Saurabh Pandey's Posts - Open Books Online2024-03-29T06:20:56ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandeyhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991267923?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=2hgrsx5v453xn&xn_auth=noशिक्षक दिवस - कुण्डलिया छंद // सौरभtag:openbooks.ning.com,2023-09-05:5170231:BlogPost:11090952023-09-05T04:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p></p>
<p>मिट्टी के लोंदे सभी, अनगढ़ था बर्ताव <br/> हमें सिखा कर ककहरा, शिक्षित किया स्वभाव <br/> शिक्षित किया स्वभाव, सभी का योगदान था <br/> निर्मल नेह-दुलार, परस्पर भाव-मान था <br/> कड़क किंतु व्यवहार, सटकती सिट्टी-पिट्टी <br/> शिक्षक थे सब योग्य, सभी ने गढ़ दी मिट्टी <br/> ***<br/> सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित) </p>
<p></p>
<p></p>
<p>मिट्टी के लोंदे सभी, अनगढ़ था बर्ताव <br/> हमें सिखा कर ककहरा, शिक्षित किया स्वभाव <br/> शिक्षित किया स्वभाव, सभी का योगदान था <br/> निर्मल नेह-दुलार, परस्पर भाव-मान था <br/> कड़क किंतु व्यवहार, सटकती सिट्टी-पिट्टी <br/> शिक्षक थे सब योग्य, सभी ने गढ़ दी मिट्टी <br/> ***<br/> सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित) </p>
<p></p>दिल का रिश्ता : पाँच आयाम // सौरभtag:openbooks.ning.com,2022-12-18:5170231:BlogPost:10952322022-12-18T11:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>यह रचना <a href="http://www.openbooksonline.com/forum/topics/146-1">"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-146</a></p>
<p>हेतु सृजित है किंतु गलती से यहाँ पोस्ट कर दी गयी है, लेखक द्वारा अब महोत्सव में रचना पोस्ट करने के फलस्वरूप यहाँ से रचना एडमिन स्तर से हटा दी गयी है ।</p>
<p>यह रचना <a href="http://www.openbooksonline.com/forum/topics/146-1">"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-146</a></p>
<p>हेतु सृजित है किंतु गलती से यहाँ पोस्ट कर दी गयी है, लेखक द्वारा अब महोत्सव में रचना पोस्ट करने के फलस्वरूप यहाँ से रचना एडमिन स्तर से हटा दी गयी है ।</p>खत तुम्हारे नाम का.. लिफाफा बेपता रहा // सौरभtag:openbooks.ning.com,2022-06-27:5170231:BlogPost:10860662022-06-27T17:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२१२ १२१२ १२१२ १२१२ </p>
<p> <br></br> चाहता रहा उसे मगर न बोल पा रहा <br></br> उम्र बीतती रही मलाल सालता रहा <br></br> <br></br> जिंदगी की दोपहर अगर-मगर में रह गयी <br></br> शाम की ढलान पर किसे पुकारता रहा ?<br></br> <br></br> बाद मुद्दतों दिखा.. हवा सिहर-सिहर गयी <br></br> मन गया कहाँ-कहाँ, मैं बस वहीं खड़ा रहा <br></br> <br></br> आयी और छू गयी कि ये गयी कि वो गयी <br></br> मैं इधर हवा-छुआ खुमार में पड़ा रहा <br></br> <br></br> रौशनी से लिख रखा है खुश्बुओं में डूब कर<br></br> खत तुम्हारे नाम का.. लिफाफा बेपता रहा ! <br></br> <br></br> बादलो, इधर न आ…</p>
<p>२१२ १२१२ १२१२ १२१२ </p>
<p> <br/> चाहता रहा उसे मगर न बोल पा रहा <br/> उम्र बीतती रही मलाल सालता रहा <br/> <br/> जिंदगी की दोपहर अगर-मगर में रह गयी <br/> शाम की ढलान पर किसे पुकारता रहा ?<br/> <br/> बाद मुद्दतों दिखा.. हवा सिहर-सिहर गयी <br/> मन गया कहाँ-कहाँ, मैं बस वहीं खड़ा रहा <br/> <br/> आयी और छू गयी कि ये गयी कि वो गयी <br/> मैं इधर हवा-छुआ खुमार में पड़ा रहा <br/> <br/> रौशनी से लिख रखा है खुश्बुओं में डूब कर<br/> खत तुम्हारे नाम का.. लिफाफा बेपता रहा ! <br/> <br/> बादलो, इधर न आ मुझे न चाहिए नमी <br/> आग जो सुलग रही उसे अभी बढ़ा रहा.. <br/> <br/> यार मेरा चाँद है व शुक्ल के हैं पक्ष हम <br/> किंतु अपने भाल का वो दाग क्यों दिखा रहा ?<br/> ***<br/> सौरभ<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)<br/> </p>गजल - जा तुझे इश्क हो // -- सौरभtag:openbooks.ning.com,2022-03-17:5170231:BlogPost:10807442022-03-17T14:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<div dir="ltr">२१२ २१२ २१२ २१२ </div>
<div dir="ltr"> </div>
<div dir="ltr">पुतलियों ने कहा, जा तुझे इश्क हो<br></br> फागुनी है हवा, जा तुझे इश्क हो<br></br> <br></br> हैं कई मायने रंग औ’ गंध के<br></br> गर नहीं ये पता, जा तुझे इश्क हो<br></br> <br></br> चुन रहे थे सदा कौडियाँ, शंख-सीप<br></br> फिर समुंदर हँसा, ’जा तुझे इश्क हो’<br></br> <br></br> चैत्र-बैसाख की थिर-मदिर साँझ में<br></br> टेरती है हवा.. ’जा तुझे इश्क हो’<br></br> <br></br> देख कर ये गगन गेरुआ-गेरुआ<br></br> गा उठी है धरा, जा तुझे इश्क हो<br></br> <br></br> उपनिषद गा रहे सुन सखे,…</div>
<div dir="ltr">२१२ २१२ २१२ २१२ </div>
<div dir="ltr"> </div>
<div dir="ltr">पुतलियों ने कहा, जा तुझे इश्क हो<br/> फागुनी है हवा, जा तुझे इश्क हो<br/> <br/> हैं कई मायने रंग औ’ गंध के<br/> गर नहीं ये पता, जा तुझे इश्क हो<br/> <br/> चुन रहे थे सदा कौडियाँ, शंख-सीप<br/> फिर समुंदर हँसा, ’जा तुझे इश्क हो’<br/> <br/> चैत्र-बैसाख की थिर-मदिर साँझ में<br/> टेरती है हवा.. ’जा तुझे इश्क हो’<br/> <br/> देख कर ये गगन गेरुआ-गेरुआ<br/> गा उठी है धरा, जा तुझे इश्क हो<br/> <br/> उपनिषद गा रहे सुन सखे, बावरे,<br/> एक ही फलसफा --जा तुझे इश्क हो !<br/> <br/> दे किताबें मुझे जो मुहब्बत पढ़ें,<br/> या रहूँ अनपढ़ा, जा तुझे इश्क हो<br/> <br/> जिंदगी बस नहीं निरगुनी धुन-लगन<br/> ले गुलाबी दुआ, जा तुझे इश्क हो<br/> ****<br/><div>सौरभ </div>
</div>
<div><div class="adm"><div id="q_34" class="ajR h4">(मौलिक व अप्रकाशित)</div>
<div class="ajR h4"></div>
</div>
</div>बासंती दोहे // सौरभtag:openbooks.ning.com,2022-02-05:5170231:BlogPost:10784922022-02-05T06:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>आहट की संभावना, करवट का आभास,<br/> पुलक देह ने भर छुअन, लिया मुग्ध उच्छ्वास <br/> <br/> नस-नस झंकृत राग-लय, तन-तन लहर गुँजार <br/> बासंती मनमुग्ध को, प्यार प्यार बस प्यार ! <br/> <br/> पता नहीं किस ठौर से, आयी अल्हड़ भोर <br/>तन मन से बेसुध मगर, मुग्ध नयन की कोर <br/> <br/> तन्वंंगी अल्हड़ लता, बैठी उचक मुँडेर <br/> खेल रही है धूप में, बासंती सुर टेर ।<br/> ***</p>
<div dir="auto">सौरभ</div>
<div dir="auto">(मौलिक और अप्रकाशित)</div>
<div dir="auto"></div>
<p>आहट की संभावना, करवट का आभास,<br/> पुलक देह ने भर छुअन, लिया मुग्ध उच्छ्वास <br/> <br/> नस-नस झंकृत राग-लय, तन-तन लहर गुँजार <br/> बासंती मनमुग्ध को, प्यार प्यार बस प्यार ! <br/> <br/> पता नहीं किस ठौर से, आयी अल्हड़ भोर <br/>तन मन से बेसुध मगर, मुग्ध नयन की कोर <br/> <br/> तन्वंंगी अल्हड़ लता, बैठी उचक मुँडेर <br/> खेल रही है धूप में, बासंती सुर टेर ।<br/> ***</p>
<div dir="auto">सौरभ</div>
<div dir="auto">(मौलिक और अप्रकाशित)</div>
<div dir="auto"></div>गजल : गजल-गीत संवेदना के हैं जाये // सौरभtag:openbooks.ning.com,2021-12-25:5170231:BlogPost:10755562021-12-25T17:22:22.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>122 122 122 122 </p>
<p> <br></br>रजाई में दुबके, कहे सुन छमाछम.. <br></br>किचन तक गयी धूप जाड़े की पुरनम<br></br> <br></br>चकित चौंक उठतीं नवोढ़ा की आँखें<br></br>मुई चूड़ियो मत उठा शोर मद्धम<br></br> <br></br>तुम्हीं को मुबारक जो ठानी है कुट्टी<br></br>नजर तो नजर से उठाती है सरगम<br></br> <br></br>गजल-गीत संवेदना के हैं जाये<br></br>रखें हौसला पर जमाने का कायम<br></br> <br></br>भरी जेब, निश्चिंतता हो मुखर तो <br></br>यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम<br></br> <br></br>निराला जो ताना, तो बाना गजब का<br></br>नए नाम-यश का उड़ाना है परचम…<br></br></p>
