Vijay Joshi's Posts - Open Books Online2024-03-29T08:34:41ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991294692?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0cdy9emhu66hg&xn_auth=noलघुकथा :साथीtag:openbooks.ning.com,2018-02-01:5170231:BlogPost:9126122018-02-01T19:00:00.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
<p>गौरी, पिता के स्नेहिल परिधि में एक साथी की परिभाषा का 'प' समझ पाई। उसी पिता के आँगन में एक लंबा सा साथ निभाने के लिए उसके बचपन को बांटने के लिए भाई के रिस्ते ने साथ दिया। तब वह साथी की परिभाषा के दूसरे पायदान पर 'रि' रूपी रिस्ते को समझने की कोशिश भर कर रही थी। पिता का वह आँगन गौरी की परवरिश के साथ-साथ, बेटी के पराये होने का एहसास भी कराता रहता था। उसकी शिक्षा-दीक्षा की इतिश्री मानकर पिता ने जीवन के लिए, फिर से एक साथी की तलाश शुरू कर दी। जो बेटी भाग्य विधाता होगा। पिता से भी ज्यादा अच्छे से…</p>
<p>गौरी, पिता के स्नेहिल परिधि में एक साथी की परिभाषा का 'प' समझ पाई। उसी पिता के आँगन में एक लंबा सा साथ निभाने के लिए उसके बचपन को बांटने के लिए भाई के रिस्ते ने साथ दिया। तब वह साथी की परिभाषा के दूसरे पायदान पर 'रि' रूपी रिस्ते को समझने की कोशिश भर कर रही थी। पिता का वह आँगन गौरी की परवरिश के साथ-साथ, बेटी के पराये होने का एहसास भी कराता रहता था। उसकी शिक्षा-दीक्षा की इतिश्री मानकर पिता ने जीवन के लिए, फिर से एक साथी की तलाश शुरू कर दी। जो बेटी भाग्य विधाता होगा। पिता से भी ज्यादा अच्छे से साथ देगा। 'जबकि न कभी, जीवन की शिक्षा पूर्ण होती है। न कोई किसी के जीवन का भाग्य विधाता हो सकता है। पर पिता ने परिणय वेदी पर एक जीवन साथी के साथ गौरी का भाग्य जोड़ दिया। उसके जीवन में पिता के साथ का हस्तांतरण पति के साथ के रूप में हो गया। उस दिन साथी की परिभाषा के तीसरे पड़ाव "भा" अर्थात "भाग्य को जाना। नारी की जीवन धारा , नदी के प्रवाह सम एक घाट से दूसरे घाट तक की निरन्तरता के साथ प्रवाहमान थी। लगा, जीवन के नये परिवेश में एक साथी ने साथ जीने मारने की कसमें खाई है, तो आजीवन साथ निभायेगा। लेकिन जीवन पथ पर उसने भी गौरी की झोली में मातृत्व भरे वात्सल्य की प्रतिकृति रूपी साथी को डाल दिया। जीवन की तमाम खुशियों का साथी, जिसे पाकर सबका साथ भूल गईं। बेटे का साथ, एक नारी के जीवन की पूर्णता का परिचायक शास्वत प्रमाण भी होता है। उस दिन वह साथी की परिभाषा के पूर्ण अर्थ को 'षा' को आत्मसात किया था। बेटे सा साथी पाकर माँ स्वर्ग का सिंघासन ठुकराने को तैयार खड़ी थी। कि अचानक बेटे ने अपनी शिक्षा के साथ, विदेश में ही बसने का फरमान सुना दिया। <br/> आलीशान हवेली के आँगन में गौरी को जीवन की वीरान सांझ मुँह चिढ़ा रही थी। कभी तो खुद के साथ जीना सिख लिया होता।</p>
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<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>विजय जोशी 'शीतांशु'<br/></p>माँ की चिंताtag:openbooks.ning.com,2018-01-30:5170231:BlogPost:9116672018-01-30T16:07:02.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
<p>/माँ की चिंता//<br></br>''माँ तुम आज फिर,अब तक जाग रही हो? कितनी बार समझा चुकी हूँ कि ठंडी रातों में इतनी देर तक जागना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।"<br></br> फिर से अस्थमा का दौरा पड़ सकता है। तुम समझने का नाम ही नहीं लेती हो!<br></br> आई बड़ी समझाने वाली। 'बेटी, मेरी चिंता छोड़, जीना ही कितने दिन है।' और "जिसकी बेटी देर रात तक काम से लौटे उस माँ को नींद कहाँ से आएगी।"<br></br> माँ दरवाजे पर ही टकटकी लगाये बैठी थी।<br></br>'बेटी तेरा काम क्या है?' कहाँ काम पर जाती है?' किसके घर काम पर जाती...<br></br> बेटी ने बीच…</p>
