Dayaram Methani's Posts - Open Books Online2024-03-29T07:52:19ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethanihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991285461?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=2qqt23eskpofo&xn_auth=noगज़लtag:openbooks.ning.com,2022-01-30:5170231:BlogPost:10786152022-01-30T06:46:27.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>गज़ल<br></br>2122 2122 2122 212<br></br>आजकल हर बात पर लड़ने लगा है आदमी,<br></br>क्रोध के साये तले पलने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>चाह झूठी शान की अब बढ़ गई है बहुत ही,<br></br>इस लिये बेचैन सा रहने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>आग हिंसा की बहुत झुलसा रही है देश को,<br></br>खूब धोखा दल बदल करने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>धन कमाया पर बचाया कुछ नहीं अपने लिये,<br></br>अब बुढ़ापे में छटपटाने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी भर झगड़ने से क्या मिला इंसान को,<br></br>देख ’’मेठानी‘‘ बहुत रोने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक…</p>
<p>गज़ल<br/>2122 2122 2122 212<br/>आजकल हर बात पर लड़ने लगा है आदमी,<br/>क्रोध के साये तले पलने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>चाह झूठी शान की अब बढ़ गई है बहुत ही,<br/>इस लिये बेचैन सा रहने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>आग हिंसा की बहुत झुलसा रही है देश को,<br/>खूब धोखा दल बदल करने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>धन कमाया पर बचाया कुछ नहीं अपने लिये,<br/>अब बुढ़ापे में छटपटाने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी भर झगड़ने से क्या मिला इंसान को,<br/>देख ’’मेठानी‘‘ बहुत रोने लगा है आदमी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित<br/>- दयाराम मेठानी</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2021-11-06:5170231:BlogPost:10728032021-11-06T16:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 2122 2</p>
<p><br></br> ज़िन्दगी में हर कदम तेरा सहारा हूँ<br></br> नाव हो मझधार तो तेरा किनारा हूँ</p>
<p></p>
<p>तुम भटक जाओ अगर अनजान राहों में<br></br> पथ दिखाने को तुम्हें रौशन सितारा हूँ</p>
<p></p>
<p>ज़िन्दगी का खेल खेलो तुम निडरता से<br></br> हर सफलता के लिए मैं ही इशारा हूँ</p>
<p></p>
<p>राह जीने की सही तुमको दिखाऊंगा<br></br> ज़िन्दगी के सब अनुभवों का पिटारा हूँ</p>
<p></p>
<p>साथ क्यों दूं मैं तुम्हारा सोच मत ऐसा<br></br> अंश तुम मेरे पिता मैं ही तुम्हारा हूँ</p>
<p></p>
<p>- दयाराम मेठानी…<br></br></p>
<p>2122 2122 2122 2</p>
<p><br/> ज़िन्दगी में हर कदम तेरा सहारा हूँ<br/> नाव हो मझधार तो तेरा किनारा हूँ</p>
<p></p>
<p>तुम भटक जाओ अगर अनजान राहों में<br/> पथ दिखाने को तुम्हें रौशन सितारा हूँ</p>
<p></p>
<p>ज़िन्दगी का खेल खेलो तुम निडरता से<br/> हर सफलता के लिए मैं ही इशारा हूँ</p>
<p></p>
<p>राह जीने की सही तुमको दिखाऊंगा<br/> ज़िन्दगी के सब अनुभवों का पिटारा हूँ</p>
<p></p>
<p>साथ क्यों दूं मैं तुम्हारा सोच मत ऐसा<br/> अंश तुम मेरे पिता मैं ही तुम्हारा हूँ</p>
<p></p>
<p>- दयाराम मेठानी<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-08-27:5170231:BlogPost:9913692019-08-27T16:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p> 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>नाव है मझधार में नाविक नशे में चूर है<br></br> सांझ है होने लगी मंजिल नज़र से दूर है</p>
<p></p>
<p>संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं<br></br> वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी की कशमकश में जीना’ जिसको आ गया<br></br> यों समझ लो हौसलों से वो बहुत भरपूर है</p>
