़िया पे दया ना आई !</p>
<p> </p>
<p>हुआ कुछ दिन हंगामा भारी</p>
<p>आते रहे सियासी बारी-बारी</p>
<p>अख़बारों ने भी तस्वीर उतारी</p>
<p>ना सूखी नफरत की फुलवारी |</p>
<p> </p>
<p>बेटा तुम लगते हो राह भटके</p>
<p>इससे पहले कोई गिद्ध झपटे</p>
<p>चलो चलें हम थाने झट से</p>
<p>मरिया बोली उससे लिपट के</p>
<p> </p>
<p>आजी क्यों तुम बिलख रही हो</p>
<p>बीबी अपणे आँसू पोछों</p>
<p>ग्रैनी दुनियाँ बहुत बड़ी है</p>
<p>देखों मुझकों तस्वीर यहीं है</p>
<p> </p>
<p>मेरे दादा पंजाबी दादी नेपाली</p>
<p>मेरी बुआ को भाया बंगाली</p>
<p>एक क्रिस्चन को ब्याहे चाचा</p>
<p>हरिजन अम्मा ले आए पापा</p>
<p> </p>
<p>घर में देखा है भारत जीता</p>
<p>पढ़ी कुरान के संग गीता</p>
<p>ईद दीवाली सब साथ मनाते</p>
<p>लंगर छक कर चर्च में जाते |</p>
<p> </p>
<p>बने चिकन संग इडली सांभर </p>
<p>खाता झालमुरी मुठ्ठी भर-भर</p>
<p>बाई आंटी ले आती निमोना</p>
<p>सरसों दा साग लगदा सोणा |</p>
<p> </p>
<p>सब धर्मों का सार है पाया</p>
<p>मुझे सियासत बाँट ना पाया</p>
<p>माँ मुझमें हिंदुस्तान बसा है</p>
<p>सब इंसानों का ईमान बचा है</p>
<p> </p>
<p>“मत समझों मुझे खोया बच्चा</p>
<p>ना पहुँचाओं दादी मुझे थाने</p>
<p>मैं इंसानों का खोया बच्चा हूँ</p>
<p>निकला हूँ हिन्दुस्तान बचाने |”</p>
<p> </p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>मुक्तकtag:openbooks.ning.com,2018-02-27:5170231:BlogPost:9161802018-02-27T05:28:31.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>मुक्तक</strong></p>
<p>(आम आदमी)</p>
<p>1.सारी फिक्रें अभी उलझी हुईं हैं एक सदमें में</p>
<p> मैं मर जाऊँ तो क्या !मैं खो जाऊँ तो क्या !</p>
<p> </p>
<p>2.मैं रोज़ मरता हूँ कोई हंगामा नहीं होता</p>
<p> सब सदमानसी है मुमताज़ की खातिर |</p>
<p> (इस्तेमाल )</p>
<p>3.खम गज़ल लिखता हूँ दिल तोड़ कर उसका</p>
<p> हुनर ज़ीना चढ़ता है बुलंदी हासिल होती है |</p>
<p> (वापसी )</p>
<p>4.शराब ने टूटकर घर का पानी गंगा कर दिया</p>
<p> उसने कपड़े उतारे मेरी सोच को नंगा कर दिया |</p>
<p> …</p>
<p><strong>मुक्तक</strong></p>
<p>(आम आदमी)</p>
<p>1.सारी फिक्रें अभी उलझी हुईं हैं एक सदमें में</p>
<p> मैं मर जाऊँ तो क्या !मैं खो जाऊँ तो क्या !</p>
<p> </p>
<p>2.मैं रोज़ मरता हूँ कोई हंगामा नहीं होता</p>
<p> सब सदमानसी है मुमताज़ की खातिर |</p>
<p> (इस्तेमाल )</p>
<p>3.खम गज़ल लिखता हूँ दिल तोड़ कर उसका</p>
<p> हुनर ज़ीना चढ़ता है बुलंदी हासिल होती है |</p>
<p> (वापसी )</p>
<p>4.शराब ने टूटकर घर का पानी गंगा कर दिया</p>
<p> उसने कपड़े उतारे मेरी सोच को नंगा कर दिया |</p>
<p> (नियन्त्रण)</p>
<p>5.तड़प के देखता है यूँ कि अरमां मचल जाएँ </p>
<p> पर कसम याद आते ही ख़ुद को जज़्ब करता हूँ |</p>
<p> </p>
<p> (सजा )</p>
<p>6.मायूस हो चलीं हैं थीं मगरूर जो आँखे</p>
<p> सोचता हूँ अब सताना छोड़ दूँ इनकों |</p>
<p> (मोहब्बत )</p>
<p>8.गिरे फूल उठा कर रख दिए थे हथेली पर</p>
<p> आज महकी हुई मोहब्बत किताबों में मिली |</p>
<p>9.मिट्टी भी कटती है पानी भी समाता है</p>
<p> एक अजनबी बारिश सा चला आता है |</p>
<p> (बच्चा )</p>
<p>10 बच्चे के हाथ में अख़बार है</p>
<p> खबर भी उससी मासूम हो जाए</p>
<p> गम नफ़रत उदासी मुस्कारा रहे</p>
<p> वो बेवजह हँसी भी मशहूर हो जाए |</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>दो जिस्मों के मिलने भर सेtag:openbooks.ning.com,2018-02-26:5170231:BlogPost:9161302018-02-26T07:11:24.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>दो जिस्मों के मिलने भर से</strong></p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से</p>
<p>प्यार मुकर्रर होता तो</p>
<p>टूटे दिल के किस्सों का</p>
<p>दुनियाँ में बाज़ार न होता</p>
<p>सागर की बाँहों में जाने</p>
<p>कितनी नदियाँ खो जाती हैं</p>
<p>एक मिलन के पल की खातिर</p>
<p>सदियाँ तन्हा हो जाती हैं</p>
<p>तस्वीरें जो भर सकती</p>
<p>इस घर के खालीपन को</p>
<p>उसके आने की खुशबू से</p>
<p>दिल इतना गुलज़ार ना होता |</p>
<p> </p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से---</p>
<p> </p>
<p>बाँहों में कस लेना…</p>
<p><strong>दो जिस्मों के मिलने भर से</strong></p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से</p>
<p>प्यार मुकर्रर होता तो</p>
<p>टूटे दिल के किस्सों का</p>
<p>दुनियाँ में बाज़ार न होता</p>
<p>सागर की बाँहों में जाने</p>
<p>कितनी नदियाँ खो जाती हैं</p>
<p>एक मिलन के पल की खातिर</p>
<p>सदियाँ तन्हा हो जाती हैं</p>
<p>तस्वीरें जो भर सकती</p>
<p>इस घर के खालीपन को</p>
<p>उसके आने की खुशबू से</p>
<p>दिल इतना गुलज़ार ना होता |</p>
<p> </p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से---</p>
<p> </p>
<p>बाँहों में कस लेना तो</p>
<p>तन का जलना भर होता है</p>
<p>ये वो टूटा तारा है</p>
<p>जिनसे उजले का छल होता है</p>
<p>तारों से अगर अँधेरा जाता</p>
<p>आँखों में फिर चाँद ना होता|</p>
<p> </p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से</p>
<p> </p>
<p>भंवरे-तितली क्या समझेंगे</p>
<p>फूलों की अकुलाहट को</p>
<p>उड़ कर आना पीकर जाना</p>
<p>इसे मोहब्बत कहते हैं</p>
<p>दो बूंदों की ताउम्र तपस्या</p>
<p>स्वाति-घटाएँ हो जाती हैं</p>
<p>अगर प्रेम आवेश मात्र है</p>
<p>तो चातक का इंतजार ना होता |</p>
<p> </p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से---</p>
<p> </p>
<p>दो गमलों में उगे हुए है</p>
<p>फूलों का अपने भार सम्भाले</p>
<p>हवा चिकोटी करती रहती</p>
<p>हैं गंधों का विस्तार सम्भालें</p>
<p>खुशबू बाँझ अगर होती तो</p>
<p>जीवन का विस्तार ना होता</p>
<p></p>
<p>दो जिस्मों के मिलने भर से---</p>
<p></p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )</p>पर मोहब्बतtag:openbooks.ning.com,2018-02-24:5170231:BlogPost:9159332018-02-24T17:01:47.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>पर मोहब्बत---</strong></p>
<p>वह आदमी जो अभी-अभी</p>
<p>मेरे जिस्म से खेल कर</p>
<p>बेपरवाह उघड़ के सोया है</p>
<p>और जिसके कर्कश खर्राटे</p>
<p>कानों में गर्म शीशे से चुभते है</p>
<p>और जो नींद में भी अक्सर</p>
<p>मेरी छातियों से खेलता है</p>
<p>सिर्फ मेरी बात करता है</p>
<p>मैं उससे नफ़रत तो नहीं करती</p>
<p>पर मोहब्बत ----------------</p>
<p> </p>
<p>मेरी तकलीफ़ उसे बर्दाश्त नहीं</p>
<p>एक खाँसी भी उसकी साँस टाँग देती है</p>
<p>मेरे आँसू सलामत रहें इसलिए</p>
<p>वो प्याज काटने लगा…</p>
<p><strong>पर मोहब्बत---</strong></p>
<p>वह आदमी जो अभी-अभी</p>
