NEERAJ KHARE's Posts - Open Books Online2024-03-19T08:46:16ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHAREhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991288299?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0lvt7gesdd01f&xn_auth=noअभिलाषा (व्यंग्य कविता)tag:openbooks.ning.com,2016-06-06:5170231:BlogPost:7735422016-06-06T02:00:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।<br/> चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।<br/> लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।<br/> गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।<br/> बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।<br/> हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।<br/> मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।</p>
<p>.<br/> (नीरज खरे)<br/> मौलिक एवम् अप्रकाशित</p>
<p>चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।<br/> चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।<br/> लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।<br/> गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।<br/> बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।<br/> हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।<br/> मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।</p>
<p>.<br/> (नीरज खरे)<br/> मौलिक एवम् अप्रकाशित</p>कविता (माँ)tag:openbooks.ning.com,2016-05-31:5170231:BlogPost:7717072016-05-31T03:30:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>हे माँ तेरे चरणों की मैं धूल कहाँ से लाऊंगा,<br></br> रग रग में तू बसी हुई मैं भूल कहाँ से पाऊंगा।<br></br> <br></br> तिनका तिनका बड़ा हुआ मैं ममता की इन छाँव में,<br></br> बात बात पर मुझे सिखाती किताब कहाँ से लाऊंगा।।<br></br> <br></br> सबसे लड़ती मेरी खातिर गली मोहल्ले गांव में,<br></br> अब सब बन गए मेरे दुश्मन कैसे मैं बच पाउँगा<br></br> <br></br> याद है एक दिन तूने मुझको यही पाठ सिखलाया था,<br></br> भाव सरल और मधुर वचन का सच्चा पाठ पढ़ाया था।।<br></br> <br></br> दीन दुःखी की सेवा कर फिर जग में नाम कमाया था,<br></br> बनकर तेरे जैसा मैं अब कुछ…</p>
<p>हे माँ तेरे चरणों की मैं धूल कहाँ से लाऊंगा,<br/> रग रग में तू बसी हुई मैं भूल कहाँ से पाऊंगा।<br/> <br/> तिनका तिनका बड़ा हुआ मैं ममता की इन छाँव में,<br/> बात बात पर मुझे सिखाती किताब कहाँ से लाऊंगा।।<br/> <br/> सबसे लड़ती मेरी खातिर गली मोहल्ले गांव में,<br/> अब सब बन गए मेरे दुश्मन कैसे मैं बच पाउँगा<br/> <br/> याद है एक दिन तूने मुझको यही पाठ सिखलाया था,<br/> भाव सरल और मधुर वचन का सच्चा पाठ पढ़ाया था।।<br/> <br/> दीन दुःखी की सेवा कर फिर जग में नाम कमाया था,<br/> बनकर तेरे जैसा मैं अब कुछ तो पुण्य कमाऊँगा।<br/> <br/> लेकिन अच्छे कर्मों की मैं पूंजी कहाँ से लाऊंगा<br/> हे माँ तेरे चरणों की मैं धूल कहाँ से लाऊंगा।।</p>
