Pradeep Bahuguna Darpan's Posts - Open Books Online2024-03-28T22:16:02ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpanhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991277653?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=194884trrw0dx&xn_auth=noये क्या देखता हूँtag:openbooks.ning.com,2018-08-01:5170231:BlogPost:9431222018-08-01T16:26:42.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p>किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।<br></br> जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।</p>
<p>रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर।<br></br> अंधेरा ही शामो शहर देखता हूं ।।</p>
<p>किसी को किसी की खबर ही नहीं है।<br></br> जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।</p>
<p>ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।<br></br> हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।</p>
<p>लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।<br></br> एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।</p>
<p>चिताएं चली हैं खुद रही हैं कब्रें।<br></br> मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।</p>
<p>परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता…</p>
<p>किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।<br/> जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।</p>
<p>रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर।<br/> अंधेरा ही शामो शहर देखता हूं ।।</p>
<p>किसी को किसी की खबर ही नहीं है।<br/> जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।</p>
<p>ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।<br/> हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।</p>
<p>लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।<br/> एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।</p>
<p>चिताएं चली हैं खुद रही हैं कब्रें।<br/> मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।</p>
<p>परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता हूं ।<br/> मैं क्यों देखता हूं ,किधर देखता हूँ।।<br/> ---–- प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'<br/>
(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>कलम मेरी खामोश नहींtag:openbooks.ning.com,2016-09-22:5170231:BlogPost:8022122016-09-22T05:00:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p align="center" style="text-align: left;">कलम मेरी खामोश नहीं, ये लिखती नई कहानी है।</p>
<p align="center" style="text-align: left;">इसमें स्याही के बदले मेरी, आंखों वाला पानी है।।</p>
<p align="center" style="text-align: left;"></p>
<p align="center" style="text-align: left;">सृजन की सरिता इससे बहती</p>
<p align="center" style="text-align: left;">झूठ नहीं ये सच है कहती।</p>
<p align="center" style="text-align: left;">जीवन के हर सुख-दुख में ये,…</p>
<p style="text-align: left;" align="center">कलम मेरी खामोश नहीं, ये लिखती नई कहानी है।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसमें स्याही के बदले मेरी, आंखों वाला पानी है।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">सृजन की सरिता इससे बहती</p>
