JAWAHAR LAL SINGH's Posts - Open Books Online2024-03-28T09:43:55ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGHhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991277837?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0kecwl7jh6lde&xn_auth=noमुखर्जी बाबू का विजयदसमीtag:openbooks.ning.com,2021-10-17:5170231:BlogPost:10711802021-10-17T17:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>मुखर्जी बाबू सेवा निवृत्ति के बाद इस बार दुर्गापूजा के समय बेटे रोहन के बार-बार आग्रह करने पर उसी के पास हैदराबाद में आ गए हैं। वैसे तो वे अपनी पत्नी के साथ भवानीपुर वाले मकान में ही रहते थे। रोहन, अपर्णा और बंटी के साथ हर-साल दुर्गा पूजा में अपने घर आते थे। वे लोग बाबा और माँ के लिए नए कपड़े आदि उपहार लेकर आते थे। मिठाइयां मुखर्जी बाबू खुद बाजार सेखरीदकर लाते थे। मिसेज मुखर्जी भी अपने पूरे परिवार के लिए घर में ही कुछ अच्छे-अच्छे सुस्वादु पकवान और मछली अपने हाथ से बनाती थी। उनकी बहू अपर्णा भी…</p>
<p>मुखर्जी बाबू सेवा निवृत्ति के बाद इस बार दुर्गापूजा के समय बेटे रोहन के बार-बार आग्रह करने पर उसी के पास हैदराबाद में आ गए हैं। वैसे तो वे अपनी पत्नी के साथ भवानीपुर वाले मकान में ही रहते थे। रोहन, अपर्णा और बंटी के साथ हर-साल दुर्गा पूजा में अपने घर आते थे। वे लोग बाबा और माँ के लिए नए कपड़े आदि उपहार लेकर आते थे। मिठाइयां मुखर्जी बाबू खुद बाजार सेखरीदकर लाते थे। मिसेज मुखर्जी भी अपने पूरे परिवार के लिए घर में ही कुछ अच्छे-अच्छे सुस्वादु पकवान और मछली अपने हाथ से बनाती थी। उनकी बहू अपर्णा भी एक कुशल गृहिणी की तरह अपनी सासू-<span>माँ के साथ हर काम में उनके आदेशानुसार हाथ बँटाती थी। फिर वे लोग देवी दर्शन के लिए पूजा पंडाल में जाते थे। विजयदसमी के दिन रोहन, अपर्णा और बंटी तीनों ही बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे। दोनों पति-पत्नी अपनी हैसियत के अनुसार बेटे-बहू और पोते को कुछ नगद राशि आशीर्वाद के साथ देते थे। जिन्हे वे लोग अपने माथे से लगाकर रख लेते थे।</span></p>
<p>पर, <span>इस बार लंबी छुट्टी न मिलने के कारण रोहन सपरिवार भवानीपुर नहीं आ सके बल्कि आग्रहपूर्वक टिकट भेजकर हैदराबाद में ही माँ और बाबा को बुला लिया। हैदराबाद में दुर्गापूजा में बहुत ज्यादा रौनक नहीं होती। यहाँ तो गणेश-पूजा बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। जहां बंगालियों की संख्या अधिक होती है वहीं पर कुछ बंगाली और बिहार-झारखंड वाले मिलकर दुर्गापूजा और विजयदसमी मनाते हैं। कोरोना काल में प्रतिबंध के चलते इस बार वह भी न हुआ और सभी ने अपने-अपने घरों में ही पूजा की और घर का बना या बाहर से मंगाया गया भोजन किया। रोहन ने भी नवमी, दसमी दोनों ही दिन बाहर से ही खाना मँगवा लिया और सभी लोगों ने मिलकर घर में ही खाना खाया।</span></p>
<p>विजयदसमी के दिन पैर छूकर आशीर्वाद लेने की प्रथा है। इसलिए इस बार मुखर्जी बाबू और मिसेज मुखर्जी दोनों ने अपने पास पाँच-पाँच सौ रुपये के तीन नोट अपने पास सुरक्षित रख लिए ताकि जब वे लोग पैर छूने के लिए आएंगे तो उन्हे आशीर्वाद के रूप में देंगे। किन्तु यह क्या? दोपहर का खाना हो गया शाम की चाय भी हो गई कोई इन दोनों से आशीर्वाद लेने नहीं आया। अब रात के खाने का भी समय हो गया था। पैक खाना आ चुका था। पैकेट खोलकर खाना टेबल पर लगा दिया गया। सभी खा चुके पर एक बात सभी शायद भूल रहे थे। खाना खाकर रोहन और अपर्णा अपने-अपने लैपटॉप में व्यस्त हो गए और बंटी भी अपने मोबाईल में व्यस्त हो गया।</p>
<p>मुखर्जी बाबू अधीर हो रहे थे। अंत में उन्होंने आवाज दी – “बंटी बेटा, क्या कर रहे हो?”</p>
<p>“आया दादा जी” कहते हुए बंटी दादा जी के पास में बैठ गया।</p>
<p>मुखर्जी बाबू ने कहा- “बेटा शायद तुम भूल रहे हो। हर साल विजोया दोसमी के दिन दादा दादी के पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे।“</p>
<p>“हाँ, हाँ, सॉरी दादा जी!” उसने शरमाते हुए झट दादा और दादी के दोनों पैरों पर अपने दोनों हाथ रखकर सिर से लगाया। दादा और दादी ने बंटी को पाँच-पाँच सौ रुपये के नोट दिए जिसे बंटी ने “थैंक यू दादाजी!” और “थैंक यू दादीजी!” कहते हुए ले लिए।</p>
<p>उसके बाद मुखर्जी बाबू ने बंटी से कहा - “जाकर मम्मी पापा के भी पैर छूकर आशीर्वाद लो।“</p>
<p>बंटी ने वैसा ही किया। फिर अपर्णा भी सकुचाती-शर्माती हुई आई और अपने सास-ससुर के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। उसे भी सास और ससुर की तरफ से पाँच-पाँच सौ रुपये मिले जिसे उसने अपने सिर से लगाकर रख लिया।</p>
<p>उसके पीछे रोहन भी झेंपते हुए आया – “असल में बाबा, ऑफिस का इतना काम रहता है कि हम तो भूल ही गए इस बार। कहने को तो घर से काम करना होता है, पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है।“</p>
<p>उसके बाद उसने भी माँ पिता जी के चरण स्पर्श किए और सिर से लगाया। </p>
<p>दोनों ने उसे भी पाँच सौ रुपये देने चाहे पर इस बार रोहन ने रुपये लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया - “माँ-बाबा ये रुपये आप अपने पास ही रखिए। हमलोगों के लिए आपका आशीर्वाद ही काफी है।“ मुखर्जी बाबू ने अपनी पत्नी की तरफ झेंपते हुए देखा – मानो कह रहे हों – देख रही हो न सुलोचना यही रोहन कभी पाँच रुपये के लिए कितना जिद्द करता था। और आज पाँच सौ रुपये लेने से इनकार कर रहा है।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>खुद्दारtag:openbooks.ning.com,2019-07-10:5170231:BlogPost:9874082019-07-10T10:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<div><span style="font-size: 10pt;">सौंपी थी जिसे <span class="replaced">चाबी</span> खुद्दार समझकर</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">सारा सामान लेकर <span class="replaced">चाबी</span> वो दे गया</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">करता रहा भरोसा ताउम्र उसी पर</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">गुस्ताख़ की <span class="replaced">शक्ल</span> भी <span class="replaced">धुँधला</span> वो कर गया.</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">मायूस न हो …</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">सौंपी थी जिसे <span class="replaced">चाबी</span> खुद्दार समझकर</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">सारा सामान लेकर <span class="replaced">चाबी</span> वो दे गया</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">करता रहा भरोसा ताउम्र उसी पर</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">गुस्ताख़ की <span class="replaced">शक्ल</span> भी <span class="replaced">धुँधला</span> वो कर गया.</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">मायूस न हो <span class="replaced">ज़िंदगी</span> बस थोड़ा सब्र कर</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">उसका ही था ये मान न वो तेरा ले गया.</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;"><span class="replaced">ख़ुदा</span> ने दी है रहमत <span class="replaced">आख़िर</span> किसलिए</span></div>
<div><span style="font-size: 10pt;">अपना तू रख ईमान क्या बसेरा ले गया!</span></div>
