सतविन्द्र कुमार राणा's Posts - Open Books Online2024-03-28T22:16:05Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991294117?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=28fn40mg3o5v9&xn_auth=noदिख रहे हैं हजार आंखों मेंtag:openbooks.ning.com,2023-11-03:5170231:BlogPost:11115302023-11-03T04:13:02.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p></p>
<p>तेरे बोलों के ख़ार आँखों में<br/>दिख रहे हैं हजार आंखों में</p>
<p></p>
<p>मैनें देखा ख़ुमार आँखों में<br/>इश्क़ का बेशुमार आँखों में</p>
<p></p>
<p>इश्क है होशियार आँखों में<br/>इश्क़ फिर भी गवार आंखों में</p>
<p><br/>तेरी गलियों को छान कर जाना<br/>क्या-क्या होता है यार आँखों में।</p>
<p></p>
<p>होठ बेशक हँसी से हैं फैले<br/>दर्द पर बरकरार आँखों में।</p>
<p><br/>'बाल' नादान है समझ तेरी<br/>ढूंढती बस जो प्यार आँखों में।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p>तेरे बोलों के ख़ार आँखों में<br/>दिख रहे हैं हजार आंखों में</p>
<p></p>
<p>मैनें देखा ख़ुमार आँखों में<br/>इश्क़ का बेशुमार आँखों में</p>
<p></p>
<p>इश्क है होशियार आँखों में<br/>इश्क़ फिर भी गवार आंखों में</p>
<p><br/>तेरी गलियों को छान कर जाना<br/>क्या-क्या होता है यार आँखों में।</p>
<p></p>
<p>होठ बेशक हँसी से हैं फैले<br/>दर्द पर बरकरार आँखों में।</p>
<p><br/>'बाल' नादान है समझ तेरी<br/>ढूंढती बस जो प्यार आँखों में।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>रोला छंदtag:openbooks.ning.com,2023-08-14:5170231:BlogPost:11078512023-08-14T14:11:38.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>*रोला छंद*</p>
<p>बहुत दिखाते ज्ञान, तनिक उस पर क्या चलते<br></br>बोल कर्म के साथ, मिलें तो क्यों घर जलते<br></br>कोरी है बक़वास, शास्त्र की बातें करना<br></br>अपना ही व्यवहार, परे उससे यदि धरना।</p>
<p></p>
<p>रहें हजारों साथ, अकेले या वे रह लें<br></br>सच को कितना झूठ, झूठ को या सच कह लें<br></br>दुष्टों के क्या कृत्य, सही फल दे पातें हैं<br></br>कुटिल सदा ही मात, सुजन से खा जातें हैं।</p>
<p></p>
<p>धरती का दिल आज, देख कर जाए घटता<br></br>चहुँदिक दे आवाज़, शीश मानव का कटता<br></br>कुढ़ता शुद्ध विचार, शील पर चलती…</p>
<p>*रोला छंद*</p>
<p>बहुत दिखाते ज्ञान, तनिक उस पर क्या चलते<br/>बोल कर्म के साथ, मिलें तो क्यों घर जलते<br/>कोरी है बक़वास, शास्त्र की बातें करना<br/>अपना ही व्यवहार, परे उससे यदि धरना।</p>
<p></p>
<p>रहें हजारों साथ, अकेले या वे रह लें<br/>सच को कितना झूठ, झूठ को या सच कह लें<br/>दुष्टों के क्या कृत्य, सही फल दे पातें हैं<br/>कुटिल सदा ही मात, सुजन से खा जातें हैं।</p>
<p></p>
<p>धरती का दिल आज, देख कर जाए घटता<br/>चहुँदिक दे आवाज़, शीश मानव का कटता<br/>कुढ़ता शुद्ध विचार, शील पर चलती आरी<br/>मगर सियासत देख, सभी पर फिर भी भारी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>यूँ कर्म करेंtag:openbooks.ning.com,2023-02-16:5170231:BlogPost:10987632023-02-16T13:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p><span style="font-weight: 400;">हे जग अभियंता, सृजनहार, </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे कृपासिंधु, हे गुणागार</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे परब्रह्म, हे पुण्य प्रकाश</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हो पूरित तुम से, सही आस</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर छोटे-से छोटा जो कण,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">या विश्व सकल विस्तार अनंत</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">तुम्हीं में समाहित सब कुछ…</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे जग अभियंता, सृजनहार, </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे कृपासिंधु, हे गुणागार</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे परब्रह्म, हे पुण्य प्रकाश</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हो पूरित तुम से, सही आस</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर छोटे-से छोटा जो कण,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">या विश्व सकल विस्तार अनंत</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">तुम्हीं में समाहित सब कुछ है,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">आदि तुम्हीं से, तुम से है अंत</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे ज्ञान-दीप, हे अविनाशी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर ब्रह्मांड के अधिशासी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे निराकार, हे ज्योति पुंज</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हे ईश्वर, घट-घट के वासी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सब शब्दों की तुम ही शक्ति</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर साधक की तुम हो भक्ति</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ कृपा करो हे कृपानिधान,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर जन, जन का सम्मान करे</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ कर्म करें भारत वासी,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जग भारत का यशगान करे,</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">शिक्षा पहुँचे हर बच्चे तक,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">न कोई ज्ञान से खाली हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">पोषण पूरा मिलता जिससे,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">भोजन वाली हर थाली हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर तन को कपड़ा मिले सही</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">वह ठंड धूप से बचा रहे,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर सिर पर छत का साया हो,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बस ऐसी नेक बयार बहे</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इंसा में इंसानी गुण हो,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">वह ऐसा एक विधान धरे</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ कर्म करें भारतवासी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जग भारत का यशगान करे।</span></p>
<p><br/></p>
