Prabhakar Pandey's Posts - Open Books Online2024-03-28T15:17:04ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandeyhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991275918?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=2xe0z1schxwjv&xn_auth=noविराम-चिह्न की आत्मकथाtag:openbooks.ning.com,2011-11-24:5170231:BlogPost:1693122011-11-24T10:00:00.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
<table align="center" cellspacing="3">
<tbody><tr><td class="style6"><p class="style4"> </p>
</td>
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<tbody><tr><td class="style6"><div class="style6"><p><span style="color: #00ff00;"><strong>विराम-चिह्न की आत्मकहानी, सुनें उसी की जुबानी ।</strong></span></p>
<p> </p>
<p><span style="color: #000080;">मैं विराम-चिह्न हूँ। कुछ विद्वान मुझे विराम चिन्ह या विराम भी बोलते हैं लेकिन मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हाँ, एक बात मैं…</span></p>
</div>
</td>
</tr>
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<tbody><tr><td class="style6"><p class="style4"> </p>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
<table class="style6" align="center" cellspacing="4">
<tbody><tr><td class="style6"><div class="style6"><p><span style="color: #00ff00;"><strong>विराम-चिह्न की आत्मकहानी, सुनें उसी की जुबानी ।</strong></span></p>
<p> </p>
<p><span style="color: #000080;">मैं विराम-चिह्न हूँ। कुछ विद्वान मुझे विराम चिन्ह या विराम भी बोलते हैं लेकिन मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हाँ, एक बात मैं बता दूँ; मेरी कोशिश रहती है कि लिखित वाक्यों आदि में मैं किसी न किसी रूप में उपस्थित रहूँ । मैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बन रहा पर एक दिन मेरे गुरुजी बता रहे थे कि दुनिया में जो भी वस्तु, संकल्पनाएँ आदि हैं; सबका अपना-अपना महत्व होता है । मुझे जिज्ञासा हुई और मैंने गुरुजी से पूछा, "गुरुजी मेरी उपयोगिता क्या है ?"गुरुजी मुस्कुराए और बोले, "विराम! बेटे विराम! तुम तो बहुत काम के हो। तुम्हारी अनुपस्थिति में अर्थ का अनर्थ हो जाए और वाक्यों में संदिग्धता आ जाए।" मुझे प्रसन्नता हुई और फिर मैंने गुरुजी से प्रार्थना की कि जरा मेरे परिचय के साथ-साथ मेरी उपयोगिता पर भी प्रकाश डालने की कृपा करें । गुरुजी ने जो कुछ बताया, वह सब मैं बयाँ कर रहा हूँ; कान तो दीजिए।</span></p>
<p><span style="color: #000080;">लिखित भाषा की स्पष्टता, अर्थपूर्णता, प्रभावपूर्णता आदि में मेरा योगदान अविस्मरणीय एवं अमूल्य है। आइए, एक उदाहरण की सहायता से समझाता हूँ -</span></p>
<p><strong><span style="color: #800080;">पढ़ो, मत लिखो। इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि पढ़ने के लिए कहा जा रहा है।</span></strong></p>
<p><span style="color: #000080;">उपरोक्त वाक्य में जरा मेरे (विराम चिन्ह) स्थान में परिवर्तन करके देखते हैं - <strong><span style="color: #800080;">पढ़ो मत, लिखो।</span></strong></span></p>
<p><span style="color: #000080;">इस वाक्य में लिखने के लिए कहा जा रहा है।</span></p>
<p><span style="color: #000080;">देखा आपने मेरा कमाल। यहाँ तो मेरे स्थान परिवर्तन करने से ही वाक्य विपरीत अर्थ देने लगा।</span></p>
<p><span style="color: #000080;">आइए, अब मैं अपने रूपों का परिचय कराता हूँ, उदाहरण रूपी चाय की चुस्की के साथ।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>1. पूर्ण विराम (।) :―</strong> नाम से ही मैं स्पष्ट हूँ । वाक्य पूर्ण होते ही मैं उपस्थित हो जाता हूँ। जैसे― मेरा नाम विराम है। मैं अविराम का छोटा भाई हूँ।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>2. अर्द्ध विराम (;) :―</strong> पूर्ण नहीं हूँ मैं। हाँ महोदय, वाक्य के बीच में ही शोभायमान हो जाता हूँ।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― जब भी श्याम आता है; तुम भी आ जाते हो।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>3. अल्प विराम (,) :―</strong> जब भी वाक्य आदि में एक तरह की वस्तुओं आदि को सूचित करने वाले शब्द आते हैं; मुझे अपनी उपस्थिति दर्ज करनी ही पड़ती है।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― राम, श्याम और रहीम मित्र हैं।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>4. उपविराम (:) :―</strong> मूल बात को लिखने से पहले मुझे स्थापित कर दें तो मैं गदगद हो जाऊँ।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― राम तीन हैं : श्रीराम, परशुराम और बलराम।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>5. प्रश्नवाचक चिह्न (?) :―</strong> उत्तर की अपेक्षा करें और मैं न रहूँ।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― आप कहाँ जा रहे हैं?</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>6. विस्मयसूचक चिह्न (!) :―</strong> वाक्य विस्मयभरा हो तो मेरी उपस्थिति प्रार्थनीय है।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― अरे ! तुम कब आए?</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>7. रेखिका चिह्न (―) :―</strong> शब्द के बाद मुझे लगाके उसकी परिभाषा या उसकी उपयोगिता आदि को चरितार्थ कर दीजिए।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― जैसे के बाद लगा हूँ।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>8. संयोजक चिह्न (-) :―</strong> अपने भाई रेखिका चिह्न जैसा ही रूप है मेरा, पर है उनका आधा । मैं अभिन्न शब्दों के बीच में आकर उनके प्रेम को बढ़ा देता हूँ ।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― माता-पिता, भाई-बहन ।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>9. विवरण चिह्न (:―) :―</strong> विवरण लिखने से पहले मुझे लगाइए जैसे मेरे रूपों का विवरण लिखते समय लगाया है आपने।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>10. कोष्ठक चिह्न (()) :―</strong> मैं अपने मुँह में उसी शब्द या शब्दों को स्थान देता हूँ, जिसका संबंध मेरे पहले आए शब्द या शब्दों से हो।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― वह मुम्बई (महाराष्ट्र) में रहता है।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>11. उद्धरण चिह्न (' ' / " " ) :―</strong> मैं मूल शब्द या शब्दों को घेरकर उसकी उपयोगिता को सबकी नजरों में लाता हूँ।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― १. 'माँ मन्थरा' प्रभाकर द्वारा लिखा गया है।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">राम ने कहा, "सीता अच्छी है ।"</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>12. पुनरुक्तिसूचक चिह्न (") :―</strong> मेरा प्रयोग करने से आप एक ही शब्द को एक के नीचे एक कई बार लिखने से बच जाएँगे।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― १. श्री लालू यादव।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"> २. " लल्लू सिंह।</span></p>
