गिरिराज भंडारी's Posts - Open Books Online2024-03-28T08:51:34Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandarihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2945923952?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=29b30x1u01x7s&xn_auth=noग़ज़ल - हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-11-07:5170231:BlogPost:8953662017-11-07T02:52:19.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>22 22 22 22 22 2 </p>
<p>तू पर उगा, मैं आसमाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p>हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>ज़र्रों में माहताब का हो अक्स नुमाया</p>
<p>पगडंडियों में कहकशाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>खामोशियाँ देतीं है घुटन सच ही कहा है </p>
<p>मैं इसलिये तो हमज़बाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>जलती हुई बस्ती की गुनहगार हवा अब </p>
<p>थम जाये वहीं,.. वो बयाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>मैं खो चुका हूँ शह’र तेरी भीड़ में ऐसे</p>
<p>हालात ये, कि ज़िस्म ओ जाँ तलाश रहा…</p>
<p>22 22 22 22 22 2 </p>
<p>तू पर उगा, मैं आसमाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p>हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>ज़र्रों में माहताब का हो अक्स नुमाया</p>
<p>पगडंडियों में कहकशाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>खामोशियाँ देतीं है घुटन सच ही कहा है </p>
<p>मैं इसलिये तो हमज़बाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>जलती हुई बस्ती की गुनहगार हवा अब </p>
<p>थम जाये वहीं,.. वो बयाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>मैं खो चुका हूँ शह’र तेरी भीड़ में ऐसे</p>
<p>हालात ये, कि ज़िस्म ओ जाँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>दरिया ए गिला हूँ, कि न बह जाये बज़्म ये</p>
<p>मै आज बह्र-ए- बेकराँ तलाश रहा हूँ</p>
<p> </p>
<p>मैं थक चुका हूँ ढूँढ, वो बहिश्त सा जहाँ</p>
<p>तारीख़ में लिक्खा जहाँ, तलाश रहा हूँ</p>
<p>****************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>तरही ग़ज़ल - " पहले ये बतला दो उस ने छुप कर तीर चलाए तो '‘ ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-10-29:5170231:BlogPost:8931382017-10-29T12:41:04.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>22 22 22 22 22 22 22 2</p>
<p>वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो</p>
<p>उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो</p>
<p> </p>
<p>सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये</p>
<p>जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो</p>
<p> </p>
<p>मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी </p>
<p>ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो</p>
<p> </p>
<p>तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर </p>
<p>कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो</p>
<p> </p>
<p>कहा तुम्हारा मैनें माना,…</p>
<p>22 22 22 22 22 22 22 2</p>
<p>वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो</p>
<p>उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो</p>
<p> </p>
<p>सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये</p>
<p>जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो</p>
<p> </p>
<p>मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी </p>
<p>ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो</p>
<p> </p>
<p>तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर </p>
<p>कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो</p>
<p> </p>
<p>कहा तुम्हारा मैनें माना, जंग नहीं है हल, लेकिन</p>
<p><b>"</b><b>पहले</b><b> </b><b>ये</b><b> </b><b>बतला</b><b> </b><b>दो</b><b> </b><b>उस</b><b> </b><b>ने</b><b> </b><b>छुप</b><b> </b><b>कर</b><b> </b><b>तीर</b><b> </b><b>चलाए</b><b> </b><b>तो</b></p>
<p><b> </b></p>
<p>ॐ शाँति का मंत्र पाठ कर हमनें तो मन साध लिया</p>
<p>पाकी सेना, साथ मुज़ाहिद, सीमा पर आ जाये तो</p>
<p> </p>
<p>सूरज तो निकलेगा तय है साथ लिये किरणें, कल भी</p>
<p>लेकिन आज़ादी की चाहत बदली बन छा जाये तो <br/>***********************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित <br/><br/></p>तरही ग़ज़ल - "ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ ‘ ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-09-27:5170231:BlogPost:8847472017-09-27T03:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122/1122 1122 1122 22 /112</p>
<p>जीभ ख़ुद की है तो दांतों से दबा भी न सकूँ</p>
<p>कैसे खामोश रहे इस को सिखा भी न सकूँ </p>
<p> </p>
<p>उनका वादा है कि ख़्वाबों में मिलेंगे मुझसे</p>
<p>मुंतज़िर चश्म को अफसोस सुला भी न सकूँ</p>
<p> </p>
<p>तश्नगी देख मेरी आज समन्दर ने कहा</p>
<p>कितना बदबख़्त हूँ मैं प्यास बुझा भी न सकूँ</p>
<p><br></br> मेरे रस्ते में जो रखना तो यूँ पत्थर रखना</p>
<p>कोशिशें लाख करूँ यार हिला भी न सकूँ </p>
<p> </p>
<p>यहाँ तो सिर्फ अँधेरों के तरफदार बचे</p>
<p>छिपा रक्खा है,…</p>
<p>2122/1122 1122 1122 22 /112</p>
<p>जीभ ख़ुद की है तो दांतों से दबा भी न सकूँ</p>
<p>कैसे खामोश रहे इस को सिखा भी न सकूँ </p>
<p> </p>
<p>उनका वादा है कि ख़्वाबों में मिलेंगे मुझसे</p>
<p>मुंतज़िर चश्म को अफसोस सुला भी न सकूँ</p>
<p> </p>
<p>तश्नगी देख मेरी आज समन्दर ने कहा</p>
<p>कितना बदबख़्त हूँ मैं प्यास बुझा भी न सकूँ</p>
<p><br/> मेरे रस्ते में जो रखना तो यूँ पत्थर रखना</p>
<p>कोशिशें लाख करूँ यार हिला भी न सकूँ </p>
<p> </p>
<p>यहाँ तो सिर्फ अँधेरों के तरफदार बचे</p>
<p>छिपा रक्खा है, चराग़ों को , जला भी न सकूँ</p>
<p> </p>
<p>आपके झूठ रहे पर्दे में ये हसरत थी </p>
<p>पर हूँ मज़बूर कि आईना छिपा भी न सकूँ</p>
<p> </p>
<p>ज़ह’न ए नाबीना लिये आये हैं महफिल में उन्हें</p>
<p>सख्त मुश्किल है कि आईना दिखा भी न सकूँ'</p>
<p> </p>
<p>ख़ुदी पर जिसका यक़ीं हो नहीं वो कहता है</p>
<p>"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ ‘’</p>
<p> **********************************************</p>
<p> मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p> </p>ग़ज़ल - दो पहर की धूप भी अच्छी लगी ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-09-18:5170231:BlogPost:8822462017-09-18T10:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 2122 212</p>
<p>दो पहर की धूप भी अच्छी लगी</p>
<p>साथ उनके हर कमी अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>यादों की थीं खुश्बुयें फैलीं वहाँ</p>
<p>तुम न थे फिर भी गली अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>कब कहा मैनें कि मैं था शादमाँ</p>
<p>कुल मिला कर ज़िन्दगी अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>सब में रहता है ख़ुदा ये मान कर</p>
