Saalim sheikh's Posts - Open Books Online2024-03-28T17:40:21Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikhhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991293736?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0sfs0stuwxx6j&xn_auth=noबस तेरी थोड़ी सी कमी होगीtag:openbooks.ning.com,2018-10-31:5170231:BlogPost:9593552018-10-31T17:21:20.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>ज़िन्दगी खत्म तो नहीं होगी<br></br>रूह भी जिस्म में कहीं होगी<span> </span><br></br>धड़कनें दिल मे ही बसी होगी<br></br>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>ये शब ओ रोज़ यूं ही गुज़रेंगे<br></br>चाँद सूरज भी पाली बदलेंगे<br></br>धूप होगी और चांदनी होगी<br></br>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>वक़्त मुझे भूलना सिखा देगा<br></br>फिर कोई आएगा, हंसा देगा<span> </span><br></br>बाद तेरे भी हर ख़ुशी होगी<span> </span><br></br>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>याद धुँधली तो हो ही जाएगी<br></br>वो…</p>
</div>
<p>ज़िन्दगी खत्म तो नहीं होगी<br/>रूह भी जिस्म में कहीं होगी<span> </span><br/>धड़कनें दिल मे ही बसी होगी<br/>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>ये शब ओ रोज़ यूं ही गुज़रेंगे<br/>चाँद सूरज भी पाली बदलेंगे<br/>धूप होगी और चांदनी होगी<br/>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>वक़्त मुझे भूलना सिखा देगा<br/>फिर कोई आएगा, हंसा देगा<span> </span><br/>बाद तेरे भी हर ख़ुशी होगी<span> </span><br/>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>याद धुँधली तो हो ही जाएगी<br/>वो निशानी भी खो ही जाएगी</p>
<p>पर जब तू याद भी नहीं होगी<span> </span><br/>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>साथ तो सबका छूट जाना है<span> </span><br/>और बस दो ही तो बहाना है<br/>मौत होगी या ज़िन्दगी होगी<br/>बस तेरी थोड़ी सी कमी होगी</p>
<p></p>
<p>-सालिम</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
</div>जानाँtag:openbooks.ning.com,2016-09-07:5170231:BlogPost:7983532016-09-07T00:00:30.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>बिना तेरे हर एक लम्हा मुझे दुशवार है <span class="highlightNode">जानाँ</span> <br></br>अगर ये प्यार है <span class="highlightNode">जानाँ</span>, तो मुझको प्यार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<p>हसीं चेहरे बहुत देखे फ़िदा होना भी मुमकिन था <br></br>फ़िदा हो कर फ़ना होना ये पहली बार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>हमें कहना नहीं आया ,और समझा भी नहीं तुमने <br></br>मेरा हर लफ़्ज़ तुमसे प्यार का इज़हार है …</p>
</div>
<p>बिना तेरे हर एक लम्हा मुझे दुशवार है <span class="highlightNode">जानाँ</span> <br/>अगर ये प्यार है <span class="highlightNode">जानाँ</span>, तो मुझको प्यार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<p>हसीं चेहरे बहुत देखे फ़िदा होना भी मुमकिन था <br/>फ़िदा हो कर फ़ना होना ये पहली बार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>हमें कहना नहीं आया ,और समझा भी नहीं तुमने <br/>मेरा हर लफ़्ज़ तुमसे प्यार का इज़हार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<p>चलो रस्ते जुदा कर लें , जुदा रस्तों में खो जाएं<br/>जो मंज़िल ही नहीं मिलनी , तो क्यूँ इसरार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p></p>
<p>खुदा का शुक्र है तुमने न अपनाया मेरे दिल को <br/>ना जाने कब ये रुक जाए , बहुत बीमार है <span class="highlightNode">जानाँ</span></p>