<p> </p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"><strong>13. लाघव चिह्न (०) :―</strong> शब्द को संक्षेप में लिखना चाहते हैं तो मेरा उपयोग करें।</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;">जैसे― १. भा० प्रौ० सं० (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान)</span></p>
<p class="style11"><span style="color: #000080;"> २.पं० मदन मोहन मालवीय (पं० = पंडित)</span></p>
<p> </p>
<p><span style="color: #000080;">आप सबको धन्यवाद ज्ञापित करते हुए मैं विराम चिह्न अपनी वाणी को विराम देता हूँ।</span></p>
<p> </p>
<p><strong><span style="color: #800080;"><font color="#000080">आप सबका अपना-</font></span></strong></p>
<p> </p>
<div><strong><span style="color: #800080;"><font color="#000080">प्रभाकर पाण्डेय<br/> Prabhakar Pandey</font></span></strong></div>
<div><strong><span style="color: #800080;"><font color="#000080"> </font></span></strong></div>
<div><strong><span style="color: #800080;"><font color="#000080">हिंदी अधिकारी</font></span></strong></div>
<div><strong><span style="color: #800080;"><font color="#000080">Hindi Officer<br/> <br/>
सी-डैक, पुणे<br/>
C-DAC, PUNE<br/>
<br/>
पुणे विश्वविद्यालय परिसर, गणेशखिंड,<br/>
पुणे- 411007, भारत<br/>
Pune University Campus, Ganeshkhind,<br/>
Pune - 411007, India</font></span></strong></div>
</div>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p> </p>गोटी चम किसकी यानि दसों उँगलियाँ घी मे किसकीtag:openbooks.ning.com,2010-07-20:5170231:BlogPost:109452010-07-20T05:38:10.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
सादर नमस्कार,<br />
<br />
ये लेख मैंने मुंबई आतंकी हमले के तुरंत बाद लिखी थी। चाहता हूँ कि इ लेख के माध्यम से अपने विचार आप लोगों के साथ भी बाँटूँ। आप भी अपने विचारों से हमें अवगत कराने की कृपा करें। सादर धन्यवाद।।<br />
<br />
बाबूजी मुंबई से आए हैं और बहुत उदास हैं। कह रहे हैं कि छोटा-मोटा काम अपने गाँव-जवार में ही मिल जाएगा तो करूँगा पर अब मुंबई नहीं जाऊँगा। अब वहाँ के जीवन का कोई भरोसा नहीं है, कब क्या हो जाएगा कोई नहीं जानता। अब तो पूरे भारत में आतंकवाद ने अपना पैर पसार लिया है। इन सब दंगे-फसादों से जो बच गया वह…
सादर नमस्कार,<br />
<br />
ये लेख मैंने मुंबई आतंकी हमले के तुरंत बाद लिखी थी। चाहता हूँ कि इ लेख के माध्यम से अपने विचार आप लोगों के साथ भी बाँटूँ। आप भी अपने विचारों से हमें अवगत कराने की कृपा करें। सादर धन्यवाद।।<br />
<br />
बाबूजी मुंबई से आए हैं और बहुत उदास हैं। कह रहे हैं कि छोटा-मोटा काम अपने गाँव-जवार में ही मिल जाएगा तो करूँगा पर अब मुंबई नहीं जाऊँगा। अब वहाँ के जीवन का कोई भरोसा नहीं है, कब क्या हो जाएगा कोई नहीं जानता। अब तो पूरे भारत में आतंकवाद ने अपना पैर पसार लिया है। इन सब दंगे-फसादों से जो बच गया वह भगवान को दुहाई दे रहा है और जो आतंकवाद के भेंट चढ़ गया उसके भी माई-बाप, भाई-बहन, मेहरारू और बेटे-बेटियाँ भगवान से पूछ रहे हैं कि यह आप क्या कर दिए???<br />
<br />
बाबूजी को माई सांत्वना दे रही है, समझा रही है। वह बाबूजी से कह रही है कि इस जबाने में नेतालोगों, भ्रष्टाचार अधिकारियों को दो-चार लाख घूस देने पर भी सरकारी नौकरी मिल पाना मुश्किल है और आप हैं कि आतंकियों के डर से यह नौकरी छोड़ने की बात कह रहे हैं। माँ आगे कह रही है कि घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब अपनी सरकार आतंकवाद पर गंभीरता से विचार कर रही है और इसके समूल नाश के लिए बीड़ा भी उठा ली है। आप देखिएगा बहुत जल्द ही आतंकवाद का सफाया हो जाएगा। अब मुझे माई की सिसकी सुनाई दे रही है, वह कह रही है लड़कों की पढ़ाई-लिखाई है, दवा-दारू है, नेवता-पठारी है, दो-चार कट्ठा खेत के लिए खाद-बिया, जोताई-हेंगाई है और तो और हमलोग तो रूखा-सूखा भी खाकर रह लेंगे, कुछ भी नहीं मिलेगा तो उपास भी कर लेंगे पर घर में एक लड़कौरी पतोहू है, एक दूध-पीता पोता है, उन दोनों का क्या होगा?<br />
<br />
माई और बाबूजी के बीच चल रही यह बातचीत मैं दोगहा में बैठकर सुन रहा हूँ। मैं बाबूजी की बात सुनकर उदास हो गया हूँ। मुझे यह चिंता सता रही है कि क्या बाबूजी अब सही में मुंबई नहीं जाएँगे? दो-चार दिन के बाद, एकदिन क्या देख रहा हूँ कि माई सतुआ-पिसान बाँध रही है, गोझिया और लिट्टी बना रही है। मेरी औरत भी माँ का हाथ बँटा रही है। मैं जान नहीं पा रहा हूँ कि यह तैयारी क्यों हो रही है? अभी मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ तभी मेरी औरत मेरे पास आकर कहती है कि बाबूजी आज ही कुशीनगर (एक्सप्रेस)से मुंबई जा रहे हैं।<br />
<br />
मलिकाइन (पत्नी) की यह बात सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं दौड़ते हुए घर से बाहर निकला और सीधे अपने लँगोटिया यार चिखुरी के घर पहुँचा। मुझे देखते ही मेरे यार चिखुरी ने पूछा, "क्या यार नकछेदन! आज बहुत खुश दिख रहे हो? कोई बात है क्या?" मुझसे अपनी खुशी रोकी नहीं गई और मैं कह बैठा, "हाँ यार! मेरी गोटी तो चम है।" मेरा यार बोला, "बुझौवल क्यों बुझा रहे हो भाई, साफ-साफ बताओ कि क्या बात है?" "यार! मेरे बाबूजी मुंबई जाने के लिए तैयार हो गए हैं और तुम तो जानते ही हो कि भारत का हर शहर खासकर महानगर आतंकवाद की चपेट में हैं। सरकार केवल लउर-लबेदई हाँक रही है, आतंकवाद को उखाड़ फेंकने के लिए बड़ी-बड़ी बातें कर रही है, जनता को समझा रही है कि घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है सबकुछ सामान्य है पर मैं तो जान ही रहा हूँ कि ये सब ओट की राजनीति है। कुछ होनेवाला नहीं है, यह सब हवाई फायरिंग है। पाकिस्तान भी समझ रहा है कि यह सब गीदड़-भभकी है।", ये सारी बातें मैं एक ही साँस में बोल गया।<br />