<p>.</p>
<p>(नीरज खरे)<br/> 9473871781<br/> (मौलिक एवम् अप्रकाशित)</p>जाम रे (व्यंग कविता)tag:openbooks.ning.com,2016-05-23:5170231:BlogPost:7677142016-05-23T10:00:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>शहर के इस जाम में<br></br> पत्नी को बाइक पे टांग के<br></br> मैं जा रहा था काम से<br></br> तभी अचानक एक विक्रेता<br></br> बोला सीना तान के<br></br> छांट बीनकर माल खरीदो<br></br> बेंचू मैं कम दाम में<br></br> मैंने बोला भीड़ बहुत है<br></br> फिर आऊंगा आराम से<br></br> बोला दीदी कितनी सुंदर<br></br> उनके कुछ अरमान रे<br></br> तुम तो भइया बहुत काइयां<br></br> लगते कुछ शैतान रे<br></br> पहले बोलो क्यूं हो खोले<br></br> शॉप बीच मैदान में<br></br> हंसकर बोला खाकी वर्दी<br></br> साथ निभाए शान से<br></br> गाउन, मैक्सी,पर्स खरीदो<br></br> करते क्यूं परेशान रे<br></br> तभी…</p>
<p>शहर के इस जाम में<br/> पत्नी को बाइक पे टांग के<br/> मैं जा रहा था काम से<br/> तभी अचानक एक विक्रेता<br/> बोला सीना तान के<br/> छांट बीनकर माल खरीदो<br/> बेंचू मैं कम दाम में<br/> मैंने बोला भीड़ बहुत है<br/> फिर आऊंगा आराम से<br/> बोला दीदी कितनी सुंदर<br/> उनके कुछ अरमान रे<br/> तुम तो भइया बहुत काइयां<br/> लगते कुछ शैतान रे<br/> पहले बोलो क्यूं हो खोले<br/> शॉप बीच मैदान में<br/> हंसकर बोला खाकी वर्दी<br/> साथ निभाए शान से<br/> गाउन, मैक्सी,पर्स खरीदो<br/> करते क्यूं परेशान रे<br/> तभी अचानक नज़र पड़ गई<br/> पत्नी की मुस्कान पे<br/> पर्स मेरा सहला रही थी<br/> अटकी उसकी जान से<br/> उसकी मंशा समझ गया मैं<br/> नही हुआ हैरान रे<br/> खरीद के सामा घर आ गया<br/> फिर रात कटी आराम से<br/> <br/> (नीरज खरे)<br/>(मौलिक एवम् अप्रकाशित)</p>दबी आवाज़ (लघु कथा)tag:openbooks.ning.com,2014-01-26:5170231:BlogPost:5044402014-01-26T15:00:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>हमेशा खुशमिजाज रहने वाली माँ को आज गंभीर मुद्रा में देखकर मैनें कारण जानना चाहा तो वो बोली- बेटा तुम भाइयों में सबसे बड़े हो इसलिय तुमसे एक बात करना चाहती हूँ| हाँ-हाँ बोलो माँ मैनें उत्सुकता पूर्वक जानना चाहा|माँ ने दबी आवाज़ में कहना प्रारंभ किया-बेटा तुम्हारा अपना मकान लखनऊ में और बीच वाले का वाराणसी मे बना गया है किंतु तुम्हारा तीसरा भाई जो सबसे छोटा है उसका न तो अपना मकान है और न वो बनवा पायगा कियोंकि वो कम किढ़ा लिखा होंने के कारण अछी नौकरी न पा सका|तो क्या हुआ माँ ये आप और बाबूजी का…</p>
<p>हमेशा खुशमिजाज रहने वाली माँ को आज गंभीर मुद्रा में देखकर मैनें कारण जानना चाहा तो वो बोली- बेटा तुम भाइयों में सबसे बड़े हो इसलिय तुमसे एक बात करना चाहती हूँ| हाँ-हाँ बोलो माँ मैनें उत्सुकता पूर्वक जानना चाहा|माँ ने दबी आवाज़ में कहना प्रारंभ किया-बेटा तुम्हारा अपना मकान लखनऊ में और बीच वाले का वाराणसी मे बना गया है किंतु तुम्हारा तीसरा भाई जो सबसे छोटा है उसका न तो अपना मकान है और न वो बनवा पायगा कियोंकि वो कम किढ़ा लिखा होंने के कारण अछी नौकरी न पा सका|तो