<p><span style="font-size: 10pt;">(मौलिक और अप्रकाशित) </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 10pt;"> - जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर </span></p>कुछ दोहे - क्रोध परtag:openbooks.ning.com,2019-02-06:5170231:BlogPost:9729592019-02-06T17:20:24.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p></p>
<p>बड़े लोग कहते रहे, जीतो काम व क्रोध.</p>
<p>पर ये तो आते रहे, जीवन के अवरोध. </p>
<p>माफी मांगो त्वरित ही, हो जाए अहसास.</p>
<p>होगे छोटे तुम नहीं, बिगड़े ना कुछ ख़ास.</p>
<p>क्रोध अगर आ जाय तो, चुप बैठो क्षण आप.</p>
<p>पल दो पल में हो असर, मिट जाएगा ताप .</p>
<p>रोकर देखो ही कभी, मन को मिलता चैन.</p>
<p>बीती बातें भूल जा, त्वरित सुधारो बैन .</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p></p>
<p>बड़े लोग कहते रहे, जीतो काम व क्रोध.</p>
<p>पर ये तो आते रहे, जीवन के अवरोध. </p>
<p>माफी मांगो त्वरित ही, हो जाए अहसास.</p>
<p>होगे छोटे तुम नहीं, बिगड़े ना कुछ ख़ास.</p>
<p>क्रोध अगर आ जाय तो, चुप बैठो क्षण आप.</p>
<p>पल दो पल में हो असर, मिट जाएगा ताप .</p>
<p>रोकर देखो ही कभी, मन को मिलता चैन.</p>
<p>बीती बातें भूल जा, त्वरित सुधारो बैन .</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>कुछ मुक्तक आँखों परtag:openbooks.ning.com,2016-08-22:5170231:BlogPost:7938942016-08-22T01:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>अँखियों में अँखियाँ डूब गई,</p>
<p>अँखियों में बातें खूब हुई.</p>
<p>जो कह न सके थे अब तक वो,</p>
<p>दिल की ही बातें खूब हुई.</p>
<p>*</p>
<p>हमने न कभी कुछ चाहा था,</p>
<p>दुख हो, कब हमने चाहा था,</p>
<p>सुख में हम रंजिश होते थे,</p>
<p>दुख में भी साथ निबाहा था.</p>
<p>*</p>
<p>ऑंखें दर्पण सी होती है,</p>
<p>अन्दर क्या है कह देती है.</p>
<p>जब आँख मिली हम समझ गए,</p>
<p>बातें अमृत सी होती है.</p>
<p>*</p>
<p>आँखों में सपने होते हैं,</p>
<p>सपने अपने ही होते हैं,</p>
<p>आँखों में डूब जरा…</p>
<p>अँखियों में अँखियाँ डूब गई,</p>
<p>अँखियों में बातें खूब हुई.</p>
<p>जो कह न सके थे अब तक वो,</p>
<p>दिल की ही बातें खूब हुई.</p>
<p>*</p>
<p>हमने न कभी कुछ चाहा था,</p>
<p>दुख हो, कब हमने चाहा था,</p>
<p>सुख में हम रंजिश होते थे,</p>
<p>दुख में भी साथ निबाहा था.</p>
<p>*</p>
<p>ऑंखें दर्पण सी होती है,</p>
<p>अन्दर क्या है कह देती है.</p>
<p>जब आँख मिली हम समझ गए,</p>
<p>बातें अमृत सी होती है.</p>
<p>*</p>
<p>आँखों में सपने होते हैं,</p>
<p>सपने अपने ही होते हैं,</p>
<p>आँखों में डूब जरा देखो,</p>
<p>कितने गम अपने होते हैं?</p>
<p>*</p>
<p>जब रिश्ते रिसते थे हरदम,</p>
<p>आँखों से कटते थे तुम हम,</p>
<p>आँखों में कष्ट हुई जबसे,</p>
<p>कुछ और सन्निकट पहुँचे हम. </p>
<p>*</p>
<p>लीला प्रभु की भी न्यारी है,</p>
<p>जब चलने की तैयारी है,</p>
<p>बढ़ता जाता है प्रेम तभी,</p>
<p>आँखें फेरन की बारी है. </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>देश में रहकर मुहब्बत देश से करते चलो!tag:openbooks.ning.com,2016-06-07:5170231:BlogPost:7738072016-06-07T03:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>देश में रहकर मुहब्बत, देश से करते चलो! <br></br> देश आगे बढ़ रहा है, तुम भी डग भरते चलो.</p>
<p>.<br></br> देश जो कि दब चुका था, आज सर ऊंचा हुआ है,<br></br> देश के निर्धन के घर में, गैस का चूल्हा जला है<br></br> उज्ज्वला की योजना से, स्वच्छ घर करते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>देश भारत का तिरंगा, हर तरफ लहरा रहा,<br></br> ऊंची ऊंची चोटियों पर, शान से फहरा रहा,<br></br> युगल हाथों से पकड़ अब, कर नमन बढ़ते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>देश मेरा हर तरफ से, शांत व आबाद…</p>
<p>देश में रहकर मुहब्बत, देश से करते चलो! <br/> देश आगे बढ़ रहा है, तुम भी डग भरते चलो.</p>
<p>.<br/> देश जो कि दब चुका था, आज सर ऊंचा हुआ है,<br/> देश के निर्धन के घर में, गैस का चूल्हा जला है<br/> उज्ज्वला की योजना से, स्वच्छ घर करते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>देश भारत का तिरंगा, हर तरफ लहरा रहा,<br/> ऊंची ऊंची चोटियों पर, शान से फहरा रहा,<br/> युगल हाथों से पकड़ अब, कर नमन बढ़ते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>देश मेरा हर तरफ से, शांत व आबाद है,</p>
<p>न कहीं विद्रोह के स्वर, सिर्फ जिन्दा बाद है, <br/> राह जो दिखलाई जाए, हो मगन चलते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>जी डी पी की ग्रोथ सुनकर, हर कोई हैरान है, <br/> देश आगे बढ़ रहा है, काहे तू परेशान है!<br/> रो रहे हैं भ्रष्ट चारी, सुजन सब हँसते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>दो बरस सूखे में बीते, इस बरस में जान है,<br/> मेघ बरसेंगे समय से, पूर्व से अनुमान है,<br/> बीज लेकर खेत में अब, तुम भजन करते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>हर परिंदा खुश है देखो, पेड़ का परिवार है,<br/> कृषक खेतों को चले हैं, स्वपन अब साकार है,<br/> आसमां के पट को देखो, घन सघन करते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>प्रदूषण का अंत कर अब, पेड़ पौधों को बचा लो.<br/> मोर के भी पंख परखो, नृत्य से मन को जुड़ा लो.<br/> मन के अंदर की जलन को, अब शमन करते चलो!</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p>दूर के भी देश देखो, अब हमें वो मानता है, <br/> पग हमारे बढ़ चले हैं, शत्रु भी पहचानता है.<br/> पास में जो हैं पड़ोसी, धिनक धिन करते चलो.</p>
<p>देश में रहकर............</p>
<p>.</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- जवाहर लाल सिंह, ०७.०६.२०१६ </p>
<p></p>भारत एक मैदानtag:openbooks.ning.com,2015-11-25:5170231:BlogPost:7174492015-11-25T15:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेरे घर के पास है, एक खुला मैदान,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">चार दिशा में पेड़ हैं, देते छाया दान</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">करते क्रीड़ा युवा हैं, मनरंजन भरपूर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कर लेते आराम भी, थक हो जाते चूर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">सब्जी वाले भी यहाँ, बेंचे सब्जी साज.</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">गोभी, पालक, मूलियाँ, सस्ती ले लो आज…</span></p>