<p>मेरे जिस्म से खेल कर</p>
<p>बेपरवाह उघड़ के सोया है</p>
<p>और जिसके कर्कश खर्राटे</p>
<p>कानों में गर्म शीशे से चुभते है</p>
<p>और जो नींद में भी अक्सर</p>
<p>मेरी छातियों से खेलता है</p>
<p>सिर्फ मेरी बात करता है</p>
<p>मैं उससे नफ़रत तो नहीं करती</p>
<p>पर मोहब्बत ----------------</p>
<p> </p>
<p>मेरी तकलीफ़ उसे बर्दाश्त नहीं</p>
<p>एक खाँसी भी उसकी साँस टाँग देती है</p>
<p>मेरे आँसू सलामत रहें इसलिए</p>
<p>वो प्याज काटने लगा है</p>
<p>रोटी भी वो गोल बना लेता है</p>
<p>कभी-कभी मेरी अनिच्छा पर वो मुझ से</p>
<p>अपनी पीठ मलवाता है तब</p>
<p>तुम्हारा चेहरा उस पीठ पर नज़र आता</p>
<p>मैं उसकी पीठ को नापसंद तो नहीं करती</p>
<p>पर तुम्हारा चेहरा--------</p>
<p> </p>
<p>मैं अक्सर गलतियाँ करती हूँ</p>
<p>और वो हँसकर उन्हें ठीक करता है</p>
<p>मैं गुस्से में चीज़े तोड़ देती हूँ</p>
<p>वो चुपचाप नई चीज़े ले आता है</p>
<p>उक्ता गई हूँ इस आदमी के स्वभाव से</p>
<p>और दुखी हूँ अपने गिरे भाव से</p>
<p>जब कभी वो आदमी अकेले बैठकर रोने लगता है</p>
<p>तब मैं सोचने लगती हूँ तुम्हारे बारे में</p>
<p>अपने बारे में और इस आदमी के बारे में</p>
<p>जिससे मुझे नफरत तो नहीं है</p>
<p>पर मोहब्बत-----------</p>
<p> सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>सोचता हूँ (ख्याल )tag:openbooks.ning.com,2018-02-23:5170231:BlogPost:9150932018-02-23T04:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>उस औरत की बगल में लेट कर<br></br> सोचता हूँ तुम्हारे बारे में अक्सर<br></br> रोज जिंदगी का एक पेज भरा जाता है <br></br> दिमाग अधूरे पेज़ पर छटपटाता है </p>
<p></p>
<p>सोचता हूँ अगर वह औरत तुम होती<br></br> तो कहानी क्या इतनी भर होती !<br></br> या तब भी अटका होता किसी अधूरे पन्ने पर<br></br> भटक रहा होता पूरी कहानी की तलाश में |</p>
<p></p>
<p>सोचता हूँ इस कहानी के अंत के बारे में</p>
<p>सोचता हूँ उस अनन्त के बारे में</p>
<p>सोचता हूँ प्यार अगर अधूरेपन की तलाश है</p>
<p>तो ये कहानी कभी पूरी ना हो !</p>
<p>कई बार एक…</p>
<p>उस औरत की बगल में लेट कर<br/> सोचता हूँ तुम्हारे बारे में अक्सर<br/> रोज जिंदगी का एक पेज भरा जाता है <br/> दिमाग अधूरे पेज़ पर छटपटाता है </p>
<p></p>
<p>सोचता हूँ अगर वह औरत तुम होती<br/> तो कहानी क्या इतनी भर होती !<br/> या तब भी अटका होता किसी अधूरे पन्ने पर<br/> भटक रहा होता पूरी कहानी की तलाश में |</p>
<p></p>
<p>सोचता हूँ इस कहानी के अंत के बारे में</p>
<p>सोचता हूँ उस अनन्त के बारे में</p>
<p>सोचता हूँ प्यार अगर अधूरेपन की तलाश है</p>
<p>तो ये कहानी कभी पूरी ना हो !</p>
<p>कई बार एक खौफनाक सपने से डर जाता हूँ</p>
<p>जब उस औरत को बगल में नहीं पाता हूँ <br/> और सोचता हूँ वह भी मेरी तरह तो नहीं सोचती<br/> वह भी किसी अधूरे पन्ने पर तो नहीं अटकी</p>
<p><br/> सिहर कर मैं उसकी छाती से लिपट जाता हूँ<br/> हर रात को मैं फिर दो टुकड़ों में बँट जाता हूँ</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )<br/> </p>ख्यालtag:openbooks.ning.com,2018-02-22:5170231:BlogPost:9148332018-02-22T06:02:05.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong> ख्याल-1</strong></p>
<p>1 तुम मेरी ज़िन्दगी से निकल जाओ</p>
<p>तुम्हारे रहते दिल सम्भाला ना जाए</p>
<p>रोशनी कोई कैसे कोई जले अंगने में</p>
<p>यादों का जब तक उजाला ना जाए</p>
<p>खुशबुएँ तर हो महके कोना कोना</p>
<p>किताबों से वो फूल निकाला ना जाए</p>
<p>प्यार है उसे रिश्ते का नाम ना दो</p>
<p>सितम हद करे नाम उछाला ना जाए |</p>
<p>_---------------------------------------------</p>
<p><strong>ख्याल-2</strong></p>
<p>यूँ जो चुपके से तुम अब भी बात करती हो</p>
<p>मुझे महसूस होता है अब भी…</p>
<p><strong> ख्याल-1</strong></p>
<p>1 तुम मेरी ज़िन्दगी से निकल जाओ</p>
<p>तुम्हारे रहते दिल सम्भाला ना जाए</p>
<p>रोशनी कोई कैसे कोई जले अंगने में</p>
<p>यादों का जब तक उजाला ना जाए</p>
<p>खुशबुएँ तर हो महके कोना कोना</p>
<p>किताबों से वो फूल निकाला ना जाए</p>
<p>प्यार है उसे रिश्ते का नाम ना दो</p>
<p>सितम हद करे नाम उछाला ना जाए |</p>
<p>_---------------------------------------------</p>
<p><strong>ख्याल-2</strong></p>
<p>यूँ जो चुपके से तुम अब भी बात करती हो</p>
<p>मुझे महसूस होता है अब भी तूफा हैं दिल में</p>
<p>खुदा ने रहमतों में तुम्हें इश्क नवाजा है</p>
<p>ताउम्र अपने फूल की खातिर भटकना है </p>
<p>पकड़ में माली के तुम्हारे पर थिरकते हैं</p>
<p>तुमकों डर नहीं लगता है पर टूट जाने से !</p>
<p>एक मुझे देखों मैंने टूट कर रंग वो सारे </p>
<p>भरे बाज़ार में नीलाम करने को हैं उतारे</p>
<p>तुम्हें फिर भी शिकायत नहीं क्या मिजाज़ है</p>
<p>तितली बता तू क्यों मुझसे इतनी नाराज़ है</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>
<p> </p>ख्यालtag:openbooks.ning.com,2018-02-16:5170231:BlogPost:9142572018-02-16T18:01:56.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>यकीन</p>
<p>यही सोच कर रुठीं हूँ मना लेगा वो</p>
<p>गलतफहमियाँ जो हैं मिटा देगा वो</p>
<p>प्यार से खींचकर भींच लेगा मुझे</p>
<p>गलतियाँ जो की हैं भुला देगा वो |</p>
<p> </p>
<p> पहली गुफ्तगू</p>
<p>पहला जाम पी लिया खोलकर ये दिल</p>
<p>जाम की आरज़ू है तू रोज़ यूँ ही मिल</p>
<p>मझधार में भटकी सफीना दूर है साहिल</p>
<p>बन जा पतवार मेरी ले चल मुझे मंजिल</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> बुढ़ा</p>
<p>वो जो एक शख्स झुका-झुका सा बैठा है</p>
<p>उसकी पीठ पर यह घर टिका बैठा है</p>
<p>छातियाँ…</p>
<p>यकीन</p>
<p>यही सोच कर रुठीं हूँ मना लेगा वो</p>
<p>गलतफहमियाँ जो हैं मिटा देगा वो</p>
<p>प्यार से खींचकर भींच लेगा मुझे</p>
<p>गलतियाँ जो की हैं भुला देगा वो |</p>
<p> </p>
<p> पहली गुफ्तगू</p>
<p>पहला जाम पी लिया खोलकर ये दिल</p>
<p>जाम की आरज़ू है तू रोज़ यूँ ही मिल</p>
<p>मझधार में भटकी सफीना दूर है साहिल</p>
<p>बन जा पतवार मेरी ले चल मुझे मंजिल</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> बुढ़ा</p>
<p>वो जो एक शख्स झुका-झुका सा बैठा है</p>
<p>उसकी पीठ पर यह घर टिका बैठा है</p>
<p>छातियाँ बात-बेबात गुब्बारा हुई जाती हैं</p>
<p>हवा के दाब सहता हुआ फेफड़ा बैठा है</p>
<p>सूख कर वो आँखे अब सहरा हो चली हैं </p>
<p>किसे खबर है कि उनमें दरिया बैठा है</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )</p>तितली और सफ़ेद गुलाबtag:openbooks.ning.com,2018-02-11:5170231:BlogPost:9137192018-02-11T02:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>“भाई अरविन्द ,कब तक ताड़ते रहोगे ,अब छोड़ भी दो बेचारी नाजुक कलियाँ हैं |”</p>