<p style="text-align: left;" align="center">झूठ नहीं ये सच है कहती।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">जीवन के हर सुख-दुख में ये,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">कलम सदा संग मेरे रहती॥</p>
<p style="text-align: left;" align="center">ये मेरी सहचरी,मेरी सहेली , मेरे दिल की रानी है।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसमें स्याही के बदले मेरी ,आंखों वाला पानी है।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसने जीना मुझे सिखाया,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">सच से परिचय मेरा कराया।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">जीवन की सच्चाई लिखाकर,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मुझे कवि इसने ही बनाया।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मेरे आपके अनुभवों की, ये तस्वीर नूरानी है।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसमें स्याही के बदले मेरी ,आंखों वाला पानी है।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">कलम कवि का है हथियार,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसका है सब पर अधिकार।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">जीवन के इस महासागर में,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">कलम बनी मेरी पतवार।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">अटल इरादों वाली है ये,इसकी चाल तूफानी है।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसमें स्याही के बदले मेरी ,आंखों वाला पानी है।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">कलम का सौदा कर न सकूँगा,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मैं खुद की हत्या कर न सकूँगा।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसके सहारे जीता हूँ मैं,</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इससे धोखा कर न सकूंगा॥</p>
<p style="text-align: left;" align="center">ये मेरी पहचान है,मेरे गौरव की ये निशानी है।</p>
<p style="text-align: left;" align="center">इसमें स्याही के बदले मेरी ,आंखों वाला पानी है।।</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p style="text-align: left;" align="center">प्रदीप बहुगुणा ’दर्पण’</p>मसूरी के हिमपात परtag:openbooks.ning.com,2014-01-23:5170231:BlogPost:5031422014-01-23T16:00:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p>बर्फ की ये चादरी सफ़ेद ओढ़कर<br></br> पर्वतों की चोटियाँ बनी हैं रानियाँ<br></br> पत्ती पत्ती ठंड से ठिठुरने लगी,<br></br> फूल फूल देखिये हैं काँपते यहाँ ।<br></br> <br></br> काँपती दिशाएँ भी हैं आज ठंड से,<br></br> बह रही हवा यहाँ बड़े घमंड से ।<br></br> बादलों से घिरा घिरा व्योम यूं लगे,<br></br> भरा भरा कपास से हो जैसे आसमाँ।। पर्वतों की .....</p>
<p><br></br> धरती भी गीत शीत के गा रही,<br></br> दिशा दिशा भी मंद मंद मुस्कुरा रही।<br></br> झरनों में बर्फ का संगीत बज उठा,<br></br> और हवा गा रही है अब रूबाईयाँ॥ पर्वतों की .....…<br></br> <br></br></p>
<p>बर्फ की ये चादरी सफ़ेद ओढ़कर<br/> पर्वतों की चोटियाँ बनी हैं रानियाँ<br/> पत्ती पत्ती ठंड से ठिठुरने लगी,<br/> फूल फूल देखिये हैं काँपते यहाँ ।<br/> <br/> काँपती दिशाएँ भी हैं आज ठंड से,<br/> बह रही हवा यहाँ बड़े घमंड से ।<br/> बादलों से घिरा घिरा व्योम यूं लगे,<br/> भरा भरा कपास से हो जैसे आसमाँ।। पर्वतों की .....</p>