<p>122 122 122 122 </p>
<p> <br/>रजाई में दुबके, कहे सुन छमाछम.. <br/>किचन तक गयी धूप जाड़े की पुरनम<br/> <br/>चकित चौंक उठतीं नवोढ़ा की आँखें<br/>मुई चूड़ियो मत उठा शोर मद्धम<br/> <br/>तुम्हीं को मुबारक जो ठानी है कुट्टी<br/>नजर तो नजर से उठाती है सरगम<br/> <br/>गजल-गीत संवेदना के हैं जाये<br/>रखें हौसला पर जमाने का कायम<br/> <br/>भरी जेब, निश्चिंतता हो मुखर तो <br/>यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम<br/> <br/>निराला जो ताना, तो बाना गजब का<br/>नए नाम-यश का उड़ाना है परचम<br/> <br/>रिसालों में तिकड़म से फोटू छपा कर<br/>बजा गाल ’सौरभ’ कहे.. ’बस हमीं हम’<br/>***<br/>मौलिक और अप्रकाशित </p>
<p> </p>
<p>नवोढ़ा - नई दुल्हन </p>पाँच दोहे : उच्छृंखल संकोच // -- सौरभtag:openbooks.ning.com,2021-09-21:5170231:BlogPost:10689642021-09-21T11:33:16.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p></p>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">चकाचौंध की चुप्पियाँ, मौन शोर का देश</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">अँधियारे के गाँव में, सूरज करे प्रवेश ।।</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">रोम-रोम में चाँदनी, घटता-बढ़ता ज्वार </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">मधुर-मदिर खनकार का कितना चुप संसार !…</span></div>
<div dir="auto"></div>
<p></p>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">चकाचौंध की चुप्पियाँ, मौन शोर का देश</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">अँधियारे के गाँव में, सूरज करे प्रवेश ।।</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">रोम-रोम में चाँदनी, घटता-बढ़ता ज्वार </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">मधुर-मदिर खनकार का कितना चुप संसार !</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">मन में है विस्तार औ' आँखों में है लोच </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">लेप रही तिर्यक लहर, उच्छृंखल संकोच </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">अधरों पर मोती सजल, आँखों में उद्भाव</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">लरजन में उद्वेग का कारण व्यक्त झुकाव</span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">सूरज कैसे देखिए, औंधा पड़ा उदास </span></div>
<div dir="auto"><span style="font-size: 12pt;">जुगनू की लफ्फाजियाँ, हुई प्रतीची खास </span></div>
<div class="yj6qo"><span style="font-size: 12pt;">****</span></div>
<div class="yj6qo">-- सौरभ</div>
<div class="yj6qo"> </div>
<div class="yj6qo">(मौलिक और अप्रकाशित)</div>
<div dir="auto" class="adL"> </div>
<div dir="auto" class="adL"> </div>
<div dir="auto" class="adL">प्रतीची = पश्चिम </div>
<div dir="auto" class="adL"> </div>ग़ज़ल : कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया // -- सौरभtag:openbooks.ning.com,2021-07-25:5170231:BlogPost:10645312021-07-25T09:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p> </p>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">ये हुनर है, या लियाकत, दर्द पीना आ गया </div>
<div dir="auto">कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया </div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">हम उन्हें क्या कुछ समझते थे बता पाये नहीं</div>
<div dir="auto">पर उन्हें क्या-क्या बताते, खैर जो बीता, गया </div>
</div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">हम <strong>न थे काबिल</strong> कभी, हमने कभी कोशिश न की </div>
<div dir="auto">आपको…</div>
</div>
</div>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p> </p>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">ये हुनर है, या लियाकत, दर्द पीना आ गया </div>
<div dir="auto">कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया </div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">हम उन्हें क्या कुछ समझते थे बता पाये नहीं</div>
<div dir="auto">पर उन्हें क्या-क्या बताते, खैर जो बीता, गया </div>
</div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">हम <strong>न थे काबिल</strong> कभी, हमने कभी कोशिश न की </div>
<div dir="auto">आपको पर क्या हुआ.. जो आपका दावा गया ? [संशोधित, सौजन्य आ० समर साहब]</div>
</div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">मैं निवेदन क्या करूँ संवेदना के मौन से</div>
<div dir="auto"><div dir="auto">प्रेम के संधान में जो कुछ गया मेरा गया।</div>
</div>
</div>
<div dir="auto"> </div>
</div>
<div dir="auto"><div class="quoted-text"><div dir="auto">जब उनींदी आँखों में बीनाइयाँ घुलने लगीं </div>
<div dir="auto">पश्चिमी आकाश में सूरज इशारे पा गया </div>
<div dir="auto"> </div>
</div>
<div dir="auto"><div class="quoted-text"><div dir="auto">पुस्तकों के शब्द के विन्यास औ' व्यवहार से </div>
</div>
<div dir="auto">वस्तुत: वे छल रहे थे, जानना दहला गया ।</div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto"><div dir="auto"><div dir="auto" style="text-align: left;"> </div>
<div dir="auto" style="text-align: left;">रात्रि है, बारिश गहन, तिस पर अँधेरे की धमक</div>
<div dir="auto">सूर्य के आह्वान पर मौसम भला क्या आ गया ? </div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto"><div dir="auto">जो दमकते, कौंधते थे आज सब निस्तेज हैं</div>
<div dir="auto">एक 'सौरभ' देखिए कुछ इस तरीके छा गया</div>
<div dir="auto">***</div>
<div dir="auto">सौरभ </div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto">(मौलिक और अप्रकाशित)</div>
<div dir="auto"></div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>पर्यावरण-दिवस के अवसर पर छ: दोहे // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2021-06-05:5170231:BlogPost:10611882021-06-05T12:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>आपाधापी, व्यस्तता, लस्त-पस्त दिन-रात<br></br> छोड़ इन्हें, आ चल सुनें, कली-फूल की बात ।<br></br> <br></br> मन मारे चुप आज मैं.. सोचूँ अपना कौन..<br></br> बालकनी के फूल खिल, ढाँढस देते मौन !!<br></br> <br></br> सांत्वना वाले हुए.. हाथ जभी से दूर ..<br></br> लगीं बोलने डालियाँ, 'मत होना मज़बूर' !! <br></br> <br></br> जाने आये कौन कब, मन की थामे डोर<br></br> तुलसी मइया पोंछना, नम आँखों की कोर <br></br> <br></br> फिर आया सूरज लिये, नई भोर का रूप<br></br> उठ ले अब अँगड़ाइयाँ, निकल काम पर धूप ! </p>
<p> </p>
<p>मन-जंगल उद्भ्रांत है, इसे चाहिए त्राण…</p>
<p>आपाधापी, व्यस्तता, लस्त-पस्त दिन-रात<br/> छोड़ इन्हें, आ चल सुनें, कली-फूल की बात ।<br/> <br/> मन मारे चुप आज मैं.. सोचूँ अपना कौन..<br/> बालकनी के फूल खिल, ढाँढस देते मौन !!<br/> <br/> सांत्वना वाले हुए.. हाथ जभी से दूर ..<br/> लगीं बोलने डालियाँ, 'मत होना मज़बूर' !! <br/> <br/> जाने आये कौन कब, मन की थामे डोर<br/> तुलसी मइया पोंछना, नम आँखों की कोर <br/> <br/> फिर आया सूरज लिये, नई भोर का रूप<br/> उठ ले अब अँगड़ाइयाँ, निकल काम पर धूप ! </p>
<p> </p>
<p>मन-जंगल उद्भ्रांत है, इसे चाहिए त्राण ।<br/> पस्त हुआ पर्यावरण, त्रस्त धरा का प्राण ।।<br/> ***</p>
<p>सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>बहुत चुनावी शोर : पाँच दोहे // सौरभtag:openbooks.ning.com,2020-11-03:5170231:BlogPost:10368122020-11-03T14:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>हमें अबूझा ही लगा, लोकतंत्र का रूप ..<br></br> रात-रात भर मंत्रणा, करती व्याकुल धूप !</p>