<p>“मैंsए ,नहीं तो -----“</p>
<p>वो ऐसे सकपकाया जैसे कोई दिलेर चोर रंगे हाथों पकड़ा जाए और सीना ठोक कर कहे –मैं चोर नहीं हूँ |</p>
<p>“अच्छा तो फिर रोज़ होस्टल की इसी खिड़की पर क्यों बैठते हो ?”</p>
<p>“यहाँ से सारा हाट दिखता है |”</p>
<p>“हाट दिखता है या सामने रेलवे-क्वार्टर की वो दोनों लडकियाँ --–“</p>
<p>“कौन दोनों !किसकी बात कर रहे हो !देखों मैं शादी-शुदा हूँ ---और तुम मुझसे ऐसी बात कर रहे हो –“ उसने बीड़ी को झट से…</p>
<p>“भाई अरविन्द ,कब तक ताड़ते रहोगे ,अब छोड़ भी दो बेचारी नाजुक कलियाँ हैं |”</p>
<p>“मैंsए ,नहीं तो -----“</p>
<p>वो ऐसे सकपकाया जैसे कोई दिलेर चोर रंगे हाथों पकड़ा जाए और सीना ठोक कर कहे –मैं चोर नहीं हूँ |</p>
<p>“अच्छा तो फिर रोज़ होस्टल की इसी खिड़की पर क्यों बैठते हो ?”</p>
<p>“यहाँ से सारा हाट दिखता है |”</p>
<p>“हाट दिखता है या सामने रेलवे-क्वार्टर की वो दोनों लडकियाँ --–“</p>
<p>“कौन दोनों !किसकी बात कर रहे हो !देखों मैं शादी-शुदा हूँ ---और तुम मुझसे ऐसी बात कर रहे हो –“ उसने बीड़ी को झट से फैंका और पैरों के नीचे मसल के फटाफट कमरे में आकर लेट गया |</p>
<p>मैं जानता था कि उसके दिलों-दिमाग में वे दो तितलियाँ पल रही हैं पर उनकी कौन सी अवस्था है इसका ठीक ठीक अनुमान लगाना कठिन था |</p>
<p>चूँकि अरविन्द बहुत ही शर्मिला और अन्तर्मुखी था इसलिए हमने फिलाहल के लिए उसे उसकी दशा पर छोड़ना ही ठीक समझा |वो आंवला के एक गाँव से आया था और बी.टी.सी में मेरा साथी था |उसका विषय अंग्रेजी और मेरा कृषि-विज्ञान था |हॉस्टल में हमारा कमरा आमने-सामने था और फुर्सत में जब लड़कों की टोली जमती और सबकी इश्कबजियों की चर्चा होती तो वो चुपचाप बीड़ियाँ सुलगाने लगता |</p>
<p>“भाईसाहब आप इन लड़कों के कारनामों से खार क्यों खाते हो !आप ने तो सारे मज़े ले लिए ---“ एकदिन उसे छेड़ते हुए एक साथी ने कहा</p>
<p>“मज़ा नहीं सजा बोलों |इन्टर पास करते-करते पिताजी ने अपनी पसंद की लड़की गले बांध दी और अभी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ नहीं हुआ है और दो बच्चों के बाप हो गए हैं |”उसने झल्लाते हुए कहा</p>
<p>उस दिन के बाद किसी ने उसकी दुखती रग को छेड़ने की कोशिश नहीं की और जब हम लड़के अपनी और हॉस्टल की प्रेम-कहानियों का जिक्र करते तो वो चुपचाप बालकनी में आकर खड़ा हो जाता और हाट को देखने लगता |</p>
<p>होस्टल के ठीक सामने रेलवे-लाईन गुजरती थी और वहाँ एक छोटा सा प्लेटफार्म था जहाँ मालगाड़ियाँ रुका करती थीं |शाम के वक्त हम लड़के अक्सर प्लेटफार्म पर तफ़री करने चले जाते |हम सभी प्लेटफार्म पर बोलते –बतियाते टहलते रहते पर अरविन्द प्लेटफार्म के एक निश्चिन्त जगह पर बैठता तो प्लेटफार्म छोड़ने के वक्त ही उठता |</p>
<p> </p>
<p>मैंने गौर किया तो पाया कि प्लेटफार्म और होस्टल की बालकनी से रेलवे-क्वार्टर का एक ही विशेष भाग दिखता है और वहाँ पर अक्सर वो दो लडकियाँ नजर आती हैं |यानि मेरा संदेह सही था |अरविन्द के दिल में तितली थी जो अपने फूलों तक पहुँचनें के लिए मचल रही थी |</p>
<p>रविवार की एक दोपहर उसे बालकनी में अकेला देखकर |मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा –घुटते रहोगे तो तितली मर जाएगी और फूलों को कोई और चुरा लेगा |</p>
<p>“मैं कर ही क्या सकता हूँ !” मैंने महसूस किया कि इस बार चोर हथियार डाल चुका है और रहम की भीख माँग रहा है |</p>
<p>“चाहता क्या हो ?” मैंने नर्मी से पूछा</p>
<p>“एकबार करीब से देखना और बतियाना----“</p>
<p>“जैसा कहूँगा वैसा करोगे ?”</p>
<p>“भाई मैं शादी-शुदा हूँ |”</p>
<p>“चलों रेलवे कॉलोनी हवा खाकर आते हैं |” मैंने उसे खीचते हुए कहा</p>
<p>“पर –वहाँ क्यों –किसी ने देख लिया फिर---यार रहने दो |”</p>
<p>पर मैंने उसकी एक ना सुनी और उसे घसीटते हुए रेलवे-कालोनी ले आया</p>
<p>“वही क्वार्टर है ना ! “ मैंने एक क्वार्टर की तरफ़ ईशारा करते हुए कहा</p>
<p>“रहने दो भाई,किसी को मालूम चल गया तो कितनी बदनामी होगी ,कहीं कॉलेज तक बात पहुंच गई तो ---“</p>
<p>“अरविन्द भाई ,मोहब्बत हो या जंग जीतने के लिए उसमें उतरना पड़ता है |”</p>
<p>“रहने दो भाई –“ उसने पीठ दिखाते हुए कहा</p>
<p>“देख लो मंजिल सामने है और तुम हो कि मुँह फेरते हो ---फिर आज से बालकनी पर खड़ा होना और प्लेटफार्म पर बैठना बंद |”</p>
<p>“ये कैसी शर्त हुई |” वो वापस मुड़ते हुए बोला</p>
<p>“तुम बस साथ चलों और देखों कैसे गोटियाँ फिट होती हैं |”</p>
<p>मैंने दरवाजे पर धीमे से कुण्डी बजाई तो 34-35 वर्ष की एक युवती ने दरवाज़ा खोलकर अचरज़ पर बड़े सलीके से कहा-“फरमाइये “</p>
<p>“आदाब !” जी हम सामने वाले हॉस्टल से आए हैं |और पास वाले कॉलेज से बी.टी.सी. कर रहे हैं और इसी सिलसिले में आपकी मदद चाहिए |”</p>
<p>“हम आपकी मदद ---“वो अचरज़ से बोली</p>
<p>“जी | हमें अपने विषय पर कुछ लेशन-प्लान बनाने और प्रस्तुत करने होते हैं इसके लिए 8 से 12 तक की किताब की जरूरत थी |बाजार और लाईबेरी में किताब मिल नहीं रही –क्या आपके यहाँ पढ़ने वाले बच्चे हैं |”</p>
<p>“पढ़ने वाले बच्चे तो हैं---पर आप कितने दिन में लौटा देंगे ?’</p>
<p>“सोमवार सुबह तक मशीन से उसकी नक़ल निकलवाकर आपकों लौटा जाएँगे |ये हमारा आई-कार्ड देखिए और अगर चाहे तो किताब की पूरी रकम जमा करा लें जब हम किताब वापिस करें तो पैसे लौटा दीजिएगा |”</p>
<p>“बेटा सुहैल ! जरा अपनी किताब लाना |”</p>
<p>“सुहैल की किताबों से एक किताब छांटकर,क्या दसवीं,बारहवीं की किताब नहीं है |” मैंने चतुर शिकारी की तरह जाल फैलाना शुरु किया</p>
<p>“सुहैल,मरियम और शबाना से कह जरा अपनी किताब भी लेती आएं |”</p>
<p>वे दोनों जब आईं तो मेरे होश फाख्ता हो गए |मरियम 15 साल की और शबनम 17 की रही होगी,पहली 9 वी और दूसरी 12 में पढ़ती थी</p>
<p>मैंने अरविन्द की तरफ़ देखा तो वो नजर नीचे किए था और उसका चेहरा लाल हो रहा था |</p>
<p>वो दोनों संगमरमर की मूर्तियों जैसी थीं |सीढ़ियों के पास ही गमलों की कतार थीं जो तरह-तरह के गुलाबों से भरी थी |वहीं एक गमले में दो सफ़ेद गुलाब मुस्कारा रहे थे |</p>
<p>किताब लेकर जब मैं उसके पैसे उस महिला को लौटने लगा तो वो बोलीं-“भरोसे पर दे रहे हैं |वक्त पर लौटा देना |बच्चियों को दिक्कत ना हो “</p>
<p>“जी |”</p>
<p>कम्पाउन्ड से बाहर निकलकर मैंने अरविन्द को छेड़ा –“तो मियाँ हसरत पूरी हो गई या और कुछ बाकी है –“</p>
<p>“पता नहीं |मेरी तो नज़र ही नहीं उठती थी |मैं तो गमले के सफ़ेद गुलाब ही देखता रह गया |” शर्म से लाल हुए चेहरे को संयत करते हुए वो बोला</p>
<p>“ठीक है |कल किताब वापस करने तुम जाओगे |” मैंने सपाट सी घोषणा की</p>
