Arun Sri's Posts - Open Books Online2024-03-28T10:24:07ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastavahttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991288067?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooks.ning.com/profiles/blog/feed?user=0ccjj5n19sphx&xn_auth=noबिल्ली सी कविताएँ --- अरुण श्री !tag:openbooks.ning.com,2014-07-28:5170231:BlogPost:5626142014-07-28T05:17:12.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ !</p>
<p> </p>
<p>क्योकि -</p>
<p>युद्ध जीत कर लौटा राजा भूल जाता है -</p>
<p>कि अनाथ और विधवाएँ भी हैं उसके युद्ध का परिणाम !</p>
<p>लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब !</p>
<p>एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ !</p>
<p> </p>
<p>क्योंकि -</p>
<p>नई माँ रसोई खुली छोड़ असमय सो जाती है अक्सर !</p>
<p>कहीं आदत न बन जाए दुधमुहें की भूख भूल जाना !</p>
<p>कच्ची नींद टूट सकती है बर्तनों की आवाज से भी ,</p>
<p>दाईत्वबोध पैदा कर सकता…</p>
<p>मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ !</p>
<p> </p>
<p>क्योकि -</p>
<p>युद्ध जीत कर लौटा राजा भूल जाता है -</p>
<p>कि अनाथ और विधवाएँ भी हैं उसके युद्ध का परिणाम !</p>
<p>लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब !</p>
<p>एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ !</p>
<p> </p>
<p>क्योंकि -</p>
<p>नई माँ रसोई खुली छोड़ असमय सो जाती है अक्सर !</p>
<p>कहीं आदत न बन जाए दुधमुहें की भूख भूल जाना !</p>
<p>कच्ची नींद टूट सकती है बर्तनों की आवाज से भी ,</p>
<p>दाईत्वबोध पैदा कर सकता है भूख से रोता हुआ बच्चा !</p>
<p> </p>
<p>क्योंकि -</p>
<p>आवारा होना यथार्थ तक जाने का एक मार्ग भी है !</p>
<p>‘गर्म हवाएं कितनी गर्म हैं’ ये बंद कमरे नहीं बताते !</p>
<p>प्राचीरों के पार नहीं पहुँचती सड़कों की बदहवास चीखें !</p>
<p>बंद दरवाजे में प्रेम नहीं पलता हमेशा ,</p>
<p>खपरैल से ताकते दिखता है आंगन का पत्थरपन भी !</p>
<p> </p>
<p>क्योकि -</p>
<p>मैं कई बार शब्दों को चबाकर लहूलुहान कर देता हूँ !</p>
<p>खून टपकती कविताएँ कपड़े उतार ताल ठोकतीं हैं !</p>
<p>स्थापित देव मुझे ख़ारिज करने के नियोजित क्रम में -</p>
<p>अपना सफ़ेद पहनावा सँभालते हैं पहले !</p>
<p>सतर्क होने की स्थान पर सहम जातीं हैं सभ्यताएँ !</p>
<p>पत्ते झड़ने का अर्थ समझा जाता है पेड़ का ठूंठ होना !</p>
<p> </p>
<p>मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ -</p>
<p>विजय-यात्रा पर निकलते राजा का रास्ता काट दें !</p>
<p>जुठार आएं खुली रसोई में रखा दूध , बर्तन गिरा दे !</p>
<p>अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को !</p>
<p>मेरे सामने से गुजरें तो मुँह में अपना बच्चा दबाए हुए !</p>
<p> .</p>
<p> .</p>
<p> .</p>
<p>अरुण श्री !<br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>अजन्मी उम्मीदें --- अरुण श्रीtag:openbooks.ning.com,2014-06-04:5170231:BlogPost:5461232014-06-04T05:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !</p>
<p> </p>
<p>संसद चाहती है -</p>
<p>कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !</p>
<p>स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -</p>
<p>जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !</p>
<p>बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !</p>
<p>पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !</p>
<p> </p>
<p>हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है</p>
<p>अस्वीकार करता है -</p>
<p>कि मदारी की जादुई…</p>
<p>समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !</p>
<p> </p>
<p>संसद चाहती है -</p>
<p>कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !</p>
<p>स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -</p>
<p>जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !</p>
<p>बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !</p>
<p>पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !</p>
<p> </p>
<p>हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है</p>
<p>अस्वीकार करता है -</p>
<p>कि मदारी की जादुई भाषा से अलग भी हो सकता है तमाशे का अंत !</p>
<p>लेकिन शाम ढले तक भी उसकी आँखों में कोई सूर्य नहीं उत्सव का !</p>
<p>ताली बजाने को खुली मुट्ठी का खालीपन बदतर है -</p>
<p>क्षितिज के सूनेपन से भी !</p>
<p>शांतिवाद हो जाने को विवश हुई क्रांति -</p>
<p>उसकी कर्म-इन्द्रियों पर उग आए कोढ़ से अधिक कुछ भी नहीं !</p>
<p> </p>
<p>पहाड़ी पर का दार्शनिक पूर्वजों के अभिलेखों से धूल झाड़ता है रोज !</p>
<p>जानता है कि घाटी में दफन हो जाती हैं सभ्यताएँ और उसके देवता !</p>
<p>भविष्य के हर प्रश्न पर अपनी कोट में खोंस लेता है सफ़ेद गुलाब !</p>
<p>उपसंहारीय कथन में -</p>
<p>कौवों के चिल्लाने का सम्बन्ध स्थापित करता है उनकी भूख से !</p>
<p>अपने छप्पर से एक लकड़ी निकाल चूल्हे में जला देता है !</p>
<p> </p>
<p>कवि प्रेयसी की कब्र पर अपना नाम लिखना नहीं छोडता !</p>
<p>राजा और जीवन के विकल्प की बात पर -</p>
<p>“हमें का हानी” की मुद्रा में इशारे करता है नई खुदी कब्र की ओर !</p>
<p>उसके शब्द शिव के शोक से होड़ लगाते रचते है नया देहशास्त्र !</p>
<p>मृत्यु में अधिक है उसकी आस्था आत्मा और पुनर्जन्म के सापेक्ष !</p>
<p> </p>
<p>समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !</p>
<p>संसद में होती है लिंग और जाति पर असंसदीय चर्चा !</p>
<p>लोकतंत्र थाली पीटता है समय और निराशा से ठीक पहले !</p>
<p>दार्शनिक भात पकाता है कौवों के लिए कि कोई नहीं आने वाला !</p>
<p>सड़कों से विरक्त कवि -</p>
<p>आकाश देखता शोक मनाता है कि अमर तो प्रेम भी न हुआ !<br/> .<br/> .<br/> .<br/> .अरुण श्री ! <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></p>आखिर कैसा देश है ये ? --- अरुण श्रीtag:openbooks.ning.com,2014-06-01:5170231:BlogPost:5454032014-06-01T07:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है ,</p>
<p>सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम !</p>
<p>गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -</p>
<p>कविताओं को खंखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ ,</p>
<p>कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है ,कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होतीं !</p>
<p>पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता !</p>
<p>एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना…</p>
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है ,</p>
<p>सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम !</p>
<p>गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -</p>
<p>कविताओं को खंखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ ,</p>
<p>कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है ,कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होतीं !</p>
<p>पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता !</p>
<p>एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना !</p>
<p> </p>
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि बाँध बनकर कई आँखों को बंजर बना देतें हैं ,</p>
<p>सड़क बनते ही फुटपाथ पर आ जाती है पूरी की पूरी बस्ती !</p>
<p>कच्ची सड़क के गड्ढे बचे हुआ बस्तीपन के सीने पर आ जाते हैं !</p>