<p></p>
<p>दोष है अपना समय के साथ चल पाये नहीं<br></br> बंद मुट्ठी से फिसलना वक्त का दस्तूर है</p>
<p></p>
<p>हाल ‘‘मेठानी’’ बतायंे क्या किसी को अब यहां<br></br> आदमी सुनता नहीं अब हो गया मगरूर…</p>
<p> 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>नाव है मझधार में नाविक नशे में चूर है<br/> सांझ है होने लगी मंजिल नज़र से दूर है</p>
<p></p>
<p>संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं<br/> वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी की कशमकश में जीना’ जिसको आ गया<br/> यों समझ लो हौसलों से वो बहुत भरपूर है</p>
<p></p>
<p>दोष है अपना समय के साथ चल पाये नहीं<br/> बंद मुट्ठी से फिसलना वक्त का दस्तूर है</p>
<p></p>
<p>हाल ‘‘मेठानी’’ बतायंे क्या किसी को अब यहां<br/> आदमी सुनता नहीं अब हो गया मगरूर है</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>गज़ल सीख लोtag:openbooks.ning.com,2019-07-04:5170231:BlogPost:9870502019-07-04T16:00:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>दर्द को दिल में दबाना सीख लो<br></br> ज़िन्दगी में मुस्कराना सीख लो</p>
<p></p>
<p>आंख से आंसू बहाना छोड़िये<br></br> हर मुसीबत को भगाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>ज़िन्दगी है खेल, खेलो शान से<br></br> खेल में खुद को जिताना सीख लो</p>
<p></p>
<p>फूल को दुनिया मसल कर फैंकती<br></br> खुद को कांटों सा दिखाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>छोड़ दें अब गिड़गिड़ाना आप भी<br></br> कुछ तो कद अपना बढ़ाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>थी जवानी जोश भी था स्वप्न भी<br></br> दिन पुराने अब भुलाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>कौन…</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>दर्द को दिल में दबाना सीख लो<br/> ज़िन्दगी में मुस्कराना सीख लो</p>
<p></p>
<p>आंख से आंसू बहाना छोड़िये<br/> हर मुसीबत को भगाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>ज़िन्दगी है खेल, खेलो शान से<br/> खेल में खुद को जिताना सीख लो</p>
<p></p>
<p>फूल को दुनिया मसल कर फैंकती<br/> खुद को कांटों सा दिखाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>छोड़ दें अब गिड़गिड़ाना आप भी<br/> कुछ तो कद अपना बढ़ाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>थी जवानी जोश भी था स्वप्न भी<br/> दिन पुराने अब भुलाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>कौन ‘‘मेठानी’’ किसी को पूछता<br/> तुम जमाने को झुकाना सीख लो</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>झूठ का व्यापार - ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-04-08:5170231:BlogPost:9804092019-04-08T08:31:56.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p></p>
<p>मापनी: 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>झूठ का व्यापार बढ़ता जा रहा है आजकल, <br></br>और हर इक पर नशा ये छा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>है लड़ाई का नजारा हर तरफ देखें जिधर,<br></br>आदमी ही आदमी को खा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>इस प्रगति के नाम पर ही मिट रहे संस्कार सब<br></br>झूठ को हर आदमी अपना रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>बाँटकर भगवान को नेता खुशी से झूमकर<br></br>काबा’ तेरा काशी’ मेरी गा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>जाग ‘मेठानी’ बचायें आग से अपना चमन <br></br>नित नया जालिम जलाने आ रहा है…</p>
<p></p>