<p>“मैंss ए “ उसने हड़बड़ाते हुए कहा</p>
<p>“भाई तुम्हें फूलों तक पहुँचा दिया है आगे तुम जानो और तुम्हारे दिल की तितली जाने |”</p>
<p>उसने कोई उत्तर नहीं दिया</p>
<p>अगले दिन जब वो किताबे देकर लौटा तो उसका दिल बाग-बाग हुआ जा रहा था |प्यूपा फूट चुका था और एक तितली उड़ने को तैयार थी</p>
<p>“तो भाई कैसी रही मुलाकात ?”</p>
<p>“भाई आफत आ गई |उनके अब्बू मिले थे |घर बिठाया |चाय-पानी पिलाया |और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने को कहा है |”</p>
<p>“इसे कहते हैं छप्पर फाड़ के मिलना |कहता था ना कदम बढाओ मंजिल खुद नजदीक होती जाएगी |तो कब से जा रहे हो ?”</p>
<p>“आज शाम से जाना है और तुम्हें भी चलना है |उन्हें विज्ञान का ट्यूटर भी चाहिए |मैंने तुम्हारे लिए भी बात कर ली है |”</p>
<p>“भाई मुझे इन मसलों में मत घसीटों |ट्यूशन मुझसे नहीं होगी---मेरी तरफ़ से उनसे माफ़ी माँग लेना |”</p>
<p>एक हफ़्ते बाद जब मैं शाम को रेलवे-लाईन से लौटा तो देखा अरविन्द कमरे में बैठा हुआ है</p>
<p>“क्यों भाई !गए नहीं पढ़ाने |”</p>
<p>“कल शाम मना कर आया |” उसने मुस्कुराते हुए कहा</p>
<p>“क्या उनकी किताब की अंग्रेज़ी बहुत टफ थी ?”</p>
<p>“नहीं भाई |ये दिल का मामला बहुत टफ है |”</p>
<p>“क्या लड़कियों ने कुछ कह दिया या उनकी अम्मी को शक वगैरह !”</p>
<p>“नहीं भाईजान !अपनी ही हसरत नहीं है |इस वहशी दिल के अरमान बढ़ने लगे हैं |वो दोनों नाजुक कलियाँ हैं अभी उन्हें खिलना है पूरा गुलाब बनना है और फिर मेरा भी एक भरा-पूरा बगीचा है |’ उसने अपनी किताब में रखे दो सफ़ेद गुलाबों की तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p>“ये तो उस गमले के फूल हैं |” मैंने मुस्कुराते हुए कहा</p>
<p>“नहीं ये इस तितली के गुलाब हैं |इस मोहब्बत की कमाई हैं |” उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया</p>
<p>मैंने महसूस किया कि एक भटकती हुई तितली वापिस अपने बाग को लौट चली है और हवा गुलाब की भीनी गंध से भरी है |”</p>
<p>सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>वो छू के गई ऐसेtag:openbooks.ning.com,2018-02-08:5170231:BlogPost:9131262018-02-08T04:00:00.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p>हौले से हिला कर के</p>
<p>नींद से जगा कर के</p>
<p>बहती है पवन जैसे</p>
<p>वो छू के गई ऐसे |</p>
<p></p>
<p>प्यारी सी एक लड़की</p>
<p>थी सांवले कलर की</p>
<p>एक ख़्वाब जगा करके</p>
<p>मुझे अपना बता कर के</p>
<p>वो छू के गई ऐसे-----</p>
<p></p>
<p>रात भर मुझे जगाना</p>
<p>बिन बात मुस्कुराना</p>
<p>सिर मेरा ही खाना</p>
<p>कहने पे रूठ जाना</p>
<p>वो छू के गई ऐसे----</p>
<p></p>
<p>दुनियाँ भली लगी थी</p>
<p>वो जब मुझे मिली थी</p>
<p>शायद थी भागवत वो</p>
<p>था मुझको गुनगुनाना |</p>
<p>वो छू के गई…</p>
<p>हौले से हिला कर के</p>
<p>नींद से जगा कर के</p>
<p>बहती है पवन जैसे</p>
<p>वो छू के गई ऐसे |</p>
<p></p>
<p>प्यारी सी एक लड़की</p>
<p>थी सांवले कलर की</p>
<p>एक ख़्वाब जगा करके</p>
<p>मुझे अपना बता कर के</p>
<p>वो छू के गई ऐसे-----</p>
<p></p>
<p>रात भर मुझे जगाना</p>
<p>बिन बात मुस्कुराना</p>
<p>सिर मेरा ही खाना</p>
<p>कहने पे रूठ जाना</p>
<p>वो छू के गई ऐसे----</p>
<p></p>
<p>दुनियाँ भली लगी थी</p>
<p>वो जब मुझे मिली थी</p>
<p>शायद थी भागवत वो</p>
<p>था मुझको गुनगुनाना |</p>
<p>वो छू के गई ऐसे---</p>
<p></p>
<p>उड़ के गई तितली</p>
<p>अब बाग लगे सूना</p>
<p>कहने को फरवरी है</p>
<p>लगे जून का महीना</p>
<p>वो छू के गई ऐसे---</p>
<p>.</p>
<p>सोमेश कुमार</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>पुआल बनती ज़िन्दगी(कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-01-15:5170231:BlogPost:9099092018-01-15T14:59:08.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>पुआल बनती ज़िन्दगी</strong></p>
<p> </p>
<p>जब मैं गाँव से निकला तो वह पुआल जला रही थी | ठीक उसी तरह जिस तरह वह पहले दिन जला रही थी,जब मैंने उसे इस बार,पहली बार देखा था | ना तो मैं उससे तब मिला था ना आज जाते हुए | पर मैं संतुष्ट था |मेरी अभिलाषा काफ़ी हद तक तृप्त थी |मेरे पास एक उद्देश्य था और एक जीवित कहानी थी |</p>
<p> पहली बार जब मैं स्टेशन के लिए निकला तभी पत्नी ने फोन करके कहा की गाड़ी का समय आगे बढ़ गया है और जैसे ही मैं गाँव में लौटा मैंने खुशी मैं शोर मचाया और वह भी चिड़ियों की…</p>
<p><strong>पुआल बनती ज़िन्दगी</strong></p>
<p> </p>
<p>जब मैं गाँव से निकला तो वह पुआल जला रही थी | ठीक उसी तरह जिस तरह वह पहले दिन जला रही थी,जब मैंने उसे इस बार,पहली बार देखा था | ना तो मैं उससे तब मिला था ना आज जाते हुए | पर मैं संतुष्ट था |मेरी अभिलाषा काफ़ी हद तक तृप्त थी |मेरे पास एक उद्देश्य था और एक जीवित कहानी थी |</p>
<p> पहली बार जब मैं स्टेशन के लिए निकला तभी पत्नी ने फोन करके कहा की गाड़ी का समय आगे बढ़ गया है और जैसे ही मैं गाँव में लौटा मैंने खुशी मैं शोर मचाया और वह भी चिड़ियों की तरह चहक उठी |</p>
<p>पिछले 1 साल में मैं दूसरी बार ससुराल आया आया हूँ | दोनों ही बार मैंने उसे उसके द्वार पर खड़ा पाया था | दोनों ही बार मैंने उसे चुपचाप मेरी तरफ देखता पाया था |पहली बार जब मैंने उसे देखा था तो उसका भरा-पूरा शरीर और चटकदार गेहूँआ वर्ण धान की नई कटी फसल की आभा देता था |</p>
<p>कुछ समय पूर्व ही वह अपनी भूमि(ससुराल ) से कट कर या यूँ कहें अचानक आए तूफान से उखड़कर अपने माईके आ गई थी |</p>
<p>यूँ तो पहली बार से ही मैं उसके प्रति एक अजीब सा चुम्बकीय प्रभाव महसूस कर रहा था |पर तब हमारे बीच का अंतर ना वो पार कर सकी और ना मैं |</p>
<p>बस यदा-कदा जब दृष्टि-मिलन हुआ तो ऐसा लगा कि वो कुछ कहना चाहती है ,पर उस धधकती गर्मी में भी ना तो उसका मौन पिघला और ना मैं अपनी संकोच की चौखट लाँघ पाया |</p>
<p>पहली बार से ही मेरा मन उससे बतियाने को छटपटा रहा था |शायद एक जैसे दुख से गुजरने का अनुभव चुम्बक बन गया था पर हम दोनों ही आसपास के लोहे से चिपके पड़े थे और सही समय की प्रतीक्षा थी |</p>
<p>इस बार जब ससुराल पहुँचा तो द्वार पर ही अलाव जल रहा था |ठंड हांड कंपा रही थी |पत्नी, मैं और लोगों के साथ आग सेंकने लगे |वह अपने दरवाजे पर गुमसुम सी दिखी |</p>
<p>उसे देखकर पत्नी ने यहीं से आवाज़ लगाई –“माधवी उहाँ का करत हई,आव इहाँ |”</p>
<p>थोड़ी देर में वह इधर आ गई तो पत्नी ने पूछा- कइसन हई |</p>
<p>“ठीक दीदी,तू बतावा |”</p>
<p>“हम त ठीक हईं पर तू त इकदम झउस गईली |ले बहिनि के ले ---“ पत्नी ने बिटिया को मेरी गोद से लेकर उसकी तरफ बढ़ा दिया |</p>