मेरे यार ने कहा, "यह तो तुम लाख रुपए की बात कह रहे हो, लोग भी धीरे-धीरे शांत हो जाएँगे, चिल्लानेवाले में बस वही बचा रह जाएगा जिसपर आतंक की मार पड़ी हो। हाँ पर तुम एक बात बताओ इससे तुम्हारी चम गोटी का क्या लेना-देना?" मैंने कहा, "तुम भी जीवनभर बुरबक ही रह गए। मान लो, इसी तरह से आतंकवाद फलता-फूलता रहेगा तो एक दिन मुंबई से मुंसीपार्टी का पत्र मेरे पास आएगा कि हमें बहुत दुख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आपके बाबूजी आतंक की भेंट चढ़ गए। आप जल्दी से आकर उनकी जगह पर नौकरी ज्वाइन कर लीजिए और हाँ एक बात और घबराने की कोई बात नहीं है और सरकार भी मृतक लोगों के परिवार को पाँच-पाँच लाख दे रही है। अब यार तुम ही बताओ, मुझ जैसे बेरोजगार के लिए इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी?"<br />
मेरी बात सुनकर मेरा यार तो चिहा गया पर कुछ सोचकर बोला, "यार नकछेदन! केवल तुम्हारी ही गोटी चम नहीं है, तुम्हारे लड़के की भी गोटी चम है और अगर आतंकवाद ऐसे ही पैर जमाए रहा तो सियार-गिद्ध सबकी गोटी चम है।" मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया और मैं पूछा कि अरे यार, तुम यह क्या बात कर रहे हो?<br />
मेरे दोस्त चिखुरी ने कहा कि नाराज मत हो, जिस तरह से मुंसीपार्टी का पत्र तुम्हारे पास आएगा वैसे तुम्हारे लड़के के पास भी तो आएगा। और हाँ अगर आंतकवाद को रोका नहीं गया तो कोई पत्र लिखनेवाला भी नहीं बचेगा और सियार-गिद्ध मांस नोच-नोचकर निहाल हो जाएँगे। चिखुरी की यह बात सुनकर मेरी बोलती बंद हो गई और मैं दौड़ते हुए घर आया और बाबूजी को मुंबई जाने से रोक लिया।<br />
<br />
(यह लेख तो काल्पनिक है। बस मैं यह कहना चाहता हूँ कि अगर समय रहते सरकार और भारत की जनता जगी नहीं तो बहुत देर हो जाएगी और सबकुछ तहस-नहस हो जाएगा। अगर जनता खुद ईमानदार नहीं बनेगी और स्वार्थ से ऊपर नहीं उठेगी तो सरकार और सफेदपोशों की तो वैसे ही गोटी चम है और चम है आतंकवाद की, भ्रष्टाचार की, अमरीका और पाकिस्तान की।<br />
आज भारतीयों के लिए देश-प्रेम शब्द मात्र एक शब्द बन कर रह गया है। हम छोटी-छोटी समस्याओं में ही, अपने स्वार्थ में ही उलझ कर रह गए हैं। आज देश संबंधी समस्याओं की ओर किसी का ध्यान भी नहीं है। सबको बस अपने-अपने की पड़ी है। आज जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजावाद, क्रिकेट के आगे राष्ट्रवाद नगण्य हो गया है। आज हम इतने गिर गए हैं कि अच्छे और बुरे का हमें ज्ञान ही नहीं रहा।)<br />
जागो भारतवासियों जागो और निकम्मे नेताओं को छठी का दूध याद दिला दो ताकि देश और समाज हित में काम करनेवाला व्यक्ति ही नेता बने। नेता शब्द की गरिमा कायम रहे।<br />
भारत माता की जय।<br />
<br />
-प्रभाकर पाण्डेय 'गोपालपुरिया'हक ???tag:openbooks.ning.com,2010-07-12:5170231:BlogPost:99872010-07-12T08:48:23.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
<b>मुझे भी हक है<br />
कुछ भी करूँ.<br />
दूँ सबको दुख-दर्द<br />
या करुँ किसी का कत्ल.<br />
सबको मारूँ,<br />
लाशों की ढेर पर नाचूँ,<br />
देखकर मेरा मृत्युताण्डव,<br />
काँप जाएँ,भाग जाएँ,<br />
मौत का खेल खेलनेवाले दानव.<br />
मुझे भी हक है<br />
दूँ सबको गाली,<br />
हो जाएँ<br />
अपशब्द की पुस्तकें खाली.<br />
ना देखूँ मैं,<br />
माँ,बहन,भाई,<br />
लगूँ मैं कसाई.<br />
देखकर मेरा ऐसा रंग,<br />
मर जाए मानवता,भाईचारा<br />
और प्रेम का तन.<br />
जब मैं ऐसा हो जाऊँगा,<br />
थर्रा जाएँगे,<br />
अपशब्द बोलने वाले,<br />
इज्जत से खेलने वाले.<br />
मूक हो जाएँगे,<br />
बिन सोचे समझे<br />
जुबान डुलाने वाले.<br />
मुझे भी हक है<br />
कुछ भी पिऊँ,<br />
व्हिस्की…</b>
<b>मुझे भी हक है<br />
कुछ भी करूँ.<br />
दूँ सबको दुख-दर्द<br />
या करुँ किसी का कत्ल.<br />
सबको मारूँ,<br />
लाशों की ढेर पर नाचूँ,<br />
देखकर मेरा मृत्युताण्डव,<br />
काँप जाएँ,भाग जाएँ,<br />
मौत का खेल खेलनेवाले दानव.<br />
मुझे भी हक है<br />
दूँ सबको गाली,<br />
हो जाएँ<br />
अपशब्द की पुस्तकें खाली.<br />
ना देखूँ मैं,<br />
माँ,बहन,भाई,<br />
लगूँ मैं कसाई.<br />
देखकर मेरा ऐसा रंग,<br />
मर जाए मानवता,भाईचारा<br />
और प्रेम का तन.<br />
जब मैं ऐसा हो जाऊँगा,<br />
थर्रा जाएँगे,<br />
अपशब्द बोलने वाले,<br />
इज्जत से खेलने वाले.<br />
मूक हो जाएँगे,<br />
बिन सोचे समझे<br />
जुबान डुलाने वाले.<br />
मुझे भी हक है<br />
कुछ भी पिऊँ,<br />
व्हिस्की पिऊँ,<br />
इतना पिऊँ कि<br />
मुझे देखकर,बिन पिए,<br />
हो जाएँ मदहोश,<br />
शराब पीने वाले.<br />
बंद हो जाएँ<br />
फैक्ट्रियाँ शराब की,<br />
रोएँ,शराब बनाने वाले.<br />
मुझे भी हक है<br />
कुछ भी गाऊँ,<br />
माँ,बहन,के<br />
सामने गाऊँ,<br />
सेक्सी,सेक्सी,सेक्सी<br />
ऐसा गाऊँ,<br />
इतना गाऊँ कि रुँध जाए,<br />
ऐसा गाने वालों का कंठ,<br />
ना कोई कहलाना चाहे लंठ.<br />
मुझे भी हक है<br />
डांस करूँ,मौजमस्ती करूँ,<br />
सुरा को मुँह में लगा के,<br />
सुंदरी को बाहों में भरूँ.<br />
दुनिया के सामने करूँ ऐसी<br />
अश्लील हरकत,ताकि<br />
ये देखकर,<br />
उनकी रुहें भी काँप जाएँ<br />
जो ऐसा करते हैं,<br />
कुछ भी कहते हैं...<br />
किसी को भी नहीं है हक.<br />
कि वह जो चाहे वही करे.<br />
<br />
-प्रभाकर पाण्डेय</b>नौ की महत्ता - इति सिद्धम्tag:openbooks.ning.com,2010-07-10:5170231:BlogPost:95882010-07-10T11:56:02.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
<b>महानुभावों "नौ" की महत्ता तो जगजाहिर है ।<br />
यह सबसे बड़ा अंक है । (० से ९)<br />
नौ का गुणनफल करने पर भी प्राप्त संख्या के<br />
अंकों का योग नौ ही होता है । जैसे- अठारह (१+८=९),<br />
सत्ताईस (२+७=९),छत्तीस (३+६=९),पैंतालिस (४+५=९),<br />
चौवन (५+४=९),तिरसठ (६+३=९),बहत्तर (७+२=९),<br />
एकासी (८+१=९),नब्बे (९+०=९) ..........जहाँ तक जाएँगे...वहाँ तक...(९०+९=९९= ९+९=१८= ९)..........अनंत......<br />
<br />
नौ की महत्ता को प्रतिपादित करती हैं ये मेरी पंक्तियाँ -<br />
<br />
राम के नाम को देखें,<br />
कितना पवित्र और शुद्ध,<br />
इसी नाम का स्मरण करते,<br />
हर क्षण…</b>
<b>महानुभावों "नौ" की महत्ता तो जगजाहिर है ।<br />
यह सबसे बड़ा अंक है । (० से ९)<br />
नौ का गुणनफल करने पर भी प्राप्त संख्या के<br />
अंकों का योग नौ ही होता है । जैसे- अठारह (१+८=९),<br />
सत्ताईस (२+७=९),छत्तीस (३+६=९),पैंतालिस (४+५=९),<br />
चौवन (५+४=९),तिरसठ (६+३=९),बहत्तर (७+२=९),<br />
एकासी (८+१=९),नब्बे (९+०=९) ..........जहाँ तक जाएँगे...वहाँ तक...(९०+९=९९= ९+९=१८= ९)..........अनंत......<br />
<br />
नौ की महत्ता को प्रतिपादित करती हैं ये मेरी पंक्तियाँ -<br />
<br />
राम के नाम को देखें,<br />
कितना पवित्र और शुद्ध,<br />
इसी नाम का स्मरण करते,<br />
हर क्षण ब्रह्म और रुद्र ।<br />
<br />
हिंदी जगत के वर्ण का,<br />
सत्ताइसवाँ व्यंजन है 'र',<br />
'र' पर सुशोभित 'आ' भी है,<br />
जो है हिंदी का द्वितीय स्वर ।<br />