<p>मापनी: 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>झूठ का व्यापार बढ़ता जा रहा है आजकल, <br/>और हर इक पर नशा ये छा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>है लड़ाई का नजारा हर तरफ देखें जिधर,<br/>आदमी ही आदमी को खा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>इस प्रगति के नाम पर ही मिट रहे संस्कार सब<br/>झूठ को हर आदमी अपना रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>बाँटकर भगवान को नेता खुशी से झूमकर<br/>काबा’ तेरा काशी’ मेरी गा रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>जाग ‘मेठानी’ बचायें आग से अपना चमन <br/>नित नया जालिम जलाने आ रहा है आजकल</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-03-15:5170231:BlogPost:9785212019-03-15T07:44:54.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>ग़ज़ल<br></br>मापनी: 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>आंख से आंसू कभी यों ही बहाया ना करो<br></br>दर्द दिल का भी जमाने को बताया ना करो</p>
<p></p>
<p>हर किसी को मुफ्त में कोई खुशी मिलती नहीं<br></br>मेहनत से आप अपना जी चुराया ना करो</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी ले जब परीक्षा हौसलों से काम लो<br></br>आपदा के सामने खुद को झुकाया ना करो</p>
<p></p>
<p>हैं सफलता और नाकामी समय का खेल ही <br></br>लक्ष्य से अपनी नजर को तो हटाया ना करो</p>
<p></p>
<p>जीत लेंगे जिन्दगी की जंग ’मेठानी‘ सुनो<br></br>तुम निराशा को कभी मन में बसाया ना…</p>
<p>ग़ज़ल<br/>मापनी: 2122 2122 2122 212</p>
<p></p>
<p>आंख से आंसू कभी यों ही बहाया ना करो<br/>दर्द दिल का भी जमाने को बताया ना करो</p>
<p></p>
<p>हर किसी को मुफ्त में कोई खुशी मिलती नहीं<br/>मेहनत से आप अपना जी चुराया ना करो</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी ले जब परीक्षा हौसलों से काम लो<br/>आपदा के सामने खुद को झुकाया ना करो</p>
<p></p>
<p>हैं सफलता और नाकामी समय का खेल ही <br/>लक्ष्य से अपनी नजर को तो हटाया ना करो</p>
<p></p>
<p>जीत लेंगे जिन्दगी की जंग ’मेठानी‘ सुनो<br/>तुम निराशा को कभी मन में बसाया ना करो</p>
<p><br/>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/>- दयाराम मेठानी</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-02-19:5170231:BlogPost:9753202019-02-19T16:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 2122</p>
<p></p>
<p>जख्म हम अपने छिपाने में लगे है,<br></br> खुद को’ हम पत्थर बनाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>पूछ मत हमको हुआ क्या आजकल ये,<br></br> दर्द दिल का हम भुलाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>कौन देता है सहारा अब यहां पर, <br></br> बोझ अपना खुद उठाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>दिल जगत का बेरहम चट्टान जैसा,<br></br> फिर भी’ पत्थर को मनाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>देश हित की बात ‘‘मेठानी’’ करे क्या,<br></br> द्रोहियों को हम बचाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित)<br></br> - दयाराम…</p>
<p>2122 2122 2122</p>
<p></p>
<p>जख्म हम अपने छिपाने में लगे है,<br/> खुद को’ हम पत्थर बनाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>पूछ मत हमको हुआ क्या आजकल ये,<br/> दर्द दिल का हम भुलाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>कौन देता है सहारा अब यहां पर, <br/> बोझ अपना खुद उठाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>दिल जगत का बेरहम चट्टान जैसा,<br/> फिर भी’ पत्थर को मनाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>देश हित की बात ‘‘मेठानी’’ करे क्या,<br/> द्रोहियों को हम बचाने में लगे है।</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित)<br/> - दयाराम मेठानी</p>ग़ज़ल गांवtag:openbooks.ning.com,2019-01-23:5170231:BlogPost:9704712019-01-23T06:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 2122</p>