<p><span style="font-weight: 400;">ममता का आँचल साफ़ रहे</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">साये की जिम्मेदारी हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">घर-बाहर सुरक्षित हो बिटिया</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ हर बेटा संस्कारी हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर सुबह-शाम औ रात-दिवस</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">न कभी इज्जत पर भारी हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">क्यों पड़े जरूरत तालों की</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">न चोरी कोई चकारी हो</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">कमज़ोरों पर कोई धक्का</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यहां न कोई बलवान करे</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ कर्म करें भारत वासी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जग भारत यशगान करे।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">दुनिया के हर इक कोने में</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">अपना परचम लहरायें हम</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">पहले ज्ञान दिया था हमने</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">फिर अपनी धूम मचाएं हम</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सब के सुख की करें कामना,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">खुद मर्यादा को मत छोड़ें,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जिनकी नज़र बुरी भारत पर,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">उन सबकी हम आँखें फोड़ें</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">हर सन्तान देश की, दाता,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इस ख़ातिर खुद को दान करे,</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">यूँ कर्म करें भारत वासी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जग भारत का यशगान करे।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">मौलिक एवं अप्रकाशित</span></p>
<p><br/> <br/> <br/> <br/></p>
<p></p>कालिख सना समयtag:openbooks.ning.com,2021-05-18:5170231:BlogPost:10600842021-05-18T11:30:06.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>जब-जब कालिख सने समय के,<br></br>पन्ने खोले जाएंगे<br></br>मानवता पर लगे ग्रहण को,<br></br>सीधा याद दिलाएंगे।</p>
<p></p>
<p>आफत को जो अवसर मानें,<br></br>लाभ कमाने बैठे हैं<br></br>अन्तस् को बस मार दिया है,<br></br>हठ में अपनी ऐंठे हैं<br></br>आज हवा और दवा सब पर,<br></br>जिनका पूरा कब्जा है<br></br>जान छीनने के कामों को,<br></br>ही करने का जज़्बा है।<br></br>उनके सारे कर्म आज के,<br></br>सदा ही मुँह चिढाएंगे।<br></br>जब-जब कालिख सने समय के,<br></br>पन्ने खोले जाएंगे।</p>
<p></p>
<p>कुर्सी का लालच कुर्सी का<br></br>मद अब जिन पर छाया है<br></br>जिनके…</p>
<p>जब-जब कालिख सने समय के,<br/>पन्ने खोले जाएंगे<br/>मानवता पर लगे ग्रहण को,<br/>सीधा याद दिलाएंगे।</p>
<p></p>
<p>आफत को जो अवसर मानें,<br/>लाभ कमाने बैठे हैं<br/>अन्तस् को बस मार दिया है,<br/>हठ में अपनी ऐंठे हैं<br/>आज हवा और दवा सब पर,<br/>जिनका पूरा कब्जा है<br/>जान छीनने के कामों को,<br/>ही करने का जज़्बा है।<br/>उनके सारे कर्म आज के,<br/>सदा ही मुँह चिढाएंगे।<br/>जब-जब कालिख सने समय के,<br/>पन्ने खोले जाएंगे।</p>
<p></p>
<p>कुर्सी का लालच कुर्सी का<br/>मद अब जिन पर छाया है<br/>जिनके दुष्कृत्यों के कारण,<br/>हर जन ही भरमाया है।<br/>दूर रही जो दूरदर्शिता,<br/>लचर व्यवस्था भारी है<br/>जिसकी भूल भुगतती दिखती,<br/>अब जनता बेचारी है।<br/>प्रश्न चिह्न उनकी मंशा पर,<br/>बार-बार दिख जाएँगे।<br/>जब-जब कालिख सने समय के,<br/>पन्ने खोले जाएंगे।</p>
<p><br/>आगे आकर मानवता का,<br/>जिसने मान बढ़ाया है।<br/>खुद को जिसने खूब सँभाला,<br/>सहयोगी बन पाया है<br/>जिस के मन में जन सेवा की,<br/>मूरत एक समाई है<br/>परहित जिसके कर्म सकल हैं,<br/>जनहित नेक कमाई है।<br/>उसके कर्मों से उत्सर्जित,<br/>लोग उजाला पाएंगे।<br/>जब-जब कालिख सने समय के,<br/>पन्ने खोले जाएंगे।</p>
<p></p>
<p>कुदरत की छाती पर तांडव,<br/>मानव करता आया है<br/>खुद को उसका मालिक माना,<br/>उस पर राज चलाया है<br/>भूल बड़ी मानव की उसको,<br/>कुदरत ने याद दिलाई<br/>आगे भूल करी जो उसने,<br/>फिर क्या-क्या होगा भाई?<br/>आज अगर सोचेंगे जन तो,<br/>दुख कल मुश्किल पाएंगे<br/>जब-जब कालिख सने समय के<br/>पन्ने खोले जाएंगे।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'</p>बिना बात की बातtag:openbooks.ning.com,2021-04-21:5170231:BlogPost:10588572021-04-21T09:16:44.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>बिना बात की बात बनाते,<br></br> लोग यहाँ दिख जाते हैं<br></br> जैसे उल्लू सीधा होता,<br></br> वैसे ही बिक जाते हैं।</p>
<p>धर्म नहीं जानें क्या होता, <br></br> क्या जानें परिभाषा को <br></br> रिश्तों को अब मान नहीं है, <br></br> स्थान नहीं कुछ आशा को। <br></br>
दशरथ घर से बाहर हैं अब, <br></br>
पूत वहाँ का राजा है, <br></br>
देकर वचन भूल जाना बस, <br></br>
यही समय से साधा है <br></br>
सरयू को अपमानित करते, <br></br>
गंगा दूषित होती है <br></br>
देख नज़ारा प्रतिदिन का यह, <br></br>
भारत भू अब रोती है। <br></br>
राम नहीं है घट में लेकिन, <br></br>
झंडों पर…</p>
<p>बिना बात की बात बनाते,<br/> लोग यहाँ दिख जाते हैं<br/> जैसे उल्लू सीधा होता,<br/>
वैसे ही बिक जाते हैं।</p>
<p>धर्म नहीं जानें क्या होता, <br/> क्या जानें परिभाषा को <br/> रिश्तों को अब मान नहीं है, <br/>
स्थान नहीं कुछ आशा को। <br/>
दशरथ घर से बाहर हैं अब, <br/>
पूत वहाँ का राजा है, <br/>
देकर वचन भूल जाना बस, <br/>
यही समय से साधा है <br/>
सरयू को अपमानित करते, <br/>
गंगा दूषित होती है <br/>
देख नज़ारा प्रतिदिन का यह, <br/>
भारत भू अब रोती है। <br/>
राम नहीं है घट में लेकिन, <br/>
झंडों पर टिक जाते हैं। <br/>
बिना बात की बात बनाते, <br/>
लोग यहाँ दिख जाते हैं।</p>
<p>गुह-सा मित्र नहीं है कोई, <br/> जो कुछ साथ निभाता हो <br/> काँटें राहों के आगे बढ़, <br/>
खुद ही दूर हटाता हो <br/>
पथ में जो भी नदी मिले वह,<br/>
उसको पार कराता हो <br/>
संकट आए अगर मित्र पर, <br/>
उससे खुद टकराता हो। <br/>
सत्ता की अब भूख बड़ी है, <br/>
उसको भी भरमाया है। <br/>
आज मित्रता के ऊपर भी, <br/>
धूर्त समझ का साया है।</p>
<p>विष की खेती करने वाले, <br/> धरती को उकसाते हैं। <br/> बिना बात की बात बनाते, <br/>
लोग यहाँ दिख जाते हैं।</p>
<p>लछमन की पूजा तो होती, <br/> देता नहीं दिखाई है। <br/> अवसर भरत नहीं गंवाता, <br/>
ऐसी समझ बनाई है। <br/>
कंक्रीट का बना है जंगल, <br/>
ऋषि का ज्ञान अधूरा है, <br/>
गिद्ध जटायु बना बैठा है, <br/>
रक्षा कवच न पूरा है। <br/>
हनुमत को क्या याद दिला दे, <br/>
जाम्वत खुद अनजाना है। <br/>
नल औ नील बिना सागर पर, <br/>
सेतु बांधना ठाना है।</p>
<p>अंगद तो हैं लेकिन उनके, <br/> पैर नहीं टिक पाते हैं। <br/> बिना बात की बात बनाते <br/>
लोग यहाँ दिख जाते हैं।</p>
<p>हाल हुआ जो अब धरती का, <br/> मानवता पर भारी है। <br/> लील रही है नित लोगों को, <br/>
ऐसी यह बीमारी है, <br/>
मर्यादा को भूले हैं सब, <br/>
उसकी हुई ठिठोली है, <br/>
अनुशासन जनता में गुम है, <br/>
शासन देता गोली है <br/>
मंदिर से हर मन में तुमको, <br/>
राम पुनः आना होगा, <br/>
जनता से राजा तक सबको, <br/>
कर्तव्य समझाना होगा।</p>
<p>बनते हैं कुछ भक्त तुम्हारे, <br/> कुछ तुमसे कतराते हैं। <br/> बिना बात की बात बनाते <br/>
लोग यहाँ दिख जाते हैं। <br/>
जैसे उल्लू सीधा होता, <br/>
वैसे ही बिक जाते हैं।</p>