<p>- सालिम</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
</div>बोझ : नज़्मtag:openbooks.ning.com,2016-08-25:5170231:BlogPost:7946652016-08-25T19:30:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>थाम लो इन आंसुओं को<br></br> बह गए तो ज़ाया हो जाएंगे<br></br> इन्हें खंजर बना कर पेवस्त कर लो<br></br> अपने दिल के उस हिस्से में <br></br> जहाँ संवेदनाएं जन्म लेती हैं</p>
<div class="text_exposed_show"><p>उसके काँधे पर रखी लाश से कहीं ज्यादा वज़न है<br></br> तुम्हारी उन संवेदनाओं की लाशों का <br></br> जिन्हें अपने चार आंसुओं के कांधों पर <br></br> ढोते आए हो तुम <br></br> अब और हत्या मत करो इनकी</p>
<p>संवेदनाओं का कब्रस्तान बनते जा रहे तुम<br></br> हर ह्त्या, आत्महत्या, बलात्कार पर <br></br> एक शवयात्रा निकलती है तुम्हारी आँखों…</p>
</div>
<p>थाम लो इन आंसुओं को<br/> बह गए तो ज़ाया हो जाएंगे<br/> इन्हें खंजर बना कर पेवस्त कर लो<br/> अपने दिल के उस हिस्से में <br/> जहाँ संवेदनाएं जन्म लेती हैं</p>
<div class="text_exposed_show"><p>उसके काँधे पर रखी लाश से कहीं ज्यादा वज़न है<br/> तुम्हारी उन संवेदनाओं की लाशों का <br/> जिन्हें अपने चार आंसुओं के कांधों पर <br/> ढोते आए हो तुम <br/> अब और हत्या मत करो इनकी</p>
<p>संवेदनाओं का कब्रस्तान बनते जा रहे तुम<br/> हर ह्त्या, आत्महत्या, बलात्कार पर <br/> एक शवयात्रा निकलती है तुम्हारी आँखों से <br/> और चंद क़दम दूर जा कर तुम्हारे भीतर ही कहीं<br/> दफ्न हो जाते हैं तुम्हारे एहसासात, तुम्हारी संवेदनाएं</p>
<p>अब इनको जिंदा रखना सीखो<br/> हर ज़ख्म को ताज़ा रखना सीखो</p>
<p></p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>
</div>मंज़र ( नज़्म )tag:openbooks.ning.com,2016-07-05:5170231:BlogPost:7820922016-07-05T10:51:46.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>अम्बर के दरीचों से फ़रिश्ते अब नहीं आते</p>
<p>न परियाँ आबशारों में नहाने को उतरती हैं</p>
<p>न बच्चों की हथेली पर कोई तितली ठहरती है</p>
<p>न बारिश की फुआरों में वो खुशियाँ अब बरसती हैं</p>
<p>सभी लम्हे सभी मंज़र बड़े बेनूर से हैं सब</p>
<p></p>
<p>मगर हाँ एक मंज़र है</p>
<p>जहां फूलों के हंसने की अदा महफूज़ है अब भी</p>
<p>जहाँ कलियों ने खिलने का सलीक़ा याद रखा है</p>
<p>जहां मासूमियत के रंग अभी मौजूद हैं सारे</p>
<p>वो मंज़र है मेरे हमदम</p>
<p>तुम्हारे मुस्कुराने का</p>
<p></p>
<p></p>
<p>- शेख…</p>
<p>अम्बर के दरीचों से फ़रिश्ते अब नहीं आते</p>
<p>न परियाँ आबशारों में नहाने को उतरती हैं</p>
<p>न बच्चों की हथेली पर कोई तितली ठहरती है</p>
<p>न बारिश की फुआरों में वो खुशियाँ अब बरसती हैं</p>
<p>सभी लम्हे सभी मंज़र बड़े बेनूर से हैं सब</p>
<p></p>
<p>मगर हाँ एक मंज़र है</p>
<p>जहां फूलों के हंसने की अदा महफूज़ है अब भी</p>
<p>जहाँ कलियों ने खिलने का सलीक़ा याद रखा है</p>
<p>जहां मासूमियत के रंग अभी मौजूद हैं सारे</p>
<p>वो मंज़र है मेरे हमदम</p>
<p>तुम्हारे मुस्कुराने का</p>
<p></p>
<p></p>
<p>- शेख सालिम</p>
<p></p>
<p>( मौलिक एवं अप्रकाशित )</p>नज़्म - मेरी परीtag:openbooks.ning.com,2016-05-22:5170231:BlogPost:7676232016-05-22T06:07:06.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>हाँ वो ख्वाब हैं <br></br>वो ख्वाब ही हैं जब तुम <br></br>तख़य्युल के परों से उड़ते <br></br>चाँद का नूर चुरा लाती हो <br></br>और तोड़ कर बादलों के रेशमी टुकड़े <span class="text_exposed_show"><br></br>गूंध कर उनको चांदनी में फिर <br></br>किसी अनजान ज़मीं पर उसके <br></br>महल तामीर किये हैं तुमने <br></br>और उन महलों में बसा रखें हैं वो सारे मंज़र <br></br>जो हक़ीक़त में बदल जाएं तो <br></br>दर्द दुनिया से चले जाएं हमेशा के लिए</span></p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>हाँ वो ख्वाब हैं जब तुम <br></br>चेहरे पे हवाओं की शोखियाँ…</p>