<p></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेरे घर के पास है, एक खुला मैदान,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">चार दिशा में पेड़ हैं, देते छाया दान</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">करते क्रीड़ा युवा हैं, मनरंजन भरपूर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कर लेते आराम भी, थक हो जाते चूर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">सब्जी वाले भी यहाँ, बेंचे सब्जी साज.</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">गोभी, पालक, मूलियाँ, सस्ती ले लो आज</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कभी कभी नेता यहाँ, माइक पे चिल्लाय</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">सम्मुख बैठे भक्तजन, ताली खूब बजाय</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">हर आयु के लोग यहाँ, घूमे शुबहो शाम</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">स्वस्थ रहें संपन्न रहें, तभी मिले आराम</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कभी कभी ही संतजन, अपना भजन सुनाय </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">जो सज्जन गंभीर हैं, उनको ये सब भाय </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">प्रीतिभोज के रश्म में. खाना जम कर खाय </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">सोने के भी वक्त में, हल्ला गीत बजाय </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">देता सबको ही शरण, यह छोटा मैदान</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">इसी लिए तो हम सभी, करते हैं गुणगान</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">यदाकदा स्वभाविक ही, होते हैं तकरार</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">फिर भी हम सहिष्णु रहें, करते कभी न वार</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">भारत यह मैदान है, भांति भांति के लोग.</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कभी कभी होता घटित, कुछ अनिष्ट दुर्योग! </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">.</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">(मौलिक व अप्रकाशित)</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">- जवाहर लाल सिंह </span></p>सरिता की धारा सम जीवनtag:openbooks.ning.com,2015-08-04:5170231:BlogPost:6854552015-08-04T15:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>नित्य करेला खाकर गुरु जी, मीठे बोल सुनाते हैं,<br></br> नीम पात को प्रात चबा बम, भोले का गुण गाते हैं. <br></br> उपरी छिलका फल अनार का, तीता जितना होता है <br></br> उस छिलके के अंदर दाने, मीठे रस को पाते हैं.<br></br> कोकिल गाती मुक्त कंठ से, आम्र मंजरी के ऊपर <br></br> काले काले भंवरे सारे, मस्ती में गुंजाते हैं.<br></br> कांटो मध्यहि कलियाँ पल कर, खिलती है मुस्काती है <br></br> पुष्प सुहाने मादक बनकर, भौंरों को ललचाते हैं.<br></br> भीषण गर्मी के आतप से, पानी कैसे भाप बने<br></br> भाप बने बादल जैसे ही, शीतल जल को लाते…</p>
<p>नित्य करेला खाकर गुरु जी, मीठे बोल सुनाते हैं,<br/> नीम पात को प्रात चबा बम, भोले का गुण गाते हैं. <br/> उपरी छिलका फल अनार का, तीता जितना होता है <br/> उस छिलके के अंदर दाने, मीठे रस को पाते हैं.<br/> कोकिल गाती मुक्त कंठ से, आम्र मंजरी के ऊपर <br/> काले काले भंवरे सारे, मस्ती में गुंजाते हैं.<br/> कांटो मध्यहि कलियाँ पल कर, खिलती है मुस्काती है <br/> पुष्प सुहाने मादक बनकर, भौंरों को ललचाते हैं.<br/> भीषण गर्मी के आतप से, पानी कैसे भाप बने<br/> भाप बने बादल जैसे ही, शीतल जल को लाते हैं.<br/> यह संसार गजब है बंधू, जन्म मृत्यु से बंधा हुआ<br/> जो आकर जीवन जीते हैं, वही मृत्यु को पाते हैं.<br/> सुख दुःख का यह मधुर मिलन है, दो पाटों के बीच तरल<br/> सरिता की धारा सम जीवन, भवसागर में आते हैं.. <br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>कुछ सामयिक दोहेtag:openbooks.ning.com,2015-07-23:5170231:BlogPost:6800262015-07-23T13:28:32.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>अपराधी सब एक हैं, धर्म कहाँ से आय|</p>
<p>सजा इन्हें कानून दे, करें न स्वयम उपाय||</p>
<p>कल तक जो थी मित्रता, आज न हमें सुहाय|</p>
<p>तूने छेड़ा है मुझे, अब खुद लियो बचाय||</p>
<p>सूनी सड़कें खौफ से, सायरन पुलिस बजाय|</p>
<p>बच्चे तरसे दूध को, माता छाती लगाय||</p>
<p>शहर कभी गुलजार था, धरम बीच क्यों आय|</p>
<p>कल तक जिससे प्यार था, फूटी आँख न भाय!!</p>
<p>पत्थर गोली गालियाँ, किसको भला सुहाय|</p>
<p>अमन चैन से सब रहें, फिर से गले लगाय ||</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>
<p>अपराधी सब एक हैं, धर्म कहाँ से आय|</p>
<p>सजा इन्हें कानून दे, करें न स्वयम उपाय||</p>
<p>कल तक जो थी मित्रता, आज न हमें सुहाय|</p>
<p>तूने छेड़ा है मुझे, अब खुद लियो बचाय||</p>
<p>सूनी सड़कें खौफ से, सायरन पुलिस बजाय|</p>
<p>बच्चे तरसे दूध को, माता छाती लगाय||</p>
<p>शहर कभी गुलजार था, धरम बीच क्यों आय|</p>
<p>कल तक जिससे प्यार था, फूटी आँख न भाय!!</p>
<p>पत्थर गोली गालियाँ, किसको भला सुहाय|</p>
<p>अमन चैन से सब रहें, फिर से गले लगाय ||</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>शहर की रूमानियत जाने कहाँ पर खो गयीtag:openbooks.ning.com,2015-07-23:5170231:BlogPost:6799512015-07-23T07:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>शहर की रूमानियत, जाने कहाँ पर खो गयी</p>
<p>एक चिंगारी से गुलशन, खाक जलकर हो गयी</p>
<p>अजनबी से लग रहे हैं, जो कभी थे मित्रवत</p>
<p>रूह की रूमानियत, झटके में कैसे सो गयी</p>
<p>ख्याल रखना घर का मेरा, जा रहे हैं छोड़कर</p>
<p>सुन के उनकी बात जैसे, आत्मा भी रो गयी</p>
<p>सड़क सूनी, सूनी गलियां, बजते रहे थे सायरन</p>
<p>थे मुकम्मल कल तलक सब, आज ये क्या हो गयी</p>
<p>रब हैं सबके बन्दे उनके, एक होकर अब रहो</p>
<p>इस धरा को पाक रक्खो, साख सबकी खो गयी </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p>- जवाहर लाल…</p>
<p>शहर की रूमानियत, जाने कहाँ पर खो गयी</p>
<p>एक चिंगारी से गुलशन, खाक जलकर हो गयी</p>
<p>अजनबी से लग रहे हैं, जो कभी थे मित्रवत</p>
<p>रूह की रूमानियत, झटके में कैसे सो गयी</p>
<p>ख्याल रखना घर का मेरा, जा रहे हैं छोड़कर</p>
<p>सुन के उनकी बात जैसे, आत्मा भी रो गयी</p>
<p>सड़क सूनी, सूनी गलियां, बजते रहे थे सायरन</p>
<p>थे मुकम्मल कल तलक सब, आज ये क्या हो गयी</p>
<p>रब हैं सबके बन्दे उनके, एक होकर अब रहो</p>
<p>इस धरा को पाक रक्खो, साख सबकी खो गयी </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>‘शहर’ जो गुलजार था!tag:openbooks.ning.com,2015-07-22:5170231:BlogPost:6796442015-07-22T15:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p align="center" style="text-align: left;">‘शहर’ जो गुलजार था,</p>
<p align="center" style="text-align: left;">हाँ, धर्म का त्योहार था.</p>
<p align="center" style="text-align: left;">नजर किसकी लग गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">क्यों अशांति हो गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">दोष किसका क्या बताएं</p>
<p align="center" style="text-align: left;">मन में ‘भ्रान्ति’ हो गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">होती रहती है कभी भी…</p>
<p align="center" style="text-align: left;">‘शहर’ जो गुलजार था,</p>
<p align="center" style="text-align: left;">हाँ, धर्म का त्योहार था.</p>
<p align="center" style="text-align: left;">नजर किसकी लग गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">क्यों अशांति हो गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">दोष किसका क्या बताएं</p>
<p align="center" style="text-align: left;">मन में ‘भ्रान्ति’ हो गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">होती रहती है कभी भी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">छोटी मोटी तल्खियत</p>