<p>मौलिक अप्रकाशित<br/> '</p>मिर्च कोई आग पर बोता है क्या- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2021-04-06:5170231:BlogPost:10581292021-04-06T14:36:45.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 2122 212</p>
<p>मिर्च कोई आग पर बोता है क्या,<br/>लोन-पानी ज़ख्म को धोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>हो रहा जो अब भले होता है क्या,<br/>कोई अपने आप को खोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>बेबसी को तू हटा औज़ार बन,<br/>इसका दामन थाम कर रोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>इश्क़ करता, सब्ज़ धरती देख ले,<br/>बीज इसका तू कभी बोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>'बाल' चुप्पी साध लेना जुर्म पर,<br/>जुर्म से खुद कम कभी होता है क्या।</p>
<p></p>
<p>लोन-नमक</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p>मिर्च कोई आग पर बोता है क्या,<br/>लोन-पानी ज़ख्म को धोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>हो रहा जो अब भले होता है क्या,<br/>कोई अपने आप को खोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>बेबसी को तू हटा औज़ार बन,<br/>इसका दामन थाम कर रोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>इश्क़ करता, सब्ज़ धरती देख ले,<br/>बीज इसका तू कभी बोता है क्या।</p>
<p></p>
<p>'बाल' चुप्पी साध लेना जुर्म पर,<br/>जुर्म से खुद कम कभी होता है क्या।</p>
<p></p>
<p>लोन-नमक</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>हौसले से तीरगी मिट जाएगीtag:openbooks.ning.com,2021-03-29:5170231:BlogPost:10576932021-03-29T02:04:57.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 2122 212</p>
<p>कौन कहता है खुशी मिट जाएगी?<br/> हौसले से तीरगी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>है भरम बस धूल आँधी के समय,<br/> शांत होते ही कमी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>चोर चोरी भी तो मिहनत से करे,<br/> कर ले मिहनत, गंदगी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>एक होता दूसरे खातिर फिदा,<br/> फिर कहा क्यों जिंदगी मिट जाएगी?</p>
<p></p>
<p>'बाल' कर अल्फ़ाज़ से तू दोस्ती,<br/> तेरी तन्हा बेबसी मिट जाएगी।</p>
<p><br/></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p>कौन कहता है खुशी मिट जाएगी?<br/> हौसले से तीरगी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>है भरम बस धूल आँधी के समय,<br/> शांत होते ही कमी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>चोर चोरी भी तो मिहनत से करे,<br/> कर ले मिहनत, गंदगी मिट जाएगी।</p>
<p></p>
<p>एक होता दूसरे खातिर फिदा,<br/> फिर कहा क्यों जिंदगी मिट जाएगी?</p>
<p></p>
<p>'बाल' कर अल्फ़ाज़ से तू दोस्ती,<br/> तेरी तन्हा बेबसी मिट जाएगी।</p>
<p><br/></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>तेरे गम के निशानों को यहाँ पर कौन समझेtag:openbooks.ning.com,2021-03-26:5170231:BlogPost:10576192021-03-26T17:32:50.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>तेरे सच्चे बयानों को यहाँ पर कौन समझेगा,<br></br>तेरे गम के निशानों को यहाँ पर कौन समझेगा?</p>
<p></p>
<p>यहाँ महलों से होती हैं हमेशा बात की कोशिश,<br></br>बता कच्चे मकानों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>हुई है कीमती नफ़रत, बनी व्यापार का सौदा,<br></br>मुहब्बत के ठिकानों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>बदलते पक्ष ये झट-से, फिसलते एक बोटी पर,<br></br>अडिग रह लें, उन आनों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>जिन्होंने 'बाल' सोचा था करें कुछ देश की खातिर,<br></br>शहीदों को व जानों को यहाँ पर कौन…</p>
<p>तेरे सच्चे बयानों को यहाँ पर कौन समझेगा,<br/>तेरे गम के निशानों को यहाँ पर कौन समझेगा?</p>
<p></p>
<p>यहाँ महलों से होती हैं हमेशा बात की कोशिश,<br/>बता कच्चे मकानों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>हुई है कीमती नफ़रत, बनी व्यापार का सौदा,<br/>मुहब्बत के ठिकानों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>बदलते पक्ष ये झट-से, फिसलते एक बोटी पर,<br/>अडिग रह लें, उन आनों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>जिन्होंने 'बाल' सोचा था करें कुछ देश की खातिर,<br/>शहीदों को व जानों को यहाँ पर कौन समझेगा।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>हर सफ़े का हिसाब बाकी है- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2021-03-19:5170231:BlogPost:10566932021-03-19T17:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>देख लीजे ज़नाब बाकी है,<br></br> हर सफ़े का हिसाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>जब तलक इंतिसाब बाकी है,<br></br> तब तलक इंतिहाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>बर्क़-ए-शम से मिच मिचाए क्यों,<br></br> आना जब आफ़ताब बाकी है?</p>
<p></p>
<p>चंद अल्फ़ाज पढ़ के रोते हो,<br></br> पढ़ना पूरी क़िताब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>रौंदने वाले कर लिया पूरा,<br></br> अपना लेकिन ख़्वाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>'बाल' अच्छा कहाँ यूँ चल देना,<br></br> जब कि काफ़ी शराब बाकी है।</p>
<p>---<br></br> इंतिसाब: उठ खड़े होना।<br></br> इंतिहाब: लूटना,…</p>
<p>2122 1212 22/112</p>
<p>देख लीजे ज़नाब बाकी है,<br/> हर सफ़े का हिसाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>जब तलक इंतिसाब बाकी है,<br/> तब तलक इंतिहाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>बर्क़-ए-शम से मिच मिचाए क्यों,<br/> आना जब आफ़ताब बाकी है?</p>
<p></p>
<p>चंद अल्फ़ाज पढ़ के रोते हो,<br/> पढ़ना पूरी क़िताब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>रौंदने वाले कर लिया पूरा,<br/> अपना लेकिन ख़्वाब बाकी है।</p>
<p></p>
<p>'बाल' अच्छा कहाँ यूँ चल देना,<br/> जब कि काफ़ी शराब बाकी है।</p>
<p>---<br/> इंतिसाब: उठ खड़े होना।<br/> इंतिहाब: लूटना, डाका डालना, लुटना।<br/> बर्क़-ए-शम: दीप की चमक।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>खुद को पा लेने की घड़ी होगी- गजलtag:openbooks.ning.com,2020-07-23:5170231:BlogPost:10128262020-07-23T18:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 1212 22</p>
<p></p>
<p>खुद को पा लेने की घड़ी होगी,<br></br> वो मयस्सर मुझे कभी होगी।</p>
<p></p>
<p>हाथ से हाथ को छू लेने से<br></br> दिल की सिलवट भी खुल गयी होगी।</p>
<p></p>
<p>याद लिपटी है उसकी चादर-सी,<br></br> देह लाज़िम मेरी तपी होगी।</p>
<p></p>
<p>उसके बिन मैं सँभल चुका हूँ अब,<br></br> मस्त उसकी भी कट रही होगी।</p>
<p></p>
<p>बोल ज्यादा मगर सभी मीठे,<br></br> आज भी वैसे बोलती होगी?</p>
<p></p>
<p>तब शरारत ढकी थी चुप्पी में,<br></br> आज भी उसको ढाँपती होगी।</p>
<p></p>
<p>दिल में कोई चुभन हुई मेरे,…<br></br></p>
<p>2122 1212 22</p>
<p></p>
<p>खुद को पा लेने की घड़ी होगी,<br/> वो मयस्सर मुझे कभी होगी।</p>
<p></p>
<p>हाथ से हाथ को छू लेने से<br/> दिल की सिलवट भी खुल गयी होगी।</p>
<p></p>
<p>याद लिपटी है उसकी चादर-सी,<br/> देह लाज़िम मेरी तपी होगी।</p>
<p></p>
<p>उसके बिन मैं सँभल चुका हूँ अब,<br/> मस्त उसकी भी कट रही होगी।</p>