<p><br/> धरती भी गीत शीत के गा रही,<br/> दिशा दिशा भी मंद मंद मुस्कुरा रही।<br/> झरनों में बर्फ का संगीत बज उठा,<br/> और हवा गा रही है अब रूबाईयाँ॥ पर्वतों की .....<br/> <br/> पंछी हैं की नीड़ से निकलते नहीं,<br/> जानवर भी ठंड में मचलते नहीं ।<br/> इंसान का ये सौंदर्य प्रेम देखिये,<br/> दूर दूर से चले हैं घूमने यहाँ ॥ पर्वतों की .....<br/> <br/> चूम रही चोटियाँ भी आसमान को,<br/> प्रेम का संदेश दे रही जहान को।<br/> क्षितिज पर धरा गगन यूं मिल रहे,<br/> रति का मदन से ज्यों मिलन हो गया॥ पर्वतों की .....</p>
<p><br/> प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’<br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</p>साँझ से संवादtag:openbooks.ning.com,2013-07-28:5170231:BlogPost:4042232013-07-28T05:30:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p>नव निशा की बेला लेकर,</p>
<p>साँझ सलोनी जब घर आयी।</p>
<p>पूछा मैंने उससे क्यों तू ,</p>
<p>यह अँधियारा संग है लायी॥</p>
<p></p>
<p>सुंदर प्रकाश था धरा पर,</p>
<p>आलोकित थे सब दिग-दिगंत।</p>
<p>है प्रकाश विकास का वाहक,</p>
<p>क्यों करती तू इसका अंत॥</p>
<p></p>
<p>जीवन का नियम यही है,</p>
<p>उसने हँसकर मुझे बताया।</p>
<p>यदि प्रकाश के बाद न आए,</p>
<p>गहन तम की काली छाया॥</p>
<p></p>
<p>तो तुम कैसे जान सकोगे,</p>
<p>क्या महत्व होता प्रकाश का।</p>
<p>यदि विनाश न हो भू पर,</p>
<p>तो कैसे हो…</p>
<p>नव निशा की बेला लेकर,</p>
<p>साँझ सलोनी जब घर आयी।</p>
<p>पूछा मैंने उससे क्यों तू ,</p>
<p>यह अँधियारा संग है लायी॥</p>
<p></p>
<p>सुंदर प्रकाश था धरा पर,</p>
<p>आलोकित थे सब दिग-दिगंत।</p>
<p>है प्रकाश विकास का वाहक,</p>
<p>क्यों करती तू इसका अंत॥</p>
<p></p>
<p>जीवन का नियम यही है,</p>
<p>उसने हँसकर मुझे बताया।</p>
<p>यदि प्रकाश के बाद न आए,</p>
<p>गहन तम की काली छाया॥</p>
<p></p>
<p>तो तुम कैसे जान सकोगे,</p>
<p>क्या महत्व होता प्रकाश का।</p>
<p>यदि विनाश न हो भू पर,</p>
<p>तो कैसे हो परिचय विकास का॥</p>
<p></p>
<p>दुख के भय से सुख की पूजा,</p>
<p>नफरत से अस्तित्व प्यार का।</p>
<p>इसीलिए तो हे प्रिय ‘दर्पण’,</p>
<p>परिवर्तन नियम संसार का॥</p>
<p></p>
<p>(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित-प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’)</p>सिर्फ तुम्हारे लिएtag:openbooks.ning.com,2013-06-30:5170231:BlogPost:3876572013-06-30T03:30:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p><span class="font-size-2">तेरे अधरों की मुस्कान,</span></p>
<p><span class="font-size-2">भरती मेरे तन में प्राण.</span></p>
<p><span class="font-size-2">जीवन की ऊर्जा हो तुम,</span></p>
<p><span class="font-size-2">साँसों की सरगम की तान.</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">मैं सीप तुम मेरा मोती ,</span></p>
<p><span class="font-size-2">मैं दीपक तुम मेरी ज्योति.</span></p>
<p><span class="font-size-2">कभी पूर्ण न मैं हो पाता ,</span></p>
<p><span class="font-size-2">संग मेरे जो…</span></p>
<p><span class="font-size-2">तेरे अधरों की मुस्कान,</span></p>
<p><span class="font-size-2">भरती मेरे तन में प्राण.</span></p>
<p><span class="font-size-2">जीवन की ऊर्जा हो तुम,</span></p>
<p><span class="font-size-2">साँसों की सरगम की तान.</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">मैं सीप तुम मेरा मोती ,</span></p>
<p><span class="font-size-2">मैं दीपक तुम मेरी ज्योति.</span></p>
<p><span class="font-size-2">कभी पूर्ण न मैं हो पाता ,</span></p>