<br />
'म' की कृपा तो देखें,<br />
यह है बड़ा महान,<br />
पच्चीसवाँ व्यंजन है यह,<br />
जिसको जानता पूर्ण जहान ।<br />
<br />
इस प्रकार राम में समाहित,<br />
अक्षरों का योग चौवन,<br />
चौवन यानि 'पाँच' 'चार' नौ,<br />
फिर 'नौ' से बड़ी शक्ति कौन ।<br />
<br />
नौ ही है सबकुछ,<br />
सबको समाहित किए,<br />
सबसे बड़ा होने का गौरव,<br />
ऋषि,मुनियों ने इसे दिए ।<br />
<br />
ऐसे ही सीता को भी,<br />
सब जगत जननी माने,<br />
इस नाम महिमा को भी,<br />
प्रेम पल्लवित हृदय से जानें ।<br />
<br />
हिंदी जगत का बत्तीसवाँ व्यंजन,<br />
'स' शुभ है सच्चा वर,<br />
'ई' जो है इसकी माँ,<br />
हिंदी जगत की चतुर्थ स्वर ।<br />
<br />
'त' सोलहवें पर स्थित,<br />
द्वितीय स्वर 'आ' के साथ,<br />
सीता में भी चौवन अंक,<br />
राम हैं विदेह पुत्री के नाथ ।<br />
<br />
राम चौवन, सीता चौवन,<br />
दोनों हो गए एक सौ आठ,<br />
एक,शून्य,आठ को जोड़े,<br />
दोनों मिलकर जग के नाथ ।<br />
<br />
या राम नौ, सीता भी नौ,<br />
दोनों का योग है अठारह,<br />
एक, आठ का योग हुआ नौ,<br />
अब क्या बच गया रह ।<br />
<br />
जिस नौ की इतनी महिमा,<br />
वह साक्षात ईश्वर है,<br />
वह कल्याण करे सबका,<br />
वह आदिशक्ति अंकवर है ।</b><br />
<br />
-प्रभाकर पाण्डेयदुनिया (लोककथा)tag:openbooks.ning.com,2010-07-09:5170231:BlogPost:93662010-07-09T04:38:48.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
एक लड़का था । बचपन में ही उसके माता-पिता गुजर गए । उसका लालन-पालन उसके नाना ने किया । लड़का अभी आठ-नौ साल का था तभी उसपर दुनिया देखने का भूत सवार हो गया । वह बार-बार अपने नाना से कहता कि मैं दुनिया देखना चाहता हूँ ? नाना समझाते कि बेटा अभी तो तुम्हारे पास बहुत समय है, जब तू बड़ा होगा, दुनियादारी में लगेगा तो तूझे खुद मालूम हो जाएगा कि दुनिया क्या है ? पर लड़का अपने नाना की एक न सुनता और बार-बार दुनिया देखने की रट लगाता ।<br />
एक दिन लड़के के नाना ने कहा, "चलो आज मैं तुमको दुनिया दिखाता हूँ" । इसके…
एक लड़का था । बचपन में ही उसके माता-पिता गुजर गए । उसका लालन-पालन उसके नाना ने किया । लड़का अभी आठ-नौ साल का था तभी उसपर दुनिया देखने का भूत सवार हो गया । वह बार-बार अपने नाना से कहता कि मैं दुनिया देखना चाहता हूँ ? नाना समझाते कि बेटा अभी तो तुम्हारे पास बहुत समय है, जब तू बड़ा होगा, दुनियादारी में लगेगा तो तूझे खुद मालूम हो जाएगा कि दुनिया क्या है ? पर लड़का अपने नाना की एक न सुनता और बार-बार दुनिया देखने की रट लगाता ।<br />
एक दिन लड़के के नाना ने कहा, "चलो आज मैं तुमको दुनिया दिखाता हूँ" । इसके बाद लड़के के नाना ने अपना घोड़ा लिया और लड़के के साथ पैदल ही चल दिए । पैदल चलते-चलते वे तीनों एक गाँव में प्रवेश किए । उस गाँव के लोग आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि यह बूढ़ा सठिया गया है, घोड़ा लिया है फिर भी खुद पैदल चल रहा है और लड़के को भी पैदल चला रहा है ।<br />
उसके बाद लड़के के नाना ने लड़के को घोड़े पर बिठाया और खुद भी सवार हो कर दूसरे गाँव की ओर चल दिए । दूसरे गाँव के लोग आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि यह बूढ़ा तो सठिया गया है, एक घोड़ा लिया है और देखो लड़के के साथ कैसे तन कर बैठा है । यह तो इस वेजुबान घोड़े की जान ले लेगा ।<br />
उसके बाद लड़के के नाना ने लड़के को घोड़े से उतार दिया और खुद सवार होकर तीसरे गाँव की ओर चल दिए । तीसरे गाँव के लोग आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि यह बूढ़ा तो सठिया गया है, खुद घोड़े पर सवार है और नन्हीं जान (लड़का) को पैदल चला रहा है । इसके बाद लड़के के नाना घोड़े से उतर कर लड़के को घोड़े पर बैठा दिए और चौथे गाँव में प्रवेश किए । चौथे गाँव के लोग आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि यह बूढ़ा तो सठिया गया है, लड़के को घोड़े पर बैठा दिया है और खुद हाँफते हुए लगाम पकड़ कर चल रहा है, लड़का तो पैदल भी जा सकता था या ये दोनों भी तो बैठकर जा सकते थे ।<br />
इसके बाद दोनों घोड़े पर सवार होकर घर पहुँचे । लड़के के नाना ने लड़के से कहा कि देखा दुनिया ! यही है दुनिया । कुछ भी करो दुनिया कुछ न कुछ बोलेगी ही । दुनिया में किसी भी प्रकार से पूर्ण यश नहीं मिलता ।<br />
अगर आपको अपनी मंजिल पानी है तो प्रयासरत हो जाओ,यह मत सोचो कि दुनिया क्या कहेगी क्योंकि दुनिया कुछ न कुछ जरूर कहेगी ।<br />
<br />
--प्रभाकर पाण्डेययोगिराज देवरहा बाबाtag:openbooks.ning.com,2010-07-07:5170231:BlogPost:91802010-07-07T10:07:34.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
<p style="text-align: left;"><img alt="" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001443593?profile=original"></img></p>
योगिराज देवरहा बाबा :- देवरिया सुप्रसिद्ध संत ब्रह्मर्षि योगिराज देवरहा बाबा की कर्मस्थली रह चुकी है । देवरिया क्षेत्र की जनता हार्दिक रूप से शुक्रगुजार है उस परम मनीषी, योगी की जो देवरिया क्षेत्र को अपना निवास बनाया, इस क्षेत्र की मिट्टी को अपने पावन चरणों से पवित्र किया और अपने ज्ञान एवं योग की वर्षा से श्रद्धालु जनमानस को सराबोर किया । इस योगी की कृपा से देवरिया जनपद विश्वपटल पर छा गया । देवरहा बाबा ब्रह्म में विलीन हो गए लेकिन उनके ईश्वरी गुणों की…
<p style="text-align: left;"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001443593?profile=original" alt=""/></p>
योगिराज देवरहा बाबा :- देवरिया सुप्रसिद्ध संत ब्रह्मर्षि योगिराज देवरहा बाबा की कर्मस्थली रह चुकी है । देवरिया क्षेत्र की जनता हार्दिक रूप से शुक्रगुजार है उस परम मनीषी, योगी की जो देवरिया क्षेत्र को अपना निवास बनाया, इस क्षेत्र की मिट्टी को अपने पावन चरणों से पवित्र किया और अपने ज्ञान एवं योग की वर्षा से श्रद्धालु जनमानस को सराबोर किया । इस योगी की कृपा से देवरिया जनपद विश्वपटल पर छा गया । देवरहा बाबा ब्रह्म में विलीन हो गए लेकिन उनके ईश्वरी गुणों की चर्चा करते हुए आज भी श्रद्धालु अघाते नहीं हैं । देवरहा बाबा के भक्तों की सूची में महान राजनीतिज्ञ माननीया स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गाँधी से लेकर माननीय अटल बिहारी बाजपेयी तक हैं । जनता जनार्दन की सुने तो देवरहा बाबा एक परम सिद्ध महापुरुष थे, इसमें कोई दो राय नहीं ।<br />
निवास :- देवरहा बाबा के मूल निवास के बारे में लोगो में भ्रम है पर ऐसा कहा जाता है कि देवरहा बाबा कहीं बाहर से आए । देवरहा बाबा ने देवरिया जनपद के सलेमपुर तहसील में मइल (एक छोटा शहर) से लगभग एक कोस की दूरी पर सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल दिया और धर्म-कर्म करने लगे ।<br />