<p align="center" style="text-align: left;">एक घटना को किसी ने</p>
<p align="center" style="text-align: left;">जोड़ देखा धर्म से</p>
<p align="center" style="text-align: left;">धर्म जो था जोड़ता</p>
<p align="center" style="text-align: left;">आपस में रंजिश हो गयी</p>
<p align="center" style="text-align: left;">एक चिंगारी ने गुलशन को</p>
<p align="center" style="text-align: left;">जलाया इस कदर </p>
<p align="center" style="text-align: left;">उड़ के भागे कुछ परिंदे</p>
<p align="center" style="text-align: left;">गए झुलस कुछेक ‘पर’</p>
<p align="center" style="text-align: left;">धर्म को उलझाओ न यूं</p>
<p align="center" style="text-align: left;">यह बड़ा अपराध है</p>
<p align="center" style="text-align: left;">आ गले मिल जाओ फिर से</p>
<p align="center" style="text-align: left;">बन्दों का दिल साफ़ है</p>
<p align="center" style="text-align: left;">.</p>
<p align="center" style="text-align: left;">(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p align="center" style="text-align: left;">जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर, २२.०७.१५ </p>शादी की ज्यामितीय परिभाषाtag:openbooks.ning.com,2015-07-17:5170231:BlogPost:6780732015-07-17T15:25:28.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p></p>
<p>दो सरल रेखाएं</p>
<p>जब एक बिंदु पर आकर मिलती हैं</p>
<p>एक ऋजु कोण का निर्माण करती हैं</p>
<p>ऋजु कोण से अधिक कोण</p>
<p>क्रमश:</p>
<p>घटती दूरी</p>
<p>और</p>
<p>फिर न्यून कोण</p>
<p>न्यूनतम करती हुई </p>
<p>दोनों रेखाएं एक दूसरे से मिल जाती है</p>
<p>तब उनके बीच बनता है- शून्य कोण</p>
<p>समय की चोट खाकर</p>
<p>दोनों रेखाएं</p>
<p>अलग होती हुई</p>
<p>सामानांतर बनती है</p>
<p>और</p>
<p>अनन्त पर जाकर मिलती हैं</p>
<p>या फिर विपरीत दिशाओं में</p>
<p>और दूर</p>
<p>और दूर</p>
<p>होती…</p>
<p></p>
<p>दो सरल रेखाएं</p>
<p>जब एक बिंदु पर आकर मिलती हैं</p>
<p>एक ऋजु कोण का निर्माण करती हैं</p>
<p>ऋजु कोण से अधिक कोण</p>
<p>क्रमश:</p>
<p>घटती दूरी</p>
<p>और</p>
<p>फिर न्यून कोण</p>
<p>न्यूनतम करती हुई </p>
<p>दोनों रेखाएं एक दूसरे से मिल जाती है</p>
<p>तब उनके बीच बनता है- शून्य कोण</p>
<p>समय की चोट खाकर</p>
<p>दोनों रेखाएं</p>
<p>अलग होती हुई</p>
<p>सामानांतर बनती है</p>
<p>और</p>
<p>अनन्त पर जाकर मिलती हैं</p>
<p>या फिर विपरीत दिशाओं में</p>
<p>और दूर</p>
<p>और दूर</p>
<p>होती चली जाती है</p>
<p>क्या यह सच नहीं है ?</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>-जवाहर लाल सिंह </p>अधूरी इच्छा (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2015-07-05:5170231:BlogPost:6730532015-07-05T15:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>बाबूजी जी के श्राद्ध कर्म में वे सारी वस्तुएं ब्राह्मण को दान में दी गयी जो बाबूजी को पसंद थे. शय्या-दान में भी पलंग चादर बिछावन आदि दिए गए. ऐसी मान्यता है कि स्वर्ग में बाबूजी इन वस्तुओं का उपभोग करेंगे. लोगों ने महेश की प्रशंशा के पुल बांधे।</p>
<p>"बहुत लायक बेटा है महेश. अपने पिता की सारी अधूरी इच्छाएं पूरी कर दी." <br/> "पर दादाजी को इन सभी चीजों से जीते जी क्यों तरसाया गया?"- महेश का बेटा पप्पू बोल उठा.</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित )</p>
<p>बाबूजी जी के श्राद्ध कर्म में वे सारी वस्तुएं ब्राह्मण को दान में दी गयी जो बाबूजी को पसंद थे. शय्या-दान में भी पलंग चादर बिछावन आदि दिए गए. ऐसी मान्यता है कि स्वर्ग में बाबूजी इन वस्तुओं का उपभोग करेंगे. लोगों ने महेश की प्रशंशा के पुल बांधे।</p>
<p>"बहुत लायक बेटा है महेश. अपने पिता की सारी अधूरी इच्छाएं पूरी कर दी." <br/> "पर दादाजी को इन सभी चीजों से जीते जी क्यों तरसाया गया?"- महेश का बेटा पप्पू बोल उठा.</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित )</p>परपोते की चाह (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2015-07-02:5170231:BlogPost:6717972015-07-02T15:18:14.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बुढ़िया दादी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपनी अंतिम साँसें गिन रही है. डॉ. साहब आते हैं, देखते हैं दवा देते हैं, कभी कोई इंजेक्शन भी चढ़ा देते हैं. डॉक्टर से धीरे धीरे बुदबुदाती है. – “बेटा, बंटी से कहो न, जल्द से जल्द ‘परपोते’ का मुंह दिखा दे तो चैन से मर सकूंगी. मेरी सांस परपोते की चाह में अंटकी है."</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बच्चे की जल्दी नहीं, (विचार वाला) बंटी अपनी कामकाजी पत्नी की तरफ देख मुस्कुरा पड़ा. …</span></p>
<p></p>
<p></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बुढ़िया दादी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपनी अंतिम साँसें गिन रही है. डॉ. साहब आते हैं, देखते हैं दवा देते हैं, कभी कोई इंजेक्शन भी चढ़ा देते हैं. डॉक्टर से धीरे धीरे बुदबुदाती है. – “बेटा, बंटी से कहो न, जल्द से जल्द ‘परपोते’ का मुंह दिखा दे तो चैन से मर सकूंगी. मेरी सांस परपोते की चाह में अंटकी है."</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बच्चे की जल्दी नहीं, (विचार वाला) बंटी अपनी कामकाजी पत्नी की तरफ देख मुस्कुरा पड़ा. </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">(मौलिक व अप्रकाशित)</span></p>कोकिला क्यों मुझे जगाती है,tag:openbooks.ning.com,2015-04-22:5170231:BlogPost:6440682015-04-22T06:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>कोकिला क्यों मुझे जगाती है,<br/> तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.</p>
<p><br/> नींद भर के मैं कभी न सोया था,<br/> बेवजह तान क्यों सुनाती है.</p>
<p></p>
<p>चैन की भी नींद भली होती है <br/> मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है </p>
<p></p>
<p>बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं<br/> फिर भी तू बाज नहीं आती है</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>
<p>गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं </p>
<p>कोकिला क्यों मुझे जगाती है,<br/> तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.</p>
<p><br/> नींद भर के मैं कभी न सोया था,<br/> बेवजह तान क्यों सुनाती है.</p>
<p></p>
<p>चैन की भी नींद भली होती है <br/> मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है </p>
<p></p>
<p>बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं<br/> फिर भी तू बाज नहीं आती है</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>
<p>गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं </p>किसान के हालात पर - एक कोशिशtag:openbooks.ning.com,2015-04-15:5170231:BlogPost:6418962015-04-15T14:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>खुशी जो हमने बांटी गम कम तो हुआ</p>
<p>हुए बीमार भार तन का कम तो हुआ</p>
<p>माँगी जो हमने कीमत मिली हमें दुआ</p>
<p>उनके बजट का भार कुछ कम तो हुआ</p>
<p>मरहूम हो गए दुःख सहे नही गए</p>
<p>उनके सितम का भार कुछ कम तो हुआ</p>
<p>माना कि मेरे मौला है नाराज इस वकत</p>