<p>.<br/> गांव भी अब तो शहर बनने लगा है<br/> प्यार औ सद्भाव भी घटने लगा है</p>
<p></p>
<p>खुल गई है खूब शिक्षा की दुकानें<br/> ज्ञान भी अब दाम पर बिकने लगा है</p>
<p></p>
<p>हो गये है लोग बैरी अब यहां भी<br/> खून सड़कों पर बहुत बहने लगा है</p>
<p></p>
<p>गांव के हर मोड़ पर टकराव है अब<br/> खेत औ खलियान तक जलने लगा है</p>
<p></p>
<p>सोच ’‘मेठानी‘’ हुआ है, क्या यहां पर<br/> जो कभी बोया वही उगने लगा है</p>
<p><br/> ( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>
<p>2122 2122 2122</p>
<p>.<br/> गांव भी अब तो शहर बनने लगा है<br/> प्यार औ सद्भाव भी घटने लगा है</p>
<p></p>
<p>खुल गई है खूब शिक्षा की दुकानें<br/> ज्ञान भी अब दाम पर बिकने लगा है</p>
<p></p>
<p>हो गये है लोग बैरी अब यहां भी<br/> खून सड़कों पर बहुत बहने लगा है</p>
<p></p>
<p>गांव के हर मोड़ पर टकराव है अब<br/> खेत औ खलियान तक जलने लगा है</p>
<p></p>
<p>सोच ’‘मेठानी‘’ हुआ है, क्या यहां पर<br/> जो कभी बोया वही उगने लगा है</p>
<p><br/> ( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>गज़ल नफरतtag:openbooks.ning.com,2018-12-18:5170231:BlogPost:9654932018-12-18T08:21:18.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>गज़ल<br/>फेलुन x 4 (16 मात्रा)</p>
<p><br/>नफरत की आग लगाना है<br/>मजहब तो एक बहाना है</p>
<p></p>
<p>खूब लाभ का है ये धंधा<br/>बस इक अफवाह उड़ाना है</p>
<p></p>
<p>हर तरफ खून की है बातें <br/>लाशों का ही नजराना है</p>
<p></p>
<p>धर्म नाम के है दीवाने<br/>जुनून बस खून बहाना है</p>
<p></p>
<p>जला रहे जो अपना ही घर<br/>दर्पण उनको दिखलाना है</p>
<p></p>
<p>शुभ आस करो कुछ ‘‘मेठानी’’ <br/>अब नई सुबह को लाना है।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)<br/>- दयाराम मेठानी</p>
<p>गज़ल<br/>फेलुन x 4 (16 मात्रा)</p>
<p><br/>नफरत की आग लगाना है<br/>मजहब तो एक बहाना है</p>
<p></p>
<p>खूब लाभ का है ये धंधा<br/>बस इक अफवाह उड़ाना है</p>
<p></p>
<p>हर तरफ खून की है बातें <br/>लाशों का ही नजराना है</p>
<p></p>
<p>धर्म नाम के है दीवाने<br/>जुनून बस खून बहाना है</p>
<p></p>
<p>जला रहे जो अपना ही घर<br/>दर्पण उनको दिखलाना है</p>
<p></p>
<p>शुभ आस करो कुछ ‘‘मेठानी’’ <br/>अब नई सुबह को लाना है।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)<br/>- दयाराम मेठानी</p>ग़ज़ल: आइना बन सच सदा सबको दिखाता कौन हैtag:openbooks.ning.com,2018-12-12:5170231:BlogPost:9653152018-12-12T16:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p><br></br> आइना बन सच सदा सबको दिखाता कौन है<br></br> है सभी में दाग दुनिया को बताता कौन है</p>
<p></p>
<p>काम मजहब का हुआ दंगे कराना आजकल<br></br> आग दंगों की वतन में अब बुझाता कौन है</p>
<p></p>
<p>आंधियाँ तूफान लाते है तबाही हर जगह<br></br> दीप अंधेरी डगर में अब जलाता कौन है</p>
<p></p>
<p>देश में शोषण किसानों का हुआ अब तक बहुत <br></br> दाल रोटी दो समय उनको दिलाता कौन है<br></br> <br></br> बात मेठानी सुनो सबकी सदा तुम ध्यान से<br></br> भय हमारी जिन्दगी से अब भगाता कौन है</p>
<p></p>
<p>( मौलिक…</p>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p><br/> आइना बन सच सदा सबको दिखाता कौन है<br/> है सभी में दाग दुनिया को बताता कौन है</p>
<p></p>
<p>काम मजहब का हुआ दंगे कराना आजकल<br/> आग दंगों की वतन में अब बुझाता कौन है</p>
<p></p>
<p>आंधियाँ तूफान लाते है तबाही हर जगह<br/> दीप अंधेरी डगर में अब जलाता कौन है</p>
<p></p>