<p> </p>
<p>कैसे कितना कौन कब, किसे लगाता तेल<br></br> गणना-गणित चुनाव का, भितरघात-धुरखेल</p>
<p> </p>
<p>बहुत कमीने रहनुमा, क्या हम बाँधें आस <br></br> इंद्रमंच पर बैठ कर, करते हैं बकवास ।।</p>
<p> </p>
<p>दिखा-दिखा वह तर्जनी, पुलक रहा हर बार <br></br> मालिक हम भी जानते, क्या होती सरकार !!</p>
<p> </p>
<p>राजा-राजा खेलते, बेवकूफ हम रंक !<br></br> उँगली थामे सोचिए, दाग लगा या डंक ? <br></br> ***<br></br> सौरभ</p>
<p>(मौलिक और…</p>
<p>हमें अबूझा ही लगा, लोकतंत्र का रूप ..<br/> रात-रात भर मंत्रणा, करती व्याकुल धूप !</p>
<p> </p>
<p>कैसे कितना कौन कब, किसे लगाता तेल<br/> गणना-गणित चुनाव का, भितरघात-धुरखेल</p>
<p> </p>
<p>बहुत कमीने रहनुमा, क्या हम बाँधें आस <br/> इंद्रमंच पर बैठ कर, करते हैं बकवास ।।</p>
<p> </p>
<p>दिखा-दिखा वह तर्जनी, पुलक रहा हर बार <br/> मालिक हम भी जानते, क्या होती सरकार !!</p>
<p> </p>
<p>राजा-राजा खेलते, बेवकूफ हम रंक !<br/> उँगली थामे सोचिए, दाग लगा या डंक ? <br/> ***<br/> सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>हिंदी-दिवस : चार दोहे // सौरभtag:openbooks.ning.com,2020-09-14:5170231:BlogPost:10176202020-09-14T04:41:26.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p><br/>दिन भर का उत्साह है, पन्द्रह दिन का प्यार <br/>हिंदी हित कुछ झूठ-सच, कुछ भावुक उद्गार ..</p>
<p> </p>
<p>सरकारी है घोषणा, सजे-धजे हैं मंच<br/>'हिंदी भाषा राष्ट्र की', दिन भर यही प्रपंच</p>
<p> </p>
<p>'हिंदी-हिंदी' कर सभी, बजा रहे निज गाल <br/>हम भकुआए देखते.. 'हिंदी-दिवस' उबाल</p>
<p> </p>
<p>माँ-बोली को जानिए ज्यों माता का प्यार<br/>फिर हिंदी की बाँह धर.. सीखें जग-व्यवहार !<br/>***<br/>(मौलिक और अप्रकाशित) </p>
<p></p>
<p><br/>दिन भर का उत्साह है, पन्द्रह दिन का प्यार <br/>हिंदी हित कुछ झूठ-सच, कुछ भावुक उद्गार ..</p>
<p> </p>
<p>सरकारी है घोषणा, सजे-धजे हैं मंच<br/>'हिंदी भाषा राष्ट्र की', दिन भर यही प्रपंच</p>
<p> </p>
<p>'हिंदी-हिंदी' कर सभी, बजा रहे निज गाल <br/>हम भकुआए देखते.. 'हिंदी-दिवस' उबाल</p>
<p> </p>
<p>माँ-बोली को जानिए ज्यों माता का प्यार<br/>फिर हिंदी की बाँह धर.. सीखें जग-व्यवहार !<br/>***<br/>(मौलिक और अप्रकाशित) </p>
<p></p>ग़ज़ल - पत्थरों से रही शिकायत कब ? // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2019-12-25:5170231:BlogPost:9979652019-12-25T18:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२१२२ १२१२ २२/११२</p>
<p> <br></br> अब दिखेगी भला कभी हममें.. <br></br> आपसी वो हया जो थी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>हममें जो ढूँढते रहे थे कमी <br></br> कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !</p>
<p> </p>
<p>साथिया, हम हुए सदा ही निसार <br></br> पर मुहब्बत तुम्हें दिखी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>पूछते हो अभी पता हमसे <br></br> क्या दिखा बेपता कभी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>पत्थरों से रही शिकायत कब ? <br></br> डर हथेली ही भर रही हममें !</p>
<p> </p>
<p>चीख भरने लगे कलंदर ही.. <br></br> मत कहो, है बराबरी हममें !</p>
<p> </p>
<p>नूर ’सौरभ’…</p>
<p>२१२२ १२१२ २२/११२</p>
<p> <br/> अब दिखेगी भला कभी हममें.. <br/> आपसी वो हया जो थी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>हममें जो ढूँढते रहे थे कमी <br/> कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !</p>
<p> </p>
<p>साथिया, हम हुए सदा ही निसार <br/> पर मुहब्बत तुम्हें दिखी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>पूछते हो अभी पता हमसे <br/> क्या दिखा बेपता कभी हममें ?</p>
<p> </p>
<p>पत्थरों से रही शिकायत कब ? <br/> डर हथेली ही भर रही हममें !</p>
<p> </p>
<p>चीख भरने लगे कलंदर ही.. <br/> मत कहो, है बराबरी हममें !</p>
<p> </p>
<p>नूर ’सौरभ’ खुदा का तुम ही गुनो <br/>जो उगाता है ज़िन्दग़ी हममें ! <br/> ****<br/> सौरभ</p>
<p></p>ग़ज़ल - इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे // सौरभtag:openbooks.ning.com,2019-10-27:5170231:BlogPost:9950882019-10-27T06:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> </p>
<p>सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे</p>
<p>इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अबभी न समझें तो </p>
<p>उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे<br></br> किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !</p>
<p> </p>
<p>दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो<br></br> उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>हृदय में भाव था उसने निछावर…</p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> </p>
<p>सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे</p>
<p>इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अबभी न समझें तो </p>
<p>उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे<br/> किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !</p>
<p> </p>
<p>दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो<br/> उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>हृदय में भाव था उसने निछावर कर दिया खुद को<br/> मगर सोचो कि उसके नाम अब कितने तलाशेंगे ? </p>
<p> </p>
<p>चिनकती धूप से बचते रहे थे आजतक, वो ही-<br/> पता है कल कभी जुगनू, कभी तारे तलाशेंगे </p>
<p> </p>
<p>मुबारक़ हो उन्हें दिलकश पतंगों की उड़ानें पर<br/>ज़मीं पर घूमते ’सौरभ’ बचे कुनबे तलाशेंगे </p>
<p>************<br/> सौरभ </p>
<p></p>तीन मुक्तक // - सौरभtag:openbooks.ning.com,2019-05-02:5170231:BlogPost:9831622019-05-02T14:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>सितारे-चाँद, अच्छे दिन, ऋणों की बात जपनी है <br></br> सजा कर बेचना है स्वप्न ये पहचान छपनी है <br></br> बनाते हम बड़ी बातें तथा जुमले खपाते हैं <br></br> सियासत तुम समझते हो मगर दूकान अपनी है </p>
<p> </p>
<p>जिन्हें तो चिलचिलाती धूप का अनुभव नहीं होना <br></br> कभी हाथों जिन्हें सामान कोई इक नहीं ढोना <br></br> जिन्हें ज़ेवर लदी उड़ती-मचलती औरतों का साथ <br></br> वही मज़दूर-मेहनत औ’ ग़मों का रो रहे रोना </p>
<p> </p>
<p>सियासत की, धमक से औ’ डराया ख़ूब अफ़सर भी <br></br> लिखा है पत्रिका में इंकिलाबी लेख जम कर भी <br></br> उठा कर…</p>
<p>सितारे-चाँद, अच्छे दिन, ऋणों की बात जपनी है <br/> सजा कर बेचना है स्वप्न ये पहचान छपनी है <br/> बनाते हम बड़ी बातें तथा जुमले खपाते हैं <br/> सियासत तुम समझते हो मगर दूकान अपनी है </p>
<p> </p>
<p>जिन्हें तो चिलचिलाती धूप का अनुभव नहीं होना <br/> कभी हाथों जिन्हें सामान कोई इक नहीं ढोना <br/> जिन्हें ज़ेवर लदी उड़ती-मचलती औरतों का साथ <br/> वही मज़दूर-मेहनत औ’ ग़मों का रो रहे रोना </p>
<p> </p>
<p>सियासत की, धमक से औ’ डराया ख़ूब अफ़सर भी <br/> लिखा है पत्रिका में इंकिलाबी लेख जम कर भी <br/> उठा कर मुट्ठियाँ अकसर भरी है चीख नारों की<br/> मगर है ध्यान अर्जन पर.. न छोड़ा हक़ सुई भर भी <br/> *****<br/> सौरभ</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p></p>कुछ अपनी कुछ जग की : तब और अब बनाम बच्चे परिवार को वृत बनाते हैं // -- सौरभtag:openbooks.ning.com,2018-12-25:5170231:BlogPost:9667302018-12-25T08:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p> </p>