<p>जब भी की तो बन्दगी अच्छी लगी</p>
<p></p>
<p>हाँ, ज़बाँ से भी कहा था कुछ मगर </p>
<p>जो नज़र ने थी कही, अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>दोस्ती तो थी हमारी नाम की </p>
<p>पर तुम्हारी दुश्मनी,…</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p>दो पहर की धूप भी अच्छी लगी</p>
<p>साथ उनके हर कमी अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>यादों की थीं खुश्बुयें फैलीं वहाँ</p>
<p>तुम न थे फिर भी गली अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>कब कहा मैनें कि मैं था शादमाँ</p>
<p>कुल मिला कर ज़िन्दगी अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>सब में रहता है ख़ुदा ये मान कर</p>
<p>जब भी की तो बन्दगी अच्छी लगी</p>
<p></p>
<p>हाँ, ज़बाँ से भी कहा था कुछ मगर </p>
<p>जो नज़र ने थी कही, अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>दोस्ती तो थी हमारी नाम की </p>
<p>पर तुम्हारी दुश्मनी, अच्छी लगी</p>
<p> </p>
<p>चाहतें पूरी हुईं तो मर गईं</p>
<p>जो अधूरी थी बची, अच्छी लगी</p>
<p>********************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-09-16:5170231:BlogPost:8814562017-09-16T02:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1212 1122 1212 22 <br></br> नहीं ये ठीक, मैं तन्हा उदास बैठा था</p>
<p>मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>नज़र उठा के तेरी सिम्त कैसे करता मैं</p>
<p>नज़र से चल के कोई दिल के पास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>कहीं नदी की रवानी थमी थी पत्थर से</p>
<p>कहीं लिये कोई सदियों की प्यास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर </p>
<p>वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा…</p>
<p>1212 1122 1212 22 <br/> नहीं ये ठीक, मैं तन्हा उदास बैठा था</p>
<p>मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>नज़र उठा के तेरी सिम्त कैसे करता मैं</p>
<p>नज़र से चल के कोई दिल के पास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>कहीं नदी की रवानी थमी थी पत्थर से</p>
<p>कहीं लिये कोई सदियों की प्यास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर </p>
<p>वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>जलीं वहीं पे दुकानें बहुत सी कपड़ों की</p>
<p>जहाँ सड़क पे कोई बे लिबास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>उधर से गोलियाँ चलतीं, इधर से पत्थर थे</p>
<p>खबर ये देख के, मैं बद हवास बैठा था</p>
<p> </p>
<p>डरी हुयी थी हक़ीक़त, वो बोलती कैसे</p>
<p>टिकाये अस्लहे सर पर, क़यास बैठा था </p>
<p>************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>तरही ग़ज़ल - ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ " ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-08-30:5170231:BlogPost:8771412017-08-30T03:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>नफरत कहाँ कहाँ है मुहब्बत कहाँ कहाँ</p>
<p>मैं जानता हूँ होगी बग़ावत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>गर है यक़ीं तो बात मेरी सुन के मान लें</p>
<p>लिखता रहूँगा मैं ये इबारत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>धो लीजिये न शक़्ल मुआफ़ी के आब से </p>
<p>मुँह को छिपाये घूमेंगे हज़रत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>कल रेगज़ार आशियाँ, अब दश्त में क़याम</p>
<p>ले जायेगी मुझे मेरी फित्रत कहाँ कहाँ </p>
<p> </p>
<p>कर दफ़्न आ गया हूँ शराफत मैं आज ही</p>
<p>सहता मैं शराफत की नदामत कहाँ…</p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>नफरत कहाँ कहाँ है मुहब्बत कहाँ कहाँ</p>
<p>मैं जानता हूँ होगी बग़ावत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>गर है यक़ीं तो बात मेरी सुन के मान लें</p>
<p>लिखता रहूँगा मैं ये इबारत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>धो लीजिये न शक़्ल मुआफ़ी के आब से </p>
<p>मुँह को छिपाये घूमेंगे हज़रत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>कल रेगज़ार आशियाँ, अब दश्त में क़याम</p>
<p>ले जायेगी मुझे मेरी फित्रत कहाँ कहाँ </p>
<p> </p>
<p>कर दफ़्न आ गया हूँ शराफत मैं आज ही</p>
<p>सहता मैं शराफत की नदामत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>दानिशवराने कौम की बातें न पूछिये</p>
<p>जुल्मत कदे में ढूँढे हैं जुल्मत कहाँ कहाँ</p>
<p> </p>
<p>आखें खुली जो रखते कभी पूछते नहीं</p>
<p>''ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ "</p>
<p>**********************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p></p>ग़ज़ल - अब हक़ीकत से ही बहल जायें ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-08-23:5170231:BlogPost:8754452017-08-23T14:41:11.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22 /122 <br></br>मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें</p>
<p>अब हक़ीकत से ही बहल जायें</p>
<p> </p>
<p>ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे</p>
<p>ता कि कुछ कैमरे दहल जायें</p>
<p> </p>
<p>तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब</p>
<p>कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें</p>
<p> </p>
<p>मेरे अन्दर का बच्चा कहता है </p>
<p>चल न झूठे सही, फिसल जायें</p>
<p> </p>
<p>शह’र की भीड़ भाड़ से बचते</p>
<p>आ ! किसी गाँव तक निकल जायें</p>
<p> </p>
<p>दूर है गर समर ज़रा तुमसे</p>
<p>थोड़ा पंजों के बल उछल जायें</p>
<p> </p>
<p>चाहत ए रोशनी में…</p>
<p>2122 1212 22 /122 <br/>मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें</p>
<p>अब हक़ीकत से ही बहल जायें</p>
<p> </p>
<p>ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे</p>
<p>ता कि कुछ कैमरे दहल जायें</p>
<p> </p>
<p>तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब</p>
<p>कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें</p>
<p> </p>
<p>मेरे अन्दर का बच्चा कहता है </p>
<p>चल न झूठे सही, फिसल जायें</p>
<p> </p>
<p>शह’र की भीड़ भाड़ से बचते</p>
<p>आ ! किसी गाँव तक निकल जायें</p>
<p> </p>
<p>दूर है गर समर ज़रा तुमसे</p>
<p>थोड़ा पंजों के बल उछल जायें</p>
<p> </p>
<p>चाहत ए रोशनी में दम है अगर</p>
<p>जुगनुओं की तरह से जल जायें </p>
<p>*****************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - रोशनी है अगर तेरे दिल में- ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-08-10:5170231:BlogPost:8723622017-08-10T03:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 112/22</p>
<p>गर अँधेरा है तेरी महफिल में</p>
<p>हसरत ए रोशनी तो रख दिल में</p>
<p></p>
<p>खुद से बेहतर वो कैसे समझेगा ?</p>
<p>सारे झूठे हैं <strong>चश्म ए बातिल</strong> में</p>
<p></p>
<p>क़त्ल करने की ख़्वाहिशों के सिवा</p>
<p>और क्या ढूँढते हो क़ातिल में</p>
<p> </p>
<p>बेबसी, दर्द और कुछ तड़पन</p>