<p>देश में शोषण किसानों का हुआ अब तक बहुत <br/> दाल रोटी दो समय उनको दिलाता कौन है<br/> <br/> बात मेठानी सुनो सबकी सदा तुम ध्यान से<br/> भय हमारी जिन्दगी से अब भगाता कौन है</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>
<p>- दयाराम मेठानी</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2018-12-01:5170231:BlogPost:9643302018-12-01T07:00:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>2122 2122 2122 2122</p>
<p><br></br> हैं जो अफसानें पुराने, सब भुलाना चाहता हूँ<br></br> इस धरा को स्वर्ग-जैसा ही बनाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>देश में अपने सदा सद्भाव फैलाएँ सभी जन<br></br> अब सभी दीवार नफरत की गिराना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>दिल सभी का हो सदा निर्मल नदी-जैसा धरा पर<br></br> अब परस्पर प्यार करना ही सिखाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>धन कमाऊँगा मगर धोखा न सीखूँगा किसी से<br></br> हर कदम अपना पसीना ही बहाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>है ये तेरा, है ये मेरा की लड़ाई खत्म हो अब<br></br> और खुशियाँ संग सबके…</p>
<p>2122 2122 2122 2122</p>
<p><br/> हैं जो अफसानें पुराने, सब भुलाना चाहता हूँ<br/> इस धरा को स्वर्ग-जैसा ही बनाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>देश में अपने सदा सद्भाव फैलाएँ सभी जन<br/> अब सभी दीवार नफरत की गिराना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>दिल सभी का हो सदा निर्मल नदी-जैसा धरा पर<br/> अब परस्पर प्यार करना ही सिखाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>धन कमाऊँगा मगर धोखा न सीखूँगा किसी से<br/> हर कदम अपना पसीना ही बहाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>है ये तेरा, है ये मेरा की लड़ाई खत्म हो अब<br/> और खुशियाँ संग सबके ही मनाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>है लहू सैनिक बहाता देश के खातिर हमेशा<br/> शीश श्रद्धा से सदा उसको झुकाना चाहता हूँ</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2015-01-16:5170231:BlogPost:6059932015-01-16T04:25:42.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>ग़ज़ल<br></br> 2122 2122 2122 212<br></br> याद करे दुनिया तुझे ऐसी निशानी छोड़ जा, <br></br> जोश भर दे जो सभी में वो जवानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>नाम पर तेरे कभी कोई उदासी हो नहीं, <br></br> प्यार से भरपूर कुछ यादें सुहानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>देश की खातिर लुटाओ जान अपनी शान से,<br></br> हर किसी की आँख में दो बूँद पानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>हो भरोसा हर किसी को तेरी बातों पर सदा,<br></br>देश हित की प्रेरणा दे वो बयानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>मौत आतीे है सभी को देख ‘‘मेठानी’’ यहां,<br></br> गर्व हो अपनाें को कुछ ऐसी…</p>
<p>ग़ज़ल<br/> 2122 2122 2122 212<br/> याद करे दुनिया तुझे ऐसी निशानी छोड़ जा, <br/> जोश भर दे जो सभी में वो जवानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>नाम पर तेरे कभी कोई उदासी हो नहीं, <br/> प्यार से भरपूर कुछ यादें सुहानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>देश की खातिर लुटाओ जान अपनी शान से,<br/> हर किसी की आँख में दो बूँद पानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>हो भरोसा हर किसी को तेरी बातों पर सदा,<br/>देश हित की प्रेरणा दे वो बयानी छोड़ जा।</p>
<p></p>