<p></p>
<p>बोल ज्यादा मगर सभी मीठे,<br/> आज भी वैसे बोलती होगी?</p>
<p></p>
<p>तब शरारत ढकी थी चुप्पी में,<br/> आज भी उसको ढाँपती होगी।</p>
<p></p>
<p>दिल में कोई चुभन हुई मेरे,<br/> चश्म उसकों में कुछ नमी होगी।</p>
<p></p>
<p>'बाल' आती है याद तुझको, क्या<br/> तेरी उसको भी आ रही होगी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>छोड़ दो काफ़ी सियासत हो गयी हैtag:openbooks.ning.com,2020-01-02:5170231:BlogPost:9983992020-01-02T06:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 2122 2122</p>
<p>.</p>
<p>जानते हैं तुम में ताकत हो गयी है,<br></br> और किस-किस पे ये आफत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>झूठ है जो, झूठ बिन कुछ भी नहीं, पर<br></br> अब जमाने में सदाक़त हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>जब चमन का फूल होने का भरो दम,<br></br> क्यों चमन से ही अदावत हो गयी है?</p>
<p></p>
<p>जिस्म पर ठंडा लबादा, आग मुँह में,<br></br> जिसने रक्खे उसकी शुहरत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>कौम के अच्छे की खातिर काम हो अब,<br></br> छोड़ दो काफ़ी सियासत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>हर खुशी पर, मेरी बोलो तो भला क्यों,…<br></br></p>
<p>2122 2122 2122</p>
<p>.</p>
<p>जानते हैं तुम में ताकत हो गयी है,<br/> और किस-किस पे ये आफत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>झूठ है जो, झूठ बिन कुछ भी नहीं, पर<br/> अब जमाने में सदाक़त हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>जब चमन का फूल होने का भरो दम,<br/> क्यों चमन से ही अदावत हो गयी है?</p>
<p></p>
<p>जिस्म पर ठंडा लबादा, आग मुँह में,<br/> जिसने रक्खे उसकी शुहरत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>कौम के अच्छे की खातिर काम हो अब,<br/> छोड़ दो काफ़ी सियासत हो गयी है।</p>
<p></p>
<p>हर खुशी पर, मेरी बोलो तो भला क्यों,<br/> तुमको बस रोने की आदत हो गयी है?</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>तेरा होना मेरा सर्जन हैtag:openbooks.ning.com,2019-11-02:5170231:BlogPost:9955722019-11-02T05:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>मैं बीज पड़ा तेरे आँगन में<br></br> तेरी आर्द्रता से अंकुरण है<br></br> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा<br></br> तेरा होना मेरा सर्जन है।</p>
<p></p>
<p>कल-कल बहती हैं नदियाँ तुझ पर<br></br> मीठे-मीठे गीत सुनातीं हैं <br></br> जीवन को सींच रही हैं पल-पल<br></br> हरियाली को लेकर आतीं हैं<br></br> नित चलती पथ पर ये बिना रुके<br></br> आगे को ही बढ़ती जातीं हैं<br></br> बाधाओं को पार करें कैसे <br></br> ऐसा सबको पाठ पढ़ातीं हैं।</p>
<p></p>
<p>फिर मीत सिंधु के जा साथ मिलें<br></br> दिख जाता क्या प्रेम समर्पण है?<br></br> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा…<br></br></p>
<p>मैं बीज पड़ा तेरे आँगन में<br/> तेरी आर्द्रता से अंकुरण है<br/> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा<br/> तेरा होना मेरा सर्जन है।</p>
<p></p>
<p>कल-कल बहती हैं नदियाँ तुझ पर<br/> मीठे-मीठे गीत सुनातीं हैं <br/> जीवन को सींच रही हैं पल-पल<br/> हरियाली को लेकर आतीं हैं<br/> नित चलती पथ पर ये बिना रुके<br/> आगे को ही बढ़ती जातीं हैं<br/> बाधाओं को पार करें कैसे <br/> ऐसा सबको पाठ पढ़ातीं हैं।</p>
<p></p>
<p>फिर मीत सिंधु के जा साथ मिलें<br/> दिख जाता क्या प्रेम समर्पण है?<br/> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा<br/> तेरा होना मेरा सर्जन है।</p>
<p></p>
<p>दुनिया भर में जो मौसम हैं वे,<br/> तेरे आँगन धूम मचाते हैं ।<br/> नाना विधि के फल वे ला-लाकर,<br/> सबको सुख से तर कर जाते हैं ।<br/> जब फसलें पक कर लहराती हैं<br/> त्योहार कईं तब-तब आते हैं<br/> ऋतु-मेला हो तेरे आँचल में,<br/> सब मिलकर खुशी मनाते हैं।</p>
<p></p>
<p>हे पुण्य धरा! हे स्वर्गमयी! माँ!<br/> हृदय पुष्प से तेरा अर्चन है।<br/> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा,<br/> तेरा होना मेरा सर्जन है।</p>
<p></p>
<p>कोई सिर बिन साया रहे नहीं<br/> सबको ही दिन-रैन बसेरा हो<br/> सारे पेट अन्न से पूर्ण रहे<br/> कहीं भूख का कभी न डेरा हो<br/> ठंड- धूप से हर तन की रक्षा<br/> खातिर, वसन यहाँ बहुतेरा हो<br/> साहस से सब मिलकर साथ लड़ें<br/> जब संकट का कोई घेरा हो।</p>
<p></p>
<p>आनन्द रहे शुद्ध वायु जल से,<br/> अब ईश्वर से यही निवेदन है।<br/> ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा,<br/> तेरा होना मेरा सर्जन है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>नहीं अच्छा है यूँ मजबूर होना- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-09-20:5170231:BlogPost:9924492019-09-20T08:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1222 1222 122<br/> नहीं अच्छा है यूँ मजबूर होना<br/> दिखो नजदीक लेकिन दूर होना।</p>
<p></p>
<p>कली का कुछ समय को ठीक है, पर<br/> नहीं अच्छा चमन, मगरूर होना।</p>
<p></p>
<p>अँधेरों में उजालों को दे रस्ता<br/> चिरागों का न थकना चूर होना</p>
<p>कोई कहता इसे वरदान है ये<br/> खले लेकिन किसी को हूर होना।</p>
<p></p>
<p>अभी सूखा नहीं रख ले तसल्ली<br/> दिखेगा ज़ख्म का नासूर होना।</p>
<p></p>
<p>कदम तो चूम लेगी जीत तेरे<br/> है बाकी बस तुझे मंजूर होना।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>1222 1222 122<br/> नहीं अच्छा है यूँ मजबूर होना<br/> दिखो नजदीक लेकिन दूर होना।</p>
<p></p>
<p>कली का कुछ समय को ठीक है, पर<br/> नहीं अच्छा चमन, मगरूर होना।</p>
<p></p>
<p>अँधेरों में उजालों को दे रस्ता<br/> चिरागों का न थकना चूर होना</p>
<p>कोई कहता इसे वरदान है ये<br/> खले लेकिन किसी को हूर होना।</p>
<p></p>
<p>अभी सूखा नहीं रख ले तसल्ली<br/> दिखेगा ज़ख्म का नासूर होना।</p>
<p></p>
<p>कदम तो चूम लेगी जीत तेरे<br/> है बाकी बस तुझे मंजूर होना।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>पत्थरों पे हैं इल्ज़ाम झूठे सभी-गजलtag:openbooks.ning.com,2019-03-21:5170231:BlogPost:9786722019-03-21T06:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>अब नए फूल डालों पे आने लगे,<br></br> और' भ्रमर फिर ख़ुशी से हैं गाने लगे।</p>
<p></p>
<p>पत्थरों पे हैं इल्जाम झूठे सभी,<br></br> राही के ही कदम डगमगाने लगे।</p>
<p></p>
<p>रहबरी तीरगी की जो करते रहे,<br></br> अब वो सूरज को दीपक दिखाने लगे।</p>
<p></p>
<p>वादा वो ही किया जो था तुमने कहा,<br></br> घोषणा क्यों चुनावी बताने लगे।</p>
<p></p>
<p>जिनकी आँखों पे सबने भरोसा किया,<br></br> वक्त आने पे सारे वो काने लगे।</p>
<p></p>
<p>भैंस बहरी नहीं सुन समझ लेगी सब,<br></br> बीन ये सोच कर फिर…</p>
<p>212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>अब नए फूल डालों पे आने लगे,<br/> और' भ्रमर फिर ख़ुशी से हैं गाने लगे।</p>
<p></p>
<p>पत्थरों पे हैं इल्जाम झूठे सभी,<br/> राही के ही कदम डगमगाने लगे।</p>
<p></p>
<p>रहबरी तीरगी की जो करते रहे,<br/> अब वो सूरज को दीपक दिखाने लगे।</p>
<p></p>
<p>वादा वो ही किया जो था तुमने कहा,<br/> घोषणा क्यों चुनावी बताने लगे।</p>