<p>आज मन फिर से हरा है। कहें या न कहें, भीतरी तह में यह मरुआया-सा ही रहा करता है। कारण तो कई हैं। आज हरा हुआ है। इसलिए तो नहीं, कि बेटियाँ आज इतनी बड़ी हो गयी हैं, कि अपनी छुट्टियों पर ’घर’ गयी हैं, ’हमको घर जाना है’ के जोश की ज़िद पर ? चाहे जैसे हों, गमलों में खिलने वाले फूलों का हम स्वागत करते हैं। मन का ऐसा हरापन गमलों वाला ही फूल तो है। इस भाव-फूल का स्वागत है।</p>
<p></p>
<p>अपना 'तब वाला' परिवार बड़ा तो था ही, कई अर्थों में 'मोस्ट हैप्पेनिंग' भी हुआ करता था। गाँव का घर, या कहें,…</p>
<p> </p>
<p>आज मन फिर से हरा है। कहें या न कहें, भीतरी तह में यह मरुआया-सा ही रहा करता है। कारण तो कई हैं। आज हरा हुआ है। इसलिए तो नहीं, कि बेटियाँ आज इतनी बड़ी हो गयी हैं, कि अपनी छुट्टियों पर ’घर’ गयी हैं, ’हमको घर जाना है’ के जोश की ज़िद पर ? चाहे जैसे हों, गमलों में खिलने वाले फूलों का हम स्वागत करते हैं। मन का ऐसा हरापन गमलों वाला ही फूल तो है। इस भाव-फूल का स्वागत है।</p>
<p></p>
<p>अपना 'तब वाला' परिवार बड़ा तो था ही, कई अर्थों में 'मोस्ट हैप्पेनिंग' भी हुआ करता था। गाँव का घर, या कहें, गाँव वाला घर हर तरह की होनियों और हर तरह के व्यवहारों, यानी हर तरह के ’परोजनों’ की धुरी हुआ करता था। सभी चाचा, सभी चाचियाँ वस्तुतः भाभी-भउजी, बबुआजी-बबुनीजी हुआ करते। सभी नन्हें-नन्हियाँ, मुन्ने-मुन्नियाँ, ऑब्वियसली, भाई-बहन। चचेरा-चचेरी जैसे शब्द भाव में नहीं थे, न तब जीवन में लाये गये थे। जब ये भाव में ही नहीं आये थे, तो ऐसे शब्दों को समझा भी नहीं जाता था। जब समझा नहीं जाता था, तो जिया <br/> भी नहीं जाता था। जो थे, बस भाईजी थे, भइया थे, कई-कई भाई थे। दीदिया थी, बुचिया थी, कई-कई बहिनियाँ थीं। जो थे सब अपने थे। घर-परिवार की व्यवस्था पारिवारिक तो थी ही, सामूहिक भी थी। सामूहिकता का यह दायरा घर की चौहद्दी फलाँगता हुआ कब सामाजिक हो जाता, पता ही न चलता। ऐसा कि ’परोजनों’ के दौरान गाँव क्या, जवार के भी हीत-मीत, नातेदारों-जानकारों से किसी और कई ’सहयोग’ के लिए कहा जाना या उसका लिया जाना अद्भुत ’अधिकार’ से हुआ करता। ऐसे सहयोग घर की सीमा के बाहर निकले तो आर्थिक नहीं हुआ करते। बल्कि, ’चौकी-तखत, या कड़ाह, या चार गो बलीत (तकिये) और गद्दे-चादर, या फिर ’मैन-पावर’ की गुहार.. कि, दस दिन खातिर अपना लइकियन के घरे भेज दीहऽ’ टाइप। यानी, जो जिस क़ाबिल हुआ उससे वैसा ही सहयोग। कई बार तो कहना भी नहीं पड़ता, ऐसी वस्तुएँ स्वयं ही समयानुसार पहुँचवा दी जातीं और लोग अपने परिवारों के साथ समय से पहुँच जाते। ऐसा सारा ताना-बाना कई अर्थों में व्यक्ति की निजी सोच और उसके व्यापक विचारों की गठन की नींव हुआ करता।</p>
<p></p>
<p>लेकिन यह भी था कि जिसकी जैसी प्रवृति होती उसकी सोच इन सब से वैसे ही सूत्र भी पकड़ती। कुछ को यह सब भारी ढकोसला लगता, जो अकसर ’चाय की गुमटियों’ पर सामाजिक परंपरा-परिपाटियों और इसकी ’रूढ़ियों’ के विरुद्ध तार्किक निर्लिप्तता के साथ ख़ूब मुखर होता। सुनने वाले भी अपने कानों से ’ज्ञान’ के लिए सुनते और आपस में कनखियों से ’रस’ ले कर ताड़ते।</p>
<p> </p>
<p>ऐसे में किसी ’परोजन’ पर किसी भाई का घर न पहुँचना या न पहुँच पाना उसे नैतिक ’पाप’ का भागीदार बनाता। लेकिन यह भी था कि आजका अपना वाला ये दौर गाँव वाले उस घर-परिवार की क्षितिज पर दस्तक देने लगा था। कई बार भाईजी, भाई या भइया लोग ऐसे ’पाप’ का भागीदार हो जाया करते। हालाँकि उनके पास इस ’पापग्रस्तता’ को लेकर वाज़िब कारण और अकाट्य तर्क हुआ करते। जिनमें नौकरी की ज़िम्मेदारियों से ’छुट्टी’ न मिलने से लेकर बच्चों के ’इस्कूल’ से ’अवकाश’ न मिल पाना भी हुआ करता था। कहीं ओहदा ’बड़ा’ हुआ तो उसको लेकर तारी हुई सचमुच की विवशता तो जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ ही बना देती थी। लेकिन, फिर भी, उनके उन वाज़िब कारणों और अकाट्य तर्कों के बावज़ूद दुआर की बैठकियों में ऐसों की अनुपस्थिति की मर्मांतक पीड़ा के साथ बार-बार चर्चा होती। मुखर चर्चा। दबी ज़ुबान में चर्चा। यानी ज़बदस्त चर्चा !</p>
<p></p>
<p>इन चर्चाओं का अंत अकसर बुज़ुर्ग़ों और बड़ों द्वारा उन अनुपस्थितों को ’अपने मन का’ होने या ’पगहा तुड़ाने की कोशिश’ करने को आतुर बोलते हुए मन भर मौखिक लानत भेजने के साथ होता। जो अकसर उन अनुपस्थितों से होता हुआ उनकी पत्नियों और आगे उनकी ससुराल तक जाता। ऐसी लानतों का सूत्र जवान हो चुके कुँवारे ’छोटे’ रस ले कर बखान करते फिरते। सच्चाई यह थी, कि ऐसे परोजन किसी एक का दायित्व नहीं हुआ करते। चाहे उन परोजनों का ’कारक’ कोई हो। तभी तो अनुपस्थितों का मौद्रिक कण्ट्रिब्यूशन बिना नागा अवश्य पहुँच जाता। जिसकी चर्चा बुज़ुर्ग़ और बड़े अकसर नहीं करते। वस्तुतः, उस दौर का पारिवारिक और सामाजिक ताना-बाना तबके समय और उसकी ज़रूरतों के अनुसार बुना हुआ था। अब जो कुछ दीखता है, वह अब की परिस्थितियों और इसकी आवश्यकताओं और व्यवस्थाओं के अनुसार है। </p>
<p> </p>
<p>आज जबकि परिवारों की वो 'वाइब्रेंट' पीढ़ी अपने संध्याकाल से गुजर रही है। कइयों के तो अपने-अपने सूरज डूब चुके हैं। तो कई प्रासंगिकता के पश्चिमी क्षितिज पर हैं, व्यतीत व्यवहारों और चर्चाओं की तमाम क्लिष्ट-अक्लिष्ट स्मृतियाँ और बच गये अपनों के अवशेष मन को गाहे-बगाहे झकझोरते रहते हैं। तब की घटनाओं और चर्चाओं का भौंचक निग़ाहों वाला अबोध-साक्षी खुद के वज़ूद को भी आज काल के मानकों पर कसा हुआ देख रहा है। गीत-नवगीत विधाएँ इन्हीं नम आँखों की ईज़ाद हुआ करती हैं। और, ऐसी ही नम आँखों से ये रस-प्राण पाती हैं।</p>
<p> </p>
<p>मैं आज विकैरियसली अपने उसी दौर में चला गया हूँ, जब भरे-पूरे परिवार को अपनी तमाम धमक और सारी ठसक के बावज़ूद उसे यह भान नहीं हुआ करता था, कि, वैसा सारा कुछ, वैसा महौल, उस परिवार की आखिरी पीढ़ी जी रही है। उस बृहद परिवार के उस दौर के नन्हें-नन्हियाँ, मुन्ने-मुन्नियाँ अपने-अपने कर्मक्षेत्र में आज ज़िम्मेदार कार्मिक हैं। अपने-अपने ’परिवारों’ में सभी अपने तईं व्यस्त हैं, त्रस्त हैं, तो मस्त भी हैं। जीवन का यह दौर भी सभी तरह के स्याह-सफेद को लिए दुर्निवार है, अनवरत है। </p>
<p> </p>
<p>बेटियाँ आज इतनी बड़ी हो गयी हैं कि वे स्वयं ही निर्णय ले कर अपने अवकाश के दौरान तबकी ’बड़की भाभी’, आजकी अपनी दादीजी से भेंट करने उनके पास पहुँच गयी हैं। मरुआया हुआ मन फिर से हरा हो गया है। जबकि आज इसे पूरा भान है, यह सुखवास उस ’दौर’ के जीवंत प्राकट्य की प्रच्छाया मात्र है, जब परिवार भरा-पूरा होने की ठसक और अपनी तमाम धमक को बड़े गर्व से जीता था। <br/> ***<br/> सौरभ</p>
<p></p>नवगीत : जग-जगती में // -- सौरभtag:openbooks.ning.com,2018-08-18:5170231:BlogPost:9451072018-08-18T16:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<div>आग जला कर जग-जगती की </div>
<div>धूनी तज कर</div>
<div>साँसें लेलें ! </div>
<div>खप्पर का तो सुख नश्वर है </div>
<div>चलो मसानी, रोटी बेलें !!</div>
<div> </div>
<div>जगत प्रबल है दायित्वों का </div>
<div>और सबलतम </div>
<div>इसकी माया </div>
<div>अँधियारे का प्रेम उपट कर </div>
<div>तम से पाटे </div>
<div>किया-कराया </div>
<div> </div>
<div>उलझन में चल</div>
<div>काया जोतें </div>
<div>माया का भरमाया झेलें ! </div>
<div> </div>
<div>जस खाते,</div>
<div>तस जीते हैं…</div>
<div>आग जला कर जग-जगती की </div>
<div>धूनी तज कर</div>
<div>साँसें लेलें ! </div>
<div>खप्पर का तो सुख नश्वर है </div>
<div>चलो मसानी, रोटी बेलें !!</div>
<div> </div>
<div>जगत प्रबल है दायित्वों का </div>
<div>और सबलतम </div>
<div>इसकी माया </div>
<div>अँधियारे का प्रेम उपट कर </div>
<div>तम से पाटे </div>
<div>किया-कराया </div>
<div> </div>
<div>उलझन में चल</div>
<div>काया जोतें </div>
<div>माया का भरमाया झेलें ! </div>
<div> </div>
<div>जस खाते,</div>
<div>तस जीते हैं सब </div>
<div>खाते-जीते </div>
<div>पीते भी हैं </div>
<div>और भभकते औंधेमुँह के</div>
<div>बखत उपासे बीते भी हैं </div>