<p>फक्र जिनपे था भरोसा कम तो हुआ</p>
<p>मालूम था उन्हें हमसे हैं वो मगर</p>
<p>उनकी नजर में एक ‘मत’ कम तो हुआ</p>
<p>अन्नदाता बार बार कहते है जनाब</p>
<p>भूमि का भागीदार एक कम तो हुआ </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>मैंने गजल…</p>
<p>खुशी जो हमने बांटी गम कम तो हुआ</p>
<p>हुए बीमार भार तन का कम तो हुआ</p>
<p>माँगी जो हमने कीमत मिली हमें दुआ</p>
<p>उनके बजट का भार कुछ कम तो हुआ</p>
<p>मरहूम हो गए दुःख सहे नही गए</p>
<p>उनके सितम का भार कुछ कम तो हुआ</p>
<p>माना कि मेरे मौला है नाराज इस वकत</p>
<p>फक्र जिनपे था भरोसा कम तो हुआ</p>
<p>मालूम था उन्हें हमसे हैं वो मगर</p>
<p>उनकी नजर में एक ‘मत’ कम तो हुआ</p>
<p>अन्नदाता बार बार कहते है जनाब</p>
<p>भूमि का भागीदार एक कम तो हुआ </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>मैंने गजल लिखने का प्रयास किया है, क्या है? और कहाँ सुधार की गुंजाईश है, अवश्य चिह्नित करें </p>
<p>- जवाहर </p>कोकिला मुझको जगाती- जवाहरtag:openbooks.ning.com,2015-04-09:5170231:BlogPost:6396872015-04-09T09:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>कोकिला मुझको जगाती, उठ जा अब तू देर न कर</p>
<p>देर पहले हो चुकी है, अब तो उठ अबेर न कर</p>
<p></p>
<p>उठ के देखो अरुण आभा, तरु शिखर को चूमती है</p>
<p>कूजते खगवृन्द सारे, कह रहे अब देर न कर</p>
<p></p>
<p>उठ के देखो सारे जग में, घोर संकट की घड़ी है</p>
<p>राह कोई भी निकालो, सोच में तू देर न कर</p>
<p></p>
<p>देख कृषकों की फसल को, घोर बृष्टि धो रही है,</p>
<p>अन्नदाता मर रहे हैं, लो बचा तू देर न कर</p>
<p></p>
<p>ईमानदारी साथ मिहनत, फल नहीं मिलता है देखो, </p>
<p>लूटकर धन घर जो लावे, उनके…</p>
<p>कोकिला मुझको जगाती, उठ जा अब तू देर न कर</p>
<p>देर पहले हो चुकी है, अब तो उठ अबेर न कर</p>
<p></p>
<p>उठ के देखो अरुण आभा, तरु शिखर को चूमती है</p>
<p>कूजते खगवृन्द सारे, कह रहे अब देर न कर</p>
<p></p>
<p>उठ के देखो सारे जग में, घोर संकट की घड़ी है</p>
<p>राह कोई भी निकालो, सोच में तू देर न कर</p>
<p></p>
<p>देख कृषकों की फसल को, घोर बृष्टि धो रही है,</p>
<p>अन्नदाता मर रहे हैं, लो बचा तू देर न कर</p>
<p></p>
<p>ईमानदारी साथ मिहनत, फल नहीं मिलता है देखो, </p>
<p>लूटकर धन घर जो लावे, उनके यश में शेर न कर </p>
<p></p>
<p>राह कर उनके तू दुर्गम, लूटते जो नारी अस्मत</p>
<p>राह में कंटक बिछा दो, मारकर तू ढेर न कर</p>
<p></p>
<p>जाल में उलझा न उनको, मातृशक्ति को बढ़ाओ</p>
<p>नरपिशाचों को खंगालो, हो के निर्भय देर न कर.</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p> - जवाहर लाल सिंह </p>
<p>गजल लिखने के प्रयास में यह मेरी दूसरी गजल</p>
<p> </p>अंदर अंदर रोता हूँ मैं, ऊपर से मुस्काता हूँ,tag:openbooks.ning.com,2015-04-02:5170231:BlogPost:6372702015-04-02T04:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>गजल लिखने का प्रयास मात्र है, कृपया सुधारात्मक टिप्पणी से अनुग्रहीत करें </p>
<p>अंदर अंदर रोता हूँ मैं, ऊपर से मुस्काता हूँ,<br></br> दर्द में भीगे स्वर हैं मेरे, गीत खुशी के गाता हूँ.</p>
<p><br></br> आश लगाये बैठा हूँ मैं, अच्छे दिन अब आएंगे,<br></br> करता हूँ मैं सर्विस फिर भी, सर्विस टैक्स चुकाता हूँ.</p>
<p><br></br> राम रहीम अल्ला के बन्दे, फर्क नहीं मुझको दिखता,<br></br> सबके अंदर एक रूह, फिर किसका खून बहाता हूँ.</p>
<p><br></br> रस्ते सबके अलग अलग है, मंजिल लेकिन एक वही,<br></br> सेवा करके दीन दुखी का, राह…</p>
<p>गजल लिखने का प्रयास मात्र है, कृपया सुधारात्मक टिप्पणी से अनुग्रहीत करें </p>
<p>अंदर अंदर रोता हूँ मैं, ऊपर से मुस्काता हूँ,<br/> दर्द में भीगे स्वर हैं मेरे, गीत खुशी के गाता हूँ.</p>
<p><br/> आश लगाये बैठा हूँ मैं, अच्छे दिन अब आएंगे,<br/> करता हूँ मैं सर्विस फिर भी, सर्विस टैक्स चुकाता हूँ.</p>
<p><br/> राम रहीम अल्ला के बन्दे, फर्क नहीं मुझको दिखता,<br/> सबके अंदर एक रूह, फिर किसका खून बहाता हूँ.</p>
<p><br/> रस्ते सबके अलग अलग है, मंजिल लेकिन एक वही,<br/> सेवा करके दीन दुखी का, राह खुदा का पाता हूँ.</p>
<p><br/> हिंसा करना, शोर मचाना, ऐसी भी कोई पूजा है <br/> प्रेम तत्व को खुद न समझा, औरों को समझाता हूँ.</p>
<p><br/> तेरा मेरा उसका सबका, भेद बहुत ही है गहरा <br/> इन भेदों से ऊपर उठकर, अखिल विश्व पा जाता हूँ</p>
<p></p>
<p> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>किसको रोऊँ मैं दुखड़ा ?tag:openbooks.ning.com,2015-04-01:5170231:BlogPost:6369622015-04-01T06:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>ग्रीष्म में तपता हिमाचल, घोर बृष्टि हो रही <br></br> अमृत सा जल बन हलाहल, नष्ट सृष्टि हो रही <br></br> काट जंगल घर बनाते, खंडित होता अचल प्रदेश <br></br> रे नराधम, बदल डाले, स्वयम ही भू परिवेश <br></br> धर बापू का रूप न जाने, किसने लूटा संचित देश <br></br> मर्यादा के राम बता दो, धारे हो क्या वेश <br></br> मोड़ी धारा नदियों की तो, आयी नदियाँ शहरों में <br></br> बहते घर साजो-सामान, हम रात गुजारें पहरों में. <br></br> आतुर थे सारे किसान,काटें फसलें तैयार हुई <br></br> वर्षा जल ने सपने धोये, फसलें सब बेकार हुई <br></br> लुट गए सारे ही…</p>
<p>ग्रीष्म में तपता हिमाचल, घोर बृष्टि हो रही <br/> अमृत सा जल बन हलाहल, नष्ट सृष्टि हो रही <br/> काट जंगल घर बनाते, खंडित होता अचल प्रदेश <br/> रे नराधम, बदल डाले, स्वयम ही भू परिवेश <br/> धर बापू का रूप न जाने, किसने लूटा संचित देश <br/> मर्यादा के राम बता दो, धारे हो क्या वेश <br/> मोड़ी धारा नदियों की तो, आयी नदियाँ शहरों में <br/> बहते घर साजो-सामान, हम रात गुजारें पहरों में. <br/> आतुर थे सारे किसान,काटें फसलें तैयार हुई <br/> वर्षा जल ने सपने धोये, फसलें सब बेकार हुई <br/> लुट गए सारे ही किसान,अब नहीं फायदा खेती में <br/> मिहनत करते हाड़ तोड़ते, बीज मिट गए सेती में.<br/> इससे अच्छा लो जमीन अब, रोजगार दो मुझको भी,<br/> काम महीने भर करावा लो, दो पगार अब मुझको भी <br/> चाहे कोई खेल खेला लो, गीत खुशी के गाऊंगा <br/> चला मशीनें घर आऊंगा, बच्चों के संग खाऊँगा <br/> कुछ भी कर लो मेरे आका, नहीं सहन अब होता है <br/> नही चाहता मरना असमय, बच्चों का दुख होता है <br/> ऐसी क्या सरकार बनेगी, समझे ऐसे मसलों को <br/> लागत पर ही मूल्य नियत हो, बीमित कर दे फसलों को <br/> हम भी आखिर मतदाता हैं, कहलाते हैं अन्नदाता ,<br/> नारों से न पेट भरेगा, हमें समझ में है आता <br/> मिहनतकश हूँ सो लेता हूँ, चाहे बिस्तर हो रुखड़ा,<br/> नहीं बुझेगी जठराग्नि तो, किसको रोऊँँ मैं दुखड़ा?</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>कुछ बदला है क्या?tag:openbooks.ning.com,2015-01-15:5170231:BlogPost:6059922015-01-15T05:09:46.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p><span style="font-size: 13px;">सचमुच,कुछ बदला है क्या?</span></p>
<p>हाँ ...</p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बदली हैं सरकारें, लेकर लुभावने वादे,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">खाऊँगा न खाने दूंगा,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">साफ़ करूंगा, साफ़ रखूंगा,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेक इन इण्डिया</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेड इन इण्डिया</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">‘सायनिंग इण्डिया’ का नया…</span></p>