क्या हुआ माँ ये आप और बाबूजी का बनवाया मकान जिसमें छोटा भाई रह रहा है उसी का तो है| मैं बोला| बेटा मैं जानती हूँ तुम दोनों भाई अपने छोटे भाई से बहुत प्यार करते हो इसलिय तुम लोगों से मुझे कोई ख़तरा नहीं है| मैं डरती हूँ तो सिर्फ़ बहुओं से कि कँहि मेरे मरने के बाद वो इस मकान का बँटवारा कर हिस्सा न माँगने लगें| माँ की बात सुन मैं दो पल के लिए मौन हो गया फिर माँ को विस्वास दिलाते हुए उनकी तरफ से एक वसीयतनामा वकील के माध्यम से बनवाकर माँ को सौप दिया जिसमें छोटे भाई को माँ-बाप की सारी संपत्ति पाने का अधिकार प्राप्त हो सके| मगर माँ वसीयतनामे को पढ़कर रोने लगी बोली-इसमें तो लिखा है कि मेरा छोटा बेटा ही मेरी देखरेख करता है बाकी दोनो बड़े बेटे अपने परिवार क साथ अपने मकान में रहते हैं जो कभी-कभी उनसे मिलने आ जाते हैं| मैनें कहा-माँ इसमें रोने की बात नही है ये कोर्ट कचहरी की भाषा है यदि छोटे भाई की तरफ़दारी नही की जाएगी तो उसके नाम सब कुछ कैसे होगा| अच्छा..तो तुम लोग मुझसे नाराज़ नहीं हो माँ ने आँसू पोंछकर अपने तीनों बेटों को गले से लगा लिया| </p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवम् अप्रकाशित)</p>दो कवितायेँtag:openbooks.ning.com,2013-12-19:5170231:BlogPost:4892672013-12-19T15:30:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>(1)</p>
<p><strong>आयो मेरे पास आयो<br></br></strong></p>
<p>.</p>
<p>देश मेरा उजड़ रहा है<br></br> आओ मेरे पास आओ<br></br> कितने ही दुख भोग रहा है<br></br> आओ मेरे पास आओ <br></br> एक तरफ चाकू है चलता<br></br> दूसरी तरफ नरसंहार है<br></br> आतंकवाद है उससे ऊपर<br></br> सबसे ऊपर बलात्कार है<br></br> कितनों के दिल तोड़े इसने<br></br> घर कितनो के उजाड़े हैं<br></br> आँख के तारे छीने इसने <br></br> माँग के सिंदूर उजाड़े हैं<br></br> पाप की नगरी से डर लगता<br></br> आकर मुझको गले लगाओ<br></br> तुमसे बिछड़ न जाऊँ कहीं मैं<br></br> आयो मेरे पास…</p>
<p>(1)</p>
<p><strong>आयो मेरे पास आयो<br/></strong></p>
<p>.</p>
<p>देश मेरा उजड़ रहा है<br/> आओ मेरे पास आओ<br/> कितने ही दुख भोग रहा है<br/> आओ मेरे पास आओ <br/> एक तरफ चाकू है चलता<br/> दूसरी तरफ नरसंहार है<br/> आतंकवाद है उससे ऊपर<br/> सबसे ऊपर बलात्कार है<br/> कितनों के दिल तोड़े इसने<br/> घर कितनो के उजाड़े हैं<br/> आँख के तारे छीने इसने <br/> माँग के सिंदूर उजाड़े हैं<br/> पाप की नगरी से डर लगता<br/> आकर मुझको गले लगाओ<br/> तुमसे बिछड़ न जाऊँ कहीं मैं<br/> आयो मेरे पास आयो</p>
<p>----------------------------------------</p>
<p>(2)</p>
<p><strong>उग्रवाद</strong></p>
<p>पर लग जाते खग से मुझसे<br/> धरा छोड़ उड़ जाता नभ में<br/> जाति पाति का भेद न होता<br/> आपस मे कुछ द्वेश न होता<br/> उग्रवाद का नाम न होता<br/> हथियारों का काम न होता<br/> मानव का फिर लहू न बहता<br/> नीला अम्बर लाल न होता </p>
<p>....................................</p>