<p>बूढी आँखों में बसा बसेरे का सपना रोज कुचलतीं है लंबी-लंबी गाडियाँ !</p>
<p>समय के सहारे छोड़ दिए गए घावों को समय कुरेदता रहता है अक्सर !</p>
<p> </p>
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि बच्चे देश से अधिक जानना चाहतें हैं रोटी के विषय में ,</p>
<p>स्वर्ण-थाल में छप्पन भोग और राजकुमार की कहानियों को झूठ कहते हैं ,</p>
<p>मानतें हैं कि घास खाना मूर्खता है जब उपलब्ध हो सकती हो रोटी ! </p>
<p>छब्बीस जनवरी उनके लिए दो लड्डू ,एक छुट्टी से अधिक कुछ भी नहीं !</p>
<p> </p>
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि माट्साब कमउम्र लड़कियों को पढाते हैं विद्यापति के रसीले गीत ,</p>
<p>मुखिया जी न्योता देते हैं कि मन हो तो चूस लेना मेरे खेत से गन्ने !</p>
<p>इनारे पर पानी भरती उनकी माँ से कहते है कि तुम पर गई है बिल्कुल !</p>
<p>दुधारू माँ अपने दुधमुहें की सोच कर थूक घोंट मुस्कुराती है बस -</p>
<p>कि अगर छूट गई घरवाले की बनिहारी भी तो बिसुकते देर न लगेगी !</p>
<p> </p>
<p>आखिर कैसा देश है ये ?</p>
<p>- कि विद्रोही कविताएँ राजकीय अभिलेखों का हिस्सा नहीं है !</p>
<p>तेज रफ़्तार सड़कें रुके हुए फुटपाथों के मुँह पर धुँआ थूक रही हैं !</p>
<p>बच्चों से कहो देशप्रेम तो वो पहले रोटी मांगते हैं !</p>
<p>कमउम्र लड़कियों से पूछो उनका हाल तो वो छुपातीं हैं अपनी अपुष्ट छाती !</p>
<p>माँ के लिए बेटी के कौमार्य से अधिक जरूरी है दुधमुहें की भूख !</p>
<p> </p>
<p>वातानुकूलित कक्ष तक विकास के आँकड़े कहाँ से आते हैं आखिर ?</p>
<p> </p>
<p>कविताओं के हर प्रश्न पर मौन रहती है संसद और सड़कें भी !</p>
<p>निराश कवि मिटाने लगता है अपने नाखून पर लगा लोकतंत्र का धब्बा !<br/> .<br/> .<br/> .<br/> ...................................................................................... अरुण श्री ! <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>नायक (अरुण श्री)tag:openbooks.ning.com,2014-04-28:5170231:BlogPost:5351992014-04-28T05:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !<br></br> समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,<br></br> जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !</p>
<p></p>
<p>तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके ह्रदय में ,<br></br> और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं ! <br></br> उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !</p>
<p></p>
<p>लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !<br></br> उसे भ्रम था -<br></br> कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्त्रोत को प्राप्त हुई है !<br></br> हालाँकि उसे ज्ञात था…</p>
<p>अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !<br/> समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,<br/> जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !</p>
<p></p>
<p>तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके ह्रदय में ,<br/> और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं ! <br/> उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !</p>
<p></p>
<p>लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !<br/> उसे भ्रम था -<br/> कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्त्रोत को प्राप्त हुई है !<br/> हालाँकि उसे ज्ञात था पर स्वीकार न हुआ -<br/> कि पर्वतों के व्यभिचार का परिणाम होती हैं कुछ नदियाँ !</p>
<p></p>
<p>वो रहस्यमय था मेरे प्रेमिल ह्रदय से भी -<br/> और अंततः मेरी निराश पीड़ा से भी कठोर हुआ !<br/> मृत समझे जाने की हद तक सहनशील बना -<br/> -अतीत के सामुद्रिक आलिंगनों के प्रति , चुम्बनों के प्रति !</p>
<p></p>
<p>आँखों में छाया देह का धुंधलका बह गया आंसुओं में ,<br/> तब दृश्य रणभूमि का था !<br/> पराजित बेटों के शव जलाने गए बूढ़े नहीं लौटे शमशान से !<br/> दूध से तनी छातियों पर कवच पहने युवतियाँ -<br/> दुधमुहें बच्चों को पीठ पर बाँध जलते चूल्हे में पानी डाल गईं !</p>
<p></p>
<p>जब वो प्रेम में था , उसकी सभ्यता हार गई अपना युद्ध !</p>
<p></p>
<p>अब भींच ली गईं हैं आंसू बहाती उँगलियाँ !<br/> उसके माथे पर उभरी लकीरें क्रोधित नहीं है, आसक्त भी नहीं -<br/> किसी जवान स्त्री की गुदाज जांघों के प्रति !<br/> क्योकि ऐसे में आक्रोश पनपता है , उत्तेजना नहीं !</p>
<p></p>
<p>अपनी रातरानी की नुची पंखुडियों का दर्द बटोर -<br/> वो जीवित है जला दिए गए बाग में भी !<br/> दिनों को जोतता हुआ , रातों को सींचता हुआ !<br/> ताकि सूखकर काले हो चुके खून सने खेत गवाही दें -<br/> कि मद्धम नहीं पड़ सकती बिखरे हुए रक्त की चमक !<br/> सुनहरे दाने उगेंगे एक दिन !<br/> और अंतिम दृश्य उसके हिस्से का -<br/> कटान पर किया जाने वाला परियों का नृत्य होगा !<br/> क्योकि -<br/> उसे स्वीकार नहीं एक अपूर्ण भूमिका सम्पूर्णता के नाटक में !</p>
<p></p>
<p>नेपथ्य का नेतृत्व नकार दिया गया है !<br/> अब मैं उसका भाग्य नहीं , उसके कर्म लिखता हूँ !</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>अरुण श्री !<br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</p>मैं कितना झूठा था !!tag:openbooks.ning.com,2014-04-03:5170231:BlogPost:5273792014-04-03T05:54:36.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!</p>
<p> </p>
<p>तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !</p>
<p>मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !</p>
<p>तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !</p>
<p> </p>
<p>एक गर्मी की छुट्टियों में -</p>
<p>तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !</p>
<p>मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !</p>
<p> </p>
<p>तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !</p>
<p>मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता…</p>
<p>कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!</p>
<p> </p>
<p>तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !</p>
<p>मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !</p>
<p>तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !</p>
<p> </p>
<p>एक गर्मी की छुट्टियों में -</p>
<p>तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !</p>
<p>मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !</p>
<p> </p>
<p>तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !</p>
<p>मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -</p>
<p>कि अभी बच्ची हो !</p>
<p>तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती !</p>
<p> </p>
<p>तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही , मैं कवि होने लगा !</p>
<p>तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर !</p>
<p>मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता !</p>
<p> </p>
<p>एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -</p>
<p>सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम !</p>
<p>मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर !</p>
<p> </p>
<p>आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग</p>
<p>दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से !</p>
<p>मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ !</p>
<p>दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता !</p>
<p>हमने तब जाना कि एक रंग “अँधेरा” भी होता है!</p>