</div>
<p>हाँ वो ख्वाब हैं <br/>वो ख्वाब ही हैं जब तुम <br/>तख़य्युल के परों से उड़ते <br/>चाँद का नूर चुरा लाती हो <br/>और तोड़ कर बादलों के रेशमी टुकड़े <span class="text_exposed_show"><br/>गूंध कर उनको चांदनी में फिर <br/>किसी अनजान ज़मीं पर उसके <br/>महल तामीर किये हैं तुमने <br/>और उन महलों में बसा रखें हैं वो सारे मंज़र <br/>जो हक़ीक़त में बदल जाएं तो <br/>दर्द दुनिया से चले जाएं हमेशा के लिए</span></p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>हाँ वो ख्वाब हैं जब तुम <br/>चेहरे पे हवाओं की शोखियाँ सहती <br/>बंद आँखों में समाए हुए दुनिया अपनी <br/>इन फ़िज़ाओं में कहीं दूर उड़ी जाती हो <br/>बेपरवाह ,क़ुदरत के सब उसूलों से <br/>बेनियाज़ , खुदा के भी सहारे से</p>
<p></p>
<p>हाँ वो ख़्वाब हैं<br/>वो ख्वाब हैं , लेकिन <br/>मेरी जाँ , मुझे भरोसा है <br/>इन सभी ख्वाबों पर हकीकत की तरह <br/>बस कुछ है, तो इंतज़ार उस दिन का <br/>ताबीर इन ख़्वाबों की जब <br/>दुनिया को नज़र आएगी <br/>आसमां सर झुका के देखेगा <br/>ज़ुल्फ़ तुम्हारी जो फ़िज़ाओं में बिखर जाएगी</p>
<p>- सालिम</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
</div>नज़्म - तुम्हारे ख़त tag:openbooks.ning.com,2016-05-08:5170231:BlogPost:7638492016-05-08T18:11:40.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
कितना अच्छा होता न ?<br />
अगर वो सारे ख़त तुम्हारे<br />
जिन्हें मैं रोज़ पढ़ता हूँ<br />
पढ़ कर मुस्कुराता हूँ<br />
कभी आंसू भी आते हैं<br />
मगर गिरने नहीं देता<br />
कि कोई लफ्ज़ जो तुमने लिखा<br />
मिट जाए न मेरे आंसू से<br />
कितना अच्छा होता<br />
जो ये सारे ख़त तुम्हारे<br />
तुमने न लिखे होते<br />
या मेरा पता गलत होता<br />
तो आज जब तुम अहद सारे भूल बैठे हो<br />
मैं भी भूल सकता था<br />
सभी क़समें सभी वादे<br />
सभी शिकवे सभी आहें<br />
जो हैं जा ब जा बिखरे हुए<br />
हर एक ख़त की भीगी सत्रों में<br />
और जो अब सिर्फ अलफ़ाज़ हैं कोरे<br />
मायने खो चुके हैं जिनके<br />
बिखर गई है जिनकी सच्चाई<br />
वक़्त के हल्के से…
कितना अच्छा होता न ?<br />
अगर वो सारे ख़त तुम्हारे<br />
जिन्हें मैं रोज़ पढ़ता हूँ<br />
पढ़ कर मुस्कुराता हूँ<br />
कभी आंसू भी आते हैं<br />
मगर गिरने नहीं देता<br />
कि कोई लफ्ज़ जो तुमने लिखा<br />
मिट जाए न मेरे आंसू से<br />
कितना अच्छा होता<br />
जो ये सारे ख़त तुम्हारे<br />
तुमने न लिखे होते<br />
या मेरा पता गलत होता<br />
तो आज जब तुम अहद सारे भूल बैठे हो<br />
मैं भी भूल सकता था<br />
सभी क़समें सभी वादे<br />
सभी शिकवे सभी आहें<br />
जो हैं जा ब जा बिखरे हुए<br />
हर एक ख़त की भीगी सत्रों में<br />
और जो अब सिर्फ अलफ़ाज़ हैं कोरे<br />
मायने खो चुके हैं जिनके<br />
बिखर गई है जिनकी सच्चाई<br />
वक़्त के हल्के से एक झोंके में<br />
बदल गए हैं इनके मायने या<br />
तुम ही बदल गए जानाँ<br />
-सालिम<br />