<p>इस बीच उससे मेरी दृष्टी मिली पर |पर ना उसने अभिवादन की कोशिश की और ना मैंने उसकी इस हिमाकत पर कोई शिकायत |मुझे तो बस जलता हुआ अलाव दिख रहा था और सामने खेत में रखा हुआ पुआल का पुराना ढेर जो समय के साथ काला पड़ने लगा था |</p>
<p>उस रोज़ पूरे दिन सूर्यदेव के दर्शन नहीं हुए |पूरे दिने कौड़ा सुलगता रहा |कभी मैं उठकर घर के भीतर चला जाता तो कभी आकर फिर से शरीर गर्म करने लगता |मैं बुझती हुई आग में आसपास रखी लकड़ियाँ,पत्तियाँ उठाकर डाल देता और आग सुलग उठती |इस बीच मेरी दृष्टी उसके दुआर पर टिकी रहती और यदा-कदा जब वो दिख जाती तो ऐसा लगता कि भीतर की आँच बढ़ गई हो और मैं कौड़े पर रखी लकड़ी की तरह जल रहा हूँ |</p>
<p>पाँच बजते- बजते पूरा गाँव कोहरे की स्लेटी चादर से ढक गया था |मैं सालों के साथ बैठा आग ताप रहा था |पर मेरी दशा पूरे दिन आग जलने से बन चुके अंगार जैसी थी |मैं वहीं बैठा था पर वहीं नहीं था |तभी मुझे माधवी के दुआर पर आग की तेज़ लपटे उठती दिखी और उसमें माधवी उसकी बहन और गाँव की अन्य लड़कियों का धुँधला चित्र दिखाई दिया |</p>
<p>वे लोग पुआल जला रही थीं |आग के चारों और घूम-घूम कर आग सेंक रही थीं |कभी उनकी पीठ आग की तरफ होती तो कभी उनका चेहरा |उनकी यह हरकत मेरे लिए नई थी |शहर में हीटर और ब्लोअर के सामने कोई ऐसे घूर्णन या परिक्रमा नहीं करता |वहाँ तो हीटर को बस सामने की तरफ जरूरत के मुताबिक सरका दिया जाता है या हीट को कंट्रोल करने के लिए स्विच के कान घुमा देते हैं |</p>
<p>पुआल रखने पर पहले धुएँ का गुब्बार उठता फिर आग भभकती और फिर अँधेरा छा जाता |मुझे ऐसा लगा कि किसी पर्दे पर बाइस्कोप चल रहा है जिसमें बीच-बीच की रील खाली है |उस बाइस्कोप के साथ बजने वाला संगीत बहुत ही धीमा और बहुत ही अस्पष्ट था |पर मेरे भीतर का दर्शक लालायित था उस पूरी फिल्म को जानने,देखने और उसे नए कलेवर में पेश करने के लिए |</p>
<p>अगले दिन मैं,पत्नी,चचिया-साली दुआर पर बैठे हाथ सेंक रहे थे |दिन के नौ बज चुके थे पर कुहाँसा जस का तस |उसे उसके दुआर पर टहलता देख पत्नी ने पुकार कर कहा –“माधवी उहाँ पाला में अकेले का टहरत हई,आव इहाँ,केसे लजात हई,जीजा से का----“</p>
<p>धीमे-धीमे वो ऐसे आई जैसे कोई बिल्ली सोए हुए कुत्तों से बचने के लिए दबे पाँव आती हो |</p>
<p>वो चुपचाप आकर अलाव के एक तरफ बैठ गई |तभी आग कम होने पर पत्नी ने पास पड़ी ओसियाई पत्तियाँ रख दी,धुआँ उठा जो हवा से मेरी तरफ मुड़ गया |धुएँ से बचने के लिए मैंने अपनी कुर्सी माधवी की तरफ खिसका दी |</p>
<p>“चाची गईनी स्कूले ?” पत्नी ने पूछा</p>
<p>“हँ |”</p>
<p>“और तोर मम्मी-पापा |”</p>
<p>“उहो चल गइनअ काम पे |”</p>
<p>“चाची ठीक से रहेनि ---हमार मतलब कि तो से टेढ़-सोझ त ना बतियावे नी |”</p>
<p>वो चुपचाप गर्दन गड़ाए बैठी रही और चचिया-साली ने जवाब दिया-का बताई रे दीदी,चाची ना हईं डंकुनी हईं,जब देखा तब दीदी के पाछे लगल रहेनी |</p>
<p>“मम्मी-पापा कुछ ना कहेंनअ ?”पत्नी ने पूछा</p>
<p>“थेथर के मुँहे के लगि दीदी |” इस बार सजल आँखों से माधवी ने कहा</p>
<p>“उनके लाज ना लगेले,सोचे के चाही बेचारी क भगवान ना बिगड़ले होतं त काहे इहाँ रहत ,और जब चूल्हा-चौका सब अलग ह |त उनके त कौनों मतलब ना रखे के चाही,जाए दे बहिनी,सब्र कर ,भगवान चहिअं त सब ठीक हो जाई ,कीचड़ हईं पत्थर फैंकले कउनो लाभ ना |”ऐसा कहते हुए पत्नी का चेहरा वेदना,गुस्से से भरा हुआ था |</p>
<p>“जीजाजी तनि उ लकड़िया ऊपर चढ़ा दीं |” मेरी तरफ की बुझती हुई लकड़ियों की तरफ ईशारा करते हुए माधवी ने हल्की आवाज़ में कहा</p>
<p>ये उसका मेरे प्रति पहला सम्बोधन था |</p>
<p>मैंने देखा कि आग पर रखी हल्की सूखी टहनियों ने आग पकड़ना शुरु कर दिया है और उनके पिछले शिरों से सनसनाती हुई भाँप निकल रही थी |जमी बर्फ़ आज पहली बूंद के रूप में टपकी थी |और एक चातक की तरह उस पहली चिर-प्रतिक्षित बूंद को पीकर में गदगद था |</p>
<p>उसी दिन ससुराल के दलान मैं बैठी हुई वह चुपचाप मुझको देखती रही| मैंने महसूस किया की वह कुछ कहना चाहती है पर ठंड ने उसके शब्दों को जमा रखा था | इस बीच कई बार हमारी नजरों का आमना-सामना हुआ |वहाँ बैठे सभी लोगों से हम बतियाते रहे पर एक दूसरे से---</p>
<p>फिर जब मैं नहा कर बाहर निकला तो वह अपने दुआरे पर पुआल जला रही थी | मुझे देखकर वह बोली-जीजा आईं हाथ ताप लीं |</p>
<p>पहले मैंने उसके निमंत्रण को अनसुना किया | फिर एक बार दोबारा नजरों का सामना होने पर उसके निमन्त्रण को अस्वीकार ना कर सका |</p>
<p>लपटों से कुछ दूर खड़ा होकर मैं आग तापने लगा |वह दूसरी तरफ खड़ी थी |आग कम होने पर वह पास पड़े ढेर से फिर पुआल उठाकर डाल देती और लपट फिर बढ़ जाती |इस बीच कई बार हमारी नजरों का आमना-सामना हुआ और फिर दोनों ही झिझक कर नजर घुमा लेते |</p>
<p>एक बार फिर जब वह पुआल उठाने के लिए बढ़ी तो मैंने गला साफ़ करते हुए कहा –“ऐसे तो यह बहुत जल्दी खत्म हो जाएगा |”</p>
<p>“हो जाए देंई| जितना जल्दी खतम होई ओतना जल्दी शांति हो जाई |”उसने बहुत ही बेमन से कहा |</p>
<p>मैंने देखा उसकी आँखों में कोई चमक ना थी |चेहरा निस्तेज और भावशून्य था |मैंने एक नजर आकाश की तरफ देखा | हल्का चमक रहा सूर्य पुनः बादलों में मलिन हो गया था |</p>
<p>पुआल पड़ने के बाद पहले काला तेज़ धुआं उठता और फिर लपट |धुएँ से बचने की कोशिश में मैं उसकी तरफ सरका और लपट की आँच बढ़ने पर थोड़ा और उसकी ओर खिसक गया |पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी |लपट कम होने पर मैं हल्का सा अलाव के पास खिसकता और वो झट से एक ढेर पुआल और रख देती |</p>
<p>“सर्दी में आग चुम्बक की तरह है पर ये पुआल का आग- - - “ मैंने हाथों को रगड़ते हुए कहा</p>
<p>“कहावत ह कि पोरा क तापल अउर करज ज़्यादा दिन ना पोसाला “ उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा</p>
<p>मैंने देखा कि उसके फीके चहरे पर हल्का सा उजलापन प्रकट हुआ था ठीक उसी तरह जैसे आकाश का सूर्य बादलों के धुंधलके से निकलकर कुछ चमकदार हो गया था</p>
<p>“तब से तुम गई नहीं |”मैंने बर्फ की पिघलन को महसूस करते हुए कुछ और बूंद पीने की चेष्टा की</p>
<p>“जाए के रहनि पर मम्मी-पापा नहिं भेज रहे- - -ससुर जी आए थे लिवाने तीन महिना पहिले |”</p>
<p>“पर वहाँ जाकर करोगी भी क्या !------देवर ने तो शादी से मना कर दिए थे ना ?”</p>
<p>“हाँss----कहते थे भाभी को दूसरी भावना से नहीं देख पाएँगे ” गहरी साँस लेकर बोली और फिर पुआल लाने को उठ गई</p>
<p>“हो सकता है उन्हें कोई और पसंद रहा हो ?”</p>
<p>“नहीं,तब तो उन्होंने इन्टर की परीक्षा दी थी |मुझसे छह साल छोटे हैं |वो मुझसे कोई बात नहीं छुपाते थे | कोई भी जरूरत होती तो भाई से ना कहकर मुझे कहते थे |”</p>
<p>“वैसे ऐसे मामले में जबरी होनी भी नहीं चाहिए |आज ही के अख़बार में मैंने पढ़ा था कि एक सोलह साल के देवर की उसकी तीन बच्चों वाली भाभी से शादी करवा दी गई----शादी के बाद वो</p>