<p></p>
<p>जिनकी आँखों पे सबने भरोसा किया,<br/> वक्त आने पे सारे वो काने लगे।</p>
<p></p>
<p>भैंस बहरी नहीं सुन समझ लेगी सब,<br/> बीन ये सोच कर फिर बजाने लगे।</p>
<p></p>
<p>'बाल' अल्फ़ाज़ सारे ये सच हैं मेरे,<br/> ये ख़ता है तेरी तुझको ताने लगे।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>हम मानेंगे बात जो हमको प्यारी है- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-03-04:5170231:BlogPost:9770872019-03-04T03:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>नमक मसाले से बनती तरकारी है<br></br> सच मानों यह असली दुनियादारी है।</p>
<p></p>
<p>देख सलीका नकली बातें करने का<br></br> असली पर ही पड़ जाता कुछ भारी है।</p>
<p></p>
<p>छेदों से ही जिसकी है औक़ात यहाँ<br></br> छलनी ही समझाती, क्या खुद्दारी है?</p>
<p></p>
<p>होते हों कितने भी पहलू बातों के<br></br> हम समझेंगे जितनी अक्ल हमारी है।</p>
<p></p>
<p>तुम मानों जो तुमको अच्छा है लगता<br></br> हम मानेंगे बात जो हमको प्यारी है ।</p>
<p></p>
<p>आज लबादे में लिपटे अल्फ़ाज़ सभी<br></br> जिनको सुनना जनता की…</p>
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p>नमक मसाले से बनती तरकारी है<br/> सच मानों यह असली दुनियादारी है।</p>
<p></p>
<p>देख सलीका नकली बातें करने का<br/> असली पर ही पड़ जाता कुछ भारी है।</p>
<p></p>
<p>छेदों से ही जिसकी है औक़ात यहाँ<br/> छलनी ही समझाती, क्या खुद्दारी है?</p>
<p></p>
<p>होते हों कितने भी पहलू बातों के<br/> हम समझेंगे जितनी अक्ल हमारी है।</p>
<p></p>
<p>तुम मानों जो तुमको अच्छा है लगता<br/> हम मानेंगे बात जो हमको प्यारी है ।</p>
<p></p>
<p>आज लबादे में लिपटे अल्फ़ाज़ सभी<br/> जिनको सुनना जनता की लाचारी है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>करो कुछ याद उनको जो गये हैं- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-02-12:5170231:BlogPost:9746542019-02-12T14:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1222 1222 122<br></br> ये देखा और' सुना इस फरवरी में<br></br> बहकता दिल ज़रा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>किसी की कोशिशें कुछ काम आई<br></br> कोई जम कर पिटा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>दिखावे में ढली है जिंदगी बस<br></br> रहे सच से जुदा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत को समेटा है पलों ने<br></br> हुआ ये क्या भला इस फरवरी में?</p>
<p></p>
<p>कहीं पर नेह की कोंपल भी फूटी<br></br> किसी का दिल जला इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>करो कुछ याद उनको जो गये हैं<br></br> वतन पर जां लुटा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>मौलिक…</p>
<p>1222 1222 122<br/> ये देखा और' सुना इस फरवरी में<br/> बहकता दिल ज़रा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>किसी की कोशिशें कुछ काम आई<br/> कोई जम कर पिटा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>दिखावे में ढली है जिंदगी बस<br/> रहे सच से जुदा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत को समेटा है पलों ने<br/> हुआ ये क्या भला इस फरवरी में?</p>
<p></p>
<p>कहीं पर नेह की कोंपल भी फूटी<br/> किसी का दिल जला इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>करो कुछ याद उनको जो गये हैं<br/> वतन पर जां लुटा इस फरवरी में।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>नफरतों को छोड़ लगता- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2019-01-27:5170231:BlogPost:9717042019-01-27T01:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>ग़ज़ल<br></br> 2122 2122 2122 212<br></br> नफरतों को छोड़ लगता पास चल कर आ गए<br></br> हो न कुर्सी दूर फिर, वो दल बदल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>जंगलों पे राज करने का जुनूँ जो सर चढ़ा<br></br> शेर जैसी शक्ल में गीदड़ भी ढल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>इश्क में देखो उन्होंने यूँ निभाई है वफ़ा<br></br> चाहने वाले के सारे ख़्वाब दल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>ठंड की जो चाह में उन तक गए ले मन-बदन<br></br> गुप्त शोलों में वो बस चुपचाप जल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>सामने कमजोर प्राणी उनको जो दिखने लगा<br></br> है गज़ब सारे शिकारी ही मचल कर आ…</p>
<p>ग़ज़ल<br/> 2122 2122 2122 212<br/> नफरतों को छोड़ लगता पास चल कर आ गए<br/> हो न कुर्सी दूर फिर, वो दल बदल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>जंगलों पे राज करने का जुनूँ जो सर चढ़ा<br/> शेर जैसी शक्ल में गीदड़ भी ढल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>इश्क में देखो उन्होंने यूँ निभाई है वफ़ा<br/> चाहने वाले के सारे ख़्वाब दल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>ठंड की जो चाह में उन तक गए ले मन-बदन<br/> गुप्त शोलों में वो बस चुपचाप जल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>सामने कमजोर प्राणी उनको जो दिखने लगा<br/> है गज़ब सारे शिकारी ही मचल कर आ गए।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>रक्तसिक्त हाथ (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2019-01-02:5170231:BlogPost:9683172019-01-02T03:56:41.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>*रक्तसिक्त हाथ* (लघुकथा)</p>
<p>हवालाती कैदी के रूप में तीसरा दिन। किसी से मुलाक़ात के लिए उसे भी पुकारा गया। मुलाकात कक्ष में पहुँचते ही सींखचों के पार एक मुस्कुराता चेहरा नज़र आया।<br></br> काजू कतली का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए जिसने कहा, ''रजिस्ट्री हो गई साहब! मुँह मीठा करवाने आया हूँ।"</p>
<p>कुछ ही समय पहले जो बिलकुल अंजान था, वही चेहरा अहर्निशं अब उसकी आंखों और दिमाग़ में तैरता रहता है।<br></br> सत्यवीर भान का चेहरा। आज दूसरी बार इस चेहरे पर भयानक मुस्कुराहट देख पा रहा था। जिसे देखकर उसे स्मरण हो…</p>
<p>*रक्तसिक्त हाथ* (लघुकथा)</p>
<p>हवालाती कैदी के रूप में तीसरा दिन। किसी से मुलाक़ात के लिए उसे भी पुकारा गया। मुलाकात कक्ष में पहुँचते ही सींखचों के पार एक मुस्कुराता चेहरा नज़र आया।<br/> काजू कतली का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए जिसने कहा, ''रजिस्ट्री हो गई साहब! मुँह मीठा करवाने आया हूँ।"</p>
<p>कुछ ही समय पहले जो बिलकुल अंजान था, वही चेहरा अहर्निशं अब उसकी आंखों और दिमाग़ में तैरता रहता है।<br/> सत्यवीर भान का चेहरा। आज दूसरी बार इस चेहरे पर भयानक मुस्कुराहट देख पा रहा था। जिसे देखकर उसे स्मरण हो आया।</p>
<p>सत्यवीर उसके दफ्तर के बाहर था। चपरासी ने एक घण्टा रोके रखा। फिर मिलने जाने दिया।<br/> "जय हिंद साहब!"<br/> उसने कागज को पढ़ते हुए तिरछी आँख से देखा और मौन अभिवादन पेश किया। <br/>
दफ्तर में दो अन्य व्यक्ति, उसके सामने ही कुर्सियों पर बैठे थे। <br/>
बिना उसकी अनुमति की प्रतीक्षा किए, सत्यवीर याचना करने लगा, <br/>
"साहब! एक छोटे-से मकान का बयाना दिया था। रजिस्टरी करवाने गये तो उन्होंने कमेटी से एन ओ सी लाने की बात कही। कह रहे हैं इसके बिना रजिस्ट्री नहीं होगी।"</p>