मौलिक एवं अप्रकाशितग़ज़ल : लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातेंtag:openbooks.ning.com,2015-08-03:5170231:BlogPost:6851442015-08-03T14:30:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<div class="_5wd9"><div class="_5wde"><div class="_5w1r _5wdf _3okg"><div class="_d97"><span class="_5yl5">लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातें</span></div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">नाज़-ए-महबूब की, क़ामत की, अदा की बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">जलव-ए-वस्ल की, फुरक़त की,सज़ा की बातें</div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">दिल-ए-बेहोश, फिर एक होशरुबा की बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">हैं कहाँ इश्क़-ओ-वफ़ा ,…</div>
</div>
</div>
</div>
<div class="_5wd9"><div class="_5wde"><div class="_5w1r _5wdf _3okg"><div class="_d97"><span class="_5yl5">लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातें</span></div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">नाज़-ए-महबूब की, क़ामत की, अदा की बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">जलव-ए-वस्ल की, फुरक़त की,सज़ा की बातें</div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">दिल-ए-बेहोश, फिर एक होशरुबा की बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">हैं कहाँ इश्क़-ओ-वफ़ा , दर्द-ओ-दवा की बातें </div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">हैं फ़क़त सूद-ओ-ज़ियाँ , बुग्ज़-ओ-अना की बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">हाल-ए-दिल हम ने सुनाया तो ज़रा बात चली</div>
<div class="_d97"><span class="_5yl5">हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें</span></div>
<div class="_d97">.</div>
<div class="_d97">बुरा कहता है ज़माना , तो कहे ना , सालिम</div>
<div class="_d97"><div class="_d97"><div class="_d97"><span class="_5yl5">उम्र भर हमने कहाँ, किसकी ,सुना की बातें ?</span></div>
<div class="_d97"></div>
<div class="_d97"> -सालिम शेख </div>
<div class="_d97">''मौलिक एवं अप्रकाशित ''</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>क़ातिल का मज़हब (लघुकथा )tag:openbooks.ning.com,2015-07-22:5170231:BlogPost:6795862015-07-22T08:30:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p><span>आज एक महीना होने को आया था और क़लम ऐसी जड़ हुई थी कि आगे बढ़ने का नाम ही ना लेतीI</span></p>
<p><span> ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हुआ था ,कि वो लिखने बैठता और पूरा पूरा दिन गुज़र जाने पर भी काग़ज़ कोरा रह जाता, लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी ,आज खयालात उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहे थे , वो जानता था कि उसे क्या लिखना है ,कहानी के सारे किरदार उसके ज़हन में मौजूद थे I</span></p>
<p><span>वो बूढी मज़लूम औरत , वो भोली सी कमसिन बच्ची , वो सफ्फ़ाक आँखों वाला बेरहम क़ातिल , सारे किरदार उसकी आँखों के सामने…</span></p>
<p><span>आज एक महीना होने को आया था और क़लम ऐसी जड़ हुई थी कि आगे बढ़ने का नाम ही ना लेतीI</span></p>
<p><span> ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हुआ था ,कि वो लिखने बैठता और पूरा पूरा दिन गुज़र जाने पर भी काग़ज़ कोरा रह जाता, लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी ,आज खयालात उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहे थे , वो जानता था कि उसे क्या लिखना है ,कहानी के सारे किरदार उसके ज़हन में मौजूद थे I</span></p>