<p> </p>
<p>रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन !</p>
<p>तुम सुबह-सुबह काजल लगा लेती कि छुपा रहे रात का रंग !</p>
<p>मैं फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना !</p>
<p> </p>
<p>मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गांव के सत्ती चौरे पर !</p>
<p>तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने !</p>
<p>उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टांकता था मैं !</p>
<p>मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय !</p>
<p> </p>
<p>तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम !</p>
<p>मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूंगा कविताएँ !</p>
<p> </p>
<p>कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!<br/>.<br/>.<br/>.<br/>...................................................................अरुन श्री ! <br/>.<br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></span></p>गज़ल - नाफरमानी लिखना (अरुन श्री)tag:openbooks.ning.com,2014-01-21:5170231:BlogPost:5020882014-01-21T05:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>आह लिखो , हुंकार लिखो , कुर्बानी लिखना</p>
<p>बंद करो किस्सों में राजा रानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>सूखे खेतों की किस्मत में पानी लिखना</p>
<p>अब लिखना तो पीलेपन को धानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>और भी हैं रिश्ते यारों तुम छोडो भी अब</p>
<p>महबूबा के दर अपनी पेशानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>मानवता उन्वान , भरा हो प्रेम कहन में </p>
<p>अपना जीवन ऐसी एक कहानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>जब भी तुम अपने लब पर मुस्कान लिखो…</p>
<p>आह लिखो , हुंकार लिखो , कुर्बानी लिखना</p>
<p>बंद करो किस्सों में राजा रानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>सूखे खेतों की किस्मत में पानी लिखना</p>
<p>अब लिखना तो पीलेपन को धानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>और भी हैं रिश्ते यारों तुम छोडो भी अब</p>
<p>महबूबा के दर अपनी पेशानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>मानवता उन्वान , भरा हो प्रेम कहन में </p>
<p>अपना जीवन ऐसी एक कहानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>जब भी तुम अपने लब पर मुस्कान लिखो तब</p>
<p>मेरे माथे पर भी कुछ ताबानी लिखना</p>
<p> </p>
<p>जो कर दें दरबारी धार कलम की , ऐसे -</p>
<p>शाही फरमानों पर नाफरमानी लिखना<br/> .<br/> .<br/> ................................................. अरुन श्री ! <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>गज़ल - जाग उठी सड़केंtag:openbooks.ning.com,2014-01-04:5170231:BlogPost:4957752014-01-04T04:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>जाग उठी सड़कें उन्हें बस सच बयानी चाहिए</p>
<p>कह दो संसद से न कोई लंतरानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>देख तो ! मैं बिक गया उसकी वफ़ा के नाम पर</p>
<p>ऐ तिजारत ! अब तुझे नज़रें झुकानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>मैं बना दूँ अपनी पेशानी पे सजदे की लकीर</p>
<p>तू बता तुझको दिलों पर हुक्मरानी चाहिए ?</p>
<p> </p>
<p>धूप में जलना पड़ेगा फिर सुबह से शाम तक</p>
<p>जिद है बच्चों की उन्हें कुछ जाफरानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>प्यार है तो आ मेरे माथे पर अपना नाम लिख</p>
<p>जिक्र जब मेरा …</p>
<p>जाग उठी सड़कें उन्हें बस सच बयानी चाहिए</p>
<p>कह दो संसद से न कोई लंतरानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>देख तो ! मैं बिक गया उसकी वफ़ा के नाम पर</p>
<p>ऐ तिजारत ! अब तुझे नज़रें झुकानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>मैं बना दूँ अपनी पेशानी पे सजदे की लकीर</p>
<p>तू बता तुझको दिलों पर हुक्मरानी चाहिए ?</p>
<p> </p>
<p>धूप में जलना पड़ेगा फिर सुबह से शाम तक</p>
<p>जिद है बच्चों की उन्हें कुछ जाफरानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>प्यार है तो आ मेरे माथे पर अपना नाम लिख</p>
<p>जिक्र जब मेरा हो तेरी बात आनी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>कर खसारा मैं भरे बाज़ार से उठने को हूँ</p>
<p>कह रहे हैं लोग थोड़ी बेइमानी चाहिए</p>
<p> </p>
<p>मैं भी चुप हूँ तू भी तन्हा सोच मत पत्थर उठा</p>
<p>तु भी खुश, मेरे लहू को भी रवानी चाहिए<br/> .<br/> .<br/> <br/> अरुन श्री !</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>आवारा कविtag:openbooks.ning.com,2013-12-04:5170231:BlogPost:4821932013-12-04T07:43:20.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>अपनी आवारा कविताओं में -</p>
<p>पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन ,</p>
<p>हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध ,</p>
<p>पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ मैं !</p>
<p>लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम -</p>
<p>तो देह लिखता हूँ !</p>
<p>जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना !</p>
<p> </p>
<p>और जब -</p>
<p>मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -</p>
<p>कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा !</p>
<p>आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है…</p>
<p>अपनी आवारा कविताओं में -</p>
<p>पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन ,</p>
<p>हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध ,</p>
<p>पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ मैं !</p>
<p>लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम -</p>
<p>तो देह लिखता हूँ !</p>
<p>जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना !</p>
<p> </p>
<p>और जब -</p>
<p>मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -</p>
<p>कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा !</p>
<p>आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है !</p>
<p>रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र !</p>
<p>चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है !</p>
<p>चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आंगन में !</p>
<p>जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ !</p>
<p>बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ !</p>
<p> </p>
<p>मैं तय नहीं पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी !</p>
<p>किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की !</p>
<p>आवारा लड़की को ढूंढते हुए मर जाता है प्रेम !</p>
<p>अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बांधी गई पगड़ी में ,</p>
<p>और लिखने लगता हूँ -</p>
<p>अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ” !</p>
<p> </p>
<p>लेकिन -</p>
<p>मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ !</p>
<p>प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से !</p>
<p>अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगता कोई योद्धा !</p>
<p> </p>
<p>दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं -</p>
<p>उस आवारा लड़की को भूल जाऊंगा एक दिन ,</p>
<p>और वो दिन -</p>
<p>एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>.</p>