<p>क्या ये काफी नहीं था बिस्मिल में ?</p>
<p> </p>
<p>फ़िक्र क्या ? बाहरी जिया न मिले</p>
<p>रोशनी है अगर तेरे दिल में</p>
<p> </p>
<p>कोई तो कोशिश ए नजात भी हो</p>
<p>अश्क़ बारी के…</p>
<p>2122 1212 112/22</p>
<p>गर अँधेरा है तेरी महफिल में</p>
<p>हसरत ए रोशनी तो रख दिल में</p>
<p></p>
<p>खुद से बेहतर वो कैसे समझेगा ?</p>
<p>सारे झूठे हैं <strong>चश्म ए बातिल</strong> में</p>
<p></p>
<p>क़त्ल करने की ख़्वाहिशों के सिवा</p>
<p>और क्या ढूँढते हो क़ातिल में</p>
<p> </p>
<p>बेबसी, दर्द और कुछ तड़पन</p>
<p>क्या ये काफी नहीं था बिस्मिल में ?</p>
<p> </p>
<p>फ़िक्र क्या ? बाहरी जिया न मिले</p>
<p>रोशनी है अगर तेरे दिल में</p>
<p> </p>
<p>कोई तो कोशिश ए नजात भी हो</p>
<p>अश्क़ बारी के सिवा मुश्किल में</p>
<p> </p>
<p>साहिलों सा नही है साहिल अब</p>
<p>कोई तूफाँ छिपा है साहिल में</p>
<p> </p>
<p>प्यार का क्या सबूत दूँ उनको</p>
<p>ज़ह’न के जो बसे हैं तिल तिल में</p>
<p> </p>
<p>हर तगाफ़ुल मिला जो तुमसे मुझे</p>
<p>जुड़ गया ज़िन्दगी के हासिल में </p>
<p>*************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - आदमी वो सरफिरा, लगता तो है ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-08-07:5170231:BlogPost:8718732017-08-07T03:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 2122 212 </p>
<p>दूध में खट्टा गिरा लगता तो है</p>
<p>काम साज़िश से हुआ,लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>था हमेशा दर्द जीवन में, मगर </p>
<p>दे कोई अपना, बुरा, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>बज़्म में सबको ही खुश करने की ज़िद</p>
<p>आदमी वो सरफिरा, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>सच न हो, पर गुफ़्तगू हो बन्द जब,</p>
<p>बढ़ गया कुछ फासिला, लगता तो है </p>
<p> </p>
<p>गर मुख़ालिफ हो कोई जुम्ला, मेरे</p>
<p>दोस्त अब दुश्मन हुआ, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था</p>
<p>मौत से वह भी…</p>
<p>2122 2122 212 </p>
<p>दूध में खट्टा गिरा लगता तो है</p>
<p>काम साज़िश से हुआ,लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>था हमेशा दर्द जीवन में, मगर </p>
<p>दे कोई अपना, बुरा, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>बज़्म में सबको ही खुश करने की ज़िद</p>
<p>आदमी वो सरफिरा, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>सच न हो, पर गुफ़्तगू हो बन्द जब,</p>
<p>बढ़ गया कुछ फासिला, लगता तो है </p>
<p> </p>
<p>गर मुख़ालिफ हो कोई जुम्ला, मेरे</p>
<p>दोस्त अब दुश्मन हुआ, लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था</p>
<p>मौत से वह भी डरा लगता तो है</p>
<p> </p>
<p>खलबली जो है अंधेरों में अभी</p>
<p>सूर्य का रस्ता खुला, लगता तो है</p>
<p>******************************* <br/> मौलिक एवँ अप्रकाशित <b><br/></b></p>ग़ज़ल - क्यों भला दंड वत हुआ जाये ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-08-06:5170231:BlogPost:8718472017-08-06T12:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>अब यहाँ पर विगत हुआ जाये</p>
<p>या, जहाँ से विरत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>खूब दीवार बन जिये यारो</p>
<p>चन्द लम्हे तो छत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>कोई खोले तो बस खला पाये</p>
<p>प्याज़ की सी परत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>ताब रख कर भी सर उठाने की</p>
<p>क्यों भला दंड वत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>आग, पानी , हवा की ले फित्रत </p>
<p>हैं जहाँ, जाँ सिफत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>खूबी ए आइना बचाने को </p>
<p>क्यूँ न पत्थर फ़कत हुआ…</p>
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>अब यहाँ पर विगत हुआ जाये</p>
<p>या, जहाँ से विरत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>खूब दीवार बन जिये यारो</p>
<p>चन्द लम्हे तो छत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>कोई खोले तो बस खला पाये</p>
<p>प्याज़ की सी परत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>ताब रख कर भी सर उठाने की</p>
<p>क्यों भला दंड वत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>आग, पानी , हवा की ले फित्रत </p>
<p>हैं जहाँ, जाँ सिफत हुआ जाये</p>
<p> </p>
<p>खूबी ए आइना बचाने को </p>
<p>क्यूँ न पत्थर फ़कत हुआ जाये</p>
<p>******************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - अजब मासूम है क़ातिल हमारा ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-07-07:5170231:BlogPost:8653512017-07-07T16:40:54.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1222 1222 122 <br></br>वो दहशत गर्द है या मुस्तफ़ा है</p>
<p>क्या तुमने फैसला ये कर लिया है ?</p>
<p> </p>
<p>अजब मासूम है क़ातिल हमारा</p>
<p>वो ख़ूँ बारी से अब दहशत ज़दा है</p>
<p> </p>
<p>तमाशाई के सच को कौन जाने ?</p>
<p>वो सच में मर रहा है, या अदा है</p>
<p> </p>
<p>वो सारी ख़ूबियाँ पत्थर की रख कर</p>
<p>किया है मुश्तहर... वो.. आइना है</p>
<p> </p>
<p>कज़ा से बस कज़ा की बात होगी</p>
<p>हमारा बस यही इक फैसला है</p>
<p> </p>
<p>बहुत दूरी नहीं है, पर चला जो</p>
<p>कभी मस्ज़िद से मन्दिर... हाँफता…</p>
<p>1222 1222 122 <br/>वो दहशत गर्द है या मुस्तफ़ा है</p>
<p>क्या तुमने फैसला ये कर लिया है ?</p>
<p> </p>
<p>अजब मासूम है क़ातिल हमारा</p>
<p>वो ख़ूँ बारी से अब दहशत ज़दा है</p>
<p> </p>
<p>तमाशाई के सच को कौन जाने ?</p>
<p>वो सच में मर रहा है, या अदा है</p>
<p> </p>
<p>वो सारी ख़ूबियाँ पत्थर की रख कर</p>
<p>किया है मुश्तहर... वो.. आइना है</p>
<p> </p>
<p>कज़ा से बस कज़ा की बात होगी</p>
<p>हमारा बस यही इक फैसला है</p>
<p> </p>
<p>बहुत दूरी नहीं है, पर चला जो</p>
<p>कभी मस्ज़िद से मन्दिर... हाँफता है</p>
<p> </p>
<p>डरो मत बस हवायें तेज़ हैं कुछ</p>
<p>ख़बर झूठी है पीछे जलजला है</p>
<p>***************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - रास्ते ही मेरे तवील आये ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-06-11:5170231:BlogPost:8617662017-06-11T03:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये </p>
<p>गलतियाँ कर.., अगर दलील आये</p>
<p> </p>
<p>मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें</p>
<p>साथ गर आप सा वक़ील आये</p>
<p> </p>
<p>ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के</p>
<p>और अब खुद ही बन वक़ील आये </p>
<p> </p>
<p>भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?</p>
<p>हो के आखिर न तुम ज़लील आये</p>
<p> </p>
<p>ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी</p>
<p>जाने क्या सोच कर ये चील आये</p>
<p> </p>
<p>आग-पानी सी दुश्मनी रख कर</p>
<p>बह के पानी सा, बन ख़लील…</p>
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये </p>
<p>गलतियाँ कर.., अगर दलील आये</p>
<p> </p>