<p>लड़का फाँसी लगा लिया |” मैंने दिशा बदलते धुएँ से बचते हुए कहा</p>
<p>“वो बहुत अच्छे लोग हैं |मैं नहीं चाहती की मेरी वजह से किसी की ज़िन्दगी नर्क बने |मैं जब तक रही मुझे सिर माथे पर रखा गया है |इतना प्यार सम्मान तो मुझे मइके में भी नहीं मिला ---बस इस खुशी की उम्र छोटी थी----पता नहीं किसकी नज़र-----“मैंने देखा कि आग बुझने लगी है मैंने लपक थोड़ा सा पुआल लाकर डाल दिया</p>
<p>“तो क्या ससुराल वालों ने खानदान में कहीं बात नहीं चलाई ?”</p>
<p>“पिताजी(ससुर) चाहते हैं कि मैं उनके घर में ही रहूँ ----वो अब भी कोशिश कर</p>
<p>रहे हैं |”</p>
<p>“अच्छे लोगों को दुनियाँ चाहती है |मेरे पड़ोस में भी एक ऐसा कपल है |देवर उनसे छह साल छोटा है |जब उनके यहाँ हादसा हुआ तो वह बीस साल का था |आज दोनों इतने घुले-मिले हैं कि कोई जान ही नहीं पाता |वो लेडी भी बहुत अच्छी हैं |----देवर की तुमसे बात होती है ?”</p>
<p>“हाँ,सभी लोगों से बात होती है |----ससुर जी तो कहते हैं बेटी अगर कोई जरूरत हो तो संकोच मत करना |----पर खुद को ही अच्छा नहीं लगता |”</p>
<p>“ये पुआल ओसियाई है “मैंने फिर से बात को आँच देने के लिए कहा</p>
<p>“तभी तो इतना धुआँ है |” उसने सपाट सा उत्तर दिया</p>
<p>“तो फिर और कहीं से कोई बात चली |” मैंने टूटे क्रम को जोड़ते हुए पूछा</p>
<p>“मन ही नहिं करता अब,जीजाजी – - -इतना कुछ देख लिए कि बस यही जी चाहता है कि जल्दी से इस शरीर से मुक्ति मिले “वो दहकते पोरे को देखते हुए बोली</p>
<p>“अभी तो तुम बहुत छोटी हो---बामुश्किल पच्चीस-छब्बीस !और अभी से इतनी निराशा !”</p>
<p>“क्या करें जीजाजी !अभी मेरे बाद दूठो बहिन हैं ----मेरे चक्कर में उनकी भी बात रुकी हुई है |”अपराधबोध से उसका चेहरा मलिन हो उठा</p>
<p>“पर अपनी दशा की तुम तो जिम्मेवार नहीं हो ----इस खिलौने में चाभी भरने वाला तो ऊपर वाला है |चाभी खत्म और खिलौना बेकार-----इसके लिए खुद को क्यों दोष देना |” मैंने एक दार्शनिक की तरह कहा</p>
<p>“आप सही कह रहे हैं |पर देखिए पुआल की आग कुरेदने में यह कइन भी सुलगने लगी है |”</p>
<p>उसने हाथ में पकड़ी पतली सुलगती कईन को मिट्टी पर रगड़ते हुए कहा |</p>
<p>मैं समझ नहीं पाया कि ये ईशारा उसकी तरफ़ था या मेरे प्रति| पर फिर भी मैंने बात को जारी रखने के लिए कहा-मैं जानता हूँ कि उपदेश देना सरल है पर उसे जीना बहुत कठिन |पर मैंने भी तुम्हारे दर्द को अनुभव किया है |मैं स्वयं इस पीड़ा का भोक्ता हूँ |मैं यह भी समझता हूँ कि ज़िन्दगी की दूसरी पारी शुरु करना इतना आसान नहीं है और एक स्त्री के लिए तो बिल्कुल नहीं |</p>
<p>“पहली दीदी को क्या हुआ था ?” उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा</p>
<p>“बीमार थी---बीमारी समझ नहीं पाया---उसकी जिद्द और अपने अनुभव की कमी के कारण उसे भाई की शादी में जाने दिया---एक तरह से मैं ही उसकी मौत का कारण हूँ |” मैंने सामने खड़े सूखे बेर-पेड़ की तरफ देखते हुए कहा</p>
<p>“आपने कोई जान-बुझकर तो नहीं किया| अगर आप जानते तो भेजते ही क्यों ?” मैंने पाया कि मेरे कथन से कौड़े की राख कुछ-कुछ उड़ चली है और उसका मन तेज़ पिघलना शुरु हो गया है |</p>
<p>मैंने नाक में भर आए पानी को छिनका और मुँह में आई बलगम को खखार के थूका और कुछ सोचने लगा</p>
<p>“आप को तो सरदी हुई है |”</p>
<p>“हाँ,लगता है बलगम सूख गया है |” मैंने गले के अंदर से आ रही दुर्गन्ध को महसूस करते हुए कहा</p>
<p>“अजवाइन और कड़ू तेल पैर-हाथ में मलिए और आग सेंकिए|आराम होगा |” उसने एक ज्ञानी की भाँति कहा </p>
<p>“डाक्टरी करी हो क्या !” मैंने माहौल को हल्का करने की गरज से पूछा</p>
<p>“ये तो दादी-परदादी का ज्ञान है |यहाँ ना तो इतने डाक्टर हैं ना हर कोई जरा-जरा सी बात पर टिकिया(दवाई ) खाता है |” उसने फींकी मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया</p>
<p>“मेरे विचार से एक साल हो गया होगा ---तुम्हारी शादी हमारी इस शादी के बाद हुई थी ना ?”</p>
<p>“मालती दीदी से पहले हुई थी -----अब तो इस घटना को भी डेढ़ बरिस होने को आया |”</p>
<p>“तो क्या शादी से पहले पता नहीं था या ससुराल वालों ने जानबुझकर छुपाया था ?”</p>
<p>“पता नहीं पर एक महीने तक सब ठीक था |एक दिन उन्हें अचानक बुखार लगा |फिर बाद में दिमागी बुखार बन गया |लम्बा इलाज चला और ये ठीक भी हो गए थे |गाँव आ रहे थे |सासजी पूजा मानी थीं और ट्रेन में सोते हुए ही------|”उसकी आँख भर आई थी</p>
<p>“माफ़ करना मैंने तुम्हारे घाव को—“ मैंने गहरी साँस लेते हुए कहा</p>
<p>“कोई बात नहीं जीजाजी आप ने मवाज निकाली है वरना लोग तो घाव पर नमक-मिरच डाल देते हैं |” उसने घर की छत पर फ़ोन पर बतियाती चाची की तरफ ईशारा करते हुए कहा</p>
<p>“पता है जिस रोज़ मैंने तुम्हारी दीदी(पहली पत्नी ) को खोया उसी रोज़ हमें ट्रेन से वापस दिल्ली आना था |हम दोनों की ज़िन्दगी में ये ट्रेन कॉमन है |मैं जब सुबह उठा तो वह शांति से सो रही थी |मुझे लगा शायद बीमारी और थकावट है |मैंने उसकी मौसरी बहन को भी उसे जगाने से रोक दिया पर बाद में उसकी मौसी को ----” ऐसा कहते हुए मेरा गला रुंध आया</p>
<p>“हम लोग जब बनारस आए तो देखा कि स्टेशन पर गाँव-घर के दस लोग खड़े थे |ससुरजी को पहले ही मालूम हो गया था पर उन्होंने हममें से किसी को अहसास नहीं होने दिया |सास ने एक बार उन्हें पुकारा तो डाँट कर कह दिया कि बीमारी से उठा है इसे आराम करने दों “ ऐसा कहते हुए उसकी भी आवाज रुंध गई थी |</p>
<p>“शायद अगर उस समय पता चल जाता तो बाकी यात्री परेशानी खड़ी कर देते---“ मैंने अपना गला साफ़ करते हुए कहा और वो आग कुरेदने लगी |कुछ देर सन्नाटा रहा |</p>
<p>“तुम्हें आगे की सोचना चाहिए |अभी तो केवल चौब्बीस की हुई हो |जो गया वो तो वापिस नहीं आने वाला ----पर ज़िन्दगी तो चलती हुई रेलगाड़ी है---तुम्हें इस तरह दुखी देखकर तुम्हारे मम्मी-पापा पर क्या गुजरती होगी |”</p>
<p>“आप सही कह रहे है पर किस्मत के आगे किसका जोर है |” उसने कईन आग में फैंक दी और अपनी सूनी कलाईयों की तरफ देखने लगी</p>
<p>“मेरे पिताजी का जाति-बिरादरी में अच्छा व्यवहार है |कई रिश्ते करा चुके हैं |भगवान ने चाहा तो-----पर मुझे तुम्हारा बायोडाटा चाहिए |”मैंने गला साफ़ करके कहा</p>
<p>“नाम-गाम-पता तो आप जानते ही हैं |”</p>
<p>“क्या तुम्हारी कोई चॉइस----मेरा मतलब बच्चा चलेगा या नहीं,विधुर ही चाहिए या तलाकशुदा भी चलेगा |”</p>
<p>“आप ज़्यादा ज्ञानी हैं |ज़्यादा दुनियाँ देखें हैं----कोई चार बच्चों का बाप ले आता है तो कोई बाप की उम्र वाला ----कभी-कभी मन करता है कि------“ वो फिर रुआंसी होने लगी थी</p>
<p>“शहरों में तलाक लेने का ट्रेंड बढ़ रहा है और लड़को से लड़कियों इस मामले में आगे हैं और इसका कारण जानती हो क्या है !”</p>
<p>वो मेरा मुँह देखने लगती है और मैं बात आगे बढ़ाता हूँ</p>