<br />
<br />
व्यक्तित्व :- बहुत ही कम समय में देवरहा बाबा अपने कर्म एवं व्यक्तित्व से एक सिद्ध महापुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो गए । बाबा के दर्शन के लिए प्रतिदिन विशाल जन समूह उमड़ने लगा तथा बाबा के सानिध्य में शांति और आनन्द पाने लगा । बाबा श्रद्धालुओं को योग और साधना के साथ-साथ ज्ञान की बातें बताने लगे । बाबा का जीवन सादा और एकदम संन्यासी था । बाबा भोर में ही स्नान आदि से निवृत्त होकर ईश्वर ध्यान में लीन हो जाते थे और मचान पर आसीन होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते और ज्ञानलाभ कराते थे ।<br />
बाबा की लीला :- अब आइए थोड़ा बाबा के ईश्वरी गुणों पर चर्चा की जाए ।<br />
श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे । प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी । श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है ।<br />
लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया । बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे ।<br />
लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई ।<br />
हमारे बाबाजी (दादा) पंडित श्रीरामवचन पाण्डेय बताते हैं कि एक बार वे कुछ लोगों के साथ बहुत सुबह ही देवरहा बाबा के दर्शन के लिए पहुँचे और ज्योहीं मेरे दादाजी और अन्य भक्तों ने देवरहा बाबा को प्रणाम किया त्योंही देवरहा बाबा ने मेरे दादाजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि भो पंडित कीर्तन सुनाओ । मेरे दादाजी ने कहा कि बाबा मुझे कीर्तन नहीं आता । इसपर देवरहा बाबा ने कहा कि 'हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे...' यह भी तो कीर्तन ही है फिर सभी श्रद्धालुओं ने मिलकर नामकीर्तन किया ।<br />
काफी दिनों तक देवरिया में रहने के बाद देवरहा बाबा वृंदावन चले गए । कुछ समय तक वहाँ रहने के बाद देवरहा बाबा सदा के लिए समाधिस्त हो गए । बोलिए संत शिरोमणि देवरहा बाबा की जय ।<br />
--प्रभाकर पाण्डेयहाँ! मैं हूँ परमेश्वर.tag:openbooks.ning.com,2010-07-07:5170231:BlogPost:91392010-07-07T05:22:24.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
हाँ! मैं हूँ परमेश्वर.<br />
मैं बन बैठा भगवान,<br />
मंदिर में,सबके दिल में.<br />
गाँव-गाँव व शहर-शहर,<br />
मैं घूमता रहा पहर-पहर,<br />
चंदे के लिए,मंदिर के वास्ते,<br />
मिल गए मुझे भाग्य के रास्ते.<br />
सुबह निकलता बिना नहाए-खाए,<br />
लंबा चंदन टीका करता,<br />
कंधे में झोला लटकाता,<br />
लगता पंडित भोला-भाला.<br />
मंदिर के नाम की रसीद<br />
हाथ में रहती,कटती रहती,<br />
मैं घूमता रहता,काटता रहता,<br />
अपने अभाग्य को,रसीद के साथ.<br />
लोग चंदे के साथ भोजन भी कराते,<br />
रात को हम वहीं भरते खर्राटे.<br />
धीरे-धीरे कट गई सारी रसीद,<br />
दोस्तों ने समझाया मत बन धर्मी,<br />
कर ले कोई बिजनेस.<br />
मैं…
हाँ! मैं हूँ परमेश्वर.<br />
मैं बन बैठा भगवान,<br />
मंदिर में,सबके दिल में.<br />
गाँव-गाँव व शहर-शहर,<br />
मैं घूमता रहा पहर-पहर,<br />
चंदे के लिए,मंदिर के वास्ते,<br />
मिल गए मुझे भाग्य के रास्ते.<br />
सुबह निकलता बिना नहाए-खाए,<br />
लंबा चंदन टीका करता,<br />
कंधे में झोला लटकाता,<br />
लगता पंडित भोला-भाला.<br />
मंदिर के नाम की रसीद<br />
हाथ में रहती,कटती रहती,<br />
मैं घूमता रहता,काटता रहता,<br />
अपने अभाग्य को,रसीद के साथ.<br />
लोग चंदे के साथ भोजन भी कराते,<br />
रात को हम वहीं भरते खर्राटे.<br />
धीरे-धीरे कट गई सारी रसीद,<br />
दोस्तों ने समझाया मत बन धर्मी,<br />
कर ले कोई बिजनेस.<br />
मैं भी सोचा,भाड़ में जाए मंदिर,<br />
अब चमकेगी अपनी मंजिल,<br />
होंगे नौकर-चाकर,बंगला अपनी मोटर.<br />
तभी आया मेरा बेटा,बोला,<br />
मंदिर के लिए मैं कर चुका तैयारी,<br />
काम आयी चमचों की यारी.<br />
आप अब नानुकुर छोड़कर,<br />
तन,मन,धन मंदिर को समर्पित कर दें,<br />
अपना सर्वस्व उसमें अर्पित कर दें.<br />
न चाहते हुए भी बेटे की बात मान ली,<br />
भव्य मंदिर बनवाने की ठान ली.<br />
शहर के पास दस एकड़ जमीन,<br />
मंदिर के नाम मिल गई,अहा यह क्या,<br />
मंदिर बनकर हो गया तैयार<br />
और मेरी बुद्धि खुल गई,<br />
मैं बन बैठा पुजारी मंदिर का.<br />
मंदिर पर भक्तों की भीड़<br />
लगी रहती है,प्रतिदिन,प्रतिछड़.<br />
वे आते हैं,प्रभु को भेंट चढ़ाते हैं,<br />
जाते वक्त,मेरे आशिर्वाद के लिए,<br />
शीश झुकाते हैं,मालमुद्रा थमाते हैं.<br />
कुछ दिनों बाद,बेटा फिर बोला,<br />
मंदिर के द्नार पर लगे गेट को,<br />
सबके लिए खोल दीजिए,<br />
लंगड़े,अंधे,भिखारियों को भी<br />
अंदर आने दीजिए.<br />
मैंने कहा बेटा,वे गरीब,बेचारे<br />
भेंट क्या चढ़ाएँगे,<br />
उल्टे शोर मचाएँगे.<br />
बेटा मुस्कुराया,मुझे समझाया,<br />
आज तक आप खुद कहते आएँ हैं<br />
कि मैं हूँ भगवान,<br />
पर अब दूसरे भी मानेंगे आपको ईश्वर,<br />
सत्य,धर्मरक्षक परमेश्वर.<br />
देखते ही देखते,मंदिर के द्नार पर,<br />
भीखमंगों की पंक्ति लग गई,<br />
उनके "हे!मालिक कुछ दे दे<br />
भगवान भला करेगा" की आवाज से,<br />
मंदिर के घंटे की आवाज दब गई.<br />
मैंने किया उनके सोने व रहने का प्रबंध.<br />
इसके बदले मैं उनसे कुछ न लेता,<br />
वे जो भी पाते,आधे मंदिर में चढ़ाते.<br />
यह थी मेरे बेटे की चाल,<br />
बहुत ही अच्छा हो गया मेरा हाल.<br />
बड़े-बड़े व्यापारी,खड्डर टोपीधारी,<br />
"भीखमंगा उत्थान कमेटी"<br />
के नाम,करने लगे लाखों का दान.<br />
अब मैं योगी के साथ-साथ हूँ भोगी.<br />
भीखमंगे और भक्तों का ईश्वर.<br />
हाँ! मैं हूँ परमेश्वर.<br />
<br />
-प्रभाकर पाण्डेय "गोपालपुरिया"विज्ञान ??? ईश्वर !!! (व्यंग्य-रचना)tag:openbooks.ning.com,2010-07-05:5170231:BlogPost:88792010-07-05T12:30:25.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
प्रभु ! तू बता अपनी<br />
सच्चाई,<br />
क्योंकि,तू अब नहीं बचेगा,<br />
देख,मनुष्य ने ली है<br />
अंगड़ाई.<br />
क्या तू है ?<br />
तेरा अस्तित्व है ?<br />
देख,<br />
विज्ञान आ गया है,<br />
तेरा अस्तित्व,<br />
हटा गया है.<br />
तू खुद सोच,<br />
मनुष्य लगाता है,<br />
तेरे कार्यों में अड़चन,<br />
वह तेरा करता है खंडन.<br />
वह खुद ही लगा है,<br />
बनाने,बिगाड़ने<br />
सपनों को,अपनों को.<br />
वह खुद ही बन बैठा है<br />
भगवान ?<br />
अगर तू है तो रुका क्यों है,<br />
भाग जा,<br />
जा ग्रहों पर छिप जा.<br />
ना,ना,ना<br />
वहाँ मत जाना,<br />
देख,अब<br />
आदमी के कदम,<br />
थमेंगे नहीं,रुकेंगे नहीं,<br />
वह तो ग्रहों पर<br />