<p>मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें</p>
<p>साथ गर आप सा वक़ील आये</p>
<p> </p>
<p>ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के</p>
<p>और अब खुद ही बन वक़ील आये </p>
<p> </p>
<p>भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?</p>
<p>हो के आखिर न तुम ज़लील आये</p>
<p> </p>
<p>ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी</p>
<p>जाने क्या सोच कर ये चील आये</p>
<p> </p>
<p>आग-पानी सी दुश्मनी रख कर</p>
<p>बह के पानी सा, बन ख़लील आये</p>
<p> </p>
<p>जिनके रस्ते में फूल बोये हम</p>
<p>उनसे बदले में कांटे – कील आये</p>
<p> </p>
<p>मंज़िलें मुंतज़िर तो थीं, लेकिन </p>
<p>रास्ते ही मेरे तवील आये</p>
<p>****************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर सके ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-05-17:5170231:BlogPost:8571492017-05-17T01:54:19.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके</p>
<p>तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को</p>
<p>ता फिर कोई भी शौक़ ए बगावत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>हाल ए तबाही देख तेरी बारगाह की </p>
<p>हम जायें बार बार ये हसरत न कर सके</p>
<p>बारगाह - दरबार</p>
<p>मैंने ग़लत कहा जिसे, हर हाल हो ग़लत</p>
<p>तुम देखना ! कोई भी हिमायत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>बन्दे जो कारनामे तेरे नाम से किये</p>
<p>हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर…</p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके</p>
<p>तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को</p>
<p>ता फिर कोई भी शौक़ ए बगावत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>हाल ए तबाही देख तेरी बारगाह की </p>
<p>हम जायें बार बार ये हसरत न कर सके</p>
<p>बारगाह - दरबार</p>
<p>मैंने ग़लत कहा जिसे, हर हाल हो ग़लत</p>
<p>तुम देखना ! कोई भी हिमायत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>बन्दे जो कारनामे तेरे नाम से किये</p>
<p>हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>माना कि तल्ख़ियाँ रहीं गुफ़्तार में मगर </p>
<p>पोशीदा यार तुम भी अदावत न कर सके</p>
<p> </p>
<p>मिल कर निजाम से कोई आईन ऐसा गढ़ </p>
<p>कोई किसी ज़मीन पे हुज्जत न कर सके</p>
<p>आईन - कानून , विधान</p>
<p>उर्दू का लफ्ज़ था कोई हिन्दी के लफ्ज़ हम</p>
<p>अफसोस पास रह के इज़ाफत न कर सके</p>
<p>इज़ाफत - सम्बन्ध</p>
<p>पगड़ी की फिक्र थी जिन्हें, अकड़े रहे सदा </p>
<p>झुक कर वो फिर कहीं भी मुहब्बत न कर सके</p>
<p>*******************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - जाने किस किस से तेरी अनबन हो ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-05-15:5170231:BlogPost:8567482017-05-15T04:49:59.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>मेरी मदहोशियाँ भी ले जाना</p>
<p>मेरी हुश्यारियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>इक ख़ला रूह को अता कर के</p>
<p>आज तन्हाइयाँ भी ले जाना </p>
<p> </p>
<p>जाने किस किस से तेरी अनबन हो</p>
<p>थोड़ी खामोशियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>दिल को दुश्वारियाँ सुहायें गर</p>
<p>मुझसे तब्दीलियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>कामयाबी न सर पे चढ़ जाये</p>
<p>मेरी नाकामामियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>राहें यादों की रोक लूँ पहले</p>
<p>फिर तेरी चिठ्ठियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>बे…</p>
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>मेरी मदहोशियाँ भी ले जाना</p>
<p>मेरी हुश्यारियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>इक ख़ला रूह को अता कर के</p>
<p>आज तन्हाइयाँ भी ले जाना </p>
<p> </p>
<p>जाने किस किस से तेरी अनबन हो</p>
<p>थोड़ी खामोशियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>दिल को दुश्वारियाँ सुहायें गर</p>
<p>मुझसे तब्दीलियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>कामयाबी न सर पे चढ़ जाये</p>
<p>मेरी नाकामामियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>राहें यादों की रोक लूँ पहले</p>
<p>फिर तेरी चिठ्ठियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>बे असर हो गयीं थीं आ मुझ तक</p>
<p>वो तेरी फबतियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>मैं कुआँ सा हूँ, तू समन्दर है</p>
<p>तू..., तेरी किश्तियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>ये न हो इल्म दे अकड़ तुझको</p>
<p>ख़ुद की कुछ गलतियाँ भी ले जाना</p>
<p> </p>
<p>सादा दिल बज़्म में नहीं टिकता </p>
<p>यार..., ऐयारियाँ भी ले जाना</p>
<p>********************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्राशित</p>ग़ज़ल - इब्न ए मरियम हैं, तो शिफ़ा करिये ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-05-10:5170231:BlogPost:8554732017-05-10T02:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p><strong>( दूसरे शेर के ऐब ए तनाफुर को कृपया स्वीकार करें</strong> )</p>
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>ज़ह’नियत यूँ न बरहना करिये</p>
<p>अपने जामे में ही रहा करिये</p>
<p> </p>
<p>आब ठंडक ही दे हमें हरदम </p>
<p>आग, गर्मी ही दे दुआ करिये</p>
<p> </p>
<p>बेवफा हो गये हैं जो साबित </p>
<p>उनसे क्या खा के अब वफ़ा करिये</p>
<p> </p>
<p>जुगनुओं की चमक चुरायी है </p>
<p>शम्स ख़ुद को न अब कहा करिये</p>
<p> </p>
<p>सिर्फ बीमार कह के चुप न रहें</p>
<p>इब्न ए मरियम हैं, तो शिफ़ा…</p>
<p><strong>( दूसरे शेर के ऐब ए तनाफुर को कृपया स्वीकार करें</strong> )</p>
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>ज़ह’नियत यूँ न बरहना करिये</p>
<p>अपने जामे में ही रहा करिये</p>
<p> </p>
<p>आब ठंडक ही दे हमें हरदम </p>
<p>आग, गर्मी ही दे दुआ करिये</p>
<p> </p>
<p>बेवफा हो गये हैं जो साबित </p>
<p>उनसे क्या खा के अब वफ़ा करिये</p>
<p> </p>
<p>जुगनुओं की चमक चुरायी है </p>
<p>शम्स ख़ुद को न अब कहा करिये</p>
<p> </p>
<p>सिर्फ बीमार कह के चुप न रहें</p>
<p>इब्न ए मरियम हैं, तो शिफ़ा करिये</p>
<p> </p>
<p>आइना कह जिसे दिखाये , वो </p>
<p>आइना था नहीं, तो क्या करिये</p>
<p> </p>
<p>हाँ ,सदा ए ग़ैब ही उसे समझें</p>
<p>चुप ! कहा है तो चुप रहा करिये</p>
<p> </p>
<p>आज धुँधलाते आइने ने कहा</p>
<p>क्यों किसी दोस्त को ज़ुदा करिये</p>
<p> </p>
<p>हाथ में फिर चराग है मेरे</p>
<p>हो सके, तेज़ फिर हवा करिये</p>
<p> </p>
<p>झड़ न जायें.., वो ज़र्द पत्ते हैं</p>
<p>जब छुयें, प्यार से छुवा करिये</p>
<p> </p>
<p>ता कि, सारा जहाँ बुरा न लगे</p>
<p>खूबियाँ मेरी गिन लिया करिये</p>
<p>*****************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - क्या कज़ा को हयात कहता है ? ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-05-08:5170231:BlogPost:8549532017-05-08T04:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>क़ैद को क्यों नजात कहता है</p>