<p>“ये पुआल झट से जलकर समाप्त हो जाती है पर ये लकड़ी कि टहनियाँ जितनी मोटी और हरी होती हैं उतनी ही मुश्किल इन्हें भस्म करने में लगती है |”उसकी शक्ल से मैं समझ जाता हूँ कि</p>
<p>मेरे भारी-भरकम शब्द उसकी वेदना बढ़ा रहे हैं तो मैंने आम-लहजे में कहा</p>
<p>“तुम्हें आत्म-निर्भर बनना चाहिए |कुछ ऐसा पढ़ना-सीखना चाहिए जो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा कर सके |मेरा मतलब कुछ ऐसा करों कि तुम्हें अपनी जरूरतों के लिए किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े---तुम्हारें घर की हालत भी तो बहुत अच्छी नहीं है --शहर की लड़कियाँ आत्म-निर्भर होती हैं इसलिए वो पुआल नहीं हैं |”</p>
<p>“क्या करें जीजाजी ! जो कुहरा मन में बैठ गया है छंटता ही नहिं---किसी चीज़ में मन नहीं लगता |कभी-कभी गाँव घर का कोई आ जाता है तो उससे बोल बतिया लेती हूँ वर्ना मेरा तो सारा दिन दुआर-ओसार में अकेले बीतता है |”</p>
<p>“जब हवा बहती है तो कुहांसे को काट देती है |जब तुम बाहर निकलोगी तो अधिक लोगों से मिलोगी---नए अनुभव मिलेंगे---ये भी जानोगी की कैसी-कैसी परिस्थतियों में लोग जी रहे हैं –चारदीवारी में तुम खुद को सबसे दुर्भाग्यशाली मानोगी पर बहर जाकर देखों-दुनियाँ में कितने गम हैं----क्या तुम्हें अच्छा लगता है जब तुम्हें कोई बेचारी कहता है! मुझे तो इस शब्द से भी कोफ़्त है !</p>
<p>“अच्छा तो नहीं लगता पर लोगों की जुबान पर ताले भी तो नहीं लगा सकते |”उसने सिर झुकाए हुए ही कहा</p>
<p>“तो इस बेचारगी से बाहर निकलने का रास्ता तलाशों ! अगर मैं मदद की जरूरत हो तो बताना |”</p>
<p>“जी |” उसने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा</p>
<p><span> </span></p>
<p>“अच्छा सुनों !मैं सोचता हूँ कि तुम्हारी जानकारी कम्प्यूटर पर डाल दूँ जिससे और लोग भी देख सकें ---चांस बढ़ जाएगा |”कहने को तो मैंने कह दिया पर पर मैं जानता हूँ कि एक साल तक चकाचौंध भरे इस बाजार में मेरा खुद का,एक सरकारी नौकर का विज्ञापन खुद को बेच नहीं सका और अंत में अगुआ की परम्परा से ही मेरी नौका पार लगी |</p>
<p>“आप ज़्यादा अच्छे से जानते होंगे |मैं तो बहुत पढ़ी-लिखी नहीं हूँ |” तभी आसपास के कुछ और लोग आकर वहाँ खड़े हो गए और फिर इधर-उधर की बाते शुरु हो गई</p>
<p>उस रोज़ से अपने ससुराल के घर से निकलने के बाद मेरी नजर उसके घर की तरफ ही जाती और उसे नजरे मिलने पर एक अजीब सी शांति महसूस होती |उस रोज़ के बाद हमारी हल्का-फुल्की बातचीत होने लगी |मैंने महसूस किया की सम्बन्ध का तापमान बढ़ने लगा है और बर्फ अब पिघलना शुरु हो चुकी है |</p>
<p>अब जब भी वह पुआल जलाती मैं बिना किसी संकोच के उसके दुआरे चला जाता |कभी-कभी जब मेरे दुआर पर कौड़ा जल रहा होता तो ससुरालपक्ष से घिरा में प्रतीक्षा करता कि वो आग तापने इधर आ जाए |कई बार वो आ जाती और कई बार वह अपने दुआर पर पुआल सुलगा कर तापने लगती और उस वक्त महसूस होता कि मेरे फेफेड़े उस धुएँ से भर के काले हो रहे हैं |मुझे उसकी इस हरकत पर खीझ होती और अपनी स्थिति पर क्षोभ |इस बीच एक बार मैंने पत्नी से अपने मन की बात कही | उसने यह कहकर मेरी बात काट दी कि कुछ ऊँच-नीच हो गया तो हम लोग ही दोषी बनेंगे |</p>
<p>मैंने फिर इस बात की पत्नी से चर्चा करना ठीक नहीं समझा| स्त्री-बुद्धि जाने क्या सोचने लगे ?</p>
<p>सुसराल के आखिरी दिन मैंने देखा कि उसके दुआर पर रखा पुआल का ढेर लगभग समाप्त हो गया है और वहाँ राख का ढेर लगा हुआ |मैंने ये भी नोटिस किया कि उसके दुआर पर कोई भी जाकर बे-रोक टोक पुआल जलाता है और हाथ सेंक कर चला आता है |पर मेरी मंशा सिर्फ हाथ सेंकने की नही थी |मैं जानता हूँ कि किसी कलाकर के हाथ जाने पर वो इस पुआल से खुबसुरत चटाई ,पायदान,रस्सी और जाने क्या-क्या बना सकता है |मैंने तय कर लिया था कि मुझे एक माध्यम बनना है |इस पुआल को जलने या सड़ने से बचाना है और किसी कलाकार के हाथों में इसे सौपना है ताकि वो एक लम्बी अवधि तक एक जीवन-कृति बनी रहे |</p>
<p>मैं अपने शहर आ चुका हूँ |पिताजी से उसकी चर्चा छेड़ चुका हूँ और पिताजी से उसके रिश्तों पर मंथन होने लगा है |मैंने ऑनलाईन माध्यमों से भी उसका प्रोफाइल रजिस्टर करना शुरु कर दिया है |मैं उसे सिर्फ एक कहानी बनाकर नहीं छोड़ना चाहता मैं उसे दोबारा एक जीवंत-कृति के रूप में देखकर ही संतुष्ट हो पाऊँगा |</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>
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<p> </p>कंधों का तनाव(कहानी )tag:openbooks.ning.com,2018-01-12:5170231:BlogPost:9088742018-01-12T16:18:20.000Zsomesh kumarhttp://openbooks.ning.com/profile/someshkuar
<p><strong>कंधों का तनाव</strong></p>
<p></p>
<p>जो आज हुआ वो अप्रत्याशित था |साढ़े नौ बजे जब में उतरा तो यकीन था कि भोजन आ रहा होगा |बाइक लॉक करके और टी.वी. चलाकर मैं भोजन का इंतजार करने लगा |जिस निशिचिंत्ता से पिताजी सोए थे मुझे यकीन था कि वो खा चुके होंगे |माताजी चूँकि नीचे बैठीं थी इसलिए ये विश्वास था कि या तो वो खा चुकी होंगी या खा रही होंगी |इसी बीच पिताजी ने करवट ली और टी.वी. देखने लगे |मैं निश्चिन्त था कि पिताजी खा चुके होंगे |घड़ी सवा दस बजा चुकी थी और मैं उहापोह में था |सुबह और दोपहर का…</p>
<p><strong>कंधों का तनाव</strong></p>
<p></p>
<p>जो आज हुआ वो अप्रत्याशित था |साढ़े नौ बजे जब में उतरा तो यकीन था कि भोजन आ रहा होगा |बाइक लॉक करके और टी.वी. चलाकर मैं भोजन का इंतजार करने लगा |जिस निशिचिंत्ता से पिताजी सोए थे मुझे यकीन था कि वो खा चुके होंगे |माताजी चूँकि नीचे बैठीं थी इसलिए ये विश्वास था कि या तो वो खा चुकी होंगी या खा रही होंगी |इसी बीच पिताजी ने करवट ली और टी.वी. देखने लगे |मैं निश्चिन्त था कि पिताजी खा चुके होंगे |घड़ी सवा दस बजा चुकी थी और मैं उहापोह में था |सुबह और दोपहर का खाना मेरे लिए नीचे से आया था इसलिए मुझे विश्वास था कि इस वक्त का भोजन भी नीचे से आएगा |मुझे लग रहा थी कि शायद नीचे गर्मागर्म रोटी बन रही हो इसलिए विलम्ब हो रहा है |इस बीच मेरी भूख बहुत बढ़ चुकी थी इसलिए मैंने शाम को मेहमानों को परोसे लड्डूओं में से बचे दो लड्डू गटक लिए थे |साढ़े दस बजे माताजी ऊपर आई और पिताजी की बगल में आकर बैठ गईं |मैं अभी भी उलझन में था भूख के मारे दम निकल रहा था||पर मैं माताजी या पिताजी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था |मुझे डर था कि वो जान ना जाएँ कि मैं अभी तक भूखा हूँ |दस मिनट बाद पिताजी ने माँ से पूछा-खाना खा लिया |</p>
<p>“जैसे तुम खाइ लिए वैसे मैं खाइ ली |”माँ झुंझलाकर बोली</p>
<p>“मतलब !” पापा ने गुस्साते हुए पूछा</p>
<p>“सब लोग हांड़ी-बर्तन पोंछ कर सो गए है |”</p>