<p><span>वो बूढी मज़लूम औरत , वो भोली सी कमसिन बच्ची , वो सफ्फ़ाक आँखों वाला बेरहम क़ातिल , सारे किरदार उसकी आँखों के सामने थे , लेकिन वो किरदार अभी तक बेनाम थे , बे मज़हब थे , वो बूढी औरत जो उसकी कहानी में बस दो लाइनों के बाद क़त्ल हो जाने वाली थी , उस सफ्फ़ाक आँखों वाले कातिल के साथ बैठी बड़े अजीब ढंग से मुस्कुरा रही थी , वो अपना नाम जानना चाहती थी , वो भोली कमसिन बच्ची जो उस क़त्ल की गवाह थी , वो जानना चाहती थी कि क़ातिल का मज़हब क्या है ताकि उस मज़हब से नफ़रत कर सके I</span></p>
<p><span>लेकिन वो अभी तक किरदारों को नाम नहीं दे पाया था , क्यूंकि वो इस क़त्ल का इलज़ाम किसी मज़हब पर नहीं डालना चाहता था , उसे तो बस उस क़ातिल के लिए एक नाम चाहिए था, लेकिन वो जानता था कि यहाँ हर मज़हब के अपने नाम और नामों के मज़हब होते हैं , वो सोचता रहा , सोचता रहा , लेकिन उस सफ्फ़ाक आँखों वाले क़ातिल को कोई नाम ना दे सका , और फिर आखिरकार गुस्से में आ कर उसने खून कर दिया अपने उस सफ्फ़ाक क़ातिल के किरदार का, उस बूढी औरत और कमसिन बच्ची ने रात भर जश्न मनाया उस किरदार की लाश पर , वो लाश जो अभी तक यूँ ही पड़ी थी , वो नहीं जानता था कि उस लाश का क्या करना है , उसे जलाना है या दफ़नाना है</span></p>
<p><span>'क्यूंकि वो नहीं जानता था कि क़ातिल का मज़हब क्या होता है '</span></p>
<p><span> -सालिम शेख</span></p>
<p><span> ''मौलिक एवं अप्राकाशित ''</span></p>ग़ज़ल : हमारा प्यार आँखों से अयाँ हो जायगा एक दिनtag:openbooks.ning.com,2015-06-29:5170231:BlogPost:6696922015-06-29T06:00:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>हमारा प्यार आँखों से अयाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p>छुपाना लाख चाहोगे बयाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>ये सब वहशत-ज़दा रातें इसी उम्मीद में गुज़रीं </p>
<p>कि तुम आओगे , रौशन ये समां हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>न टूटे दिल , न तन्हा रात , न भीगी हुई पलकें </p>
<p>मगर सब छीन कर बचपन,जवां हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>तुम्हारे सुर्ख होठों की महक में ऐसा जादू है </p>
<p>कि भवरों को भी फूलों का गुमाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>लिखो बस गीत उल्फ़त के और नग्मे प्यार के…</p>
<p>हमारा प्यार आँखों से अयाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p>छुपाना लाख चाहोगे बयाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>ये सब वहशत-ज़दा रातें इसी उम्मीद में गुज़रीं </p>
<p>कि तुम आओगे , रौशन ये समां हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>न टूटे दिल , न तन्हा रात , न भीगी हुई पलकें </p>
<p>मगर सब छीन कर बचपन,जवां हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>तुम्हारे सुर्ख होठों की महक में ऐसा जादू है </p>
<p>कि भवरों को भी फूलों का गुमाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p>लिखो बस गीत उल्फ़त के और नग्मे प्यार के गाओ </p>
<p> हमारा मुल्क सपनों का जहाँ हो जाएगा इक दिन </p>
<p></p>
<p></p>
<p>''मौलिक एवं अप्रकाशित'' </p>
<p></p>नज़्म: सवालtag:openbooks.ning.com,2015-06-04:5170231:BlogPost:6622052015-06-04T08:10:56.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>एक तवील ख़ामोशी <br></br>ज़हन के दरीचे में <br></br>ख़ामोशी ज़बाँ की नहीं <br></br>ख़ामोशी ख्यालों की <br></br>ज़हन में जो उठते थे <br></br>उन सभी सवालों की</p>
<p>सवाल कुछ हैं दुनिया से <br></br>जवाब जिनके मिलने की <br></br>उम्मीद छोड़ दी मैंने <br></br>सवाल कुछ है अपनों से <br></br>जवाब जिनके मालुम हैं <br></br>पर उन्ही से सुनने हैं</p>