खाता है खाना.<br />
अस्तु वहाँ छिपोगे…
प्रभु ! तू बता अपनी<br />
सच्चाई,<br />
क्योंकि,तू अब नहीं बचेगा,<br />
देख,मनुष्य ने ली है<br />
अंगड़ाई.<br />
क्या तू है ?<br />
तेरा अस्तित्व है ?<br />
देख,<br />
विज्ञान आ गया है,<br />
तेरा अस्तित्व,<br />
हटा गया है.<br />
तू खुद सोच,<br />
मनुष्य लगाता है,<br />
तेरे कार्यों में अड़चन,<br />
वह तेरा करता है खंडन.<br />
वह खुद ही लगा है,<br />
बनाने,बिगाड़ने<br />
सपनों को,अपनों को.<br />
वह खुद ही बन बैठा है<br />
भगवान ?<br />
अगर तू है तो रुका क्यों है,<br />
भाग जा,<br />
जा ग्रहों पर छिप जा.<br />
ना,ना,ना<br />
वहाँ मत जाना,<br />
देख,अब<br />
आदमी के कदम,<br />
थमेंगे नहीं,रुकेंगे नहीं,<br />
वह तो ग्रहों पर<br />
खाता है खाना.<br />
अस्तु वहाँ छिपोगे तो,<br />
पकड़े जाओगे,<br />
कोई तेरी पूजा नहीं करेगा,<br />
अपितु मारे जाओगे.<br />
सोच खुद ही सोच,<br />
मनुष्य कितना आगे निकल गया है.<br />
वह कहता है कि<br />
भगवान है झूठ,<br />
कहीं उसका कोई<br />
अस्तित्व नहीं,<br />
विज्ञान ही है भगवान<br />
सब कहीं.<br />
तो फिर मैं तूझे<br />
क्यों पूजूं ?<br />
विज्ञान को ही पूजूंगा,<br />
अभी नहीं,<br />
उस दिन,<br />
जिस दिन विज्ञान,<br />
मौत को मार भगाएगा,<br />
सब होंगे अमर,<br />
किसी को तेरा नहीं होगा डर,<br />
उस दिन,अहा उस दिन,<br />
कितना खुश होऊँगा मैं,<br />
खुशी,आनंद से,<br />
झूम जाऊँगा मैं.<br />
तब चिल्लाऊँगा,जोर जोर से,<br />
मेरा प्रभु तो विज्ञान है,<br />
और वैज्ञानिक हैं उसकी आकृति,<br />
तब भाड़ में जाए तुम<br />
और तेरी प्रकृति.<br />
उस दिन हाँ उस दिन,<br />
मैं तेरी पूजा करना,<br />
बंद करूँगा,<br />
देख हँस मत,<br />
सिर्फ उसी दिन तक,<br />
<b>तुझे पूजता रहूँगा.</b><br />
<br />
-प्रभाकर पाण्डेयभोजन क्या खाएँ क्या नहीं (महीनेवार विवरण)tag:openbooks.ning.com,2010-07-05:5170231:BlogPost:88292010-07-05T08:40:08.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
प्रस्तुत पदों के रचयिताओं का नाम मुझे पता नहीं है. ये पद मेरे दादाजी सुनाया करते हैं.<br />
<br />
1.<br />
<br />
इस पद में यह बताया गया है कि किस माह में क्या खाना अच्छा होता है-<br />
<br />
कातिक मूली , अगहन तेल,<br />
पूष में करे दूध से मेल,<br />
माघ मास घी खिचड़ खा,<br />
फागुन उठ के प्रात नहा,<br />
चइत (चैत्र) माह में नीम बेसहनी,<br />
बैसाख में खाय जड़हनी,<br />
और जेठ मास जे दिन में सोए,<br />
ओकर जर (बुखार) असार में रोवे.<br />
(भावार्थ-ऐसे व्यक्ति को बिमारी नहीं होती)<br />
<br />
2.<br />
<br />
इस पद में यह बताया गया है कि किस माह में क्या खाना वर्जित है-<br />
<br />
सावन साग,भादों में दही,<br />
कुआर…
प्रस्तुत पदों के रचयिताओं का नाम मुझे पता नहीं है. ये पद मेरे दादाजी सुनाया करते हैं.<br />
<br />
1.<br />
<br />
इस पद में यह बताया गया है कि किस माह में क्या खाना अच्छा होता है-<br />
<br />
कातिक मूली , अगहन तेल,<br />
पूष में करे दूध से मेल,<br />
माघ मास घी खिचड़ खा,<br />
फागुन उठ के प्रात नहा,<br />
चइत (चैत्र) माह में नीम बेसहनी,<br />
बैसाख में खाय जड़हनी,<br />
और जेठ मास जे दिन में सोए,<br />
ओकर जर (बुखार) असार में रोवे.<br />
(भावार्थ-ऐसे व्यक्ति को बिमारी नहीं होती)<br />
<br />
2.<br />
<br />
इस पद में यह बताया गया है कि किस माह में क्या खाना वर्जित है-<br />
<br />
सावन साग,भादों में दही,<br />
कुआर करइला,कातिक मही,<br />
तेरह दिन जब अगहन जा,<br />
जवन-जवन मन करे,<br />
तवन-तवन खा.<br />
(भावार्थ-तेरह दिन अगहन बीत जाने के बाद<br />
रुचि अनुसार भोजन कर सकते हैं)<br />
<br />
संकलनकर्ता--<br />
प्रभाकर पाण्डेयकवि घाघ और उनकी बहू के बीच परिसंवादtag:openbooks.ning.com,2010-07-02:5170231:BlogPost:85182010-07-02T09:54:35.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
उत्तर भारत में घाघ नामक एक बहुत प्रसिद्ध किसानी कवि हुए थे.<br />
उनकी रचनाएँ आज भी ग्रामीणों द्वारा कही-सुनी जाती हैं.<br />
उनकी बहू भी बहुत बुद्धिमान थीं.<br />
नीचे की संकलित रचनाओं में उनके परिसंवाद हैं :-<br />
<br />
1.<br />
घाघ कहते हैं :-<br />
<br />
पउआ पहिन के हर जोते,<br />
सुथनी पहिन के निरावे,<br />
कहें घाघ उ तीनों भकुआ,<br />
सिर बोझा ले गावे.<br />
<br />
घाघ की बहू कहती हैं :-<br />
<br />
अहिरा हो के हर जोते,<br />
तुरहिन हो के निरावे,<br />
छैला होके कस न गावे,<br />
हलुक बोझा जो पावे.<br />
<br />
2.<br />
घाघ कहते हैं :-<br />
<br />
बिन माघ घी खीचड़ खा,<br />
बिन गौने ससुरारी जा,<br />
बिना रीतु के पहिने पउआ,<br />
कहें…
उत्तर भारत में घाघ नामक एक बहुत प्रसिद्ध किसानी कवि हुए थे.<br />
उनकी रचनाएँ आज भी ग्रामीणों द्वारा कही-सुनी जाती हैं.<br />
उनकी बहू भी बहुत बुद्धिमान थीं.<br />
नीचे की संकलित रचनाओं में उनके परिसंवाद हैं :-<br />
<br />
1.<br />
घाघ कहते हैं :-<br />
<br />
पउआ पहिन के हर जोते,<br />
सुथनी पहिन के निरावे,<br />
कहें घाघ उ तीनों भकुआ,<br />
सिर बोझा ले गावे.<br />
<br />
घाघ की बहू कहती हैं :-<br />
<br />
अहिरा हो के हर जोते,<br />
तुरहिन हो के निरावे,<br />
छैला होके कस न गावे,<br />
हलुक बोझा जो पावे.<br />
<br />
2.<br />
घाघ कहते हैं :-<br />
<br />
बिन माघ घी खीचड़ खा,<br />
बिन गौने ससुरारी जा,<br />
बिना रीतु के पहिने पउआ,<br />
कहें घाघ उ तीनों कउआ.<br />
<br />
घाघ की बहू कहती हैं :-<br />
<br />
मन मागें घी खीचड़ खा,<br />
प्रित लगे ससुरारी जा,<br />
नहा धो के पहिने पउआ,<br />
कहे पतोहिया घाघे कउआ.<br />
<br />
घाघ की अन्य रचनाएँ :-<br />
<br />
1.<br />
<br />
रात निबदर दिन निबदर,<br />
पुरुआ बहे झमर - झमर,<br />
कहें घाघ की बीज मत खोअ,<br />
अगहनी की खेते में उरीद बोअ.<br />
<br />
भावार्थ :- अगर दिन-रात आसमान साफ रहे<br />
और बराबर पुरुआ बहती रहे तो बारिश कतई<br />
नहीं होगी.<br />
<br />
2.<br />
<br />
सुक सनिचरी बादरी ,रहे गगन में छाय,<br />
घाघ कहें सुनु घाघिनी,बिन बरसे न जाय.<br />
<br />
भावार्थ :-अगर शुक्र और शनिवार को आकाश में बादल छा<br />
जाएँ तो बारिश अवश्य होगी.<br />
<br />
3.<br />
<br />
धान,पान व खीरा,इ पानी के कीड़ा.<br />
<br />
भावार्थ -धान,पान व खीरा को अत्यधिक<br />
पानी की आवश्यकता होती है.<br />
<br />
4.<br />
<br />
छोटा मुँह और ऐंठा कान,<br />
यही बैल की है पहचान.<br />
<br />
भावार्थ -<br />
छोटा मुँह और ऐंठे कानवाला<br />
बैल अच्छा होता है.<br />
<br />
5.<br />
<br />
छोटी सिंग और छोटी पूँछ,<br />