<p>............................................................... अरुन श्री !<br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>अंतिम योद्धाtag:openbooks.ning.com,2013-09-21:5170231:BlogPost:4382002013-09-21T05:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>हाँ</p>
<p>मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र</p>
<p>तुम्हारी पायल के लिए</p>
<p>और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव</p>
<p>शोभा बनेंगे</p>
<p>किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की</p>
<p>फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा !</p>
<p> </p>
<p>हाँ</p>
<p>मैं लिखूंगा प्रेम कविताएँ</p>
<p>किन्तु ठहरो तनिक</p>
<p>पहले लिख लूँ एक मातमी गीत</p>
<p>अपने अजन्मे बच्चे के लिए</p>
<p>तुम्हारी हिचकियों की लय पर</p>
<p>बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र</p>
<p> </p>
<p>हाँ</p>
<p>मैं बुनूँगा…</p>
<p>हाँ</p>
<p>मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र</p>
<p>तुम्हारी पायल के लिए</p>
<p>और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव</p>
<p>शोभा बनेंगे</p>
<p>किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की</p>
<p>फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा !</p>
<p> </p>
<p>हाँ</p>
<p>मैं लिखूंगा प्रेम कविताएँ</p>
<p>किन्तु ठहरो तनिक</p>
<p>पहले लिख लूँ एक मातमी गीत</p>
<p>अपने अजन्मे बच्चे के लिए</p>
<p>तुम्हारी हिचकियों की लय पर</p>
<p>बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र</p>
<p> </p>
<p>हाँ</p>
<p>मैं बुनूँगा सपने</p>
<p>तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से</p>
<p>पर इससे पहले कि उस दिवार पर -</p>
<p>जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल</p>
<p>जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद !</p>
<p>वहीं दूसरी तस्वीर में</p>
<p>किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर !</p>
<p>- मैं टांग दूँ अपना कवच</p>
<p>कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने</p>
<p>मेरे छोटे भाइयों के लिए</p>
<p>मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा</p>
<p> </p>
<p>हाँ</p>
<p>मुझे प्रेम है तुमसे </p>
<p>और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !</p>
<p> .</p>
<p> .</p>
<p> .</p>
<p>अरुन श्री !<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>मैं देव न हो सकूंगाtag:openbooks.ning.com,2013-09-10:5170231:BlogPost:4320052013-09-10T06:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>सुनो ,</p>
<p>व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !</p>
<p>अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?</p>
<p>बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !</p>
<p>मैं देव न हुआ !</p>
<p> </p>
<p>सुनो ,</p>
<p>प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !</p>
<p>तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !</p>
<p>मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !</p>
<p>तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !</p>
<p>मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !</p>
<p>(मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !)</p>
<p> </p>
<p>सुनो…</p>
<p>सुनो ,</p>
<p>व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !</p>
<p>अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?</p>
<p>बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !</p>
<p>मैं देव न हुआ !</p>
<p> </p>
<p>सुनो ,</p>
<p>प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !</p>
<p>तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !</p>
<p>मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !</p>
<p>तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !</p>
<p>मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !</p>
<p>(मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !)</p>
<p> </p>
<p>सुनो ,</p>
<p>अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !</p>
<p>प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !</p>
<p>तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -</p>
<p>जबकि संवादों में अंतर है -“ही” और “भी” निपात का !</p>
<p>संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -</p>
<p>तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !</p>
<p> </p>
<p>सुनो ,</p>
<p>मैं देव न हो सकूंगा !</p>
<p>मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !</p>
<p>मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !</p>
<p> </p>
<p>सुनो ,</p>
<p>मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>...................................................... अरुन श्री !<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>बीमार पीढ़ीtag:openbooks.ning.com,2013-08-05:5170231:BlogPost:4082132013-08-05T06:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>अच्छा !!!!</p>
<p>तो प्रेम था वो !!!</p>
<p> </p>
<p>जबकि केंद्रित था लहू का आत्मिक तत्व</p>
<p>पलायन स्वीकार चुकी भ्रमित एड़ियों में !</p>
<p>किन्तु -</p>
<p>एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !</p>
<p><span>एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं</span> !</p>
<p>भिखमंगे के खाली हांथों की तरह शुन्य रहा मष्तिष्क !</p>
<p> </p>
<p>हृदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष</p>
<p>हास्यास्पद था-</p>
<p>तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !</p>
<p>विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू…</p>
<p>अच्छा !!!!</p>
<p>तो प्रेम था वो !!!</p>
<p> </p>
<p>जबकि केंद्रित था लहू का आत्मिक तत्व</p>
<p>पलायन स्वीकार चुकी भ्रमित एड़ियों में !</p>
<p>किन्तु -</p>
<p>एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !</p>
<p><span>एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं</span> !</p>
<p>भिखमंगे के खाली हांथों की तरह शुन्य रहा मष्तिष्क !</p>
<p> </p>
<p>हृदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष</p>
<p>हास्यास्पद था-</p>
<p>तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !</p>
<p>विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू !</p>
<p> </p>
<p>हाँ !</p>
<p>शायद प्रेम ही था !</p>
<p>अभीष्ट को निषिद्ध में तलाशती हुई ,</p>
<p>संडास में स्खलित होती बीमार पीढ़ी का प्रेम !</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>................................................. अरुन श्री !<br/> <br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</p>मेरा अभीष्टtag:openbooks.ning.com,2013-07-16:5170231:BlogPost:3976902013-07-16T08:08:49.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>मेरे जीवित होने का अर्थ -</p>
<p>-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ !</p>
<p>-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !</p>
<p> </p>
<p>ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !</p>
<p>मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !</p>
<p> </p>
<p>मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !</p>
<p>संभव है-</p>
<p>कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !</p>
<p></p>