<div> </div>
<div>इन कंधों पर बरतन-बहँगी </div>
<div>लेकर आओ </div>
<div>जग में हेलें ! </div>
<div> </div>
<div>इस मिट्टी ने जीव जगाया </div>
<div>और सजायी</div>
<div>मिलजुल दुनिया </div>
<div>बहुत अभागे अलग कातते </div>
<div>खुद की तकली, </div>
<div>खुद की पुनिया </div>
<div> </div>
<div>कहो निभे क्यों आपसदारी ?</div>
<div>अगर दिखा कुछ.. </div>
<div>चाहा लेलें ! </div>
<div>***</div>
<div>सौरभ</div>
<div> </div>
<div><span>(मौलिक व अप्रकाशित)</span></div>तरही ग़ज़ल : कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो // -सौरभtag:openbooks.ning.com,2018-02-27:5170231:BlogPost:9164722018-02-27T21:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> <br></br> अभी इग्नोर कर दो, पर, ज़बानी याद आयेगी<br></br> अकेले में तुम्हें मेरी कहानी याद आयेगी<br></br> <br></br> चढ़ा फागुन, खिली कलियाँ, नज़ारों का गुलाबीपन <br></br> कभी तो यार को ये बाग़बानी याद आयेगी <br></br> <br></br> मसें फूटी अभी हैं, शोखियाँ, ज़ुल्फ़ें, निखरता रंग <br></br> <em>इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी</em> <br></br> <br></br> मुबाइल नेट दफ़्तर के परे भी है कोई दुनिया <br></br> ठहर कर सोचिए, वो ज़िंदग़ानी याद आयेगी <br></br> <br></br> कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो <br></br> सियासत की उसे हर…</p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> <br/> अभी इग्नोर कर दो, पर, ज़बानी याद आयेगी<br/> अकेले में तुम्हें मेरी कहानी याद आयेगी<br/> <br/> चढ़ा फागुन, खिली कलियाँ, नज़ारों का गुलाबीपन <br/> कभी तो यार को ये बाग़बानी याद आयेगी <br/> <br/> मसें फूटी अभी हैं, शोखियाँ, ज़ुल्फ़ें, निखरता रंग <br/> <em>इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी</em> <br/> <br/> मुबाइल नेट दफ़्तर के परे भी है कोई दुनिया <br/> ठहर कर सोचिए, वो ज़िंदग़ानी याद आयेगी <br/> <br/> कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो <br/> सियासत की उसे हर बदग़ुमानी याद आयेगी <br/> <br/> मुकाबिल हो अगर दुश्मन निहायत काँइयाँ फिर तो <br/> बरत तुर्की-ब-तुर्की ताकि नानी याद आयेगी <br/> <br/> बहुत संतोष औ’ आराम से है ज़िन्दग़ी कच की <br/> मगर कैसे कहे, कब देवयानी याद आयेगी ? <br/> <br/> सदा रौशन रहे पापा.. चिराग़ों की तरह ’सौरभ’ <br/> मगर माँ से सुनो तो धूपदानी याद आयेगी <br/> ****<br/> सौरभ</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>ग़ज़ल - चाहे आँखों लगी, आग तो आग है.. // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2017-10-08:5170231:BlogPost:8874722017-10-08T07:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२१२ २१२ २१२ २१२</p>
<p> </p>
<p>फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी <br></br> मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी <br></br> <br></br> दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे.. <br></br> ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी <br></br> <br></br> लौट आया शरद जान कर रात को <br></br> गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी <br></br> <br></br> उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं <br></br> किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी <br></br> <br></br> है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन.. <br></br> सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी <br></br> <br></br> चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है.. <br></br> है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल…</p>
<p>२१२ २१२ २१२ २१२</p>
<p> </p>
<p>फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी <br/> मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी <br/> <br/> दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे.. <br/> ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी <br/> <br/> लौट आया शरद जान कर रात को <br/> गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी <br/> <br/> उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं <br/> किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी <br/> <br/> है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन.. <br/> सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी <br/> <br/> चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है.. <br/> है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी <br/> <br/> फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे <br/> मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी <br/> <br/> नौनिहालों की आँखों के सपने लिये <br/>बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी <br/> *****************<br/> -सौरभ</p>
<p></p>ग़ज़ल : भइ, आप हैं मालिक तो कहाँ आपसे तुलनाtag:openbooks.ning.com,2017-06-25:5170231:BlogPost:8632742017-06-25T10:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२२१ १२२१ १२२१ १२२ </p>
<p> </p>
<p>पिस्तौल-तमंचे से ज़बर ईद मुबारक़ </p>
<p>इन्सान पे रहमत का असर, ईद मुबारक़ <br></br> <br></br> पास आए मेरे और जो ’आदाब’ सुना मैं <br></br> मेरे लिए अब आठों पहर ईद मुबारक़ <br></br> <br></br> हर वक़्त निग़ाहें टिकी रहती हैं उसी दर <br></br> पर्दे में उधर चाँद, इधर ईद मुबारक़ !<br></br> <br></br> जिस दौर में इन्सान को इन्सान डराये <br></br> उस दौर में बनती है ख़बर, ’ईद मुबारक़’ ! <br></br> <br></br> इन्सान की इज़्ज़त भी न इन्सान करे तो <br></br> फिर कैसे कहे कोई अधर ईद मुबारक़ ?<br></br> <br></br> जब धान उगा कर मिले…</p>
<p>२२१ १२२१ १२२१ १२२ </p>
<p> </p>
<p>पिस्तौल-तमंचे से ज़बर ईद मुबारक़ </p>
<p>इन्सान पे रहमत का असर, ईद मुबारक़ <br/> <br/> पास आए मेरे और जो ’आदाब’ सुना मैं <br/> मेरे लिए अब आठों पहर ईद मुबारक़ <br/> <br/> हर वक़्त निग़ाहें टिकी रहती हैं उसी दर <br/> पर्दे में उधर चाँद, इधर ईद मुबारक़ !<br/> <br/> जिस दौर में इन्सान को इन्सान डराये <br/> उस दौर में बनती है ख़बर, ’ईद मुबारक़’ ! <br/> <br/> इन्सान की इज़्ज़त भी न इन्सान करे तो <br/> फिर कैसे कहे कोई अधर ईद मुबारक़ ?<br/> <br/> जब धान उगा कर मिले सल्फ़ास की पुड़िया <br/> समझो अभी रमज़ान है, पर ईद मुबारक़ ! <br/> <br/> भइ, आप हैं मालिक तो कहाँ आपसे तुलना <br/> कह उठती है रह-रह के कमर.. ईद मुबारक़ ! <br/> <br/> तू ढीठ है बहका हुआ, मालूम है, लेकिन <br/> सुन प्यार से.. बकवास न कर.. ’ईद मुबारक़’ ! </p>
<p> </p>
<p>जो बीत गयी रात थी, ’सौरभ’ उठो फिर से <br/> कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक <br/> *****************<br/> -सौरभ</p>
<p></p>जनता कहती, कि सुने जनता (मदिरा सवैया) // -सौरभtag:openbooks.ning.com,2017-02-13:5170231:BlogPost:8364992017-02-13T17:17:56.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>मदिरा सवैता [भगण (२११) x ७ + गु]</p>
<p> </p>
<p>पाँच विधानसभा फिर भंग हुई, नव रूप बुने जनता </p>
<p>राज्य हुए फिर उद्यत आज नयी सरकार चुने जनता <br/>शासन और प्रशासन हैं नतमस्तक, आज गुने जनता<br/>तंत्र चुनाव विशिष्ट लगे.. जनता कहती, कि सुने जनता..<br/>*********<br/>-सौरभ</p>
<p>मदिरा सवैता [भगण (२११) x ७ + गु]</p>
<p> </p>
<p>पाँच विधानसभा फिर भंग हुई, नव रूप बुने जनता </p>
<p>राज्य हुए फिर उद्यत आज नयी सरकार चुने जनता <br/>शासन और प्रशासन हैं नतमस्तक, आज गुने जनता<br/>तंत्र चुनाव विशिष्ट लगे.. जनता कहती, कि सुने जनता..<br/>*********<br/>-सौरभ</p>ग़ज़ल - तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-10-19:5170231:BlogPost:8091372016-10-19T22:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>१२२२ १२२२ १२२</p>