<p><br/> मौलिक और अप्रकाशित</p>प्यार अमर कर जाएगें (गीत)tag:openbooks.ning.com,2013-12-17:5170231:BlogPost:4883062013-12-17T14:02:51.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>खाकर इक दूजे की कसम<br></br>हम प्यार अमर कर जाएँगे<br></br>कोई रोक सके तो रोक ले हमको<br></br>हम न जुदा हो पाएँगे<br></br>हम बगिया के फूल नहीं<br></br>जो हमको कोई ऊज़ाडेगा</p>
<p>हम ने की नही भूल कोई<br></br>जो हम को कोई सुधारेगा<br></br>लैला मजनूं के बाद अब हम<br></br>इतिहास में नाम लिखाएगें<br></br>कोई रोक........................</p>
<p>पतझड़ सावन बसंत बहार<br></br>ऋीतुएँ होती हैं ये चार<br></br>एक भी मौसम नही है ऐसा<br></br>जिसमें हम कर सकें न प्यार<br></br>बुरी नज़र जो डालेगा उसका<br></br>मुह काला कर…</p>
<p>खाकर इक दूजे की कसम<br/>हम प्यार अमर कर जाएँगे<br/>कोई रोक सके तो रोक ले हमको<br/>हम न जुदा हो पाएँगे<br/>हम बगिया के फूल नहीं<br/>जो हमको कोई ऊज़ाडेगा</p>
<p>हम ने की नही भूल कोई<br/>जो हम को कोई सुधारेगा<br/>लैला मजनूं के बाद अब हम<br/>इतिहास में नाम लिखाएगें<br/>कोई रोक........................</p>
<p>पतझड़ सावन बसंत बहार<br/>ऋीतुएँ होती हैं ये चार<br/>एक भी मौसम नही है ऐसा<br/>जिसमें हम कर सकें न प्यार<br/>बुरी नज़र जो डालेगा उसका<br/>मुह काला कर जाएँगें<br/>कोई.....................<br/>हम......................<br/>मौलिक और अप्रकाशित</p>श्रद्धाtag:openbooks.ning.com,2013-12-16:5170231:BlogPost:4878912013-12-16T13:30:00.000ZNEERAJ KHAREhttp://openbooks.ning.com/profile/NEERAJKHARE
<p>रिटायरमेंट के छह महीने बाद कैंसर से पीड़ित बाबूजी के देहांत होने पर परिवार के सभी लोग दुखी थे. किंतु सबसे ज़्यादा दुखी उनका बेटा माखन था, रो रोकर उसका बुरा हाल था इसलिए नही कि उसका बाप मर गया था बल्कि वो यह सोच रहा था कि जब मरना ही था तो नौकरी मे रहते क्यूँ न मरे उसे उनकी जगह नौकरी मिल जाती; उसकी जिंदगी संवर जाती वर्ना लम्बा जीते ताकि उनकी पेंशन से उसका परिवार पल बढ़ जाता.तभी अचानक पड़ोसी ने पूछा दाह संस्कार किस रीति रिवाज़ से करेंगे. माखन अपने मरे बाप का कम से कम पैसे में अंतिम संस्कार करना…</p>
<p>रिटायरमेंट के छह महीने बाद कैंसर से पीड़ित बाबूजी के देहांत होने पर परिवार के सभी लोग दुखी थे. किंतु सबसे ज़्यादा दुखी उनका बेटा माखन था, रो रोकर उसका बुरा हाल था इसलिए नही कि उसका बाप मर गया था बल्कि वो यह सोच रहा था कि जब मरना ही था तो नौकरी मे रहते क्यूँ न मरे उसे उनकी जगह नौकरी मिल जाती; उसकी जिंदगी संवर जाती वर्ना लम्बा जीते ताकि उनकी पेंशन से उसका परिवार पल बढ़ जाता.तभी अचानक पड़ोसी ने पूछा दाह संस्कार किस रीति रिवाज़ से करेंगे. माखन अपने मरे बाप का कम से कम पैसे में अंतिम संस्कार करना चाह रहा था वो ज़ोर से चीखा चिल्लाया:</p>
<p>"बाबूजी मुझसे कहा करते थे कि उनका दाह संसकार विद्युत् शवदाह ग्रह में किया जाए और दसवा तेरहवीं में फ़िज़ूल खर्च बिल्कुल न किया जाए"<br/> ऐसा ही किया गया. मगर सब स्तब्ध थे कि माखन का बाप तो गूंगा था..............</p>
<p>.</p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>