<p>मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>……………………................………… अरुन श्री…</p>
<p>मेरे जीवित होने का अर्थ -</p>
<p>-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ !</p>
<p>-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !</p>
<p> </p>
<p>ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !</p>
<p>मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !</p>
<p> </p>
<p>मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !</p>
<p>संभव है-</p>
<p>कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !</p>
<p></p>
<p>मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>.</p>
<p>……………………................………… अरुन श्री !<br/><br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></span></p>सुनो स्त्री !tag:openbooks.ning.com,2013-05-03:5170231:BlogPost:3569942013-05-03T04:19:24.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>सुनो स्त्री !</p>
<p>पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो !</p>
<p>और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते !</p>
<p> </p>
<p>तेज हुई सांसों की लय पर थिरकती छातियाँ</p>
<p>प्रेम कहेंगी तुमसे -</p>
<p>संगीत और नृत्य के संतुलन को !</p>
<p>सामंजस्य जीवन कहलाता है !</p>
<p>(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)</p>
<p>सम्मोहन टूटते है अक्सर -</p>
<p>बर्तन फेकने की आवाजों से !</p>
<p> </p>
<p>आँगन और छत के लिए आयातित धुप</p>
<p>पसार दी जाती है ,</p>
<p>शयनकक्ष की मेज पर !</p>
<p>रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते है…</p>
<p>सुनो स्त्री !</p>
<p>पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो !</p>
<p>और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते !</p>
<p> </p>
<p>तेज हुई सांसों की लय पर थिरकती छातियाँ</p>
<p>प्रेम कहेंगी तुमसे -</p>
<p>संगीत और नृत्य के संतुलन को !</p>
<p>सामंजस्य जीवन कहलाता है !</p>
<p>(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)</p>
<p>सम्मोहन टूटते है अक्सर -</p>
<p>बर्तन फेकने की आवाजों से !</p>
<p> </p>
<p>आँगन और छत के लिए आयातित धुप</p>
<p>पसार दी जाती है ,</p>
<p>शयनकक्ष की मेज पर !</p>
<p>रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते है ,</p>
<p>जब बुझ जाएगा तुम्हारी आँखों का सूरज !</p>
<p>(अगर डूबता तो फिर उग भी सकता था)</p>
<p> </p>
<p>थोपी गई धार्मिक स्मृतियाँ विस्मृत कर देतीं हैं -</p>
<p>प्रतिरोध की आदिम कला !</p>
<p>इस घटना को आस्तिक होना कहा जाएगा !</p>
<p> </p>
<p>तो सुनो स्त्री !</p>
<p>पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो !</p>
<p>बस , ह्रदय कर्ज़दार न हो <br/> तुम्हारे कान गिरवी न रख दिए जाएँ !<br/> (होंठ उम्र भर सूद चुकाते रहेंगे )</p>
<p>दूब ताकतवर मानी गई है ,</p>
<p>कुचलने वाले भारी भरकम पैरों से !</p>
<p>बीच समुन्दर ,</p>
<p>अकेला जहाज ,</p>
<p>मस्तूल पर तुम !</p>
<p>तुम्हारे पंख सजावट का सामान नहीं हैं !</p>
<p>थोपी गई स्मृतियाँ नकार दी जानी चाहिए !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>……………………………...….. अरुन श्री !</p>प्रेमtag:openbooks.ning.com,2013-02-23:5170231:BlogPost:3231552013-02-23T14:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>मृतप्राय शिराओं में बहता हुआ</p>
<p>संक्रमण से सफ़ेद हो चुका खून</p>
<p>गर्म होकर गला देता है</p>
<p>तुम्हारी रीढ़ !</p>
<p>और तुम -</p>
<p>-अपनी आत्मा पर पड़े फफोलो से अन्जान</p>
<p>-रेंगते हुए मर्यादा की धरती पर</p>
<p>प्रेम कहते हो –</p>
<p>एक चक्रवत प्रवाहित अशुद्धि को !</p>
<p> </p>
<p><strong>तुम्हारी</strong> गर्म सांसों का अंधड़</p>
<p>हिला देता है जड़ तक ,</p>
<p>एक छायादार वृक्ष को !</p>
<p>और फिर कविता लिखकर</p>
<p>शाख से गिरते हुए सूखे पत्तों पर ,</p>
<p>तुम परिभाषित करते…</p>
<p>मृतप्राय शिराओं में बहता हुआ</p>
<p>संक्रमण से सफ़ेद हो चुका खून</p>
<p>गर्म होकर गला देता है</p>
<p>तुम्हारी रीढ़ !</p>
<p>और तुम -</p>
<p>-अपनी आत्मा पर पड़े फफोलो से अन्जान</p>
<p>-रेंगते हुए मर्यादा की धरती पर</p>
<p>प्रेम कहते हो –</p>
<p>एक चक्रवत प्रवाहित अशुद्धि को !</p>
<p> </p>
<p><strong>तुम्हारी</strong> गर्म सांसों का अंधड़</p>
<p>हिला देता है जड़ तक ,</p>
<p>एक छायादार वृक्ष को !</p>
<p>और फिर कविता लिखकर</p>
<p>शाख से गिरते हुए सूखे पत्तों पर ,</p>
<p>तुम परिभाषित करते हो</p>
<p>प्रेम को !</p>
<p>जबकि तुम्हारी भी मंशा है</p>
<p>कि ठूंठ हो चूका पेड़ जला दिया जाए ,</p>
<p>तुम्हारी वासना के चूल्हे में ,</p>
<p>जिस पर पकता रहेगा</p>
<p>एक निर्जीव सम्बन्ध !</p>
<p> </p>
<p>प्रकृति की मनोरम गोद में</p>
<p>निषिद्ध क्रीड़ाएँ करते हुए ,</p>
<p>तुम प्रेम कहते हो उस घाव को</p>
<p>जिसमें से बह रही है पवित्रता ,</p>
<p>मवाद बनकर !</p>
<p>और नीला पानी एक सदानीरा नदी का</p>
<p>बनने को है –</p>
<p>एक गंधाता दलदल !</p>
<p>जो तुम्हारी ही नाक से ऊपर बहेगा एक दिन !</p>
<p> </p>
<p>कठोरता और लिजलिजेपन के बीच का अंतराल</p>
<p>प्रेम नही कहलाता !</p>
<p>प्रेम वो है -</p>
<p>-जो दिख रहा है</p>
<p>अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत</p>
<p>और अंततः</p>
<p>भावनाओं के खून से सने</p>
<p>मांसल लोथड़ों के बीच पिसते हुए भी</p>
<p>जीवित रहेगा ,</p>
<p>तुम्हारे मुँह पर तमाचा बन कर !</p>
<p></p>
<p>........................................... अरुन श्री !</p>
<p></p>तय करना हैtag:openbooks.ning.com,2012-11-07:5170231:BlogPost:2881792012-11-07T05:54:58.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>चाँद-सितारे ,बादल ,सूरज</p>
<p>आँख मिचौली खेल रहें हैं ।</p>
<p>धरती खुश है ,</p>
<p>झूम रही है ।</p>
<p>झूम रहा है प्रहरी कवि-मन ।</p>
<p>समय आ गया नए सृजन का ।</p>
<p> </p>
<p>खून सनी सड़कों पर-</p>
<p>काँटे उग आएं हैं ।</p>
<p>जीवन भाग रहा है नंगेपांव –</p>
<p>मगर बचना मुश्किल है ।</p>
<p>सन्नाटों का गठबंधन-</p>
<p>अब चीखों से है ।</p>
<p> </p>
<p>हृदयों के श्रृंगारिक पल में</p>
<p>छत पर चाँद उतर आता है ।</p>
<p>कवि के कन्धे पर सर रखकर</p>
<p>मुस्काता है ।</p>
<p>नीम द्वार का गा उठता…</p>
<p>चाँद-सितारे ,बादल ,सूरज</p>
<p>आँख मिचौली खेल रहें हैं ।</p>
<p>धरती खुश है ,</p>
<p>झूम रही है ।</p>
<p>झूम रहा है प्रहरी कवि-मन ।</p>
<p>समय आ गया नए सृजन का ।</p>
<p> </p>
<p>खून सनी सड़कों पर-</p>
<p>काँटे उग आएं हैं ।</p>
<p>जीवन भाग रहा है नंगेपांव –</p>
<p>मगर बचना मुश्किल है ।</p>
<p>सन्नाटों का गठबंधन-</p>
<p>अब चीखों से है ।</p>
<p> </p>
<p>हृदयों के श्रृंगारिक पल में</p>
<p>छत पर चाँद उतर आता है ।</p>
<p>कवि के कन्धे पर सर रखकर</p>
<p>मुस्काता है ।</p>
<p>नीम द्वार का गा उठता है</p>
<p>गीत प्यार के ।</p>
<p> </p>
<p>कविताएँ नाखून बढाकर</p>
<p>घूम रहीं हैं ।</p>
<p>नुचे हुए भावों के चेहरे</p>
<p>नया मुखौटा ओढ़ चुके हैं ।</p>
<p>अट्टहास करती है नफरत</p>
<p>प्यार भरी कुछ मुस्कानों पर ।</p>
<p> </p>
<p>अलग-अलग से दो मंजर हैं ,</p>
<p>किसको देखूं ?</p>
<p> </p>
<p>जुदा-जुदा सी दो राहें हैं ,</p>
<p>क्या होगा-</p>
<p>मेयार सफर का ?</p>
<p> </p>
<p>तय करना है !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>.............................. अरुन श्री !</p>गज़ल - आदमी जो बेतुका हैtag:openbooks.ning.com,2012-07-19:5170231:BlogPost:2497832012-07-19T06:25:44.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>वो अगर मुझसे खफा है</p>