<p><span class="font-size-2">संग मेरे जो तुम न होती.</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">किन्तु दुख है कि मैं तुमको,</span></p>
<p><span class="font-size-2">कभी नहीं खुश रख पाया .</span></p>
<p><span class="font-size-2">तुमने मुझसे पाया घाटा ,</span></p>
<p><span class="font-size-2">मैंने केवल लाभ कमाया.</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">बस खुदा से यही प्रार्थना,</span></p>
<p><span class="font-size-2">खुश रक्खे तुझको हरदम.</span></p>
<p><span class="font-size-2">मेरे प्राणों की कीमत भी,</span></p>
<p><span class="font-size-2">तेरी खुशी के लिए है कम.</span></p>
<p><span class="font-size-2">(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित- प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’)</span></p>दुख से अपना गहरा नाताtag:openbooks.ning.com,2012-07-23:5170231:BlogPost:2507672012-07-23T04:59:58.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
दुख से अपना गहरा नाता,<br />
सुख तो आता है, और जाता.<br />
दुख ही अपना सच्चा साथी,<br />
हरदम ही जो साथ निभाता.<br />
<br />
जब से जग में आंखें खोली,<br />
सुनी नहीं कभी मीठी बोली.<br />
दिल को तोड़ा सदा उसी ने,<br />
जिसको भी समझा हमजोली.<br />
<br />
जिम्मेदारी का बहुत सा,<br />
बोझ उठाया कांधे पर.<br />
जिसको भी दिया सहारा.<br />
मार चला वो ही ठोकर.<br />
<br />
<br />
तेरा मेरा कभी न सोचा,<br />
सारे जग को अपना माना.<br />
अपनी खुशियों से बढ़कर,<br />
औरों की खुशियों को जाना.<br />
<br />
हाय नियति! फ़िर भी तूने,<br />
कदम कदम पर बोये कांटे.<br />
उन्होंने मुझको दुख बांटा,<br />
जिनके दुख थे मैंने बांटे.<br />
<br />
किंतु दुख से नहीं डरूंगा,<br />
यही…
दुख से अपना गहरा नाता,<br />
सुख तो आता है, और जाता.<br />
दुख ही अपना सच्चा साथी,<br />
हरदम ही जो साथ निभाता.<br />
<br />
जब से जग में आंखें खोली,<br />
सुनी नहीं कभी मीठी बोली.<br />
दिल को तोड़ा सदा उसी ने,<br />
जिसको भी समझा हमजोली.<br />
<br />
जिम्मेदारी का बहुत सा,<br />
बोझ उठाया कांधे पर.<br />
जिसको भी दिया सहारा.<br />
मार चला वो ही ठोकर.<br />
<br />
<br />
तेरा मेरा कभी न सोचा,<br />
सारे जग को अपना माना.<br />
अपनी खुशियों से बढ़कर,<br />
औरों की खुशियों को जाना.<br />
<br />
हाय नियति! फ़िर भी तूने,<br />
कदम कदम पर बोये कांटे.<br />
उन्होंने मुझको दुख बांटा,<br />
जिनके दुख थे मैंने बांटे.<br />
<br />
किंतु दुख से नहीं डरूंगा,<br />
यही मेरा शाश्वत प्रण है.<br />
हर बाधा को दे चुनौती,<br />
जीतना मुझको जीवन रण है. ..दर्पणदो मुक्तकtag:openbooks.ning.com,2012-02-28:5170231:BlogPost:1934902012-02-28T05:00:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p>(1)<br/> पीर का सागर हृदय में, मन में भारी वेदना.<br/> अश्रु भी छलके नयन से,शून्य हो गई चेतना.<br/> टूटता है जब हृदय, यह दशा होती सभी की.<br/> जाने कैसे सीखते हैं, लोग दिल से खेलना. ...<br/> <br/> (2)<br/> वक़्त की बेवफ़ाई पर तू, आज क्यों पछता रहा.<br/> तू भी सदा वक़्त के संग खिलवाड ही करता रहा.<br/> वक़्त ने तो चाहा हमेशा संग लेकर तुझको चलना,<br/> आलसी बन तू ही बैठा, वक़्त तो चलता रहा. .</p>
<p></p>
<p>.</p>
<p><strong>- प्रदीप बहुगुणा दर्पण</strong></p>