<p>/माँ की चिंता//<br/>''माँ तुम आज फिर,अब तक जाग रही हो? कितनी बार समझा चुकी हूँ कि ठंडी रातों में इतनी देर तक जागना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।"<br/> फिर से अस्थमा का दौरा पड़ सकता है। तुम समझने का नाम ही नहीं लेती हो!<br/> आई बड़ी समझाने वाली। 'बेटी, मेरी चिंता छोड़, जीना ही कितने दिन है।' और "जिसकी बेटी देर रात तक काम से लौटे उस माँ को नींद कहाँ से आएगी।"<br/> माँ दरवाजे पर ही टकटकी लगाये बैठी थी।<br/>'बेटी तेरा काम क्या है?' कहाँ काम पर जाती है?' किसके घर काम पर जाती...<br/> बेटी ने बीच में ही टोकते हुए 'माँ यह तुम्हारी दवाई गोलियां, इन्हें खाकर सो जाओ, बाकी बाते सुबह करेगें।'<br/> ''बेटी सुबह और रात के दरमियां बहुत लंबा फासला है। इस फासले के बीच तुम्हारा अनजान राहों से गुजरना, और खूंखार कुत्तों का तुम पर भौकना! माँ की आँखों में नींद कहाँ से आने देगा।'<br/>'सूरज की रोशनी में चमकने वाले सफेदपोश चेहरे, चांदनी रात में कितने मटमैले हो जाते है।' <br/>'दुनिया का दोगला रूप तुम नहीं जानती हो?'<br/>माँ अगर भैया, अनजान राहों पर न भटके होते तो, और आज घर में होते तो, हमें यह दिन नहीं देखने पड़ते। पर 'तुम चैन से सो जाओ माँ, मेरी राहें अनजान नहीं है।'<br/> 'मुझे नर्सिंग होम की नाइट ड्यूटी से, मरीजों की देखरेख से पैसे के साथ साथ तुम्हारी दवाईयां भी निःशुल्क मिल जाती है।'<br/> अब माँ दवाई लेकर चैन की नींद सो रही थी।</p>
<p>विजय जोशी 'शीतांशु'<br/>सचिव म०प्र०लेखक संघ</p>लघुकथा वसन्तोत्सवtag:openbooks.ning.com,2018-01-30:5170231:BlogPost:9118572018-01-30T15:30:00.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
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<p>कड़कड़ाती ठंड में वसुधा की कँपकपि असहाय हो रही थी। सूरज को इसकी खबर हुई तो वह बहुत दूर अपनी वार्षिक यात्रा पर था। शीघ्र लौट कर सब ठीक करने का आश्वासन दिया। तो उसके लौटने की खबर से ही, ठंड ने अपना दायरा समेटना शुरू कर लिया। <br></br> वसुधा अपने नैसर्गिक रूप में पुनः खिलखिलाने लगी। वसुधा नव यौवना सी मुस्कान लिए साजन से मिलन के सतरंगी सपने सजाने लगी। हाथों में मेहँदी रंग रचने लगा।<br></br> पतझर से प्रकृति ने धरा पर रांगोली सजाई। तो वन उपवन में अमलताश ,पलाश, शिरीष , ने वसुधा के लिए वंदनवार सजाएं।…</p>
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<p>कड़कड़ाती ठंड में वसुधा की कँपकपि असहाय हो रही थी। सूरज को इसकी खबर हुई तो वह बहुत दूर अपनी वार्षिक यात्रा पर था। शीघ्र लौट कर सब ठीक करने का आश्वासन दिया। तो उसके लौटने की खबर से ही, ठंड ने अपना दायरा समेटना शुरू कर लिया। <br/> वसुधा अपने नैसर्गिक रूप में पुनः खिलखिलाने लगी। वसुधा नव यौवना सी मुस्कान लिए साजन से मिलन के सतरंगी सपने सजाने लगी। हाथों में मेहँदी रंग रचने लगा।<br/> पतझर से प्रकृति ने धरा पर रांगोली सजाई। तो वन उपवन में अमलताश ,पलाश, शिरीष , ने वसुधा के लिए वंदनवार सजाएं। नदियों ने कलकल मिलन के मंगल गीत गये। बासंती बायर दौड़-दौड़ निमंत्रण बांट रही थी । आम मौर ने मंडप छाया। हरसिंगार वरवधू के लिए केशरिया आसन बिछाया। पंछी आकाश मार्ग से कलरव गान करते आये। पशु ,पक्षी गायें बारात बन आए। गोधुल में वसुधा पीत चुनरी ओढ़े वासंती परिणय छाया। चारों ओर मांदल की थाप पर आदिजन थिरके, और शहनाई की गूँज प्रकृति में परिणय मिलन की मादकता घोल रही थी।</p>