<p>सवाल कुछ हैं खुद से भी <br></br>सवाल हर एक लम्हे का <br></br>ज़िन्दगी के सफ्हे पर <br></br>जो गुज़र गया पहले <br></br>या गुजरने वाला है <br></br>क्या वो दे गया मुझको <br></br>बजुज़ चंद और सवालों के</p>
<p>जवाब जिनके मिलने तक…</p>
<p>एक तवील ख़ामोशी <br/>ज़हन के दरीचे में <br/>ख़ामोशी ज़बाँ की नहीं <br/>ख़ामोशी ख्यालों की <br/>ज़हन में जो उठते थे <br/>उन सभी सवालों की</p>
<p>सवाल कुछ हैं दुनिया से <br/>जवाब जिनके मिलने की <br/>उम्मीद छोड़ दी मैंने <br/>सवाल कुछ है अपनों से <br/>जवाब जिनके मालुम हैं <br/>पर उन्ही से सुनने हैं</p>
<p>सवाल कुछ हैं खुद से भी <br/>सवाल हर एक लम्हे का <br/>ज़िन्दगी के सफ्हे पर <br/>जो गुज़र गया पहले <br/>या गुजरने वाला है <br/>क्या वो दे गया मुझको <br/>बजुज़ चंद और सवालों के</p>
<p>जवाब जिनके मिलने तक <br/>सवालों की नई दुनिया <br/>आबाद होंगी ज़हनों में <br/>सवाल जो न सुलझेंगे <br/>ज़िन्दगी की उलझन में</p>
<p>सवाल जो कि खुशियों पर <br/>पहरे लगा के बैठेंगे <br/>हर सुबह झिन्झोड़ेंगे<br/>नींद से जगाएंगे <br/>और रात तक हर एक <br/>लम्हे को मुझ से छीनेंगे</p>
<p>और एक दिन जब मैं <br/>मौत के मुहाने पर <br/>ज़िन्दगी के हासिल को <br/>जोड़ने जो बैठूँगा</p>
<p>तो चंद सवालों के सिवा <br/>और कुछ भी जीने का <br/>हासिल जो न नज़र आया</p>
<p>उस वक़्त जो उठ्ठेगा<br/>सवाल एक और कि जिसका <br/>जवाब भी ना सूझेगा</p>
<p>कि क्या मेरे जीने का <br/>हासिल बस एक सवाल ही है ?<br/>उसी सवाल के डर से <br/>ओढ़ ली है ख़ामोशी</p>
<p>ख़ामोशी ज़बां की नहीं <br/>ख़ामोशी ख्यालों की <br/>ज़हन में जो उठते हैं <br/>उन सभी सवालों की</p>
<p></p>
<p>-सालिम शेख </p>
<p></p>
<p>''मौलिक व अप्रकाशित ''</p>कविता : अमनtag:openbooks.ning.com,2015-05-25:5170231:BlogPost:6584492015-05-25T06:21:34.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p><span>मेरा मज़हब सच्चा है</span></p>
<p><span>अमन सिखाता है</span></p>
<p><span>खूंरेजी से नफरत है हमें</span></p>
<p><span>और नाज़ है मुझे अपने मज़हब पर</span></p>
<p><span>कुछ लोग फैलाते हैं झूठी सच्ची कहानियां</span></p>
<p><span>कि हम दुश्मन हैं अमन के</span></p>
<p><span>कि हम नफरतें बांटते हैं</span></p>
<p><span>कि हमें क़द्र नहीं इंसानी जानों की</span></p>
<p><span>क़सम है मुझे अपने पुर अम्न मज़हब की</span></p>
<p><span>जो मुझे मिल जाएँ वो लोग जो फैलातें हैं ये…</span></p>
<p><span>मेरा मज़हब सच्चा है</span></p>
<p><span>अमन सिखाता है</span></p>
<p><span>खूंरेजी से नफरत है हमें</span></p>
<p><span>और नाज़ है मुझे अपने मज़हब पर</span></p>
<p><span>कुछ लोग फैलाते हैं झूठी सच्ची कहानियां</span></p>
<p><span>कि हम दुश्मन हैं अमन के</span></p>
<p><span>कि हम नफरतें बांटते हैं</span></p>
<p><span>कि हमें क़द्र नहीं इंसानी जानों की</span></p>
<p><span>क़सम है मुझे अपने पुर अम्न मज़हब की</span></p>
<p><span>जो मुझे मिल जाएँ वो लोग जो फैलातें हैं ये अफवाहें</span></p>
<p><span>जो गढ़ते हैं ये फ़रेब , सियाह करते हैं हमारे माथे को</span></p>
<p><span>जो मिल जाएँ तो</span></p>
<p><span>काट कर रख दें उनकी वो फ़रेबी ज़बानें</span></p>
<p><span>उतार दें वो सर शानों से</span></p>
<p><span>पाक कर दें ज़मीन को उन नापकों से</span></p>
<p><span>उनके लहू से साफ़ कर दें वो दाग़ जो वो लगा गए</span></p>
<p><span>मिटा दें वो स्याही जिससे बदनुमा हो गई थीं हमारी शक्लें</span></p>
<p><span>ताकि फिर न उठ्ठे कोई सवाल</span></p>
<p><span>हमारी 'अमन पसंदी' पर</span></p>
<p></p>
<p><span>-सालिम शेख </span></p>
<p></p>