ऐसा बरधा लो बे पूछ.<br />
<br />
भावार्थ -छोटी सींग और छोटी पूँछवाला<br />
बैल अच्छा होता है.<br />
<br />
<br />
संकलनकर्ता-<br />
प्रभाकर पाण्डेय<br />
<br />
प्रभाकर पाण्डेय<br />
Prabhakar Pandey<br />
<br />
हिंदी अधिकारी, सी-डैक पुणे<br />
Hindi Officer, C-DAC PUNE<br />
<br />
पुणे विश्वविद्यालय परिसर, गणेशखिंड,<br />
पुणे- 411007, भारत<br />
Pune University Campus, Ganeshkhind,<br />
Pune - 411007, India<br />
मोबाइल- 8975941372<br />
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treasurer- Ashirbad (आशिर्वाद)..NGO<br />
****************************************************************************************************सभ्यता की पहचानtag:openbooks.ning.com,2010-07-02:5170231:BlogPost:85162010-07-02T09:46:54.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
<b>दिन,प्रतिदिन,<br />
हर एक पल,<br />
हमारी सभ्यता और संस्कृति में<br />
निखार आ रहा है,<br />
हम हो गए हैं,<br />
कितने सभ्य,<br />
कौआ यह गीत गा रहा है.<br />
पहले बहुत पहले,<br />
जब हम इतने सभ्य नहीं थे,<br />
चारों तरफ थी खुशहाली,<br />
लोगों का मिलजुलकर,<br />
विचरण था जारी,<br />
जितना पाते,<br />
प्रेम से खाते,<br />
दोस्तों पाहुनों को खिलाते,<br />
कभी-कभी भूखे सो जाते.<br />
आज जब हम सभ्य हो गए हैं,<br />
देखते नहीं,<br />
दूसरे की रोटी,<br />
छिनकर खा रहे हैं,<br />
और अपनों से कहते हैं,<br />
छिन लो,दूसरों की रोटी,<br />
न देने पर,<br />
नोच लो बोटी-बोटी,<br />
क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं,<br />
पिल्ले हो गए हैं.<br />
बहुत पहले घर का…</b>
<b>दिन,प्रतिदिन,<br />
हर एक पल,<br />
हमारी सभ्यता और संस्कृति में<br />
निखार आ रहा है,<br />
हम हो गए हैं,<br />
कितने सभ्य,<br />
कौआ यह गीत गा रहा है.<br />
पहले बहुत पहले,<br />
जब हम इतने सभ्य नहीं थे,<br />
चारों तरफ थी खुशहाली,<br />
लोगों का मिलजुलकर,<br />
विचरण था जारी,<br />
जितना पाते,<br />
प्रेम से खाते,<br />
दोस्तों पाहुनों को खिलाते,<br />
कभी-कभी भूखे सो जाते.<br />
आज जब हम सभ्य हो गए हैं,<br />
देखते नहीं,<br />
दूसरे की रोटी,<br />
छिनकर खा रहे हैं,<br />
और अपनों से कहते हैं,<br />
छिन लो,दूसरों की रोटी,<br />
न देने पर,<br />
नोच लो बोटी-बोटी,<br />
क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं,<br />
पिल्ले हो गए हैं.<br />
बहुत पहले घर का मालिक,<br />
सबको खिलाकर,<br />
जो बचता रुखा-सूखा,<br />
उसी को खाता,<br />
भरपेत ठंडा पानी पीता,<br />
आज जब हमारी सभ्यता,<br />
आसमान छू रही है,<br />
घर का क्या ?<br />
देश का मालिक,<br />
हींकभर खाता,<br />
भंडार सजाता,<br />
चैन से सोता,<br />
बेंच देता,<br />
देशवासियों का काटकर पेट,<br />
क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं.<br />
<br />
-------प्रभाकर पाण्डेय</b>भोजपुरिया लाल : भारत रत्न डा. राजेन्द्र प्रसादtag:openbooks.ning.com,2010-06-14:5170231:BlogPost:71202010-06-14T07:55:17.000ZPrabhakar Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/PrabhakarPandey
सदियों से भोजपुरिया माटी की एक अलग पहचान रही है। इस माटी ने केवल भोजपुरी समाज को ही नहीं अपितु माँ भारती को ऐसे-ऐसे लाल दिए जिन्होंने भारतीय समाज को हर एक क्षेत्र में एक नई दिशा एवं ऊँचाई दी एवं विश्व स्तर पर माँ भारती के परचम को लहराया। भोजपुरिया माटी की सोंधी सुगंध से सराबोर ये महापुरुष केवल भारत का ही नहीं अपितु विश्व का मार्गदर्शन किए और एक सभ्य एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। यह वोही भोजपुरिया माटी है जिसको संत कबीर ने अपने विलक्षणपन से तो शांति, सादगी एवं राष्ट्र के…
सदियों से भोजपुरिया माटी की एक अलग पहचान रही है। इस माटी ने केवल भोजपुरी समाज को ही नहीं अपितु माँ भारती को ऐसे-ऐसे लाल दिए जिन्होंने भारतीय समाज को हर एक क्षेत्र में एक नई दिशा एवं ऊँचाई दी एवं विश्व स्तर पर माँ भारती के परचम को लहराया। भोजपुरिया माटी की सोंधी सुगंध से सराबोर ये महापुरुष केवल भारत का ही नहीं अपितु विश्व का मार्गदर्शन किए और एक सभ्य एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। यह वोही भोजपुरिया माटी है जिसको संत कबीर ने अपने विलक्षणपन से तो शांति, सादगी एवं राष्ट्र के प्रेमी बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी विद्वता एवं कर्मठता से सींचा।<br />
माँ भारती के अमर सपूत, बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई नामक गाँव में अवतरित होकर भोजपुरिया माटी को धन्य कर दिया। भोजपुरिया माटी जो भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, संत कबीर आदि के कर्मों की साक्षी रही है, एक और महापुरुष को अपने आँचल में पाकर सुवासित और गौरवांवित हो गई। अपने लाल का तेजस्वी मुख-मंडल देखकर धर्मपरायण माँ श्रीमती कमलेश्वरी देवी फूले न समाईं और पिता श्री महादेव सहाय जो संस्कृत एवं फारसी के मूर्धन्य विद्वान थे अपनी विद्वता पर नहीं पर अपने लाल को देखकर गौरवांवित हुए।<br />
प्रखर बुद्धि तेजस्वी बालक राजेन्द्र बाल्यावस्था में ही फारसी में शिक्षा ग्रहण करने लगा और उसके पश्चात प्राथमिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल में नामांकित हो गया। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे टी के घोष अकादमी पटना में दाखिल हो गए। 18 वर्ष की आयु में युवा राजेन्द्र ने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया एवं 1902 में कोलकाता के ही नामचीन प्रेसीडेंसी कालेज में पढ़ाई शुरु की। इसी प्रेसीडेंसी कालेज में परीक्षा के बाद बाबू राजेंद्र की उत्तर-पुस्तिका की जाँच करते समय परीक्षक ने उनकी उत्तर-पुस्तिका पर ही लिखा कि ''The examinee is better than the examiner.'' (परीक्षार्थी, परीक्षक से बेहतर है।) बाबू राजेंद्र की विद्वता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है। बाबू राजेन्द्र की प्रतिभा दिन पर दिन निखरती जा रही थी और 1915 में उन्होंने विधि परास्नातक की परीक्षा स्वर्ण-पदक के साथ हासिल की। इसके बाद कानून के क्षेत्र में ही उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि भी हासिल की।<br />
पारंपरिकतावाद के चलते 12 वर्ष की कच्ची उम्र में ही यह ओजस्वी किशोर राजवंशी नामक कन्या के साथ परिणय-बंधन में बँध गया और तेरह वर्ष की दहलीज पर पहुँचते ही गौना भी हो गया मतलब किशोर राजेन्द्र अपनी पत्नी के साथ रहने लगा। ऐसा माना जाता है कि 65-66 वर्ष के वैवाहिक जीवन में मुश्किल से लगभग 4 साल तक ही यह महापुरुष अपनी अर्धांगनी के साथ रहा और बाकी का जीवन अपनी माँ भारत माता के चरणों में, मानव सेवा में समर्पित कर दिया।<br />