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<p>विजय जोशी 'शीतांशु'<br/> सचिव म प्र लेखक संघ</p>बचपन (लघुकथा)~शीतांशुtag:openbooks.ning.com,2016-02-06:5170231:BlogPost:7385762016-02-06T21:45:44.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
1 ||बचपन||<br />
<br />
मैं मध्य अवकाश के बाद हमेशा स्कूल से छूमंतर हो जाता । दीदी, अक्सर बैग उठाकर लाती । और घर पर मुँह बंद रखने के बदले मुझसे चॉकलेट जरूर लेती थी। किन्तु मैं बेफिक्र होकर कभी फूलों के लिए 'चम्पा की बॉडी', बेर के लिए नरसिंग टेकड़ी, तो कभी पिकनिक मनाने 'भेडलेश्वर-बड़दख्खन' के बाग में , नदी किनारे चले जाते था। और ठीक स्कूल छूट्टी के समय पर घर लौट आने का क्रम चलता रहा। मैडम की शिकायत भी दीदी संभाल लेती। दोस्तों के साथ नीम, इमली,आम के कई नन्हें पौधें गोबर के ढ़ेर व रुखड़े पर से निकाल कर स्कूल के…
1 ||बचपन||<br />
<br />
मैं मध्य अवकाश के बाद हमेशा स्कूल से छूमंतर हो जाता । दीदी, अक्सर बैग उठाकर लाती । और घर पर मुँह बंद रखने के बदले मुझसे चॉकलेट जरूर लेती थी। किन्तु मैं बेफिक्र होकर कभी फूलों के लिए 'चम्पा की बॉडी', बेर के लिए नरसिंग टेकड़ी, तो कभी पिकनिक मनाने 'भेडलेश्वर-बड़दख्खन' के बाग में , नदी किनारे चले जाते था। और ठीक स्कूल छूट्टी के समय पर घर लौट आने का क्रम चलता रहा। मैडम की शिकायत भी दीदी संभाल लेती। दोस्तों के साथ नीम, इमली,आम के कई नन्हें पौधें गोबर के ढ़ेर व रुखड़े पर से निकाल कर स्कूल के पीछे वाली खाली जगह पर बो देते। स्कूल में मन नहीँ लगता । आज तितली के पीछे भागते- भागते गिर गया। कलाई पर हल्की मोच आई, घड़ी भी गुम हो गई, पर तितली को पकड़ लिया था। उसके रंग बिरंगे पंख मन को सुकून दे रहे थे। आखिर उसकी मेरी पसंद भी तो एक ही है। फूल व प्रकृति ! उसे पाकर मैं समय व चोट का दर्द भी भूल गया।<br />
तितली को माचिस की डिब्बी में रख लिया। सोच रहा था 'आज दीदी को ये प्यारी सी गिफ्ट दूँगा। बहुत खुश होगी।'<br />
जब मैं समय पर न आया, तो दीदी काफ़ी देर इंतजार कर घर चली गई।<br />
माँ चिंतित । 'सन्जू जाने कहाँ गया भटक रहा होगा?'<br />
''चल छोरी देखकर आते है। "<br />
'माँ वो है भैया, बगीचे में!'<br />
माँ ने दौड़ कर गले लगा लिया माँ, घर ले जाती उससे पहले मैडम ने पापा के सामने मेरा पूरा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। पापा आग बबूला हो गए।<br />
"कहाँ घूमते रहता है??" 'आज पूरे परिवार की नाक कटवा दी। अपनी दीदी से कुछ सीख ले।'<br />
'वोs s मैं s s दीइ इ के लिए ....'और ये हाथ में क्या छिपा रखा है..? (झपटते हुए) ""छोड़ ऐ तितली के चक्कर इतना बड़ा हो गया।"<br />
'आठवी बोर्ड है! पढ़ाई कर पढाई!' 'अभी बचपन न गया।' 'तेरी माँ ने सर पर बैठा रखा है।'<br />
'फेल हुआ तो सीधे बोर्डिग स्कूल में डाल दूँगा।'<br />
मेरे हाथ से तितली वाली डिब्बी लेकर , हाथों में जीवन सवांरने की पुस्तक थमा दी।<br />
'पापा ने तितली को आजाद कर दिया, और मेरा बचपन उस दिन से अतीत में कैद कर दिया।"<br />
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मौलिक व अप्रकाशितमौत के मुँह से (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2015-11-18:5170231:BlogPost:7159662015-11-18T06:30:00.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