<p>''मौलिक व अप्रकाशित ''</p>ग़ज़लtag:openbooks.ning.com,2014-12-10:5170231:BlogPost:5936472014-12-10T10:00:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p><span>हूँ महफ़िलों में तन्हा, खुद की नज़र में रुस्वा</span></p>
<p><span>हर एक रंग फीका , हर एक शै फसुर्दा</span><br></br> <br></br> <span>आवाज़ें दोस्तों की ,मुझ से नहीं हैं गोया</span><br></br> <span>ज़िंदा दिली भी जैसे , करती है मुझ से पर्दा</span><br></br> <br></br> <span>क्या ग़म है ज़िन्दगी में , तुमको बताऊँ कैसे</span><br></br> <span>अब तक हुआ नहीं है , ये राज़ मुझे पे अफ़्शाँ</span><br></br> <br></br> <span>उलझन है कैसी दिल की ? उलझन यही है मुझको</span><br></br> <span>रंग ज़िन्दगी से रूठे , दिल भी रंगों से रूठा…</span><br></br></p>
<p><span>हूँ महफ़िलों में तन्हा, खुद की नज़र में रुस्वा</span></p>
<p><span>हर एक रंग फीका , हर एक शै फसुर्दा</span><br/> <br/> <span>आवाज़ें दोस्तों की ,मुझ से नहीं हैं गोया</span><br/> <span>ज़िंदा दिली भी जैसे , करती है मुझ से पर्दा</span><br/> <br/> <span>क्या ग़म है ज़िन्दगी में , तुमको बताऊँ कैसे</span><br/> <span>अब तक हुआ नहीं है , ये राज़ मुझे पे अफ़्शाँ</span><br/> <br/> <span>उलझन है कैसी दिल की ? उलझन यही है मुझको</span><br/> <span>रंग ज़िन्दगी से रूठे , दिल भी रंगों से रूठा</span><br/> <br/> <span>अपने ग़मों के बाइस , खुश देखता हूँ तुमको</span><br/> <span>शायद उसी ख़ुशी से , रखता हूँ खुद को ज़िंदा<br/></span></p>
<p><span>.</span></p>
<p><span>-सालिम शेख </span></p>
<p><span><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>ग़ज़ल : जिया गुमनाम हूँ तो मौत को तशहीर मत देनाtag:openbooks.ning.com,2014-09-16:5170231:BlogPost:5754302014-09-16T08:00:00.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>नए ज़हनों को छूने दो अदब के अनछुए पहलू</p>
<p><span>इन्हे मीरास में उलझी हुई ज़न्जीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>लबों को सी लिया मैने,खुदा ये बस में था मेरे</p>
<p><span>जो आहें दिल से उठ जाएं उन्हें तासीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>नई है नस्ल नई जंगें नए हथियार भी होंगे</p>
<p>क़लम दो मुल्क के हाथों में अब शमशीर मत देना</p>
<p></p>
<p><span>मचल जाए ना मेरी रूह फिर दुनिया में आने को</span></p>
<p><span>जिया गुमनाम हूँ तो मौत को तशहीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>रहूँ मैं मुन्हसिर दीदार…</p>
<p>नए ज़हनों को छूने दो अदब के अनछुए पहलू</p>
<p><span>इन्हे मीरास में उलझी हुई ज़न्जीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>लबों को सी लिया मैने,खुदा ये बस में था मेरे</p>
<p><span>जो आहें दिल से उठ जाएं उन्हें तासीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>नई है नस्ल नई जंगें नए हथियार भी होंगे</p>
<p>क़लम दो मुल्क के हाथों में अब शमशीर मत देना</p>
<p></p>
<p><span>मचल जाए ना मेरी रूह फिर दुनिया में आने को</span></p>
<p><span>जिया गुमनाम हूँ तो मौत को तशहीर मत देना</span></p>
<p></p>
<p>रहूँ मैं मुन्हसिर दीदार को कागज़ के टुकड़े पर ?<br/> मुझे तो चाँद है काफी भले तस्वीर मत देना</p>
<p></p>
<p><span>-</span>सालिम शेख</p>
<p></p>
<p><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></p>ग़ज़ल:ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़सानाtag:openbooks.ning.com,2013-09-18:5170231:BlogPost:4372262013-09-18T12:02:32.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>मंज़िल पे खड़ा हो के सफ़र ढूँढ रहा हूँ<br></br>हूँ साए तले फिर भी शजर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>औरों से मफ़र ढूँढूं ये क़िस्मत कहाँ मेरी?<br></br>मैं खुद की निगाहों से मफ़र ढूँढ रहा हूँ </p>