<p>क्या कज़ा को हयात कहता है ?</p>
<p> </p>
<p>तीन को अब जो सात कहता है</p>
<p>बस वही ठीक बात कहता है</p>
<p> </p>
<p>क्यूँ न तस्लीम उसको कर लूँ मैं</p>
<p>वो मिरे दिल की बात कहता है</p>
<p> </p>
<p>कैसे कह दूँ कि वास्ता ही नहीं</p>
<p>रोज़ वो शुभ प्रभात कहता है</p>
<p> </p>
<p>ऐतराज उसको है शहर पे बहुत</p>
<p>हाथ अक्सर जो हात कहता है</p>
<p> </p>
<p>उसकी बीनाई भी है शक से परे </p>
<p>जो सदा दिन को रात कहता है</p>
<p> </p>
<p>जीत जब…</p>
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p>क़ैद को क्यों नजात कहता है</p>
<p>क्या कज़ा को हयात कहता है ?</p>
<p> </p>
<p>तीन को अब जो सात कहता है</p>
<p>बस वही ठीक बात कहता है</p>
<p> </p>
<p>क्यूँ न तस्लीम उसको कर लूँ मैं</p>
<p>वो मिरे दिल की बात कहता है</p>
<p> </p>
<p>कैसे कह दूँ कि वास्ता ही नहीं</p>
<p>रोज़ वो शुभ प्रभात कहता है</p>
<p> </p>
<p>ऐतराज उसको है शहर पे बहुत</p>
<p>हाथ अक्सर जो हात कहता है</p>
<p> </p>
<p>उसकी बीनाई भी है शक से परे </p>
<p>जो सदा दिन को रात कहता है</p>
<p> </p>
<p>जीत जब भी मिली, वो क़ाबिल था</p>
<p>मात को फर्जी मात कहता है</p>
<p> </p>
<p>ज़ेह’न बदला नहीं मिरा अब तक</p>
<p>दर्द, अब भी निशात कहता है </p>
<p>*****************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p></p>दो अतुकांत - वैचारिक रचनाएँ ( गिरिराज भंडारी )tag:openbooks.ning.com,2017-05-06:5170231:BlogPost:8545032017-05-06T03:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1- आंतरिक सम्बन्ध</p>
<p>**************</p>
<p>मैंने पीटा तो दरवाज़ा था<br></br> हिल उठी साँकल ...</p>
<p>खड़ खड़ कर के .... </p>
<p>और..</p>
<p>आवाज़ अन्दर से आयी</p>
<p>कौन है बे.... ?</p>
<p>बस...</p>
<p>मै समझ गया</p>
<p>तीनों के आंतरिक सम्बन्धों को</p>
<p>******</p>
<p> 2- आग और पानी</p>
<p>*****************</p>
<p>आग बुझे या न बुझे</p>
<p>आग लग जाना दुर्घटना है, या साजिश</p>
<p>किसे मतलब है</p>
<p>इन बेमतलब के सवालों से</p>
<p> </p>
<p>ज़रूरी है, अधिकार ....</p>
<p>पानी पर</p>
<p>सारा झगड़ा इसी…</p>
<p>1- आंतरिक सम्बन्ध</p>
<p>**************</p>
<p>मैंने पीटा तो दरवाज़ा था<br/> हिल उठी साँकल ...</p>
<p>खड़ खड़ कर के .... </p>
<p>और..</p>
<p>आवाज़ अन्दर से आयी</p>
<p>कौन है बे.... ?</p>
<p>बस...</p>
<p>मै समझ गया</p>
<p>तीनों के आंतरिक सम्बन्धों को</p>
<p>******</p>
<p> 2- आग और पानी</p>
<p>*****************</p>
<p>आग बुझे या न बुझे</p>
<p>आग लग जाना दुर्घटना है, या साजिश</p>
<p>किसे मतलब है</p>
<p>इन बेमतलब के सवालों से</p>
<p> </p>
<p>ज़रूरी है, अधिकार ....</p>
<p>पानी पर</p>
<p>सारा झगड़ा इसी का है</p>
<p> </p>
<p>उस समय भी जब आग लगी हो</p>
<p>और उस समय भी जब आग न लगी हो</p>
<p> </p>
<p>क्यों कि ,</p>
<p>ये पानी उतना ही छिड़कना चाहते हैं , जितने से</p>
<p>घर तो बच जाये .. जलने से </p>
<p>पर,</p>
<p>आग न भुझे ...</p>
<p>सुलगती रहे अन्दर ही अन्दर </p>
<p>फूँक भी देते हैं कभी धीरे से</p>
<p>मुँह छिपा के ...</p>
<p> </p>
<p>क्यों कि</p>
<p>ज़रूरी है,</p>
<p>जूतों का औकात मे रहना ...</p>
<p>सर तो टोपी के लिये है न ।</p>
<p>************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<div id="link64_adl_tabid" style="display: none;">96</div>ग़ज़ल - मिरा गिरना किसी की है मसर्रत - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-05-01:5170231:BlogPost:8538472017-05-01T05:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1222 1222 122</p>
<p>है तर्कों की कहाँ.. हद जानता हूँ</p>
<p>मुबाहिस का मैं मक़्सद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>करें आकाश छूने के जो दावे</p>
<p>मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>बबूलों की कहानी क्या कहूँ मैं</p>
<p>पला बरगद में, बरगद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ</p>
<p>मै उस कारण को शायद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>पसीने पर जहाँ चर्चा हुआ कल <br></br> वो कमरा, ए सी, मसनद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>यक़ीनन कोशिशें नाकाम होंगीं</p>
<p>मै उनके तीरों की जद,…</p>
<p>1222 1222 122</p>
<p>है तर्कों की कहाँ.. हद जानता हूँ</p>
<p>मुबाहिस का मैं मक़्सद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>करें आकाश छूने के जो दावे</p>
<p>मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>बबूलों की कहानी क्या कहूँ मैं</p>
<p>पला बरगद में, बरगद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ</p>
<p>मै उस कारण को शायद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>पसीने पर जहाँ चर्चा हुआ कल <br/> वो कमरा, ए सी, मसनद जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>यक़ीनन कोशिशें नाकाम होंगीं</p>
<p>मै उनके तीरों की जद, जानता हूँ</p>
<p> </p>
<p>मिरा गिरना किसी की है मसर्रत </p>
<p>हुआ है कौन गद गद, जानता हूँ </p>
<p>******************************<br/> मौलिक एवँ अप्रकाशित <br/> <strong>यह गज़ल आ. समर भाई की गज़ल की अधूरी ज़मीन पर कही है ... अधूरी इसलिये, क्योंकि इसमे काफिया मेरी है और रदीफ आ. समर भाई जी की</strong> ... <strong>आभार आ. समर भाई जी का ।</strong></p>
<div id="link64_adl_tabid" style="display: none;">219</div>ग़ज़ल - दुश्मनी घुट के मर न जाये कहीं - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-04-23:5170231:BlogPost:8508252017-04-23T05:41:44.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p></p>
<p>मेरी साँसें रवाँ - दवाँ कर दे </p>
<p>फिर लगे दूर आसमाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>प्यासे दोनों तरफ़ हैं , खाई के</p>
<p>है कोई.. ? खाई जो कुआँ कर दे </p>
<p> </p>
<p>वो ठिकाना जहाँ उजाला हो <br></br> सब की ख़ातिर उसे अयाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>दुश्मनी घुट के मर न जाये कहीं</p>
<p>आ मेरे सामने , बयाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>ऐ ख़ुदा, क्या नहीं है बस में तिरे</p>
<p>हिन्दी- उर्दू को एक जाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>कैसे देखूँगा मै ये जंग ए अदब</p>
<p>मेरी आँखे धुआँ धुआँ कर…</p>
<p>2122 1212 22 /112</p>
<p></p>
<p>मेरी साँसें रवाँ - दवाँ कर दे </p>
<p>फिर लगे दूर आसमाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>प्यासे दोनों तरफ़ हैं , खाई के</p>
<p>है कोई.. ? खाई जो कुआँ कर दे </p>
<p> </p>
<p>वो ठिकाना जहाँ उजाला हो <br/> सब की ख़ातिर उसे अयाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>दुश्मनी घुट के मर न जाये कहीं</p>
<p>आ मेरे सामने , बयाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>ऐ ख़ुदा, क्या नहीं है बस में तिरे</p>
<p>हिन्दी- उर्दू को एक जाँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>कैसे देखूँगा मै ये जंग ए अदब</p>