<p>वह निर्विकार भाव से कागज को पढ़ता रहा।<br/> "साहब! मैं ढाई महीने से आपके दफ्तर में आ-जा रहा हूँ। कागज़ों में कुछ कमी है तो बताओ। यहाँ के बाबू मुझे हर नए दिन का करार दे रहे हैं।"</p>
<p>तभी हाथ में कुछ फाइलें सँभाले एक बाबू ने प्रवेश किया। अभिवादन कर फाइलें मेज पर रख कर वह भी उसके सामने कुर्सी पर बैठ गया।</p>
<p>सत्यवीर फिर गिड़गिड़ाया, "साहब!"</p>
<p>वह रूखी-सी आवाज में बोला, "इसका क्या मैटर है?"</p>
<p>बाबू ने कहा, " डेवलोपमेन्ट चार्जेज लेकर एन ओ सी देने का मामला है। आपके सामने फाइल आई थी। क्वेरी लगाई थी आपने।"</p>
<p>सामने बैठे व्यक्तियों की ओर देखते हुए बोला ," छः छः महीने लगा देते हैं क्वेरी का जवाब देने में सब डिवीजन वाले।"<br/> फिर बेपरवाही से सत्यवीर को संबोधित किया, " चिट्ठी डालकर बुला लेंगे जब काम हो जाएगा।"</p>
<p>अगली बार सत्यवीर जब उसके दफ्तर में आया तो वह और बाबू दो ही जन बैठे थे। सत्यवीर के हाथ में एक लिफाफा था। चुपके-से उसे थमाते हुए वह बोला, " साहब! मैं मोटी अकल कुछ समझ ही न पाया पहले। मुझे माफ़ करते हुए आज तो मेहरबानी कर दें साहब!"<br/> लिफ़ाफ़े को नीचे किया। जिसे अंदर से टटोलते ही उसके चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी। बाबू की ओर इशारा किया। जो सत्यवीर को फीस जमा करवाने ले गया।<br/> एन ओ सी मिलते ही सत्यवीर भी मुस्कुराते हुए बाहर निकला। बाहर की तरफ मुस्कुराते हुए अँगूठा उठा कर दिखाया। <br/>
तभी अचानक तीन व्यक्ति आए और दफ्तर में झट-से घुसे व साहब को बाहर ले आए।<br/>
उसे हाथों को साफ़ पानी से धोने के लिए कहा गया। हाथ पानी से धोए जा रहे थे मगर लग रहा था कि वे खून में सने हैं और खून मिला लाल पानी उनसे तरड़ रहा है।</p>
<p>सत्यवीर के चेहरे पर जो मुस्कान उस समय थी वह उतनी ही भयानक थी जितनी कि आज।</p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>कुण्डलिया छन्दtag:openbooks.ning.com,2018-12-24:5170231:BlogPost:9665082018-12-24T01:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>कुण्डलिया</p>
<p>जन को ढलना चाहिए, मौसम के अनुकूल<br></br> संकट होगा स्वास्थ्य पर, अगर करेंगे भूल<br></br> अगर करेंगे भूल, बात यह सही विचारो<br></br> खान-पान औ वस्त्र, सही ऋतुशः ही धारो<br></br> सतविंदर व्यवहार, सही हो रख पक्का मन<br></br> तन इसके अनुरूप, नहीं मन मौसम हो जन!</p>
<p>2.<br></br> जय-जय जय-जय हे अरुण!, तुम आभा भंडार<br></br> मिलती तुमसे जब किरण, तब चालित संसार</p>
<p>तब चालित संसार, प्रेरणा बात तुम्हारी<br></br> ऊर्जा तुमसे देव, मही अम्बर ने धारी<br></br> सतविंदर हर श्वास, सतत चलता है निर्भय<br></br> युग-युग रहो…</p>
<p>कुण्डलिया</p>
<p>जन को ढलना चाहिए, मौसम के अनुकूल<br/> संकट होगा स्वास्थ्य पर, अगर करेंगे भूल<br/> अगर करेंगे भूल, बात यह सही विचारो<br/> खान-पान औ वस्त्र, सही ऋतुशः ही धारो<br/> सतविंदर व्यवहार, सही हो रख पक्का मन<br/> तन इसके अनुरूप, नहीं मन मौसम हो जन!</p>
<p>2.<br/> जय-जय जय-जय हे अरुण!, तुम आभा भंडार<br/> मिलती तुमसे जब किरण, तब चालित संसार</p>
<p>तब चालित संसार, प्रेरणा बात तुम्हारी<br/> ऊर्जा तुमसे देव, मही अम्बर ने धारी<br/> सतविंदर हर श्वास, सतत चलता है निर्भय<br/> युग-युग रहो दिनेश!, तुम्हारी होती जय-जय।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>कुण्डलियाँtag:openbooks.ning.com,2018-12-19:5170231:BlogPost:9656642018-12-19T10:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1</p>
<p>माना होता है समय, भाई रे बलवान<br></br> लेकिन उसको साध कर, बनते कई महान<br></br> बनते कई महान, विचारें इसकी महता<br></br> यह नदिया की धार, न जीवन उनका बहता<br></br> सतविंदर कह भाग्य, समय को ही क्यों जाना<br></br> नहीं सही भगवान, तुल्य यदि इसको माना।</p>
<p>2</p>
<p>होते तीन सही नकद, तेरह नहीं उधार<br></br> लेकिन साच्चा हो हृदय, पक्का हो व्यवहार<br></br> पक्का हो व्यवहार, तभी है दुनिया दारी<br></br> कभी पड़े जब भीड़, चले है तभी उधारी<br></br> सतविंदर छल पाल, व्यक्ति रिश्तों को खोते<br></br> उनका चलता कार्य, खरे जो मन के…</p>
<p>1</p>
<p>माना होता है समय, भाई रे बलवान<br/> लेकिन उसको साध कर, बनते कई महान<br/> बनते कई महान, विचारें इसकी महता<br/> यह नदिया की धार, न जीवन उनका बहता<br/> सतविंदर कह भाग्य, समय को ही क्यों जाना<br/> नहीं सही भगवान, तुल्य यदि इसको माना।</p>
<p>2</p>
<p>होते तीन सही नकद, तेरह नहीं उधार<br/> लेकिन साच्चा हो हृदय, पक्का हो व्यवहार<br/> पक्का हो व्यवहार, तभी है दुनिया दारी<br/> कभी पड़े जब भीड़, चले है तभी उधारी<br/> सतविंदर छल पाल, व्यक्ति रिश्तों को खोते<br/> उनका चलता कार्य, खरे जो मन के होते!</p>
<p>3</p>
<p>हँस कर भाई काट लो, दिन जीवन के चार<br/> छोटी-छोटी बात पर, सही न होती रार<br/> सही न होती रार, बुद्धि भी तनती जाती<br/> दूजा हो बेहाल, शान्ति खुद को कब आती<br/> सतविंदर कह मेल, सही होता इस पथ पर<br/> समय सख्त या नर्म, कटे फिर देखो हँस कर।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>हर ख़ुशी का इक ज़रीआ चाहिये- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2018-12-17:5170231:BlogPost:9654542018-12-17T01:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 2122 212</p>
<p>हर ख़ुशी का इक ज़रीआ चाहिए<br></br> ठीक हो वह ध्यान पूरा चाहिए।</p>
<p></p>
<p>दर्द को भी झेलता है खेल में<br></br> दिल भी होना एक बच्चा चाहिए।</p>
<p></p>
<p>जान लेना राह को हाँ ठीक है<br></br> पर इरादा भी तो पक्का चाहिये।</p>
<p></p>
<p>टूट कर शीशा जुड़ा है क्या कभी<br></br> टूट जाए तो न रोना चाहिए।</p>
<p></p>
<p>झूठ की बुनियाद पर है जो टिका<br></br> वो महल हमको तो कचरा चाहिए।</p>
<p></p>
<p> विष वमन कर जो हवा दूषित करे<br></br>उस जुबाँ पर ठोस ताला चाहिए।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं…</p>
<p>2122 2122 212</p>
<p>हर ख़ुशी का इक ज़रीआ चाहिए<br/> ठीक हो वह ध्यान पूरा चाहिए।</p>
<p></p>
<p>दर्द को भी झेलता है खेल में<br/> दिल भी होना एक बच्चा चाहिए।</p>
<p></p>
<p>जान लेना राह को हाँ ठीक है<br/> पर इरादा भी तो पक्का चाहिये।</p>
<p></p>
<p>टूट कर शीशा जुड़ा है क्या कभी<br/> टूट जाए तो न रोना चाहिए।</p>
<p></p>
<p>झूठ की बुनियाद पर है जो टिका<br/> वो महल हमको तो कचरा चाहिए।</p>
<p></p>
<p> विष वमन कर जो हवा दूषित करे<br/>उस जुबाँ पर ठोस ताला चाहिए।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p></p>परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है-गजलtag:openbooks.ning.com,2018-11-28:5170231:BlogPost:9639172018-11-28T13:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1222 1222 122<br></br> न जाने क्या हुई हमसे ख़ता है<br></br> हमारा यार जो हमसे खफ़ा है।</p>
<p></p>
<p>यूँ ही बदनाम हाकिम को हैं करते<br></br> यहाँ प्यादा भी जब जालिम बड़ा है।</p>
<p></p>
<p>जरा सींचो भरोसा तुम जड़ों में<br></br> शज़र रिश्तों का इन पर ही खड़ा है।</p>
<p></p>
<p>उसी ने छू लिया है आसमाँ को<br></br> परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है।</p>
<p></p>
<p>नहीं हमदर्द होता आदमी जो<br></br> सहारा गलतियों में दे रहा है।</p>
<p></p>