<p><span style="font-size: 13px;">सचमुच,कुछ बदला है क्या?</span></p>
<p>हाँ ...</p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बदली हैं सरकारें, लेकर लुभावने वादे,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">खाऊँगा न खाने दूंगा,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">साफ़ करूंगा, साफ़ रखूंगा,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेक इन इण्डिया</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मेड इन इण्डिया</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">‘सायनिंग इण्डिया’ का नया संस्करण</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बलात्कार इन इण्डिया(?)</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">कुर्सी वही, संसद वही</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">किरदार नए, भोंपू वही</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">वादे नए</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बढ़ेंगे, रोजगार के अवसर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">होंगे हम, आत्म निर्भर</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">विदेशी निवेश के भरोसे!</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">आइये, बिछाइये, ग्रीन कारपेट </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">‘वे’ आनेवाले हैं, लेकर लाव लश्कर! </span></p>
<p><span> </span></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.tag:openbooks.ning.com,2014-12-29:5170231:BlogPost:6004522014-12-29T07:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">ग्रीष्म में भी लू गरीबो को ही लगती है</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">रिक्त उदर जीर्ण वस्त्र छत्र आसमान है</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">हाथ उनके लगे बिना देश में न शान है</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">काया कृश सजल नयन दघ्ध ह्रदय करती है</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.…</span></p>
<p></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">ग्रीष्म में भी लू गरीबो को ही लगती है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">रिक्त उदर जीर्ण वस्त्र छत्र आसमान है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">हाथ उनके लगे बिना देश में न शान है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">काया कृश सजल नयन दघ्ध ह्रदय करती है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">गगनचुम्बी भवनों की नींव में गरीब है.</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">महानगरों में इनकी बस्ती भी करीब है.</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">हारे खिलाड़ी सी इनकी शकल दिखती है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">सड़क के किनारे देखा लम्बी सी कतार है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">कोई नेता आएंगे गूंजे जय जयकार है </span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">नेता की ईज्जत भी दीन-भीड़ करती है</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहर</span><span xml:lang="HI" lang="HI">ती है.</span> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI"> (मौलिक व अप्रकाशित)</span></p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>
<p> </p>
<p> </p>हुकूमतtag:openbooks.ning.com,2014-12-22:5170231:BlogPost:5974182014-12-22T08:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">हुकूमत हाथ में आते, नशा तो छा ही जाता है,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">अगर भाषा नहीं बदली, तो कैसे याद रक्खोगे.</span></p>
<p></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">किये थे वादे हमने जो, मुझे भी याद है वो सब,</span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मनाया जश्न जो कुछ दिन, उसे तो याद रक्खोगे.</span></p>
<p></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">मुझे दिल्ली नहीं दिखती, समूचा देश दिखता है, </span></p>
<p><span lang="HI" xml:lang="HI">बिके हैं लोग…</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">हुकूमत हाथ में आते, नशा तो छा ही जाता है,</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">अगर भाषा नहीं बदली, तो कैसे याद रक्खोगे.</span></p>
<p></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">किये थे वादे हमने जो, मुझे भी याद है वो सब,</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">मनाया जश्न जो कुछ दिन, उसे तो याद रक्खोगे.</span></p>
<p></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">मुझे दिल्ली नहीं दिखती, समूचा देश दिखता है, </span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">बिके हैं लोग जैसे भी, उसे तुम याद रक्खोगे.</span></p>
<p></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">अगर तुम चैन पा लोगे, मुझे तुम भूल जाओगे,</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">बढ़ेगी प्यास जब तेरी, तभी तो याद रक्खोगे. </span></p>
<p></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">वे नादां लोग होते हैं, अमन की चाह रखते हैं,</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">लुटेगा चमन जब तेरा, तभी तो याद रक्खोगे.</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI">(मौलिक व अप्रकाशित)</span></p>
<p><span xml:lang="HI" lang="HI"><span>जवाहर लाल सिंह </span></span></p>हम याद तुम्ही को करते थेtag:openbooks.ning.com,2014-11-30:5170231:BlogPost:5917662014-11-30T15:28:54.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>हम याद तुम्ही को करते थे, <br></br>छुप छुप के आहें भरते थे,<br></br>मदहोश हुआ जब देख लिया <br></br>सपनों में अब तक मरते थे.</p>
<p></p>
<p>रूमानी चेहरा, सुर्ख अधर,<br></br>शरमाई आँखे, झुकी नजर,<br></br>पल भर में हुए सचेत मगर,<br></br>संकोच सदा हम करते थे.</p>
<p></p>
<p>कलियाँ खिलकर अब फूल हुई,<br></br>अब कहो कि मुझसे भूल हुई,<br></br>कंटिया चुभकर अब शूल हुई,<br></br>हम इसी लिए तो डरते थे.</p>
<p></p>
<p>अब होंगे हम ना कभी जुदा,<br></br>बंधन बाँधा है स्वयं खुदा,<br></br>हम रहें प्रफुल्लित युग्म सदा,<br></br>नित आश इसी की करते…</p>
<p>हम याद तुम्ही को करते थे, <br/>छुप छुप के आहें भरते थे,<br/>मदहोश हुआ जब देख लिया <br/>सपनों में अब तक मरते थे.</p>
<p></p>
<p>रूमानी चेहरा, सुर्ख अधर,<br/>शरमाई आँखे, झुकी नजर,<br/>पल भर में हुए सचेत मगर,<br/>संकोच सदा हम करते थे.</p>
<p></p>
<p>कलियाँ खिलकर अब फूल हुई,<br/>अब कहो कि मुझसे भूल हुई,<br/>कंटिया चुभकर अब शूल हुई,<br/>हम इसी लिए तो डरते थे.</p>
<p></p>