<p></p>
<p>इन आँखों में जो सपने रह गये हैं <br></br> बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं <br></br> <br></br> अमावस को कहेंगे आप भी क्या <br></br> अगर सम्मान में दीपक जले हैं <br></br> <br></br> अँधेरों से भरी धारावियों में <br></br> कहें किससे ये मौसम दीप के हैं <br></br> <br></br> प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे <br></br> अमीरों के बनाये क़ायदे हैं <br></br> <br></br> उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से <br></br> तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं <br></br> <br></br> उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे- <br></br> कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं …<br></br> <br></br></p>
<p>१२२२ १२२२ १२२</p>
<p></p>
<p>इन आँखों में जो सपने रह गये हैं <br/> बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं <br/> <br/> अमावस को कहेंगे आप भी क्या <br/> अगर सम्मान में दीपक जले हैं <br/> <br/> अँधेरों से भरी धारावियों में <br/> कहें किससे ये मौसम दीप के हैं <br/> <br/> प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे <br/> अमीरों के बनाये क़ायदे हैं <br/> <br/> उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से <br/> तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं <br/> <br/> उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे- <br/> कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं <br/> <br/> करेगा कौन मन की बात, अम्मा ! <br/> सभी टीवी, मुबाइल में लगे हैं</p>
<p> </p>
<p>सड़क पर शोर से कब है शिकायत, <br/> चढ़ी नज़रें मुखर आवाज़ पे हैं ! <br/> <br/> नयी फुनगी दिखी है फिर तने पर </p>
<p>बया की चोंच में तिनके दिखे हैं <br/> *****************</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>यार, ठीक हूँ, सब अच्छा है ! (नवगीत) // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-09-15:5170231:BlogPost:8002812016-09-15T12:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>लोगों से अब मिलते-जुलते <br></br> अनायास ही कह देता हूँ--<br></br> यार, ठीक हूँ..<br></br> सब अच्छा है !..<br></br> <br></br> किससे अब क्या कहना-सुनना <br></br> कौन सगा जो मन से खुलना <br></br> सबके इंगित तो तिर्यक हैं <br></br> मतलब फिर क्या मिलना-जुलना <br></br> गौरइया क्या साथ निभाये <br></br> मर्कट-भाव लिए अपने हैं <br></br> भाव-शून्य-सी घड़ी हुआ मन <br></br> क्यों फिर करनी किनसे तुलना<br></br> <br></br> कौन समझने आता किसकी <br></br> हर अगला तो ऐंठ रहा है <br></br> रात हादसे-अंदेसे में-- <br></br> गुजरे, या सब<br></br> यदृच्छा है !<br></br> <br></br> आँखों में कल…</p>
<p>लोगों से अब मिलते-जुलते <br/> अनायास ही कह देता हूँ--<br/> यार, ठीक हूँ..<br/> सब अच्छा है !..<br/> <br/> किससे अब क्या कहना-सुनना <br/> कौन सगा जो मन से खुलना <br/> सबके इंगित तो तिर्यक हैं <br/> मतलब फिर क्या मिलना-जुलना <br/> गौरइया क्या साथ निभाये <br/> मर्कट-भाव लिए अपने हैं <br/> भाव-शून्य-सी घड़ी हुआ मन <br/> क्यों फिर करनी किनसे तुलना<br/> <br/> कौन समझने आता किसकी <br/> हर अगला तो ऐंठ रहा है <br/> रात हादसे-अंदेसे में-- <br/> गुजरे, या सब<br/> यदृच्छा है !<br/> <br/> आँखों में कल की ख़बरों की <br/> बच्ची अबतक तैर रही है <br/> अपनी बिटिया की सूरत से <br/> मगर अलग वह ख़ैर रही है <br/> चाहे बिटिया पास नहीं पर <br/> यही सोच कर बहुत खुशी है <br/> मोबाइल-चैटिङ के ज़रिये <br/> आखिर वो कब ग़ैर रही है ?<br/> <br/> रोज़ सवेरे समाचार को <br/> पढ़ना, उसके </p>
<p>दर्शन करना <br/> जगत सान्द्र है दो कमरों में <br/> बाकी सब तो </p>
<p>पनछुच्छा है !<br/> <br/> जितने की इच्छा थी उतनी <br/> सबकी दुनिया दिखी चहकती <br/> कहीं धार में बहता पानी <br/> कहीं सुगंधित धार महकती <br/> दौर तेज़ है, तो सब दौड़ें <br/> या सुस्तायें, पाट सँभालें <br/> वो भी चुप हैं अपने हिस्से <br/> जहाँ किरच से रात लहकती<br/> <br/> वैसे तो बिन्दास दिखे मन <br/> चौंक रहा है</p>
<p>हर ’खटके’ से <br/> बिखर रहा फिर तार-तार-सा, <br/> इसे कहूँ दिन गुड़-लच्छा है ? <br/> ****************<br/> --सौरभ<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>ग़ज़ल - फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-09-05:5170231:BlogPost:7978672016-09-05T08:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p> </p>
<p>एक दीये का अकेले रात भर का जागना..<br></br> सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना ! <br></br> <br></br> सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच <br></br> फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !<br></br> <br></br> फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है <br></br> क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।<br></br> <br></br> राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?<br></br> सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !<br></br> <br></br> क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी <br></br> दिख रहा…</p>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p> </p>
<p>एक दीये का अकेले रात भर का जागना..<br/> सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना ! <br/> <br/> सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच <br/> फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !<br/> <br/> फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है <br/> क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।<br/> <br/> राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?<br/> सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !<br/> <br/> क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी <br/> दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।<br/> <br/> हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह <br/> वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना ! [ताज़ीम - इज़्ज़त, आदर <br/> <br/> आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ? <br/> किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना ! <br/> *************<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>एक तरही ग़ज़ल // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-08-16:5170231:BlogPost:7927122016-08-16T10:30:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२२१ २१२१ १२२१ २१२</p>
<p><br></br> पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?<br></br> मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ? <br></br> <br></br> होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात <br></br> पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ? <br></br> <br></br> हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख.. <br></br>किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ? <br></br> <br></br> सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा <br></br> कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !<br></br> <br></br> जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?<br></br> सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ? <br></br> <br></br> क़ातिल…</p>
<p>२२१ २१२१ १२२१ २१२</p>