<p>अमा की रात में महताब आया<br></br> तुम आये तो हमे ऐसा लगा है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक…</p>
<p>1222 1222 122<br/> न जाने क्या हुई हमसे ख़ता है<br/> हमारा यार जो हमसे खफ़ा है।</p>
<p></p>
<p>यूँ ही बदनाम हाकिम को हैं करते<br/> यहाँ प्यादा भी जब जालिम बड़ा है।</p>
<p></p>
<p>जरा सींचो भरोसा तुम जड़ों में<br/> शज़र रिश्तों का इन पर ही खड़ा है।</p>
<p></p>
<p>उसी ने छू लिया है आसमाँ को<br/> परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है।</p>
<p></p>
<p>नहीं हमदर्द होता आदमी जो<br/> सहारा गलतियों में दे रहा है।</p>
<p></p>
<p>अमा की रात में महताब आया<br/> तुम आये तो हमे ऐसा लगा है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>सुना ठीक है सिरफिरा आदमी हूँ- ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2018-11-26:5170231:BlogPost:9636562018-11-26T04:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>122 122 122 122<br></br> सुना <strong>ठीक है</strong> सिरफिरा आदमी हूँ<br></br> उसूलों <strong>का पाला हुआ</strong> आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>हमेशा ही जिसने सही बेवफ़ाई<br></br> जमाने में वो बावफ़ा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>कि मौजें मुझे दूर खुद से करेंगी<br></br> <strong>अभी मैं भँवर में</strong> फँसा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p><strong>डिगायेगी कैसे मुझे कोई आफ़त</strong><br></br> मैं चट्टान <strong>जैसा खड़ा</strong> आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p><strong>रहा साथ जिसके जरूरत में अक्सर</strong><br></br> कहा है उसी ने बुरा आदमी…</p>
<p>122 122 122 122<br/> सुना <strong>ठीक है</strong> सिरफिरा आदमी हूँ<br/> उसूलों <strong>का पाला हुआ</strong> आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>हमेशा ही जिसने सही बेवफ़ाई<br/> जमाने में वो बावफ़ा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>कि मौजें मुझे दूर खुद से करेंगी<br/> <strong>अभी मैं भँवर में</strong> फँसा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p><strong>डिगायेगी कैसे मुझे कोई आफ़त</strong><br/> मैं चट्टान <strong>जैसा खड़ा</strong> आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p><strong>रहा साथ जिसके जरूरत में अक्सर</strong><br/> कहा है उसी ने बुरा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>हक़ीक़त मेरी ठीक से जान लेते<br/> <strong>कभी ये न कहते</strong> मरा आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>थपेड़े <strong>जहाँ के सहे पर न उफ़ की</strong><br/> हमेशा जो तिल-तिल जला, आदमी हूँ।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>चन्द मुक्तकtag:openbooks.ning.com,2018-11-12:5170231:BlogPost:9607902018-11-12T17:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>कुछ मुक्तक</p>
<p>1.<br></br> आग सीने में मगर आँखों में पानी चाहिए<br></br> साथ गुस्से के मुहब्बत की रवानी चाहिए<br></br> हाथ सेवा भी करें और' उठ चलें ये वक्त पर<br></br> ज़ुल्मतों से जा भिड़े ऐसी जवानी चाहिए।</p>
<p>2.<br></br> शेर की औक़ात गीदड़ की कहानी देख लो<br></br> नब्ज में जमता नहीं किसका है पानी देख लो<br></br> दुम दबाना सीखता जो क्या करेगा वो भला<br></br> हौसले का नाम ही होता जवानी देख लो।</p>
<p>3.<br></br> समंदर भी गमों के पी जो जाएँ<br></br> बहुत ही ख़ास हैं जिनकी अदाएँ<br></br> कहाँ हैं मौन ये खामोशियाँ भी<br></br> ज़रा तू देख तो…</p>
<p>कुछ मुक्तक</p>
<p>1.<br/> आग सीने में मगर आँखों में पानी चाहिए<br/> साथ गुस्से के मुहब्बत की रवानी चाहिए<br/> हाथ सेवा भी करें और' उठ चलें ये वक्त पर<br/> ज़ुल्मतों से जा भिड़े ऐसी जवानी चाहिए।</p>
<p>2.<br/> शेर की औक़ात गीदड़ की कहानी देख लो<br/> नब्ज में जमता नहीं किसका है पानी देख लो<br/> दुम दबाना सीखता जो क्या करेगा वो भला<br/> हौसले का नाम ही होता जवानी देख लो।</p>
<p>3.<br/> समंदर भी गमों के पी जो जाएँ<br/> बहुत ही ख़ास हैं जिनकी अदाएँ<br/> कहाँ हैं मौन ये खामोशियाँ भी<br/> ज़रा तू देख तो सुनकर सदाएँ।</p>
<p>4.<br/> गुल ये गर गुलजार है सब आपके सदके<br/> जिंदगी में प्यार है सब आप के सदके<br/> आप ने थामी जो उँगली चल पड़े हैं हम <br/> जीत है या हार है सब आपके सदके।</p>
<p>5.<br/> बड़ी खूब ये आज महफ़िल सजाई<br/> मजा आ गया बस कसम से ऐ भाई<br/> रुकें फिर से चलने के ही तो लिए हम<br/> मिलेंगे कभी यूँ ही अब दो विदाई।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>किसी के इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक(गजल)tag:openbooks.ning.com,2018-11-11:5170231:BlogPost:9608572018-11-11T17:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p><strong>रहेगी </strong>इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक</p>
<p>हमारा टूटना कब तक और' उनकी दिल्लगी कब तक।</p>
<p></p>
<p>सिमटकर इक परिंदा जान अपनी दे ही बैठा है</p>
<p>शिकारी! <strong>तू पकड़ इस पे रखेगा </strong>यूँ कसी कब तक।</p>
<p></p>
<p>यहाँ लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की</p>
<p>चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक। </p>
<p></p>
<p>अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका</p>
<p>ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।</p>
<p></p>
<p>बड़ा तूफ़ान आयेगा लगा…</p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p><strong>रहेगी </strong>इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक</p>
<p>हमारा टूटना कब तक और' उनकी दिल्लगी कब तक।</p>
<p></p>
<p>सिमटकर इक परिंदा जान अपनी दे ही बैठा है</p>
<p>शिकारी! <strong>तू पकड़ इस पे रखेगा </strong>यूँ कसी कब तक।</p>
<p></p>
<p>यहाँ लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की</p>
<p>चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक। </p>
<p></p>
<p>अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका</p>
<p>ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।</p>
<p></p>
<p>बड़ा तूफ़ान आयेगा लगा कर कान ये सुन लो</p>
<p>समंदर की जरा सोचो रहेगी ख़ामुशी कब तक।</p>
<p></p>
<p>बिस्मिल: ज़ख्मी, आहत</p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें(ग़ज़ल)tag:openbooks.ning.com,2018-11-05:5170231:BlogPost:9600182018-11-05T15:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p><br></br> हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें<br></br> इसी तकरार से अक्सर <strong>निकलतीं</strong> प्यार की बातें।</p>
<p></p>
<p>नज़र मंजिल पे रक्खो तुम बढ़ाओ फिर कदम आगे<br></br> नहीं अच्छी लगा <strong>करतीं</strong> हमेेशा<strong> </strong>हार की बातें।</p>
<p></p>
<p>अँधेरे में चरागों-सा उजाला इनसे मिल जाता<br></br> गुनी जाएं <strong>तज्रिबे</strong> के सही गर सार की बातें।</p>
<p></p>
<p>अलग हैं रास्ते चाहे है मंजिल एक पर सबकी<br></br> जो ढूंढें खोट औरों में करे वो रार की…</p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p><br/> हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें<br/> इसी तकरार से अक्सर <strong>निकलतीं</strong> प्यार की बातें।</p>