<p>मौत आतीे है सभी को देख ‘‘मेठानी’’ यहां,<br/> गर्व हो अपनाें को कुछ ऐसी कहानी छोड़ जा।</p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )<br/> - दयाराम मेठानी</p>चार मुक्तकtag:openbooks.ning.com,2013-12-02:5170231:BlogPost:4814752013-12-02T17:39:14.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>चार मुक्तक<br></br>1.<br></br>झुकाना पड़े सिर मां को ऐसा कारोबार मत कीजिये, <br></br>अपने लहू से जिसने पाला उसे लाचार मत कीजिये,<br></br>कर सको तो करो ऐसा काम जगत में कि गर्व हो तुम पर,<br></br>कोख मां की हो जाये लज्जित ऐसा व्यवहार मत कीजिये,</p>
<p>2.<br></br>बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,<br></br>एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,<br></br>बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,<br></br>नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।</p>
<p>3.<br></br>हर बात की अपनी करामात होती है,<br></br>कभी ये हंसाती तो…</p>
<p>चार मुक्तक<br/>1.<br/>झुकाना पड़े सिर मां को ऐसा कारोबार मत कीजिये, <br/>अपने लहू से जिसने पाला उसे लाचार मत कीजिये,<br/>कर सको तो करो ऐसा काम जगत में कि गर्व हो तुम पर,<br/>कोख मां की हो जाये लज्जित ऐसा व्यवहार मत कीजिये,</p>
<p>2.<br/>बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,<br/>एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,<br/>बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,<br/>नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।</p>
<p>3.<br/>हर बात की अपनी करामात होती है,<br/>कभी ये हंसाती तो कभी रुलाती है, <br/>बात कीजिये हमेशा संभल संभल कर,<br/>चुभ जाये तो ये घाव गहरा करती है।</p>
<p>4.<br/>भरी हो जेबें तो जगमग दिवाली सी लगती है जिन्दगी,<br/>पैसा न हो पास तो खाली खाली सी लगती है जिन्दगी,<br/>भूख और बदहाली का जीवन भी कोई जीवन है भला,<br/>जीवन में मिले प्यार तो मस्त प्याली सी लगती है जिन्दगी।<br/>- दयाराम मेठानी<br/>(मौलिक / अप्रकाशित)</p>मुक्तकtag:openbooks.ning.com,2013-10-16:5170231:BlogPost:4563242013-10-16T18:30:00.000ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p>1.<br></br> जो चाहते हो सब मिलेगा, कोशिश करके तो देख,<br></br> अंधेरा मिट जायेगा, एक दीप जला करके तो देख,<br></br> आंसू बहाने से कभी मंजिल नहीं है मिला करती, <br></br> तू मझधार में अपनी नाव कभी उतार करके तो देख।<br></br><br></br></p>
<p>2..<br></br> करके अहसान किसी पर जताया मत कीजिये,<br></br> अपने काम को दुनिया में गिनाया मत कीजिये,<br></br> मेरे बिना चलेगा नहीं यहां किसी का काम,<br></br> ऐसे विचार दिल में कभी लाया मत कीजिये।<br></br></p>
<p>3.<br></br> आओ अब अंधविश्वासों को भुला कर देखते है,<br></br> इस धरा पर प्रेम की गंगा बहा कर देखते…</p>
<p>1.<br/> जो चाहते हो सब मिलेगा, कोशिश करके तो देख,<br/> अंधेरा मिट जायेगा, एक दीप जला करके तो देख,<br/> आंसू बहाने से कभी मंजिल नहीं है मिला करती, <br/> तू मझधार में अपनी नाव कभी उतार करके तो देख।<br/><br/></p>
<p>2..<br/> करके अहसान किसी पर जताया मत कीजिये,<br/> अपने काम को दुनिया में गिनाया मत कीजिये,<br/> मेरे बिना चलेगा नहीं यहां किसी का काम,<br/> ऐसे विचार दिल में कभी लाया मत कीजिये।<br/></p>
<p>3.<br/> आओ अब अंधविश्वासों को भुला कर देखते है,<br/> इस धरा पर प्रेम की गंगा बहा कर देखते है,<br/> धर्म के ठेकेदारों ने सिखाया नफरत करना,<br/> चलो अब नफरत की दीवार ढहा कर देखते है।<br/></p>
<p>4.<br/> अमीर बन जाओ भले ही पर बेज़मीर मत होना,<br/> उम्मीदों की मंजिल जरुर मिलेगी अधीर मत होना,<br/> चाहे लाख कांटे बिखेरे दुनिया तेरी राह में, <br/> किसी की खुशियों की राह में तुम लकीर मत होना।<br/></p>
<p>5.<br/> भ्रष्टाचार अपने देश का एक इश्तिहार हो गया है, <br/> काला धन नेताओं के दिल का करार हो गया है,<br/> ईमानदारी व सच्चाई का हो रहा है उपहास, <br/> छल कपट ही आज का बड़ा कारोबार हो गया है।</p>
<p>.<br/> - दयाराम मेठानी</p>
<p>(मौलिक / अप्रकाशित)</p>