<p>मेरी आँखे धुआँ धुआँ कर दे</p>
<p> </p>
<p>वो अकेला है राह ए हक़ में, उसे</p>
<p>है दुआ मेरी, कारवाँ कर दे</p>
<p></p>
<p>मेरी बातें हों नागवार जिन्हें</p>
<p>रू ब रू उनके, बे ज़बाँ कर दे</p>
<p>******************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -गली गली में कुछ अँधियारे, घूम रहे हैं - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-04-13:5170231:BlogPost:8486602017-04-13T05:31:31.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>22 22 22 22 22 22 ( बहर ए मीर )</p>
<p>कटे हाथ लेकर बे चारे घूम रहे हैं</p>
<p>मांग रहे हैं, कहीं सहारे, घूम रहे हैं</p>
<p></p>
<p>कर्मों का लेखा उनका मत बाहर आये</p>
<p>इसी जुगत में डर के मारे, घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>हाथों मे पत्थर हैं जिनके, उनके पीछे</p>
<p>छिपे हुये अब भी हत्यारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>अँधियारा अब भी फैला है आंगन आंगन</p>
<p>क्यों ये सूरज, चंदा, तारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>शब्द भटक जाते हैं उनके, अर्थ हीन हो</p>
<p>जिनके घर के अब चौबारे घूम रहे…</p>
<p>22 22 22 22 22 22 ( बहर ए मीर )</p>
<p>कटे हाथ लेकर बे चारे घूम रहे हैं</p>
<p>मांग रहे हैं, कहीं सहारे, घूम रहे हैं</p>
<p></p>
<p>कर्मों का लेखा उनका मत बाहर आये</p>
<p>इसी जुगत में डर के मारे, घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>हाथों मे पत्थर हैं जिनके, उनके पीछे</p>
<p>छिपे हुये अब भी हत्यारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>अँधियारा अब भी फैला है आंगन आंगन</p>
<p>क्यों ये सूरज, चंदा, तारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>शब्द भटक जाते हैं उनके, अर्थ हीन हो</p>
<p>जिनके घर के अब चौबारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>कटा पेड़ धरती से, तो वो सूखेगा ही</p>
<p>भ्रम में हैं, जो बन गुब्बारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>कुछ की सांसें अटकी, कुछ की नाड़ी गायब</p>
<p>तन के मारे , मन से हारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>साफ वसन में दाग ढूँढने की कोशिश में</p>
<p>दूर बीन ले, ग़म के मारे घूम रहे हैं</p>
<p> </p>
<p>बचना यारों, पहन उजालों की पोशाकें</p>
<p>गली गली में कुछ अँधियारे, घूम रहे हैं</p>
<p>************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>मैं , ओ बी ओ हूँ ... ( एक अतुकांत वैचारिक अभिव्यक्ति )tag:openbooks.ning.com,2017-04-13:5170231:BlogPost:8484882017-04-13T01:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p><strong>मैं , ओ बी ओ हूँ ...</strong></p>
<p><strong>***************</strong></p>
<p>मैं , ओ बी ओ हूँ ...<br></br>मेरी छाया में हर विधा प्राण पाती रही .. <br></br>कितने ही शून्य आये <br></br>रहे<br></br>सीखे<br></br>और शून्य से अनगिनत हो गये <br></br>फर्श अर्श हुये<br></br><br></br>पर, मैं नहीं बदली , वही हूँ <br></br>वही रहूँगी <br></br>यही तो तय किया था मैंने<br></br><br></br>लेकिन, क्या ये सच नहीं <br></br>कि साज़िन्दे अगर सो जायें<br></br>बेसुरे हो ही जाते हैं गवैये ?<br></br>कितने भी सुरीले हों..<br></br><br></br>आज <br></br>मुझे सोचना पड़ रहा है .. <br></br>शब्द…</p>
<p><strong>मैं , ओ बी ओ हूँ ...</strong></p>
<p><strong>***************</strong></p>
<p>मैं , ओ बी ओ हूँ ...<br/>मेरी छाया में हर विधा प्राण पाती रही .. <br/>कितने ही शून्य आये <br/>रहे<br/>सीखे<br/>और शून्य से अनगिनत हो गये <br/>फर्श अर्श हुये<br/><br/>पर, मैं नहीं बदली , वही हूँ <br/>वही रहूँगी <br/>यही तो तय किया था मैंने<br/><br/>लेकिन, क्या ये सच नहीं <br/>कि साज़िन्दे अगर सो जायें<br/>बेसुरे हो ही जाते हैं गवैये ?<br/>कितने भी सुरीले हों..<br/><br/>आज <br/>मुझे सोचना पड़ रहा है .. <br/>शब्द 'आज़ादी' के बारे में <br/><br/>सोचना इसलिये भी ज़रूरी है .. क्यों कि शब्द मुर्दा नहीं होते <br/>साथ मे जुड़ा ही होता है भाव !<br/>संतुलन एक अच्छा शब्द है ... आ..हा.. !!<br/>अधिकारों और कर्तव्यों के बीच का संतुलन <br/><br/>अराजकता <br/>एक बुरा शब्द है <br/>वैसे, शब्द कोई बुरा नहीं होता.. <br/>बुरे होते हैं भाव ! <br/>ये (?) बन्दरपना लाता है<br/>अगर आज़ादी का उस्तरा मिले तो और भी अधिक <br/><br/>सोचती हूँ .. क्या मुझमें जीने वाले भी सोचते होंगे ?<br/>कि,बन्दरपना ठीक नही हैं ?<br/>कौन जाने ! <br/>*********</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p><b> </b></p>ग़ज़ल -जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-04-09:5170231:BlogPost:8480772017-04-09T02:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 2122 212</p>
<p>धारणायें हों मुखर, तो चुप रहें</p>
<p>सच न पाये जब डगर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>शब्द ज़िद्दी और अड़ियल जब लगें</p>
<p>और ढूँढें, अर्थ अगर तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>जब धरा भी दूर हो आकाश भी</p>
<p>आप लटके हों अधर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>कृष्ण हो जाये किशन, स्वीकार हो</p>
<p>शह्र पर जब हो समर तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>सीखने वालों पे यारों पिल पड़ें</p>
<p>जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>तेल औ’र पानी मिलाने के लिये</p>
<p>कोशिशें देखें…</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p>धारणायें हों मुखर, तो चुप रहें</p>
<p>सच न पाये जब डगर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>शब्द ज़िद्दी और अड़ियल जब लगें</p>
<p>और ढूँढें, अर्थ अगर तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>जब धरा भी दूर हो आकाश भी</p>
<p>आप लटके हों अधर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>कृष्ण हो जाये किशन, स्वीकार हो</p>
<p>शह्र पर जब हो समर तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>सीखने वालों पे यारों पिल पड़ें</p>
<p>जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें</p>
<p> </p>
<p>तेल औ’र पानी मिलाने के लिये</p>
<p>कोशिशें देखें अगर, तो चुप रहें</p>
<p>******************************</p>
<p><strong>( आ. पाठकों से एवँ आ. समर कबीर जी से अनुरोध है - चौथे शेर मे आये शब्द - समर = युद्ध लें )</strong><br/> मौलिक एवॅँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -और हम भी प्यार की जागीर को समझे नहीं - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-04-06:5170231:BlogPost:8475842017-04-06T03:30:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p>कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं</p>
<p>घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ </p>
<p>सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये </p>
<p>जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये </p>
<p>और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे</p>