माँ भारतीय का यह सच्चा सेवक अपनी माँ को फिरंगियों के हाथों की कठपुतली होना भला क्यों देख सकता था। इस महान भोजपुरिया मनई ने माँ भारती के बेड़ियों को काटने के लिए, उसे आजाद कराने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाने लगा और वकालत करते समय ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने को झोंक दिया। यह महान व्यक्ति महात्मा गाँधी के विचारों, देश-प्रेम से इतना प्रभावित हुआ कि 1921 में कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर के पद को लात मार दिया और विदेशी और स्वदेशी के मुद्दे पर अपने प्रखर बुद्धि पुत्र मृत्युंजय को कोलकाता विश्वविद्यालय से निकालकर बिहार विद्यापीठ में नामांकन कराकर एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी की मिसाल कायम कर दी। इस अविस्मरणीय एवं अद्भुत परित्याग के लिए भारती-पुत्र सदा के लिए स्वदेशीयों के लिए अनुकरणीय एवं अर्चनीय बन गया। गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिए इस देशभक्त ने भी बिहार में असहयोग आन्दोलन की अगुआई की और बाद में नमक सत्याग्रह आन्दोलन भी चलाया।<br />
देश सेवा के साथ ही साथ राजेन्द्र बाबू मानव सेवा में भी अविराम लगे रहे और 1914 में बिहार एवं बंगाल में आई बाढ़ में उन्होने बढ़चढ़कर लोगों की सेवा की, उनके दुख-दर्द को बाँटा और एक सच्चे मनीषी की तरह लोगों के प्रणेता बने रहे। राजेंद्र बाबू का मानव-प्रेम, भोजपुरिया प्रेम का उदाहरण उस समय सामने आया जब 1934 में बिहार में आए भूकंप के समय वे कैद में थे पर जेल से छूटते ही जी-जान से भूकंप-पीड़ितों के लिए धन जुटाने में लग गए और उनकी मेहनत, सच्ची निष्ठा रंग लाई और वाइसराय द्वारा जुटाए हुए धन से भी अधिक इन्होनें जुटा दिया। अरे इतना ही नहीं माँ भारती का यह सच्चा लाल मानव सेवा का व्रत लिए आगे बढ़ता रहा और सिंधु एवं क्वेटा में आए भूकंप में भी भूकंप पीड़ितों की कर्मठता एवं लगन के साथ सेवा की एवं कई राहत-शिविरों का संचालन भी किया।<br />
इस महान विभूति के कार्यों एवं समर्पण से प्रभावित होकर इन्हें कई सारे पदों पर भी सुशोभित किया गया। 1934 में इन्हे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुना गया। इन्होंने दो बार इस पद को सुशोभित किया। भारतीय संविधान के निर्माण में भी इस महापुरुष का बहुत बड़ा योगदान है। उनकी विद्वता के आगे नतमस्तक नेताओं ने उन्हें संविधान सभा के अध्यक्ष पद के लिए भी चयनित किया। बाबा अंबेडकर को भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में प्रतिस्थापित करने में इस महान विभूति का ही हाथ था क्योंकि यह महापुरुष बाबा अंबेडर के कानूनी विद्वता से परिचित था। स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में इसने कार्यभार संभाला और अपनी दूरदृष्टि एवं विद्वता से भारत के विकास-रथ को विकास मार्ग पर अग्रसर करने में सहायता की। यह महापुरुष सदा स्वतंत्र रूप से अपने पांडित्य एवं विवेक से कार्य करता रहा और कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होने दिया।<br />
इस महान विभूति में देश-प्रेम, परहितता इतना कूट-कूटकर भरी थी कि भारतीय संविधान के लागू होने के एक दिन पहले अपनी बहन भगवती देवी के स्वर्गवास होने के बावजूद ये मनीषी पहले देश के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया और उसके बाद अपनी बहन के अंतिम संस्कार में शामिल हुआ।<br />
इस महापुरुष के चाहनेवालों में केवल भोजपुरिया ही नहीं अपितु पूरे भारतीय थे। इनकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोलती थी। इसका ज्वलंत उदाहरण यह है कि पंडित नेहरू डा. राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहते थे पर बाबू राजेंद्र प्रसाद के समर्थन में पूरे भारतीय समाज को देखकर वे चुप्पी साध लिए थे। जब 1957 में पुनः राष्ट्रपति के चयन की बात उठी तो चाचा नेहरू ने दक्षिण भारत के सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर अपनी यह मंशा जाहिर की कि इसबार कोई दक्षिण भारतीय को ही राष्ट्रपति बनाया जाए पर दक्षिण भारतीय मुख्यमंत्रियों ने यह कहते हुए इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि जबतक डा. राजेन्द्र प्रसाद हैं तबतक उनका ही राष्ट्रपति बने रहना ठीक है और इस प्रकार राजेन्दर बाबू को दुबारा राष्ट्रपति मनोनीत किया गया। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के पद को सुशोभित करने के बाद सन 1962 में उन्होंने अवकाश ले लिया। इस महापुरुष की सादगी, समर्पण, देश-प्रेम, मानव-प्रेम और प्रकांड विद्वता आज भी लोगों को अच्छे काम करने की प्रेरणा प्रदान करती है। इस महान भोजपुरिया को सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया।<br />
इस महापुरुष ने 1946 में अपनी आत्मकथा लिखने के साथ ही साथ कई अन्य चर्चित एवं पठनीय पुस्तकों की रचना भी की जिसमें बापू के चरणों में, गाँधीजी की देन, भारतीय संस्कृति, सत्याग्रह एट चंपारण, महात्मा गाँधी और बिहार आदि विचारणीय हैं।<br />
माँ भारती का यह अमर सेवक 28 फरवरी सन 1963 को राम, राम का जाप करते हुए अपने इहलौकिक नश्वर शरीर को त्यागकर सदा-सदा के लिए परम पिता परमेश्वर के घर का अनुगमन किया और अपने सेवा भाव में पले-बड़े भारतीय जनमानस को सदा अग्रसर होने के लिए प्रेरित कर गया।<br />
आज कुछ भारतीय चिंतकों को बहुत ही अफसोस होता है कि इस महापुरुष के लिए आजतक भारत सरकार ने ना ही किसी दिवस की घोषणा की और ना ही इनके नाम से किसी बड़े कार्य की शिला ही रखी। अपने घर बिहार में भी अपनो के बीच माँ भारती के इस अमर पुत्र को उतना राजकीय सम्मान नहीं मिला जितना अन्य इनसे भी छोटे-छोटे राजनीतिज्ञों एवं नामचीन लोगों को।<br />
खैर ऐसे महापुरषों को किसा सम्मान की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे महापुरुष तो लोगों के दिल में विराजते हैं, सम्मान पाते हैं और जनमानस द्वारा जयकारे जाते हैं। हर भारतीय, हर भोजपुरिया आज गौरव महसूस करता है कि वह इतने बड़े महापुरुष की सन्तान है। वह आज ऐसी मिट्टी में खेल-कूद रहा है, ऐसी हवा में साँसे ले रहा है जिसमें पहले ही राजेन्द्र प्रसाद जैसी विभूतियाँ खेल-कूद चुकी हैं, साँसे ले चुकी हैं।<br />
धन्य है वह भारत नगरी जहाँ ऐसे-ऐसे महापुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी कीर्ति आज भी पूरे विश्व को रोशन कर रही है। ऐसे महापुरुषों के कर्म हम भारतीयों को गौरवांवित करते हैं और हम शान से सीना तानकर कहते हैं कि हम भारतीय है। माँ भारती के इस अमर-पुत्र, भोजपुरियों के सरताज, प्रकांड विद्वान, सहृदय, भारतीयों द्वारा पूजित इस महापुरुष को मैं शत-शत नमन करता हूँ।<br />
-प्रभाकर पाण्डेय