<p>अब होंगे हम ना कभी जुदा,<br/>बंधन बाँधा है स्वयं खुदा,<br/>हम रहें प्रफुल्लित युग्म सदा,<br/>नित आश इसी की करते थे.</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित )<br/>- जवाहर लाल सिंह</p>अच्छा नहीं होता गुस्सा - जवाहरtag:openbooks.ning.com,2014-11-27:5170231:BlogPost:5905602014-11-27T04:50:26.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>अच्छा नहीं होता गुस्सा</p>
<p>पर हो जाता है</p>
<p>मन में गुस्सा</p>
<p>जब कभी</p>
<p>मन माफिक नहीं होता</p>
<p>कोई भी काम</p>
<p>नहीं मानते</p>
<p>अपने ही कोई बात</p>
<p>फिर क्या करें ?</p>
<p>हो जाएँ मौन ?</p>
<p>फिर समझ पायेगा कौन?</p>
<p>आप सहमत हैं या असहमत</p>
<p>क्योंकि</p>
<p>लोग तो यही कहेंगे</p>
<p>मौनं स्वीकृति लक्षणं</p>
<p>मन में रखने से कोई बात</p>
<p>हो जाता नहीं तनाव ?</p>
<p>तनाव और गुस्सा</p>
<p>दोनों है हानिकारक</p>
<p>तनाव खुद का करता नुक्सान</p>
<p>गुस्सा खुद के…</p>
<p>अच्छा नहीं होता गुस्सा</p>
<p>पर हो जाता है</p>
<p>मन में गुस्सा</p>
<p>जब कभी</p>
<p>मन माफिक नहीं होता</p>
<p>कोई भी काम</p>
<p>नहीं मानते</p>
<p>अपने ही कोई बात</p>
<p>फिर क्या करें ?</p>
<p>हो जाएँ मौन ?</p>
<p>फिर समझ पायेगा कौन?</p>
<p>आप सहमत हैं या असहमत</p>
<p>क्योंकि</p>
<p>लोग तो यही कहेंगे</p>
<p>मौनं स्वीकृति लक्षणं</p>
<p>मन में रखने से कोई बात</p>
<p>हो जाता नहीं तनाव ?</p>
<p>तनाव और गुस्सा</p>
<p>दोनों है हानिकारक</p>
<p>तनाव खुद का करता नुक्सान</p>
<p>गुस्सा खुद के साथ</p>
<p>दूसरों को भी</p>
<p>करता है परेशान</p>
<p>अत: छोड़ें गुस्सा</p>
<p>बढ़ने दें तनाव</p>
<p>करें व्यायाम और प्राणायाम</p>
<p>लेकर प्रभु का नाम</p>
<p></p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p></p>
<p>- जवाहर लाल सिंह </p>अब भी चेतो मानव मन तू!tag:openbooks.ning.com,2014-09-11:5170231:BlogPost:5741582014-09-11T11:57:26.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>कल कल कल कल नदियाँ बहती, झरने गीत सुनाते हैं,</p>
<p>तरु शाखाओं पर छिपकर खग, पंचम सुर में गाते हैं.</p>
<p>गिरि, नद, जंगल, अवनि, पशु सब, सृष्टि के अनमोल रतन,</p>
<p>मानव सबसे बुद्धि शील बन, अपनी राह बनाते हैं.</p>
<p>नदियों की धारा को रोकी, शिखरों को भी ध्वस्त किया,</p>
<p>काटके जंगल, भवन बनाते, अब क्यों वे पछताते हैं.</p>
<p>सीख नहीं कुछ लेते मानव, प्रकृति सब कुछ देख रही,</p>
<p>कभी केदार, कभी कश्मीर में, मानव ही दुःख पाते हैं. </p>
<p>सेना सीमा की रक्षक है, आपद में करती…</p>
<p>कल कल कल कल नदियाँ बहती, झरने गीत सुनाते हैं,</p>
<p>तरु शाखाओं पर छिपकर खग, पंचम सुर में गाते हैं.</p>
<p>गिरि, नद, जंगल, अवनि, पशु सब, सृष्टि के अनमोल रतन,</p>
<p>मानव सबसे बुद्धि शील बन, अपनी राह बनाते हैं.</p>
<p>नदियों की धारा को रोकी, शिखरों को भी ध्वस्त किया,</p>
<p>काटके जंगल, भवन बनाते, अब क्यों वे पछताते हैं.</p>
<p>सीख नहीं कुछ लेते मानव, प्रकृति सब कुछ देख रही,</p>
<p>कभी केदार, कभी कश्मीर में, मानव ही दुःख पाते हैं. </p>
<p>सेना सीमा की रक्षक है, आपद में करती सेवा,</p>
<p>सरकारें लाचार हुई जब, सेना के गुण गाते हैं.</p>
<p>अब भी चेतो मानव मन तू, सृष्टि का सम्मान करो,</p>
<p>साथ रहो सब हिलमिलकर ही, दुनियां नयी बसाते हैं. </p>
<p>********* </p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर </p>
<p> </p>कुछ सामयिक दोहे / जवाहरtag:openbooks.ning.com,2014-08-18:5170231:BlogPost:5683572014-08-18T04:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>मानसून की देर से, खेतहि फटे दरार,</p>
<p>ताके किसना मेघ को, आपस में हो रार.</p>
<p></p>
<p>मानसून की अधिकता, बारिश हो घनघोर</p>
<p>उजड़ा घर अरु खेत अब, देखत सब चहु ओर</p>
<p></p>
<p>तीव्र पानी प्रवाह से, वन गिरि भी थर्राय</p>
<p>नर पशु पानी में बहे, किसको कौन बचाय .</p>
<p></p>
<p>उथल पुथल भइ जिंदगी, कहते जिसे विकास.</p>
<p>जलवायु दूषित हुई, आम हो गया ख़ास</p>
<p></p>
<p>राग द्वेष का जोर है, प्रीती नहीं सुहाय,</p>
<p>भाई से भाई लड़े, संचित धन भी जाय..</p>
<p></p>
<p>फैशन की अब होड़ है, फैशन…</p>
<p>मानसून की देर से, खेतहि फटे दरार,</p>
<p>ताके किसना मेघ को, आपस में हो रार.</p>
<p></p>
<p>मानसून की अधिकता, बारिश हो घनघोर</p>
<p>उजड़ा घर अरु खेत अब, देखत सब चहु ओर</p>
<p></p>
<p>तीव्र पानी प्रवाह से, वन गिरि भी थर्राय</p>
<p>नर पशु पानी में बहे, किसको कौन बचाय .</p>
<p></p>
<p>उथल पुथल भइ जिंदगी, कहते जिसे विकास.</p>
<p>जलवायु दूषित हुई, आम हो गया ख़ास</p>
<p></p>
<p>राग द्वेष का जोर है, प्रीती नहीं सुहाय,</p>
<p>भाई से भाई लड़े, संचित धन भी जाय..</p>
<p></p>
<p>फैशन की अब होड़ है, फैशन डूबे लोग.</p>
<p>फैशन में पोषण घटे, बचा न कोइ निरोग.</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,// जवाहरtag:openbooks.ning.com,2014-07-11:5170231:BlogPost:5577012014-07-11T05:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p><b>दूब का चरित्र</b></p>
<p>दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p>सुख दुःख से विरक्त, संत मन जैसा है.</p>
<p>झुलसे न ग्रीष्म में भी, ओस को सम्हाल रही </p>
<p>ढांक ले मही को मुदित, पहली बौछार में ही</p>
<p>दूब अग्र तुंड को, चढ़ावे विप्र पूजा में,</p>
<p>जैसे हो नर बलि, स्वांग यह कैसा है ! दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p></p>
<p>गाय चढ़े, चरे इसे, बकरियों भी खाती है,</p>
<p>खरगोश के बच्चे को, मृदुल दूब भाती है.</p>
<p>क्रीडा क्षेत्र में भी, बड़े श्रम से पाली जाती है</p>
<p>देशी या…</p>
<p><b>दूब का चरित्र</b></p>
<p>दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p>सुख दुःख से विरक्त, संत मन जैसा है.</p>
<p>झुलसे न ग्रीष्म में भी, ओस को सम्हाल रही </p>
<p>ढांक ले मही को मुदित, पहली बौछार में ही</p>
<p>दूब अग्र तुंड को, चढ़ावे विप्र पूजा में,</p>
<p>जैसे हो नर बलि, स्वांग यह कैसा है ! दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p></p>
<p>गाय चढ़े, चरे इसे, बकरियों भी खाती है,</p>
<p>खरगोश के बच्चे को, मृदुल दूब भाती है.</p>
<p>क्रीडा क्षेत्र में भी, बड़े श्रम से पाली जाती है</p>
<p>देशी या विदेशी मैच, कुचली यही जाती है.</p>
<p>आम जन की गति, ऐसी ही होती है,</p>
<p>पिसे हर हाल में, प्रबंधन यह कैसा है. दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p></p>
<p>गर्मी दुपहरी में भी ये हरी होती है</p>
<p>पहली फुहार पड़ते ही बड़ी होती है.</p>
<p>लोग बाग़ जाएँ, तब रास्ता बन जाता है</p>
<p>अगर जाना छोड़ दें, बिछौना बन जाता है</p>
<p>कुचलकर भी मुस्कुराए, जड़ दृढ़ कहलाये,</p>
<p>वंश वृधि का प्रतीक, सूक्ष्म चलन कैसा है. दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p></p>
<p>खेतों खलिहानों में, दूब साफ़ होती है</p>
<p>खेतों की मेड़ों पर, दूब पास होती है</p>
<p>दूब अगर डूब जाय, चिंता नहीं करना</p>
<p>पानी निकलते ही, फिर से हरी होती है.</p>
<p>दुःख से न घबराये, घुटकर भी जीता रहे,</p>
<p>देखते सभी हैं, अदम्य घुटन जैसा है .. दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,</p>
<p></p>
<p>पर्यावरण माह में, करने हो अगर स्वांग सिर्फ </p>
<p>वातानुकूलित कक्ष में भी, दूब लगा सकते है.</p>
<p>मिट्टी संग दूब को, पत्थर पे बिछा सकते हैं.</p>
<p>पत्थर पर दूब उगा, मुहावरा बदल सकते हैं.</p>
<p>आम जन को भी, यह दूब सीख देती है.</p>