<p>हमको शिकवा है…</p>
<p>2122 2122 2122 212</p>
<p>कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं</p>
<p>घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ </p>
<p>सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये </p>
<p>जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये </p>
<p>और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे</p>
<p>हमको शिकवा है हमारी पीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>उनसे आँचल खींचने का कोई शिकवा क्या करे</p>
<p>कृष्ण की उँगली बंधी जो चीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>जब भी पहुँचे उस तरफ तो फूल से वो हो गये </p>
<p>क्यूँ चलाते हो उसे, जिस तीर को समझे नहीं</p>
<p> </p>
<p>कौन जाना है ख़ुदा को ? सारे दावे हैं गलत</p>
<p>है हक़ीक़त, हम अभी दिलगीर को समझे नहीं</p>
<p>********************************************<br/> मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-03-23:5170231:BlogPost:8441292017-03-23T03:27:20.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>हर चहरे पर चहरा कोई जीता है</p>
<p>और बदलने की भी खूब सुभीता है</p>
<p> </p>
<p>सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो</p>
<p>इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है</p>
<p> </p>
<p>अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी</p>
<p>चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है</p>
<p> </p>
<p>भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में</p>
<p>अब जंगल में जीता केवल चीता है</p>
<p> </p>
<p>बादल तो बरसा था सबके आँगन में</p>
<p>उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है</p>
<p> </p>
<p>फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो…</p>
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>हर चहरे पर चहरा कोई जीता है</p>
<p>और बदलने की भी खूब सुभीता है</p>
<p> </p>
<p>सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो</p>
<p>इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है</p>
<p> </p>
<p>अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी</p>
<p>चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है</p>
<p> </p>
<p>भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में</p>
<p>अब जंगल में जीता केवल चीता है</p>
<p> </p>
<p>बादल तो बरसा था सबके आँगन में</p>
<p>उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है</p>
<p> </p>
<p>फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो तो</p>
<p>पहले जो थी सलमा अब वो सीता है</p>
<p> </p>
<p>बन्द आँखों की दुनिया उल्टी है यारो</p>
<p>जिसने हारा सब कुछ वो ही जीता है </p>
<p>**********************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-03-21:5170231:BlogPost:8438062017-03-21T04:18:07.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं</p>
<p>फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये </p>
<p>सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>आइनों से जो भी नफ़रत करते थे </p>
<p>जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा</p>
<p>इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्</p>
<p>जब नापे तो सारे सागर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>औंधे पड़े हुये हैं सागर…</p>
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं</p>
<p>फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये </p>
<p>सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>आइनों से जो भी नफ़रत करते थे </p>
<p>जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा</p>
<p>इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्</p>
<p>जब नापे तो सारे सागर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>औंधे पड़े हुये हैं सागर से दावे</p>
<p>कुछ नाले, तो बाक़ी गागर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>क्या सांपों के बिल में पानी चला गया ?</p>
<p>तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं</p>
<p> </p>
<p>आवाज़ तभी होती है जब उथला पन हो</p>
<p>चुप्पी से ही सभी समन्दर निकलें हैं</p>
<p>**************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-03-07:5170231:BlogPost:8410152017-03-07T07:24:49.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया</p>
<p>या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया</p>
<p> </p>
<p>तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो </p>
<p>कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया</p>
<p> </p>
<p>हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ</p>
<p>ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया</p>
<p> </p>
<p>गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर</p>
<p>भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया</p>
<p> </p>
<p>लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ </p>
<p>पत्थर समझ के राह का, कोई हटा…</p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया</p>
<p>या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया</p>
<p> </p>
<p>तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो </p>
<p>कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया</p>
<p> </p>
<p>हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ</p>
<p>ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया</p>
<p> </p>
<p>गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर</p>
<p>भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया</p>
<p> </p>
<p>लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ </p>
<p>पत्थर समझ के राह का, कोई हटा गया</p>
<p> </p>
<p>वो बेवफाई आज भी जीती है ज़ेह्न में</p>
<p>गो ज़िन्दगी से कब का मेरी, बेवफ़ा गया</p>
<p> </p>
<p>लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा</p>
<p>झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया </p>
<p>***************************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p> </p>
<p> </p>ग़ज़ल -है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-02-27:5170231:BlogPost:8393542017-02-27T02:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1212 1122 1212 22 /122</p>
<p>सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या</p>
<p>है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे</p>
<p>निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं</p>
<p>लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में</p>
<p>शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में</p>
<p>हुआ है ज़िस्म का…</p>
<p>1212 1122 1212 22 /122</p>
<p>सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या</p>
<p>है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे</p>