<p>(1)<br/> पीर का सागर हृदय में, मन में भारी वेदना.<br/> अश्रु भी छलके नयन से,शून्य हो गई चेतना.<br/> टूटता है जब हृदय, यह दशा होती सभी की.<br/> जाने कैसे सीखते हैं, लोग दिल से खेलना. ...<br/> <br/> (2)<br/> वक़्त की बेवफ़ाई पर तू, आज क्यों पछता रहा.<br/> तू भी सदा वक़्त के संग खिलवाड ही करता रहा.<br/> वक़्त ने तो चाहा हमेशा संग लेकर तुझको चलना,<br/> आलसी बन तू ही बैठा, वक़्त तो चलता रहा. .</p>
<p></p>
<p>.</p>
<p><strong>- प्रदीप बहुगुणा दर्पण</strong></p>आंखेंtag:openbooks.ning.com,2012-02-15:5170231:BlogPost:1894872012-02-15T11:30:00.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
<p>इन आंखों की गहराई में,<br></br> डूबा दिल दीवाना है.<br></br> मस्ती को छलकाती आंखें,<br></br> मय से भरा पैमाना हैं.<br></br> <br></br> ये आंखें केवल आंख नहीं हैं ,<br></br> ये तो मन का दर्पण हैं .<br></br> दिल में उमड़ी भावनाओं का,<br></br> करती हर पल वर्णन हैं.<br></br> <br></br> ये आंखे जगमग दीपशिखा सी ,<br></br> जीवन में ज्योति भरती हैं.<br></br> भटके मन को राह दिखाती,<br></br> पथ आलोकित करती हैं.<br></br> <br></br> इन आंखों में डूब के प्यारे,<br></br> कौन भला निकलना चाहे.<br></br> ये आंखे तो वो आंखे हैं ,<br></br> जिनमें हर कोई बसना चाहे.</p>
<p>.…<br></br></p>
<p>इन आंखों की गहराई में,<br/> डूबा दिल दीवाना है.<br/> मस्ती को छलकाती आंखें,<br/> मय से भरा पैमाना हैं.<br/> <br/> ये आंखें केवल आंख नहीं हैं ,<br/> ये तो मन का दर्पण हैं .<br/> दिल में उमड़ी भावनाओं का,<br/> करती हर पल वर्णन हैं.<br/> <br/> ये आंखे जगमग दीपशिखा सी ,<br/> जीवन में ज्योति भरती हैं.<br/> भटके मन को राह दिखाती,<br/> पथ आलोकित करती हैं.<br/> <br/> इन आंखों में डूब के प्यारे,<br/> कौन भला निकलना चाहे.<br/> ये आंखे तो वो आंखे हैं ,<br/> जिनमें हर कोई बसना चाहे.</p>
<p>.<br/> <strong>प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'</strong></p>वैलेंटाईन दिवस पर कुछ दोहे......tag:openbooks.ning.com,2012-02-13:5170231:BlogPost:1892312012-02-13T11:38:34.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
प्रेम तो है परमात्मा, पावन अमर विचार.<br />
इसको तुम समझो नहीं , महज देह व्यापार.<br />
<br />
प्रेम गली कंटक भरी, रखो संभलकर पांव.<br />
जीवन भर भरते नहीं, मिलते ऐसे घाव.<br />
<br />
'दर्पण' हमसे लीजिए, बड़े काम की सीख.<br />
दे दो, पर मांगो नहीं, कभी प्यार की भीख.<br />
<br />
मन से मन का हो मिलन, तो ही सच्चा प्यार.<br />
मन के बिना जो तन मिले, बड़ा अधम व्यवहार . ... दर्पण
प्रेम तो है परमात्मा, पावन अमर विचार.<br />
इसको तुम समझो नहीं , महज देह व्यापार.<br />
<br />
प्रेम गली कंटक भरी, रखो संभलकर पांव.<br />
जीवन भर भरते नहीं, मिलते ऐसे घाव.<br />
<br />
'दर्पण' हमसे लीजिए, बड़े काम की सीख.<br />
दे दो, पर मांगो नहीं, कभी प्यार की भीख.<br />
<br />
मन से मन का हो मिलन, तो ही सच्चा प्यार.<br />
मन के बिना जो तन मिले, बड़ा अधम व्यवहार . ... दर्पणकुछ ऐसा किया है तुमनेtag:openbooks.ning.com,2011-12-20:5170231:BlogPost:1752492011-12-20T06:44:42.000ZPradeep Bahuguna Darpanhttp://openbooks.ning.com/profile/PradeepBahugunaDarpan
आज फ़िर कुछ ऐसा किया है तुमने,<br />
मन में तूफ़ान सा उठा दिया है तुमने.<br />
मुश्किल से बनाया था ये आशाओं का महल,<br />
जिसे पल भर में ही गिरा दिया है तुमने. ..... दर्पण
आज फ़िर कुछ ऐसा किया है तुमने,<br />
मन में तूफ़ान सा उठा दिया है तुमने.<br />
मुश्किल से बनाया था ये आशाओं का महल,<br />
जिसे पल भर में ही गिरा दिया है तुमने. ..... दर्पण