<p>हक है उसको क्या बुरा है</p>
<p> </p>
<p>घोंसले के साथ जुडकर</p>
<p>एक तिनका जी रहा है</p>
<p> </p>
<p>जो अपरिचित है नदी से</p>
<p>बाढ़ पर वो बोलता है</p>
<p> </p>
<p>है यकीं चारागरी पर</p>
<p>हो जहर तो भी दवा है</p>
<p> </p>
<p>देख कर मुँह फेर लेना</p>
<p>कुछ पुराना आशना है</p>
<p> </p>
<p>टूट ही जाना है उसको</p>
<p>सच दिखाता आइना है</p>
<p> </p>
<p>जी रहा तुकबंदियों को </p>
<p>आदमी जो बेतुका …</p>
<p>वो अगर मुझसे खफा है</p>
<p>हक है उसको क्या बुरा है</p>
<p> </p>
<p>घोंसले के साथ जुडकर</p>
<p>एक तिनका जी रहा है</p>
<p> </p>
<p>जो अपरिचित है नदी से</p>
<p>बाढ़ पर वो बोलता है</p>
<p> </p>
<p>है यकीं चारागरी पर</p>
<p>हो जहर तो भी दवा है</p>
<p> </p>
<p>देख कर मुँह फेर लेना</p>
<p>कुछ पुराना आशना है</p>
<p> </p>
<p>टूट ही जाना है उसको</p>
<p>सच दिखाता आइना है</p>
<p> </p>
<p>जी रहा तुकबंदियों को </p>
<p>आदमी जो बेतुका है</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>..................... अरुन श्री !</p>लड़कीtag:openbooks.ning.com,2012-07-12:5170231:BlogPost:2473112012-07-12T08:00:50.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>देखो !</p>
<p>उस चिड़िया के पंख निकाल आए</p>
<p>अब वो अपने पंख फैलाएगी</p>
<p>आसमानों के गीत गाएगी</p>
<p>बातें करेगी-</p>
<p>-गगनचुम्बी उड़ानों की !<br></br></p>
<p>तोड़ डालेगी-</p>
<p>-तुम्हारी निर्धारित ऊंचाईयां !</p>
<p>और उसकी अंगडाईयां</p>
<p>कंपा देंगी तुम्हारे अंतरिक्ष को !</p>
<p> </p>
<p>वो देख आएगी</p>
<p>तुम्हारे सूरज में घुटता अँधेरा !</p>
<p>प्रश्न उठाएगी</p>
<p>तुम्हारे सूर्योदय पर भी !</p>
<p> </p>
<p>फिर कौन पूजेगा -</p>
<p>-तम्हारे अस्तित्व को ?<br></br> कौन मानेगा -</p>
<p>-तुम्हारी…</p>
<p>देखो !</p>
<p>उस चिड़िया के पंख निकाल आए</p>
<p>अब वो अपने पंख फैलाएगी</p>
<p>आसमानों के गीत गाएगी</p>
<p>बातें करेगी-</p>
<p>-गगनचुम्बी उड़ानों की !<br/></p>
<p>तोड़ डालेगी-</p>
<p>-तुम्हारी निर्धारित ऊंचाईयां !</p>
<p>और उसकी अंगडाईयां</p>
<p>कंपा देंगी तुम्हारे अंतरिक्ष को !</p>
<p> </p>
<p>वो देख आएगी</p>
<p>तुम्हारे सूरज में घुटता अँधेरा !</p>
<p>प्रश्न उठाएगी</p>
<p>तुम्हारे सूर्योदय पर भी !</p>
<p> </p>
<p>फिर कौन पूजेगा -</p>
<p>-तम्हारे अस्तित्व को ?<br/> कौन मानेगा -</p>
<p>-तुम्हारी प्रधानता ?</p>
<p> </p>
<p>उसे दिखाओ -<br/> -नुचे हुए पंख</p>
<p>सुनाओ उसे -</p>
<p>-बांज की झूठी कहानियां</p>
<p>-पंछी और जहाज की भ्रामक कथाएँ</p>
<p>उसे पिंजरे का महत्त्व समझाओ ,</p>
<p>असमान से जुड़ने मत दो !</p>
<p>रोको ! उसे उड़ने मत दो !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>......................................... अरुन श्री !</p>तेरा जानाtag:openbooks.ning.com,2012-05-14:5170231:BlogPost:2255232012-05-14T06:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>तेरे संग जीवन बीता था</p>
<p>बहुत दिनों तक !</p>
<p>कब सोचा था</p>
<p>तेरा जाना ऐसा होगा !</p>
<p> </p>
<p>बिना प्रतीक्षा किए तुम्हारी</p>
<p>अब तो जल्दी सो जाता हूँ !</p>
<p>बुझा दिया करती थी जो तुम ,</p>
<p>दिया रात भर जलता है अब !</p>
<p>बतियाता है भोर भोर तक ,</p>
<p>कीटी-पतंगों से हँस-हँस कर !</p>
<p>खुश रहता हैं !</p>
<p>और पुराने चादर पर अब</p>
<p>नहीं उभरती ,</p>
<p>रोज–रोज की नई सिलवटें !</p>
<p> </p>
<p>मैं भी सारी फिक्र भुला कर</p>
<p>सूरज चढ़ने तक सोता हूँ !</p>
<p>नही…</p>
<p>तेरे संग जीवन बीता था</p>
<p>बहुत दिनों तक !</p>
<p>कब सोचा था</p>
<p>तेरा जाना ऐसा होगा !</p>
<p> </p>
<p>बिना प्रतीक्षा किए तुम्हारी</p>
<p>अब तो जल्दी सो जाता हूँ !</p>
<p>बुझा दिया करती थी जो तुम ,</p>
<p>दिया रात भर जलता है अब !</p>
<p>बतियाता है भोर भोर तक ,</p>
<p>कीटी-पतंगों से हँस-हँस कर !</p>
<p>खुश रहता हैं !</p>
<p>और पुराने चादर पर अब</p>
<p>नहीं उभरती ,</p>
<p>रोज–रोज की नई सिलवटें !</p>
<p> </p>
<p>मैं भी सारी फिक्र भुला कर</p>
<p>सूरज चढ़ने तक सोता हूँ !</p>
<p>नही जगाती</p>
<p>अब कोई चूड़ी की खन-खन !</p>
<p>कानों को आराम मिला</p>
<p>बर्तन धोने की आवाजों से !</p>
<p>और ऊँघते होंठ ,</p>
<p>चाय की प्याली याद नही करते हैं ,</p>
<p>पहली चुस्की में अक्सर जल ही जाते थे !</p>
<p> </p>
<p>साथ तुम्हारे मैं चलता था ,</p>
<p>घायल पैरों की छागल बन !</p>
<p>चलती थी तुम</p>
<p>धीरे–धीरे ,</p>
<p>संभल-संभल कर ,</p>
<p>रहता था संगीत अधूरा !</p>
<p>फिर तेरे कोमल हाथों ने</p>
<p>मेरी किस्मत के माथे पर</p>
<p>यादों का संदूक लिख दिया !</p>
<p>अब जीवन में सूनापन है !</p>
<p> </p>
<p>तेरे बीन जीवन सूना था</p>
<p>बहुत दिनों तक !</p>
<p>फिर भी याद नही आती अब !</p>
<p>कब सोचा था</p>
<p>तेरा जाना ऐसा होगा !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>.................................. अरुन श्री !</p>दो शब्द जीवन साथी सेtag:openbooks.ning.com,2012-04-17:5170231:BlogPost:2153102012-04-17T14:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>सखी !</p>
<p>बस शब्द से कैसे</p>
<p>प्रकट तेरा करूँ आभार ?</p>
<p> </p>
<p>क्या लिखूं ?</p>
<p>जिसमें समा जाए -</p>
<p>-नहाई देह की खुशबू</p>
<p>सुबह मेरी जो महकाती रही है !</p>
<p>-और होंठो की मधुर मुस्कान</p>
<p>जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,<br></br> भर गई मेरे ह्रदय में </p>
<p>उष्णता अनमोल !</p>
<p>मरुथल में खिले जैसे</p>
<p>कुछ हँसी के फूल !</p>
<p>योग्य संभवतः नही पर</p>
<p>धन्य हूँ पाकर</p>
<p>दिए तुमने हैं जो उपहार !</p>
<p>सखी !</p>
<p>बस शब्द से कैसे</p>
<p>प्रकट तेरा करूँ…</p>
<p>सखी !</p>
<p>बस शब्द से कैसे</p>
<p>प्रकट तेरा करूँ आभार ?</p>
<p> </p>
<p>क्या लिखूं ?</p>
<p>जिसमें समा जाए -</p>
<p>-नहाई देह की खुशबू</p>
<p>सुबह मेरी जो महकाती रही है !</p>
<p>-और होंठो की मधुर मुस्कान</p>
<p>जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,<br/> भर गई मेरे ह्रदय में </p>
<p>उष्णता अनमोल !</p>
<p>मरुथल में खिले जैसे</p>
<p>कुछ हँसी के फूल !</p>
<p>योग्य संभवतः नही पर</p>
<p>धन्य हूँ पाकर</p>
<p>दिए तुमने हैं जो उपहार !</p>
<p>सखी !</p>
<p>बस शब्द से कैसे</p>
<p>प्रकट तेरा करूँ आभार ?</p>
<p> </p>
<p>ढूंढ कर लाऊं कहाँ से ?</p>
<p>शब्द ऐसे -</p>
<p>-जो तुम्हारे रात भर जागे नयन को</p>
<p>नींद का आराम दे दे !</p>
<p>-जो उनींदी उलझनों को</p>
<p>प्रात सी मुस्कान दे दे</p>
<p>क्या लिखूं मैं ?<br/> जो तुम्हारे थकन को परिणाम दे दे !</p>
<p>और शक्ति दे कि तुम फिर</p>
<p>अन-थके दिन भर संभालो</p>
<p>आसमां का भार !<br/> सखी !</p>
<p>बस शब्द से कैसे</p>
<p>प्रकट तेरा करूँ आभार ?</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>.......................................... अरुन श्री !</p>पुरानी किताबtag:openbooks.ning.com,2012-04-17:5170231:BlogPost:2151442012-04-17T06:29:16.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p></p>
<p></p>
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="font-size-2">काश<br></br> कि उसी वक्त देख लेता<br></br> पलट कर पन्ने<br></br> उस किताब के ,<br></br> जो तुमने वापस कर दी<br></br> भीगी आँखों के साथ !<br></br> और मैंने उसे इंकार समझा<br></br> अपने प्रणय निवेदन का !<br></br> .<br></br> और जब आज<br></br> हम दोनों ने थाम रखे है<br></br> दो अलग अलग सिरे<br></br> जिंदगी के !<br></br> तो अनायास ही<br></br> हाथों में आई वो किताब !<br></br> थरथरा गया अस्तित्व !<br></br> जैसे कोई रेल गुज़री हो<br></br> किसी पुराने पुल से !<br></br> बिखर गए किताब के पन्ने !<br></br> और…</span></h6>