<p>निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं</p>
<p>लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में</p>
<p>शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में</p>
<p>हुआ है ज़िस्म का भी इश्तिहार, कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>हाँ, लहज़ा तल्ख़ था लेकिन कही हक़ीकत थी</p>
<p>ज़रा सा पूछ तो लेते, कि ख़ार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>वो, एक लम्हा भी जिसने मुझे हँसाया है</p>
<p>ये दिल कहे, उसे परवर दिगार कह दूँ क्या</p>
<p> </p>
<p>*****************************************</p>
<p> मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
<p> </p>ग़ज़ल -सुखवनर से वो पहले आदमी है - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-02-23:5170231:BlogPost:8381062017-02-23T02:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>1222 1222 122 </p>
<p>सुखनवर से वो पहले आदमी है</p>
<p>गलत क्या है अगर नीयत बुरी है</p>
<p> </p>
<p>किताबों से कमाई कम हुई तो </p>
<p>सुना है, रूह उसने बेच दी है </p>
<p> </p>
<p>अचानक आइने के बर हुये हैं</p>
<p>इसी कारण बदन में झुरझुरी है</p>
<p> </p>
<p>लगावट खून से, होती है अंधी</p>
<p>वो काला भी, हरा ही देखती है</p>
<p> </p>
<p>चली तो है पहाड़ों से नदी पर</p>
<p>सियासी बांध रस्ता रोकती है</p>
<p> </p>
<p>दिवारें लाख मज़हब की उठा लें</p>
<p>अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है…</p>
<p>1222 1222 122 </p>
<p>सुखनवर से वो पहले आदमी है</p>
<p>गलत क्या है अगर नीयत बुरी है</p>
<p> </p>
<p>किताबों से कमाई कम हुई तो </p>
<p>सुना है, रूह उसने बेच दी है </p>
<p> </p>
<p>अचानक आइने के बर हुये हैं</p>
<p>इसी कारण बदन में झुरझुरी है</p>
<p> </p>
<p>लगावट खून से, होती है अंधी</p>
<p>वो काला भी, हरा ही देखती है</p>
<p> </p>
<p>चली तो है पहाड़ों से नदी पर</p>
<p>सियासी बांध रस्ता रोकती है</p>
<p> </p>
<p>दिवारें लाख मज़हब की उठा लें</p>
<p>अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है </p>
<p> </p>
<p>किसी से प्यार हो, या मुझसे नफरत</p>
<p>हक़ीकत है, कि कुतिया भूँकती है</p>
<p>********************************</p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>
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<p> </p>ग़ज़ल -इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-02-19:5170231:BlogPost:8377302017-02-19T04:00:00.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>2122 2122 2122 </p>
<p>हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ है</p>
<p>ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है </p>
<p> </p>
<p>बाइस ए हाल ए तबाही हैं, उन्हें भी --</p>
<p>बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है </p>
<p> </p>
<p>एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में</p>
<p>प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है</p>
<p> </p>
<p>किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा</p>
<p>जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है</p>
<p> </p>
<p>जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा </p>
<p>उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है</p>
<p> </p>
<p>जब…</p>
<p>2122 2122 2122 </p>
<p>हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ है</p>
<p>ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है </p>
<p> </p>
<p>बाइस ए हाल ए तबाही हैं, उन्हें भी --</p>
<p>बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है </p>
<p> </p>
<p>एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में</p>
<p>प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है</p>
<p> </p>
<p>किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा</p>
<p>जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है</p>
<p> </p>
<p>जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा </p>
<p>उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है</p>
<p> </p>
<p>जब वफादारी की क़समें खा चुके सब</p>
<p>क्या करिश्मा है कि लुटता कारवाँ है</p>
<p> </p>
<p>ढोल माजी का उठाये पीट मत यूँ </p>
<p>क्या तेरा भी हाल, मुर्दा- बेज़बाँ है</p>
<p> </p>
<p>जो दहकता कोयला देते थे खाने</p>
<p>आज शिकवा है, वो क्यूँ आतिशफिशाँ है</p>
<p> </p>
<p>वो अलग है, ग़ैर मुल्क़ी परचमों पर </p>
<p>क्या तुम्हें दिखता नहीं वो गुलफ़िशाँ है </p>
<p> </p>
<p>मैं पहुँच जाऊँगा मंज़िल तक यक़ीनन</p>
<p>गर कोई कह दे मुझे जाना कहाँ है</p>
<p> </p>
<p>इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी</p>
<p>और उनकी भी अधूरी दासताँ है</p>
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<p><strong>मुंसिफों -- न्यायाधीश , बाइस - कारण , तामीर = निर्माण , ख़ुर्शीद -- सूरज , आतिशफिशाँ - ज्वाला मुखी , गुलफिशाँ - फूल चढाने वाला</strong></p>
<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -मेरा ग़रीब खाना है ऊँचे भवन के बाद - ( गिरिराज )tag:openbooks.ning.com,2017-02-05:5170231:BlogPost:8341912017-02-05T02:16:12.000Zगिरिराज भंडारीhttp://openbooks.ning.com/profile/girirajbhandari
<p>( <strong>अज़ीम शायर मुहतरम जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ज़मीन पर एक प्रयास )</strong></p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>मुझको कहाँ अज़ीज़ है कुछ भी चमन के बाद <br></br> क्या मांगता ख़ुदा से मैं हुब्ब-ए-वतन के बाद</p>
<p><br></br> तहज़ीब को जो देते हैं गंग-ओ-जमुन का नाम <br></br> ये उनसे जाके पूछिये , गंग-ओ-जमन के बाद ?</p>
<p><br></br> वो लम्स-ए-गुल हो, या हो कोई और शय मगर <br></br> दिल को भला लगे भी क्या तेरी छुवन के बाद</p>
<p><br></br> वो चिल्मनों की ओट से देखा किये असर <br></br> बातों के तीर छोड़ के हर इक चुभन के…</p>
<p>( <strong>अज़ीम शायर मुहतरम जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ज़मीन पर एक प्रयास )</strong></p>
<p>221 2121 1221 212</p>
<p>मुझको कहाँ अज़ीज़ है कुछ भी चमन के बाद <br/> क्या मांगता ख़ुदा से मैं हुब्ब-ए-वतन के बाद</p>
<p><br/> तहज़ीब को जो देते हैं गंग-ओ-जमुन का नाम <br/> ये उनसे जाके पूछिये , गंग-ओ-जमन के बाद ?</p>
<p><br/> वो लम्स-ए-गुल हो, या हो कोई और शय मगर <br/> दिल को भला लगे भी क्या तेरी छुवन के बाद</p>
<p><br/> वो चिल्मनों की ओट से देखा किये असर <br/> बातों के तीर छोड़ के हर इक चुभन के बाद</p>
<p> </p>
<p>रहती है बेक़रार पर आती नहीं है धूप <br/> मेरा ग़रीब खाना है ऊँचे भवन के बाद</p>
<p><br/> ना आशना तू क्या हुआ ,सारा जहाँ मुझे <br/> लगने लगा है आशना उस अंजुमन के बाद</p>
<p> </p>
<p>ऐ मेरी नज़्म बोल क्या तू भी उदास है ?</p>
<p>ग़मगीन जैसे मैं हुआ , तर्क़े सुखन के बाद</p>
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<p>मौलिक एवँ अप्रकाशित</p>