<p></p>
<p>दंगे बलात्कार क़त्ल-ओ-खून ही मिले<br></br>अख़बार मे खुशियों की खबर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>शोहरत की किताबों के ज़ख़ायर नही मतलूब<br></br>जो दिल को सुकूँ दे वो सतर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना <br></br>वाक़िफ़ नही मंज़िल से मगर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>ये हिंदू का शहर है…</p>
<p>मंज़िल पे खड़ा हो के सफ़र ढूँढ रहा हूँ<br/>हूँ साए तले फिर भी शजर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>औरों से मफ़र ढूँढूं ये क़िस्मत कहाँ मेरी?<br/>मैं खुद की निगाहों से मफ़र ढूँढ रहा हूँ </p>
<p></p>
<p>दंगे बलात्कार क़त्ल-ओ-खून ही मिले<br/>अख़बार मे खुशियों की खबर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>शोहरत की किताबों के ज़ख़ायर नही मतलूब<br/>जो दिल को सुकूँ दे वो सतर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना <br/>वाक़िफ़ नही मंज़िल से मगर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>ये हिंदू का शहर है वो मुसलमान की बस्ती<br/>बस वो ही नही मैं जो नगर ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p>माँ मुझको खिलौनों की नही कोई ज़रूरत<br/>बस तेरी मोहब्बत की नज़र ढूँढ रहा हूँ</p>
<p></p>
<p></p>
<p><br/>-सालिम शेख<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>ग़ज़ल:मुजरिम मैं नहीं,पर मुफ़लिसी..........tag:openbooks.ning.com,2013-09-15:5170231:BlogPost:4359282013-09-15T16:32:20.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p>मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है<br/> दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन<br/> सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई <br/>मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का <br/>ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है</p>
<p><br/>~सालिम शेख <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है<br/> दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन<br/> सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई <br/>मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है</p>
<p></p>
<p>यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का <br/>ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है</p>
<p><br/>~सालिम शेख <br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>मरियमtag:openbooks.ning.com,2013-09-15:5170231:BlogPost:4354762013-09-15T05:29:20.000Zsaalim sheikhhttp://openbooks.ning.com/profile/saalimsheikh
<p><span>वो जन्नत है,वो रहमत है,वो मेराज-ए-मोहब्बत है</span><br/><span>समंदर मेँ कहाँ, जो माँ की ममता में है गहराई</span><br/><br/><span>उसी की तरबियत से इस चमन में फूल खिलते हैँ</span><br/><span>बिना मरियम के क्या ईसा और ईसा की मसीहाई</span><br/><br/><span>-सालिम शेख</span></p>
<p><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></p>
<p><span>वो जन्नत है,वो रहमत है,वो मेराज-ए-मोहब्बत है</span><br/><span>समंदर मेँ कहाँ, जो माँ की ममता में है गहराई</span><br/><br/><span>उसी की तरबियत से इस चमन में फूल खिलते हैँ</span><br/><span>बिना मरियम के क्या ईसा और ईसा की मसीहाई</span><br/><br/><span>-सालिम शेख</span></p>
<p><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></p>