<p>सोहन नर्मदा किनारे महिष्मति क्षेत्र में नर्मदा परिक्रमावासियो की लिए सदाव्रत प्रारम्भ करने जा रहा है। उसकी आँखों में वह दृश्य घूमने लगा। जल पीकर सीढ़ियों पर लेटे सोहन को बेहो<strong>शी</strong> छाने लगी। उस पार से आ रही एक नाव की सवारी ने उसे जगाया।</p>
<p>"भाई तू ब्राह्मण का बालक है ना ? यह अन्न दान लेI"</p>
<p>अपनी पहनी हुई धोती में वह अन्न लेकर सोहन मौत के मुँह से घर लौटा आया।<br></br>"आज घर में केवल दलिया शेष बची थी। तेरे पिता जी को जोरो से भूख लगी थी, सो मैंने खिला दी,बेटा|" स्कूल से लौटकर…</p>
<p>सोहन नर्मदा किनारे महिष्मति क्षेत्र में नर्मदा परिक्रमावासियो की लिए सदाव्रत प्रारम्भ करने जा रहा है। उसकी आँखों में वह दृश्य घूमने लगा। जल पीकर सीढ़ियों पर लेटे सोहन को बेहो<strong>शी</strong> छाने लगी। उस पार से आ रही एक नाव की सवारी ने उसे जगाया।</p>
<p>"भाई तू ब्राह्मण का बालक है ना ? यह अन्न दान लेI"</p>
<p>अपनी पहनी हुई धोती में वह अन्न लेकर सोहन मौत के मुँह से घर लौटा आया।<br/>"आज घर में केवल दलिया शेष बची थी। तेरे पिता जी को जोरो से भूख लगी थी, सो मैंने खिला दी,बेटा|" स्कूल से लौटकर सोहन खाली डिब्बों को टटोल रहा था। माँ के निराश भरे स्वर को सुन,सोहन बोला:</p>
<p>"माँ ! मैं तो यह देख रहा हूँ क्या लाना है।"<br/> एक मात्र कंडेक्ट्री के दम पर चल रहे घर के मुखिया का छः माह से यूँ बिस्तर पकड़ लेना। और कुल जमा बिमारी में खर्च हो जाना।<br/> यह समय बोर्ड की परीक्षा दे रहे बेटे पर वज्रपात सा गिरा था। भूखा पेट, आँखों में आँसू लिये सोहन माँ के सामने से तो निकल आया। पर जाये तो कहाँ जाये। अंतर्द्वन्द नर्मदा किनारे ले आया। ऐसे जीने से तो मर जाना ठीक है। कमर तक जल में उतरकर एक खोंचा जल पिया। गहराई में प्रवेश करने ही वाला था कि माँ का ख्याल ! माँ का <strong>क्रंदन</strong> पांव की <strong>बेड़ी</strong> बन गया। वह बुदबुदाया: </p>
<p>"यह दिन भी निकल जायेगे सोहन।"</p>
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<p>मौलिक व अप्रकाशित<br/><br/></p>प्रयास (लघुकथा)tag:openbooks.ning.com,2015-10-16:5170231:BlogPost:7068522015-10-16T13:30:00.000ZVijay Joshihttp://openbooks.ning.com/profile/VijayJoshi
<p>"मधु ! पिता जी का खाना भेज दिया ?"<br></br> "हाँ ! बाबा हाँ ! रोज नियम से भेज देती हूँ।" रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते:<br></br> "बेटा ! बहु-बच्चों का ख्याल रखना।"<br></br> आज मधु की छोटी बहन-जीजा आये हुए, देखकर रमेश ने मधु को बिना कुछ बताये टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। मधु ने भी खाना भिजवा दिया। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा तो मधु…</p>
<p>"मधु ! पिता जी का खाना भेज दिया ?"<br/> "हाँ ! बाबा हाँ ! रोज नियम से भेज देती हूँ।" रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते:<br/> "बेटा ! बहु-बच्चों का ख्याल रखना।"<br/> आज मधु की छोटी बहन-जीजा आये हुए, देखकर रमेश ने मधु को बिना कुछ बताये टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। मधु ने भी खाना भिजवा दिया। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा तो मधु अपनी बहन से कह रही थी:<br/> "रोज खाना भेजने का मजबूरी है। वरना बाबूजी यहाँ ही आ धमके | तो मेरा जीवन एक माह में ही नरक बन जाये। बड़े प्रयास से इस बंगले के कागजात रमेश ने अपने नाम करवा रहे है। इसलिए यह प्रयास रहता है कि खाना बन्द न हो।"<br/></p>
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<p>विजय जोशी 'शीतांशु'<br/> महेश्वर जिला खरगोन म.प्र.<br/> रचना मौलिक व अप्रकाशित है।</p>