<p><br/> पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?<br/> मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ? <br/> <br/> होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात <br/> पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ? <br/> <br/> हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख.. <br/>किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ? <br/> <br/> सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा <br/> कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !<br/> <br/> जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?<br/> सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ? <br/> <br/> क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती.. <br/> ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ? <br/> <br/> अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब <br/> ’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ !’<br/> ********<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>गाय हमारी माता है // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-08-05:5170231:BlogPost:7905222016-08-05T20:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>गाय हमारी माता है <br></br> हमको कुछ नहीं आता है..<br></br> <br></br> हमको कुछ नहीं आता है <br></br> कि, गाय हमारी माता है !<br></br> <br></br> गाय हमारी माता है<br></br> और हमको कुछ नहीं आता है !?<br></br> <br></br> जब गाय हमारी माता है <br></br> हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?<br></br> <br></br> गाय हमारी माता है <br></br> फिरभी हमको कुछ नहीं आता है !<br></br> <br></br> फिर क्यों गाय हमारी माता है.. <br></br> जब हमको कुछ नहीं आता है ?<br></br> <br></br> तो फिर, गाय हमारी कैसी माता है <br></br> कि हमको कुछ नहीं आता है ?<br></br> <br></br>चूँकि गाय हमारी माता है.. <br></br> क्या…</p>
<p>गाय हमारी माता है <br/> हमको कुछ नहीं आता है..<br/> <br/> हमको कुछ नहीं आता है <br/> कि, गाय हमारी माता है !<br/> <br/> गाय हमारी माता है<br/> और हमको कुछ नहीं आता है !?<br/> <br/> जब गाय हमारी माता है <br/> हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?<br/> <br/> गाय हमारी माता है <br/> फिरभी हमको कुछ नहीं आता है !<br/> <br/> फिर क्यों गाय हमारी माता है.. <br/> जब हमको कुछ नहीं आता है ?<br/> <br/> तो फिर, गाय हमारी कैसी माता है <br/> कि हमको कुछ नहीं आता है ?<br/> <br/>चूँकि गाय हमारी माता है.. <br/> क्या इसलिए हमको कुछ नहीं आता है ? <br/> <br/> यानी, हमको कुछ नहीं आता है <br/> इसलिए कि गाय हमारी माता है ?<br/> <br/> या फिर, गाय हमारी माता है <br/> इसके आगे हमको कुछ आता ही नहीं है..<br/> <br/> भाई, ये गाय हमारी कैसी माता है ?<br/> कि, हमको कुछ आता-जाता ही नहीं है ?<br/> <br/> गाय हमारी माता है भी ?<br/> क्योंकि हमको तो कुछ आता ही नहीं है !<br/> <br/> गाय हमारी माता है <br/> अब गाय भला हमारी कैसी माता है ?<br/> <br/> हमको कुछ नहीं आता है.. <br/> हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?<br/> <br/> या फिर, गाय हमारी माता है..<br/> इसके अलावा हमको सब कुछ आता है !<br/> <br/> या, गाय हमारी माता है..<br/> इसके अलावा हमको कुछ नहीं आता है !<br/> <br/> या, न गाय हमारी माता है <br/> न हमको कुछ आता-जाता है !<br/> <br/> या, गाय हमारी उतनी ही माता है <br/> जितना हमको आता और भाता है !!<br/> <br/> या, गाय हमारी कैसी माता है, <br/> ये हमको खूब समझ में आता है !<br/> <br/> या, गाय हमारी कितनी माता है <br/> ये हमको ही नहीं सब को खूब समझ में आता है !<br/> **************<br/> --सौरभ<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>ग़ज़ल - भूल जा संवेदना के बोल प्यारे // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-06-30:5170231:BlogPost:7809812016-06-30T19:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>२१२२ २१२२ २१२२ <br></br> <br></br> फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में <br></br> बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में <br></br> <br></br> शांति की वो बात करते घूमते हैं <br></br> किन्तु कुछ कहते नहीं अपने नगर में <br></br> <br></br> शाम होते ही सदा वो सोचता है-<br></br> क्यों बदल जाता है सूरज दोपहर में <br></br> <br></br> भूल जा संवेदना के बोल प्यारे <br></br> <strong>दौर अपना है तरक्की की लहर में</strong> <br></br> <br></br> हो गया बाज़ार का ज्वर अब मियादी <br></br> और देहाती दवा है गाँव-घर में <br></br> <br></br> आदमी तो हाशिये पर हाँफता है <br></br> वेलफेयर-योजनाएँ हैं…</p>
<p>२१२२ २१२२ २१२२ <br/> <br/> फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में <br/> बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में <br/> <br/> शांति की वो बात करते घूमते हैं <br/> किन्तु कुछ कहते नहीं अपने नगर में <br/> <br/> शाम होते ही सदा वो सोचता है-<br/> क्यों बदल जाता है सूरज दोपहर में <br/> <br/> भूल जा संवेदना के बोल प्यारे <br/> <strong>दौर अपना है तरक्की की लहर में</strong> <br/> <br/> हो गया बाज़ार का ज्वर अब मियादी <br/> और देहाती दवा है गाँव-घर में <br/> <br/> आदमी तो हाशिये पर हाँफता है <br/> वेलफेयर-योजनाएँ हैं ख़बर में <br/> <br/> क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे <br/> चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में <br/> <br/> पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता <br/> बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में <br/> <br/> हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये.. <br/> देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ?<br/> ***************<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल - फूल भी बदतमीज़ होने लगे // - सौरभtag:openbooks.ning.com,2016-05-02:5170231:BlogPost:7623702016-05-02T12:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>2122 1212 22/112</p>
<p></p>
<p>ग़ज़ल<br></br> =====<br></br> आओ चेहरा चढ़ा लिया जाये <br></br> और मासूम-सा दिखा जाये</p>
<p> </p>
<p>केतली फिर चढ़ा के चूल्हे पर <br></br> चाय नुकसान है, कहा जाये</p>
<p> </p>
<p>उसकी हर बात में अदा है तो <br></br> क्या ज़रूरी है, तमतमा जाये ?</p>
<p> </p>
<p>फूल भी बदतमीज़ होने लगे <br></br> सोचती पोर ये, लजा जाये</p>
<p> </p>
<p>रात होंठों से नज़्म लिखती हो, <br></br> कौन पर्बत न सिपसिपा जाये ? </p>
<p> </p>
<p><strong>रात होंठों से नज़्म लिखती रही </strong><br></br><strong>चाँद औंधा पड़ा घुला…</strong></p>
<p>2122 1212 22/112</p>
<p></p>
<p>ग़ज़ल<br/> =====<br/> आओ चेहरा चढ़ा लिया जाये <br/> और मासूम-सा दिखा जाये</p>
<p> </p>
<p>केतली फिर चढ़ा के चूल्हे पर <br/> चाय नुकसान है, कहा जाये</p>
<p> </p>
<p>उसकी हर बात में अदा है तो <br/> क्या ज़रूरी है, तमतमा जाये ?</p>
<p> </p>
<p>फूल भी बदतमीज़ होने लगे <br/> सोचती पोर ये, लजा जाये</p>
<p> </p>
<p>रात होंठों से नज़्म लिखती हो, <br/> कौन पर्बत न सिपसिपा जाये ? </p>
<p> </p>
<p><strong>रात होंठों से नज़्म लिखती रही </strong><br/><strong>चाँद औंधा पड़ा घुला जाये .. </strong></p>
<p> </p>
<p>काव्य-संग्रह छपा लिया उसने <br/> अब तो उसका कहा सुना जाये</p>
<p> </p>