<p></p>
<p></p>
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="font-size-2">काश<br/> कि उसी वक्त देख लेता<br/> पलट कर पन्ने<br/> उस किताब के ,<br/> जो तुमने वापस कर दी<br/> भीगी आँखों के साथ !<br/> और मैंने उसे इंकार समझा<br/> अपने प्रणय निवेदन का !<br/> .<br/> और जब आज<br/> हम दोनों ने थाम रखे है<br/> दो अलग अलग सिरे<br/> जिंदगी के !<br/> तो अनायास ही<br/> हाथों में आई वो किताब !<br/> थरथरा गया अस्तित्व !<br/> जैसे कोई रेल गुज़री हो<br/> किसी पुराने पुल से !<br/> बिखर गए किताब के पन्ने !<br/> और पन्नों के बीच<br/> एक सुख चुका गुलाब<br/> जो मैंने नही रखा था !<br/> .<br/> काश<br/> कि उसी वक्त देख लेता<br/> पलट कर पन्ने<br/> उस किताब के !</span></h6>
<h6 class="uiStreamMessage"><span class="font-size-2"><br/> <br/> ....................... अरुन श्री !</span></h6>
<p></p>
<p></p>गज़ल - जिन्हें डर है खुदा काtag:openbooks.ning.com,2012-04-03:5170231:BlogPost:2082042012-04-03T05:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>उन्हें हक है कि मुझको आजमाएं</p>
<p>मगर पहले मुझे अपना बनाएं</p>
<p> </p>
<p>खुदा पर है यकीं तनकर चलूँगा</p>
<p>जिन्हें डर है खुदा का सर झुकाएं</p>
<p> </p>
<p>जुदा होना है कल तो मुस्कुराकर</p>
<p>चलो बैठे कहीं आँसू बहाएं</p>
<p> </p>
<p>तुम्हारे आफताबों की वज़ह से</p>
<p>अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं</p>
<p> </p>
<p>तिरा दरबार है मुंसिफ भी तेरे</p>
<p>कहूँ किससे यहाँ तेरी खताएं</p>
<p> </p>
<p>खता उल्फत की करने जा रहा हूँ</p>
<p>कहो अय्याम से पत्थर…</p>
<p>उन्हें हक है कि मुझको आजमाएं</p>
<p>मगर पहले मुझे अपना बनाएं</p>
<p> </p>
<p>खुदा पर है यकीं तनकर चलूँगा</p>
<p>जिन्हें डर है खुदा का सर झुकाएं</p>
<p> </p>
<p>जुदा होना है कल तो मुस्कुराकर</p>
<p>चलो बैठे कहीं आँसू बहाएं</p>
<p> </p>
<p>तुम्हारे आफताबों की वज़ह से</p>
<p>अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं</p>
<p> </p>
<p>तिरा दरबार है मुंसिफ भी तेरे</p>
<p>कहूँ किससे यहाँ तेरी खताएं</p>
<p> </p>
<p>खता उल्फत की करने जा रहा हूँ</p>
<p>कहो अय्याम से पत्थर उठाएं</p>
<p> </p>
<p>अंधेरे सूर्य से डरते नही है</p>
<p>चलो हम दीप बनके जगमगाएं</p>
<p> </p>
<p>............................... अरुन श्री !</p>सूरज भी उन्हें क्या देगाtag:openbooks.ning.com,2012-04-02:5170231:BlogPost:2081232012-04-02T05:07:14.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>मैंने देखा है -</p>
<p>हलांकि जार-जार टूटे हुए ,</p>
<p>हवादार</p>
<p>फिर भी उमस में डूबे हुए झोपडो में</p>
<p>जो चेहरे रहते है ,</p>
<p>इस जानलेवा भागम भाग में भी</p>
<p>वो चेहरे ठहरे रहते हैं !</p>
<p>ये ठहरा हुआ वक्त का मरहम</p>
<p>और फिर भी उनके जख्म</p>
<p>गहरे के गहरे रहतें हैं !</p>
<p></p>
<p>टूटी हुई छत से टपकती उदास धूप</p>
<p>नहीं सुखा पाती</p>
<p>सिसकती हुई छाँव की सीलन !</p>
<p> </p>
<p>जिनके छिल चुके होंठ</p>
<p>नहीं उठा पाते</p>
<p>गूंगी हँसी का बोझ तक</p>
<p>लेकिन वो उठाए…</p>
<p>मैंने देखा है -</p>
<p>हलांकि जार-जार टूटे हुए ,</p>
<p>हवादार</p>
<p>फिर भी उमस में डूबे हुए झोपडो में</p>
<p>जो चेहरे रहते है ,</p>
<p>इस जानलेवा भागम भाग में भी</p>
<p>वो चेहरे ठहरे रहते हैं !</p>
<p>ये ठहरा हुआ वक्त का मरहम</p>
<p>और फिर भी उनके जख्म</p>
<p>गहरे के गहरे रहतें हैं !</p>
<p></p>
<p>टूटी हुई छत से टपकती उदास धूप</p>
<p>नहीं सुखा पाती</p>
<p>सिसकती हुई छाँव की सीलन !</p>
<p> </p>
<p>जिनके छिल चुके होंठ</p>
<p>नहीं उठा पाते</p>
<p>गूंगी हँसी का बोझ तक</p>
<p>लेकिन वो उठाए फिरते है</p>
<p>फटी पुरानी साँसों की गठरी !</p>
<p>घायल जिस्म पर</p>
<p>जिंदगी के चीथड़े लपेटे हुए ,</p>
<p>बेजुबां आंसुओं से भरी सपनीली आखें ,</p>
<p>बाट जोहती है</p>
<p>एक नए सूरज की !</p>
<p> </p>
<p>अब ये सूरज भी उन्हें क्या देगा !</p>
<p>छिल चुके जिस्म को जला देगा !</p>
<p>उनके हर चमकीले सपनों को ,</p>
<p>एक नई रात की स्याही में डूबा देगा !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>..................................... अरुन श्री !</p>गज़ल - फरियाद करने जा रहे होtag:openbooks.ning.com,2012-03-25:5170231:BlogPost:2049852012-03-25T05:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>और किसको शाद करने जा रहे हो</p>
<p>क्यों मुझे बरबाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>बज्म में चर्चा मेरी बदनामियों का </p>
<p>और तुम इरशाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>जो हकीकत थी सुनानी तुम उसे ही</p>
<p>अन- कही रूदाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>जिस चमन में फूल नफरत के उगे हैं</p>
<p>तुम उसे आबाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>ठोकरों से चोट खाकर पत्थरों के</p>
<p>द्वार पर फरियाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>..................................... अरुन श्री !</p>
<p>और किसको शाद करने जा रहे हो</p>
<p>क्यों मुझे बरबाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>बज्म में चर्चा मेरी बदनामियों का </p>
<p>और तुम इरशाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>जो हकीकत थी सुनानी तुम उसे ही</p>
<p>अन- कही रूदाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>जिस चमन में फूल नफरत के उगे हैं</p>
<p>तुम उसे आबाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p>ठोकरों से चोट खाकर पत्थरों के</p>
<p>द्वार पर फरियाद करने जा रहे हो</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>..................................... अरुन श्री !</p>कंगूरों तक चढूंगाtag:openbooks.ning.com,2012-02-25:5170231:BlogPost:1924462012-02-25T05:25:10.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>सुनो राजन !</p>
<p>तुम्हे राजा बनाया है हमीं ने !</p>
<p>और अब हम ही खड़े है</p>
<p>हाथ बांधे</p>
<p>सर झुकाए</p>
<p>सामने अट्टालिकाओं के तुम्हारे !</p>
<p>जिस अटारी पर खड़े हो</p>
<p>सभ्यता की ,</p>
<p>तुम कथित आदर्श बनकर ,</p>
<p>जिन कंगूरों पर</p>
<p>तुम्हारे नाम का झंडा गड़ा है ,</p>
<p>उस महल की नींव देखो !</p>
<p>क्षत-विक्षत लाशें पड़ी है</p>
<p>हम निरीहों के अधूरे ख्वाहिशों की ,</p>
<p>और दीवारें बनी है</p>
<p>ईंट से हैवानियत की !</p>
<p> </p>
<p>है तेरे संबोधनों में दब…</p>
<p>सुनो राजन !</p>
<p>तुम्हे राजा बनाया है हमीं ने !</p>
<p>और अब हम ही खड़े है</p>
<p>हाथ बांधे</p>
<p>सर झुकाए</p>
<p>सामने अट्टालिकाओं के तुम्हारे !</p>
<p>जिस अटारी पर खड़े हो</p>
<p>सभ्यता की ,</p>
<p>तुम कथित आदर्श बनकर ,</p>
<p>जिन कंगूरों पर</p>
<p>तुम्हारे नाम का झंडा गड़ा है ,</p>
<p>उस महल की नींव देखो !</p>
<p>क्षत-विक्षत लाशें पड़ी है</p>
<p>हम निरीहों के अधूरे ख्वाहिशों की ,</p>
<p>और दीवारें बनी है</p>
<p>ईंट से हैवानियत की !</p>
<p> </p>
<p>है तेरे संबोधनों में दब चुकी</p>
<p>चीत्कार सब कुचले हुओं की !</p>
<p>अट्टाहासों से तुम्हारे हार माने</p>
<p>सिसकियाँ ,</p>
<p>आहें सभी हारे हुओं की !</p>
<p> </p>
<p>है भरे भंडार तेरी वासना के</p>
<p>भूख हम सब की तुम्हें दिखती नहीं है !</p>
<p> </p>