<p>बिना कुछ चूं-चपर, सब कुछ सह लेती है.</p>
<p>जितना भी हो विकास, आम ‘आम’ ही रहेगा</p>
<p>चूसे हुए रस की भांति, गुठली कहीं बहेगा </p>
<p>उगे नए पेड़ कहीं, या फिर ये सड़ जाय</p>
<p>मिलेंगे ही आम बहुत, विशद विश्व ऐसा है.. दूब का चरित्र देखो. आम जन जैसा है,</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर </p>
<p> </p>बरसाती बादल आ ही गएtag:openbooks.ning.com,2014-06-19:5170231:BlogPost:5501832014-06-19T10:00:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>बरसाती बादल आ ही गए, ठंढक थोड़ी पहुंचा ही गए.</p>
<p>तपती धरती, झुलसाते पवन, ऊमस की थी घनघोर घुटन,</p>
<p>खाने पीने का होश नहीं, 'बिजली कट' और बढ़ाते चुभन</p>
<p>अब अम्बर को देख जरा, बिजली की चमक दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,</p>
<p></p>
<p>सरकारें आती जाती है, बिजली भी आती जाती है,</p>
<p>वादों और सपनों की झोली,जनता को ही दिखलाती है</p>
<p>पर एक नियंता ऐसा भी, बस चमत्कार दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,</p>
<p></p>
<p>अंकुरे अवनि से सस्य सुंड, खेतों में दिखते कृषक…</p>
<p>बरसाती बादल आ ही गए, ठंढक थोड़ी पहुंचा ही गए.</p>
<p>तपती धरती, झुलसाते पवन, ऊमस की थी घनघोर घुटन,</p>
<p>खाने पीने का होश नहीं, 'बिजली कट' और बढ़ाते चुभन</p>
<p>अब अम्बर को देख जरा, बिजली की चमक दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,</p>
<p></p>
<p>सरकारें आती जाती है, बिजली भी आती जाती है,</p>
<p>वादों और सपनों की झोली,जनता को ही दिखलाती है</p>
<p>पर एक नियंता ऐसा भी, बस चमत्कार दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,</p>
<p></p>
<p>अंकुरे अवनि से सस्य सुंड, खेतों में दिखते कृषक झुण्ड.</p>
<p>व्याकुल जो थे उस गर्मी में, पशुओं के देखो सजग झुण्ड,</p>
<p>चहुओर बजी अब शहनाई, कजरी के बोल सुना ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>१९.०६.२०१४</p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>मेरा ब्लड ग्रुप?... याद नहीं है! (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2014-06-06:5170231:BlogPost:5466232014-06-06T14:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>एक अस्पताल में भर्ती बुजुर्ग की आप बीती---उनके ही मुख से-</p>
<p>"मेरे दो लडके हैं, दोनों एक्सपोर्ट इम्पोर्ट का कारोबार करते हैं.</p>
<p>दो लड़कियां विदेश में हैं, दामाद वहीं सेटल हो गए हैं.</p>
<p>मेरा एक भगीना बड़े अस्पताल में डॉक्टर है ...मुझे उसका टेलीफोन नंबर नहीं मिल रहा ..आप पताकर बताएँगे क्या?</p>
<p>आज मेरे घाव का ओपेरेसन होनेवाला है. मेरा लड़का आयेगा ...ओपेरेसन के कागजात पर हस्ताक्षर करने."</p>
<p>लड़का आया भी और हस्ताक्षर कर चुपचाप चला गया. मैंने महसूस किया दोनों में कोई विशेष बात…</p>
<p>एक अस्पताल में भर्ती बुजुर्ग की आप बीती---उनके ही मुख से-</p>
<p>"मेरे दो लडके हैं, दोनों एक्सपोर्ट इम्पोर्ट का कारोबार करते हैं.</p>
<p>दो लड़कियां विदेश में हैं, दामाद वहीं सेटल हो गए हैं.</p>
<p>मेरा एक भगीना बड़े अस्पताल में डॉक्टर है ...मुझे उसका टेलीफोन नंबर नहीं मिल रहा ..आप पताकर बताएँगे क्या?</p>
<p>आज मेरे घाव का ओपेरेसन होनेवाला है. मेरा लड़का आयेगा ...ओपेरेसन के कागजात पर हस्ताक्षर करने."</p>
<p>लड़का आया भी और हस्ताक्षर कर चुपचाप चला गया. मैंने महसूस किया दोनों में कोई विशेष बात चीत नहीं हुई .. सामान्य शिष्टाचार भी नहीं....</p>
<p>ये मेरा बड़ा लड़का था - <strong>एक्सपोर्ट-इमपोर्ट कंपनी में चीफ कमर्शियल एग्जीक्यूटिव है</strong> ...उन्होंने दुहराया, इसलिए कि शायद मैंने सुना नहीं.</p>
<p>बुजुर्ग व्यक्ति मेरे द्वारा खरीदे गए अखबार के हरेक पन्ने की हरेक पंक्तियों को बड़े गौर से पढ़ते हैं. शुबह से रात ग्यारह बजे तक या तो मोबाइल पर बात करते रहते हैं, या पेपर में सिर घुन्साये रहते हैं. </p>
<p>तीन चार दिनों के अन्दर कोई उनसे मिलने नहीं आया - वे कहते हैं - "मैं ही सबको मना कर रखता हूँ -- क्या करेगा यहाँ आकर ...अपना वक्त खराब करेगा. सभी अपने अपने काम में ब्यस्त हैं!"</p>
<p>ओपेरेसन में ले जाने से पहले नर्स ने पूछा- "बाबा आपका ब्लड ग्रुप क्या है?"</p>
<p>"ब्लड ग्रुप ?... ठीक याद तो नहीं ... कितना चीज याद रक्खेगा ..."</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>कुछ दोहे (जवाहर लाल सिंह)tag:openbooks.ning.com,2014-05-06:5170231:BlogPost:5374762014-05-06T05:30:00.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p>माली ऐसा चाहिए, किसलय को दे प्यार</p>
<p>खरपतवारहि छांटके, कलियन देहि निखार.</p>
<p></p>
<p>नित उठ देखे बाग़ को, नैना रहे निहार </p>
<p>सिंचन, खुरपी चाहिए, मन में करे विचार</p>
<p></p>
<p>हवा ताजी तन में लगे, करे भ्रमर गुंजार,</p>
<p>दिल में यूं खुशियाँ भरे, होवे जग से प्यार</p>
<p></p>
<p>कर्म सबहि तो करत हैं, गर न करे प्रचार</p>
<p>लोग न जानहि पात हैं, जाने बस करतार </p>
<p></p>
<p>दीपक ऐसा चाहिए, घर में करे प्रकाश</p>
<p>तन मन जारे आपनो, किन्तु नेह की आश.</p>
<p></p>
<p>उजियारा लेते…</p>
<p>माली ऐसा चाहिए, किसलय को दे प्यार</p>
<p>खरपतवारहि छांटके, कलियन देहि निखार.</p>
<p></p>
<p>नित उठ देखे बाग़ को, नैना रहे निहार </p>
<p>सिंचन, खुरपी चाहिए, मन में करे विचार</p>
<p></p>
<p>हवा ताजी तन में लगे, करे भ्रमर गुंजार,</p>
<p>दिल में यूं खुशियाँ भरे, होवे जग से प्यार</p>
<p></p>
<p>कर्म सबहि तो करत हैं, गर न करे प्रचार</p>
<p>लोग न जानहि पात हैं, जाने बस करतार </p>
<p></p>
<p>दीपक ऐसा चाहिए, घर में करे प्रकाश</p>
<p>तन मन जारे आपनो, किन्तु नेह की आश.</p>
<p></p>
<p>उजियारा लेते रहें, बुझने न दें ज्योति </p>
<p>समय समय पर तेल दें, कभी उभारें बाति </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>जवाहर लाल सिंह </p>कुछ दोहे !tag:openbooks.ning.com,2013-09-15:5170231:BlogPost:4356872013-09-15T15:02:56.000ZJAWAHAR LAL SINGHhttp://openbooks.ning.com/profile/JAWAHARLALSINGH
<p></p>
<p>1.बीता हिन्दी दिवस भी, मना लिए सब जश्न!<br></br> न्याय लेख भी हो हिंदी, कौन करेगा प्रश्न! <br></br>2.नियम सरलता से बने, सब कुछ हो स्पष्ट <br></br> तर्क कुतर्क न बन जाय, बने वकील न भ्रष्ट.<br></br>3.मूल्य कर्म अनुरूप हो, हो न कोइ कंगाल.<br></br> दोउ हाथ दो पैर सम, अलग क्यों हो भाल!<br></br>4.मिहनत से धन आत है, बिन मिहनत धन जात.<br></br> मिहनत कर ले रे मना, काहे नहीं बुझात!<br></br>5.अहंकार को त्याग कर, करिए सदा सत्कर्म,<br></br> सोने की लंका गयी, बूझ न रावण मर्म.<br></br>6.नारी को सम्मान कर, नारी शक्ति महान<br></br> …</p>
<p></p>
<p>1.बीता हिन्दी दिवस भी, मना लिए सब जश्न!<br/> न्याय लेख भी हो हिंदी, कौन करेगा प्रश्न! <br/>2.नियम सरलता से बने, सब कुछ हो स्पष्ट <br/> तर्क कुतर्क न बन जाय, बने वकील न भ्रष्ट.<br/>3.मूल्य कर्म अनुरूप हो, हो न कोइ कंगाल.<br/> दोउ हाथ दो पैर सम, अलग क्यों हो भाल!<br/>4.मिहनत से धन आत है, बिन मिहनत धन जात.<br/> मिहनत कर ले रे मना, काहे नहीं बुझात!<br/>5.अहंकार को त्याग कर, करिए सदा सत्कर्म,<br/> सोने की लंका गयी, बूझ न रावण मर्म.<br/>6.नारी को सम्मान कर, नारी शक्ति महान<br/> नारी के अपमान से, जगत नहीं अनजान! <br/> -जवाहर लाल सिंह <br/> ( मौलिक व अप्रकाशित )</p>