<p></p>
<p>नज़र मंजिल पे रक्खो तुम बढ़ाओ फिर कदम आगे<br/> नहीं अच्छी लगा <strong>करतीं</strong> हमेेशा<strong> </strong>हार की बातें।</p>
<p></p>
<p>अँधेरे में चरागों-सा उजाला इनसे मिल जाता<br/> गुनी जाएं <strong>तज्रिबे</strong> के सही गर सार की बातें।</p>
<p></p>
<p>अलग हैं रास्ते चाहे है मंजिल एक पर सबकी<br/> जो ढूंढें खोट औरों में करे वो रार की बातें।</p>
<p></p>
<p>सँभलने का, समझने का, सलीका आ यूँ जाता है<br/> कि खुद की गलतियों के जो करें इकरार की बातें।</p>
<p></p>
<p>समझना चाहते हो मोल खुशबू का कहीं दिलबर<br/> सुनो तुम ध्यान से पहले वहाँ के ख़ार की बातें।</p>
<p></p>
<p>तज्रिबा:अनुभव</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2018-10-20:5170231:BlogPost:9554732018-10-20T12:26:31.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 1212 22/112<br/>हो खुदा पर यकीं अगर यारो<br/>फिर न पैदा हो कोई डर यारो।</p>
<p></p>
<p>जिंदगी ये मिली हमें जिनसे<br/>हों न देखो वे दर-ब-दर यारो।</p>
<p></p>
<p>ख़ार से जो भरी रहे हर दम<br/>इश्क है ऐसी ही डगर यारो।</p>
<p></p>
<p>दर्द लगता दवा के जैसा अब<br/>ये मुहब्बत का है असर यारो।</p>
<p></p>
<p>जो न मंजिल भी दे सके शायद<br/>वो ख़ुशी दे रहा सफ़र यारो।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>2122 1212 22/112<br/>हो खुदा पर यकीं अगर यारो<br/>फिर न पैदा हो कोई डर यारो।</p>
<p></p>
<p>जिंदगी ये मिली हमें जिनसे<br/>हों न देखो वे दर-ब-दर यारो।</p>
<p></p>
<p>ख़ार से जो भरी रहे हर दम<br/>इश्क है ऐसी ही डगर यारो।</p>
<p></p>
<p>दर्द लगता दवा के जैसा अब<br/>ये मुहब्बत का है असर यारो।</p>
<p></p>
<p>जो न मंजिल भी दे सके शायद<br/>वो ख़ुशी दे रहा सफ़र यारो।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>डायरी का अंतिम पृष्ठ (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2018-07-22:5170231:BlogPost:9409762018-07-22T16:21:22.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p><strong>डायरी का अंतिम पृष्ठ</strong></p>
<p></p>
<p>एक अरसे बाद, आज मेरे आवरण ने किसी के हाथों की छुअन महसूस की, जो मेरे लिए अजनबी थे। कुछ सख्त और उम्रदराज़ हाथ। मेरे पृष्ठों को उनके द्वारा पलटा जा रहा था। दो आँखें गौर से हर शब्द के बोल सुन रही थीं। मेरे अंतिम लिखित पृष्ठ पर आते ही ये ठिठक गईं। पृष्ठ पर लिखे शब्दों में से आकाश का चेहरा उभर आया। सहमा-सा चेहरा। उसने भारी आवाज़ में बोलना शुरू किया, "एक रिटायर्ड फ़ौजी, मेरे पापा। चेहरे पर हमेशा रौब, मगर दिल के नरम। आज उनकी बहुत याद आ रही है। जानता…</p>
<p><strong>डायरी का अंतिम पृष्ठ</strong></p>
<p></p>
<p>एक अरसे बाद, आज मेरे आवरण ने किसी के हाथों की छुअन महसूस की, जो मेरे लिए अजनबी थे। कुछ सख्त और उम्रदराज़ हाथ। मेरे पृष्ठों को उनके द्वारा पलटा जा रहा था। दो आँखें गौर से हर शब्द के बोल सुन रही थीं। मेरे अंतिम लिखित पृष्ठ पर आते ही ये ठिठक गईं। पृष्ठ पर लिखे शब्दों में से आकाश का चेहरा उभर आया। सहमा-सा चेहरा। उसने भारी आवाज़ में बोलना शुरू किया, "एक रिटायर्ड फ़ौजी, मेरे पापा। चेहरे पर हमेशा रौब, मगर दिल के नरम। आज उनकी बहुत याद आ रही है। जानता हूँ, स्वभाव से कड़क हैं वे। पर फिर भी कितनी ही बार मुझे लड़खड़ाते को संभाला। मेरी ही इच्छा पर उन्होंने मुझे घर से इतनी दूर कोचिंग लेने के लिए भेजा। इस भारी खर्चे को भी झेला। मेरी हिम्मत वे ही हैं। कभी न टूटने वाली चट्टान-से...."<br/>चेहरे से डर का साया हटता महसूस हुआ। स्वर में हौंसला लौटने लगा,"यह जो हुआ मैं इसे सोच कर यूँ ही परेशान हूँ। मैं... अभी फ़ोन कर उन्हें बता देता हूँ कि पापा अबकी बार पी एम टी का परिणाम मेरे लिए सही नहीं आया। हाँ.. हाँ पापा से बात करके ही अब चैन मिलेगा।"</p>
<p>उम्रदराज आँखें फ़टी की फटी रह गईं। खुद के कहे शब्द कानों में ज़हर उंडेलने लगे और हृदय का तीर सम भेदन करने लगे, "इतनी सुविधाओं के बावजूद तुम्हारा यह हाल! हमने पेट पर पट्टी बाँधी और तुमने माल उड़ाया। शर्म नहीं आती। मुझे मुँह मत दिखाना।"</p>
<p>वे आँखें पश्चताप से झरने लगीं। हाथों ने मुट्ठियाँ भींच ली। मेरे इस पृष्ठ के सीने पर लिखे अंतिम शब्दों पर गर्म पानी के बुलबुले उभर आए। वर्ण सुरसा के मुख सम फैल कर भयावह लगने लगे।</p>
<p>और मैं चट्टान के टूटने को महसूस कर पा रही थी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2018-06-11:5170231:BlogPost:9337392018-06-11T17:30:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>2122 1212 22/112/211<br/> कुछ नहीं सूझता कई दिन से<br/> जाने क्या हो रहा कई दिन से?</p>
<p></p>
<p>है अलग ये जुबाँ निगाहें अलग<br/>क्यों नहीं राबता कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>हो लबों पे हँसी भले कितनी<br/> मन रहा डगमगा कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>जल रहा दिल कोई सही में कहीं<br/> गर्म लगती हवा कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>खुद पे खुद का नहीं रहा काबू<br/> यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>
<p>2122 1212 22/112/211<br/> कुछ नहीं सूझता कई दिन से<br/> जाने क्या हो रहा कई दिन से?</p>
<p></p>
<p>है अलग ये जुबाँ निगाहें अलग<br/>क्यों नहीं राबता कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>हो लबों पे हँसी भले कितनी<br/> मन रहा डगमगा कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>जल रहा दिल कोई सही में कहीं<br/> गर्म लगती हवा कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>खुद पे खुद का नहीं रहा काबू<br/> यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।</p>
<p></p>
<p>मौलिक अप्रकाशित</p>नाम बड़ा है उस घर का- गजलtag:openbooks.ning.com,2018-04-23:5170231:BlogPost:9260672018-04-23T01:00:00.000Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://openbooks.ning.com/profile/28fn40mg3o5v9
<p>222222 2</p>
<p>नाम बड़ा है उस घर का<br/><strong>पहरा जिस पर है डर का</strong></p>
<p></p>
<p>प्यास बुझाना प्यासे की<br/> कब है काम समंदर का</p>
<p></p>
<p>बिना बात बजते बर्तन<br/> दृश्य यही अब घर-घर का</p>
<p></p>
<p>बोल कहे और जय चाहे<br/> क्या है काम सुख़नवर का?</p>
<p></p>
<p>महल दुमहले जिसके हैं<br/> वही भिखारी दर-दर का।</p>
<p></p>
<p>'राणा' सच कहते रहना<br/> रंग न छूूटे तेवर का।</p>
<p></p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>
<p>222222 2</p>
<p>नाम बड़ा है उस घर का<br/><strong>पहरा जिस पर है डर का</strong></p>
<p></p>
<p>प्यास बुझाना प्यासे की<br/> कब है काम समंदर का</p>
<p></p>
<p>बिना बात बजते बर्तन<br/> दृश्य यही अब घर-घर का</p>
<p></p>
<p>बोल कहे और जय चाहे<br/> क्या है काम सुख़नवर का?</p>
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<p>महल दुमहले जिसके हैं<br/> वही भिखारी दर-दर का।</p>
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<p>'राणा' सच कहते रहना<br/> रंग न छूूटे तेवर का।</p>
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<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>