<p>कौन इन्सान क्या पता ’सौरभ’<br/> किस कहानी में नाम पा जाये <br/> **********<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>देहात में, सिवान से (नवगीत) // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-12-29:5170231:BlogPost:7274072015-12-29T21:02:30.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p><span style="color: #000080;">क्या हासिल हर किये-धरे का ?</span> <br></br><span style="color: #000080;">गुमसी रातें</span> <br></br><span style="color: #000080;">बोझिल भोर !</span> <br></br> <br></br><span style="color: #000080;">हर मुट्ठी जब कसी हुई है</span> <br></br><span style="color: #000080;">कोई कितना करे प्रयास</span> <br></br><span style="color: #000080;">आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें</span> <br></br><span style="color: #000080;">मत छलकें पर</span> <br></br><span style="color: #000080;">बनके आस</span> <br></br> …<br></br></p>
<p><span style="color: #000080;">क्या हासिल हर किये-धरे का ?</span> <br/><span style="color: #000080;">गुमसी रातें</span> <br/><span style="color: #000080;">बोझिल भोर !</span> <br/> <br/><span style="color: #000080;">हर मुट्ठी जब कसी हुई है</span> <br/><span style="color: #000080;">कोई कितना करे प्रयास</span> <br/><span style="color: #000080;">आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें</span> <br/><span style="color: #000080;">मत छलकें पर</span> <br/><span style="color: #000080;">बनके आस</span> <br/> <br/><span style="color: #000080;">सूख निवाला</span> <br/><span style="color: #000080;">फँसा हलक में</span> <br/><span style="color: #000080;">’पानी ! पानी !’ कर दो शोर..</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">इच्छाओं के धुआँ-धुआँ में</span> <br/><span style="color: #000080;">किर्ची-मिर्ची होती आँख</span> <br/><span style="color: #000080;">किश्तें अब भी बची हुई हैं</span> <br/><span style="color: #000080;">रीते कैसे रोती आँख</span> <br/> <br/><span style="color: #000080;">पड़ा खेत इस कदर डराता</span> <br/><span style="color: #000080;">माँगे काया</span> <br/><span style="color: #000080;">रस्सी-डोर !</span> <br/> <br/><span style="color: #000080;">नये ढंग के शासक आये</span> <br/><span style="color: #000080;">अजब-ग़ज़ब इनका अंदाज़</span> <br/><span style="color: #000080;">रगड़-रगड़ कर, छुरी उलट कर</span> <br/><span style="color: #000080;">गरदन रेतें</span> <br/><span style="color: #000080;">बिन आवाज़</span> <br/> <br/><span style="color: #000080;">मगर सदा हम बकरे की माँ</span> <br/><span style="color: #000080;">कभी कलपते</span> <br/><span style="color: #000080;">कभी विभोर !</span> <br/><span style="color: #000080;">********************************</span><br/><span style="color: #000080;">--सौरभ पाण्डेय</span> <br/><span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span></p>
<p></p>एक तरही ग़ज़ल // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-11-04:5170231:BlogPost:7130592015-11-04T18:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>221 2122 221 2122</p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो </span></p>
<p><span style="color: #000080;">खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं</span> <br></br> <span style="color: #000080;">घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">आपत्तियों के…</span></p>
<p>221 2122 221 2122</p>
<p></p>
<p><span style="color: #000080;">रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो </span></p>
<p><span style="color: #000080;">खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं</span> <br/> <span style="color: #000080;">घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">आपत्तियों के रुत की कुछ है अजीब फितरत</span> <br/> <span style="color: #000080;">समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है</span> <br/> <span style="color: #000080;">फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’ !</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">पत्थर के इस शहर में जो धुंध इस कदर है</span> <br/> <span style="color: #000080;">मिट जायेगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर</span> <br/> <span style="color: #000080;">बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !</span> <br/> <span style="color: #000080;">अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">स्वीकार हो निवेदन, अनुरोध कर रहा है</span> <br/> <span style="color: #000080;">ये रोम-रोम सारा.. इक बार मुस्कुरा दो</span> <br/> <span style="color: #000080;">********************</span></p>
<p><span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span></p>
<p></p>ब्राह्मणवाद (अतुकान्त) // --सौरभtag:openbooks.ning.com,2015-09-06:5170231:BlogPost:6954172015-09-06T14:00:00.000ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p><span style="color: #000080;">अतिशय उत्साह</span></p>
<p><span style="color: #000080;">चाहे जिस तौर पर हो </span></p>
<p><span style="color: #000080;">परपीड़क ही हुआ करता है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">आक्रामक भी. </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">यही उसकी उपलब्धि है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">जड़हीनों को…</span></p>
<p><span style="color: #000080;">अतिशय उत्साह</span></p>
<p><span style="color: #000080;">चाहे जिस तौर पर हो </span></p>
<p><span style="color: #000080;">परपीड़क ही हुआ करता है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">आक्रामक भी. </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">यही उसकी उपलब्धि है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता </span></p>
<p><span style="color: #000080;">और उनके ही हाथों मुहरा बन जाना उसकी नियति </span></p>
<p><span style="color: #000080;">मुँह उठाये, फिर, भारी-भरकम शब्दों में अण्ड-बण्ड बकता हुआ </span></p>
<p><span style="color: #000080;">अपने वायव्य सिद्धांतो को बचाये रखने को वो </span></p>
<p><span style="color: #000080;">इस-उस, जिस-तिस से उलझता फिरता है. </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">भाव और रूप.. असंपृक्त इकाइयाँ हैं </span></p>
<p><span style="color: #000080;">तभी तक, लेकिन, सहिष्णुता के प्रमाद में </span></p>
<p><span style="color: #000080;">’ब्राह्मणवाद’ का मुखौटा न धार लें </span></p>
<p><span style="color: #000080;">जो सोच और स्वरूप में डिस्क्रिमिनेशन को हवा देता है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">स्वयं को ’श्रेष्ठ’ समझने और समझवाने का कुचक्र चलता हुआ </span></p>
<p><span style="color: #000080;">अपनी प्रकृति के अनुसार ही ! </span></p>
<p><span style="color: #000080;">फिर निकल पड़ता है हावी होने</span></p>
<p><span style="color: #000080;">अपने नये रूप और नयी चमक के साथ </span></p>
<p><span style="color: #000080;">पूरे उत्साह में ! </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है </span></p>
<p><span style="color: #000080;">अतिशय उत्साह में.. </span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>
<p><span style="color: #000080;">**************************</span></p>
<p><span style="color: #000080;">-सौरभ </span></p>
<p><span style="color: #000080;">(मौलिक और अप्रकाशित)</span></p>
<p><span style="color: #000080;"> </span></p>