<p>“बड़कुउ के ड्यूटी जाने के लिए ताज़ी रोटी बनी थी अपने बबुआ को भी उसी में से दे दी |बाकि लोग सुबह की रोटी सब्ज़ी भात खा कर सो गए |”</p>
<p>“तुम तो नीचे ही थी तुमसे किसी ने नहीं पूछा |”</p>
<p>“हमहि बेशर्म की तरह पूछ लिए कि बहुरिया का आज खाए के ना मिली |”</p>
<p>“तो क्या बोली |” पिताजी ने झल्लाते हुए कहा</p>
<p>“यही कि छुटकउ नहि बना रहे क्या !”</p>
<p>“तो तुम कुछ नहीं बोली |”</p>
<p>“हमने कहा कि तुम्हारे रहते छुटकउ हमारा खाना बनाएगा |”</p>
<p>“फिर !”</p>
<p>“वो तो कुछ नहीं बोली पर जो उनकी बड़की दुलारी है ना वो बोली कि चाचा चाची के रहने पर भी तो बनाते हैं |”</p>
<p>“कल ही हमारी टिकट निकलवा दे |जो लिखा होगा वो होगा पर हम दर-दर के भिखारी नहीं बनेंगे |” पिताजी ने भड़कते हुए कहा</p>
<p>“ये कोई हल नहीं है |ये घर आपका बनाया हुआ है |ऐसे भागने से काम नहीं चलने वाला |अगर वो लोग आपको बोझ समझते हैं तो आप भी एक कड़ा फैसला लो |चाहे इस फैसले की आँच में मैं भी झुलस जाऊँ” मैंने बिगड़ते हुए कहा <br/> “दूध रखा है मैं दलिया बना लेती हूँ |” माँ ने उठते हुए कहा पर मैंने माँ का हाथ पकड़ लिया</p>
<p>“यहाँ रहते हुए आप मेरे या पिताजी के लिए खाना नहीं बनाओगी |मैं अपना खाना बना लूँगा |अगर बड़के भाई का परिवार आप दोनों का भोजन नहीं खिला सकता तो आप लोग समझिए की आपको क्या करना है |”</p>
<p>“मैं अभी बड़की को बुलाकर पूछता हूँ |” पिताजी ने चेहरा तमतमाते हुए पूछा</p>
<p>“हड़बडी मत करिए ---हो सकता है कुछ बना कर आप लोगों के लिए ले आएँ------नहीं तो सुबह जब भाईसाहब आएँ उनसे पूछिए और जहाँ तक मेरा सवाल है मैं होटल जा रहा हूँ खाने |”</p>
<p>मैं खड़ा होकर कुछ देर टहलता हूँ और विचार-मंथन करता हूँ |मुझ इस बात की कोई शिकायत नहीं है कि मुझे खाना नहीं मिला |शादी के बाद से हम दोनों भाईयों के चूल्हे अलग हैं और हम दोनों पिताजी द्वारा बनवाए मकान के अलग-अलग माले पर रहते हैं |तेरह साल पहले वी.आर.एस. लेने के बाद पिताजी और माँ गाँव चले गए और वहीं पर पिताजी ने मकान बना दिया है और गाँव की सड़क पर एक दुकान ले ली है |शहर के घर और गाँव की दुकान की कीमत ही लगभग 50 लाख से ऊपर है |</p>
<p>|शहर का घर बीस साल से पुराना हो चुका है |पत्थर की छत और ऊपर की मंजिल होने के कारण हर गर्मी में छत पर दरार पड़ जाती है और बरसात में किचन और कमरे चूने लगे हैं जिसकी हर बार मरम्मत करानी पड़ती है |इसके अलावा खुला घर होने के कारण गर्मी में तेज़ धूप,सर्दी में शीतलहर और बरसात में पानी सीधा मुँह पर पड़ता है और पत्नी इस बात पे चिढ़ी रहती है कि घर क्यों नहीं बन रहा |</p>
<p>पिछले तीन सालों से मैं पिताजी से इस समस्या का हल निकालने के लिए कह रहा हूँ |हर बार पिताजी आते हैं,नीचे जाते हैं,भाभी अपना रोना रोती हैं,भाईसाहब पैसे ना होने का हवाला और तीन बेटियों की शादी का हवाला देते हैं और पिताजी अपना सा मुँह लिए कुछ दिनों बाद गाँव लौट जाते हैं |इस बीच मैंने बिल्डर से मकान बनवाने ,खुद मकान बनाकर कर बिल्डर की तरह देने,घर की कीमत लगाकर आधे पैसे लेने या देने के सारे प्रस्ताव दे डाले हैं पर उन लोगों के कानों पर जूँ नहीं रेंग रही |और एक अच्छा घर बनाने की मेरी समस्या जस की तस है |</p>
<p>समय के साथ क्रमशः पिताजी के घुटनों और माँ की कमर ने जवाब दे दिया है |पिछले साल ही मैं माँ को इलाज के लिए अपने साथ ले आया था |पर माँ की बीमारियाँ हैं कि खत्म ही नहीं होती |यद्यपि सरकारी सेवक होने के कारण मुझे निजी अस्पतालों की सुविधा प्राप्त है परंतु अपने विभाग के भ्रष्टाचार और लाल-फीताशाही के कारण मैं यथा संभव विभागीय डिस्पेंसरी व् सरकारी अस्पताल से ही इलाज कराना पसन्द करता हूँ |तथापि माँ के ईलाज की तीन फाईले नौ माह से कैमो ऑफि स से पास होने की प्रतीक्षा कर रही हैं |</p>
<p>बड़े भाई प्राईवेट कर्मचारी हैं और उन्हें ई.एस.आई. की सुविधा प्राप्त है |भीड़-भाड़ होने के बावजूद माँ को कमर दर्द में ई.एस.आई. की दवाई लगती है इसलिए मैंने ये जिम्मेवारी भाई के कंधे पर डाल रखी है जिसे वो शायद पसंद नहीं करते |एकाध बार ये उड़ते हुए भी सुना कि जब मैं गाँव से माँ को लाया हूँ तो खुद ही सारी जिम्मेवारी क्यों नहीं उठाता |माताजी मेरे साथ ही रहती हैं और पिताजी भी जब आते हैं ऊपर ही ठहरते हैं |इस बीच जब कभी मुझे सपत्नी बाहर जाना होता है तो उन लोगों की जिम्मेवारी भाईसाहब पर आ पड़ती है |</p>
<p>ऊपर रहते हुए पिताजी का हमेशा रौब रहता है और उन्हें चाय या खाने में तनिक देरी बर्दाश्त नहीं है |पत्नी से इस बात को लेकर मेरी कई बार बहस भी हो चुकी है और वे कहती है कि तुम और तुम्हारे माँ-बाप स्वार्थी हैं वे कभी मेरी परेशानी नहीं समझने वाले |इस बार भी अकेलेपन,घुटने के दर्द और सर्दी से परेशान होकर पिताजी यहाँ चले आए हैं |</p>
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<p>“दिसम्बर के अंत में सपरिवार मुझे ससुराल जाना था इसलिए नवम्बर में पिताजी ने जब आने की बात की तो मैंने भी कह दिया कि आप आ जाएँगे तो माँ को साथ मिल जाएगा |वरना अकेले वो परेशान होंगी |”</p>
<p>जब पिताजी आए तो भाभी ने माँ से पूछा कि अपनी मर्ज़ी से आए हैं या बुलवाया गया है |</p>
<p>माँ ने भावावेश में कह दिया कि छुटकउ ने टिकट करा के बुलवाया है |भाभी को ये बात अखर गई |उन्हें लगता है कि इसके पीछे मेरी कोई दुर्भावना है |</p>
<p>मैं कल ही ससुराल से दस दिन बाद लौटा हूँ |जरूरी काम आ जाने से पत्नी को वहीं रुकना पड़ा है |दोपहर तक सब ठीक लग रहा था पर अब कि परिस्थितियों ने मुझे उलझन में डाल दिया है |इसी बीच पिताजी ऊपर से बड़ी भतीजी को आवाज़ लगाते हैं कि खाने में इतनी देरी क्यों |मैं होटल से खाना लेने के लिए चल देता हूँ |</p>
<p>मैं होटल आ गया हूँ और वहीं से पिताजी से फ़ोन पर पूछता हूँ कि खाने के लिए कुछ आया |</p>
<p>“अभी तक तो नहीं |”</p>
<p>“आप लोगों के लिए भी ले आऊँ ?”</p>
<p>“तुम खाकर आ जाओ |”</p>
<p>पर मेरा मन नहीं मनाता और मैं दाल-मखनी और छह रोटी लेकर घर आ जाता हूँ |मैं माँ और पिताजी दोनों से खाने का आग्रह करता हूँ |माँ होटल का खाने से मना कर देती हैं और दो-तीन बार कहने के बाद पिताजी और मैंतीन-तीन रोटी खा लेते हैं |</p>
<p>माँ एक कप दूध पीकर लेट जाती है |</p>
<p>तनाव हम तीनों के चेहरे पर है पर मैं नहीं जानता कि यह तनाव कल सुबह कोई विस्फोट करेगा या हर बार की तरह नीचे जाकर पिताजी फुस्सी बम हो जाएँगे और कल से ऊपर ही मुझे माँ के साथ खाना बनाने में उनकी मदद करनी होगी और एक बार फिर से मेरे कंधों का तनाव बढ़ जाएगा और भाईसाहब हल्का कंधा किए मन ही मन मेरी तात-भक्ति पर मगन होते रहेंगे |</p>
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<p>11/01 /2018</p>
<p>सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>
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