<p>सिसकियाँ तुम सुन न पाए</p>
<p>अब मेरी हुंकार देखो ,</p>
<p>आँख से झरता हुआ अंगार देखो !</p>
<p>मैं उठा तो फिर कहाँ रोके रुकुंगा !</p>
<p>एक दिन मैं नींव का पत्थर</p>
<p>कंगूरों तक चढूंगा !!</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>........................................ अरुन श्री !</p>नई उँगलियाँtag:openbooks.ning.com,2012-02-23:5170231:BlogPost:1920372012-02-23T05:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>बहुत दुखते हैं</p>
<p>पुराने घाव ,</p>
<p>जब आती हैं</p>
<p>मरहम लगाने</p>
<p>नई उँगलियाँ !</p>
<p>उन्हें नही पता -</p>
<p>कितनी है</p>
<p>जख्म की गहराई ,</p>
<p>क्या होगी</p>
<p>स्पर्श की सीमा !</p>
<p>उनमे नही होती</p>
<p>पुराने हाथों जैसी छुअन !</p>
<p> </p>
<p>रिसने दो</p>
<p>मेरे घावों को ,</p>
<p>क्योकि बहुत दुखतें हैं</p>
<p>पुराने घाव</p>
<p>जब आती है</p>
<p>मरहम लगाने</p>
<p>नई उँगलियाँ !</p>
<p> </p>
<p>अब और दर्द सहा न जाएगा…</p>
<p>बहुत दुखते हैं</p>
<p>पुराने घाव ,</p>
<p>जब आती हैं</p>
<p>मरहम लगाने</p>
<p>नई उँगलियाँ !</p>
<p>उन्हें नही पता -</p>
<p>कितनी है</p>
<p>जख्म की गहराई ,</p>
<p>क्या होगी</p>
<p>स्पर्श की सीमा !</p>
<p>उनमे नही होती</p>
<p>पुराने हाथों जैसी छुअन !</p>
<p> </p>
<p>रिसने दो</p>
<p>मेरे घावों को ,</p>
<p>क्योकि बहुत दुखतें हैं</p>
<p>पुराने घाव</p>
<p>जब आती है</p>
<p>मरहम लगाने</p>
<p>नई उँगलियाँ !</p>
<p> </p>
<p>अब और दर्द सहा न जाएगा !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>.................................... अरुन श्री !</p>बिन तुम्हारे मैं अधूराtag:openbooks.ning.com,2012-02-22:5170231:BlogPost:1916902012-02-22T07:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>अश्रु गण साथी रहे</p>
<p>मेरे ह्रदय की पीर बनकर !</p>
<p>रात चुभ जाती हमेशा तीर बनकर !</p>
<p>मैं भटकता नीर बनकर !</p>
<p>तुम सुनहरे स्वप्न सी हो</p>
<p>मैं नयन हूँ !</p>
<p>बिन तुम्हारे मैं अधूरा</p>
<p>और मेरे बिन तुम्हारा अर्थ कैसा !</p>
<p></p>
<p>जीत की उम्मीद से प्रारंभ होकर</p>
<p>निज अहम के हार तक का ,</p>
<p>प्रथम चितवन से शुरू हो प्यार तक का ,</p>
<p>प्यार से उद्धार तक का</p>
<p>मार्ग हो तुम !</p>
<p>मै पथिक हूँ !</p>
<p>निहित हैं तुझमे सदा से</p>
<p>कर्म मेरे</p>
<p>भाग्य…</p>
<p>अश्रु गण साथी रहे</p>
<p>मेरे ह्रदय की पीर बनकर !</p>
<p>रात चुभ जाती हमेशा तीर बनकर !</p>
<p>मैं भटकता नीर बनकर !</p>
<p>तुम सुनहरे स्वप्न सी हो</p>
<p>मैं नयन हूँ !</p>
<p>बिन तुम्हारे मैं अधूरा</p>
<p>और मेरे बिन तुम्हारा अर्थ कैसा !</p>
<p></p>
<p>जीत की उम्मीद से प्रारंभ होकर</p>
<p>निज अहम के हार तक का ,</p>
<p>प्रथम चितवन से शुरू हो प्यार तक का ,</p>
<p>प्यार से उद्धार तक का</p>
<p>मार्ग हो तुम !</p>
<p>मै पथिक हूँ !</p>
<p>निहित हैं तुझमे सदा से</p>
<p>कर्म मेरे</p>
<p>भाग्य मेरा,</p>
<p>और सार्थकता तुम्हारी</p>
<p>कौन है मेरे अलावा !</p>
<p> </p>
<p>मेरे माथे का तिलक हो</p>
<p>कौन कहता धूल हो तुम !</p>
<p>कीच में हो किन्तु पावन फूल हो तुम !</p>
<p>रंग की सुन्दर मरीचिका से परे</p>
<p>तुम गंध हो !</p>
<p>मैं पवन हूँ !</p>
<p>है तेरे सानिध्य से पहचान मेरी ,</p>
<p>और मेरे बिन</p>
<p>तुम्हारा भी कहाँ अस्तित्व होगा !</p>
<p></p>
<p>तुम विभा हो</p>
<p>और मैं </p>
<p>तेरा अरुण हूँ !</p>
<p>कर्म मैं विश्राम हो तुम !</p>
<p>मैं नही तो कौन तुमको मान देगा</p>
<p>तुम न हो तो</p>
<p>कौन देगा अर्घ्य मुझको !</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>......................................अरुन श्री !</p>
<p> </p>
<p> </p>मंजिलें अपनी-अपनीtag:openbooks.ning.com,2012-02-16:5170231:BlogPost:1898092012-02-16T06:35:12.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>रास्ते प्यार के अब ह़ो चुके दुश्मन साथी<br></br> अब चलो बाँट लें हम मंजिलें अपनी-अपनी <br></br> वर्ना ये गर्द उठेगी अभी तूफां बनकर <br></br> ख्वाब आँखों के सभी चुभने लगेंगे तुमको<br></br> बनके आंसू अभी टपकेंगे तपते रस्ते पर<br></br> मगर ये पाँव के छालों को न राहत देंगे !</p>
<p><br></br> तपिश तो और अभी और बढ़ेगी साथी <br></br> तब भी क्या प्यार में जल पाओगी शमां बनकर ?<br></br> पाँव रक्खोगी जब जलते हुए अंगारों पर <br></br> शक्लें आँखों में ही रह जाएंगी धुआं बनकर !</p>
<p><br></br> मैं जानता हूँ कि अब कुछ नही होने वाला <br></br> वक्त को…</p>
<p>रास्ते प्यार के अब ह़ो चुके दुश्मन साथी<br/> अब चलो बाँट लें हम मंजिलें अपनी-अपनी <br/> वर्ना ये गर्द उठेगी अभी तूफां बनकर <br/> ख्वाब आँखों के सभी चुभने लगेंगे तुमको<br/> बनके आंसू अभी टपकेंगे तपते रस्ते पर<br/> मगर ये पाँव के छालों को न राहत देंगे !</p>
<p><br/> तपिश तो और अभी और बढ़ेगी साथी <br/> तब भी क्या प्यार में जल पाओगी शमां बनकर ?<br/> पाँव रक्खोगी जब जलते हुए अंगारों पर <br/> शक्लें आँखों में ही रह जाएंगी धुआं बनकर !</p>
<p><br/> मैं जानता हूँ कि अब कुछ नही होने वाला <br/> वक्त को बांध सका कब कोई रोने वाला !<br/> गर्दिशें आंसुओं से मिट तो नही सकती हैं <br/> और लड़ना भी तो मुमकिन नही होगा साथी!<br/> तुम खुश हो ज़माने के सितम सह कर भी <br/> मैं किसके लिए दुनिया से बगावत कर लूँ !<br/> <br/> रास्ते प्यार के अब ह़ो चुके दुश्मन साथी<br/> अब चलो बाँट लें हम मंजिलें अपनी-अपनी !<br/> चलो इस प्यार की खातिर ही जुदा ह़ो जाए<br/> मै कही दूर से तड़पूंगा तुम्हारी खातिर <br/> तुम कही और मेरे हक़ में दुआएं करना !!<br/></p>
<p> </p>
<p>.................................................... अरुन श्री !</p>तुम जिन्दा होtag:openbooks.ning.com,2012-01-31:5170231:BlogPost:1861412012-01-31T06:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p><span class="messageBody">पास हो मेरे ये कितनी <br></br> बार तो बतला चुके तुम !<br></br> कौन कहता जा चुके तुम ?<br></br> <br></br> आँख जब धुंधला गई तो <br></br> <span class="text_exposed_show">मैंने देखा <br></br> तुम ही उस बादल में थे , <br></br> और फिर बादल नदी का <br></br> रूप लेकर बह चला था ,<br></br> नेह की धरती भिगोता <br></br> और मेरी आत्मा हर दिन हरी होती गई !<br></br> उसके पनघट पर जलाए <br></br> दीप मैंने स्मृति के !<br></br> झिलमिलाते , मुस्कुराते <br></br> तुम नदी के जल में थे !<br></br> जब भी दिल धडका मेरा तब <br></br> तुम ही उस हलचल में थे…</span></span></p>
<p><span class="messageBody">पास हो मेरे ये कितनी <br/> बार तो बतला चुके तुम !<br/> कौन कहता जा चुके तुम ?<br/> <br/> आँख जब धुंधला गई तो <br/> <span class="text_exposed_show">मैंने देखा <br/> तुम ही उस बादल में थे , <br/> और फिर बादल नदी का <br/> रूप लेकर बह चला था ,<br/> नेह की धरती भिगोता <br/> और मेरी आत्मा हर दिन हरी होती गई !<br/> उसके पनघट पर जलाए <br/> दीप मैंने स्मृति के !<br/> झिलमिलाते , मुस्कुराते <br/> तुम नदी के जल में थे !<br/> जब भी दिल धडका मेरा तब <br/> तुम ही उस हलचल में थे !<br/> <br/> तुम चले आते हो छत पर<br/> रात का श्रृंगार करने ‘<br/> चाँद बनकर <br/> और सूरज को सजाते हो <br/> उजालों से !<br/> जगाते हो मुझे शीतल चमकती-<br/> रोशनी की उँगलियों से !<br/> <br/> बृक्ष की छाया बने तुम<br/> जब दुखों के जेठ में <br/> मैं जल रहा था ! <br/> सोख लेते हो तपिस <br/> तुम दोपहर के सूर्य की भी !<br/> <br/> मैं तेरी आवाज सुनता हूँ <br/> हवा की सरसराहट में !<br/> और ये ऋतुएं तुम्हारे <br/> नाम की चिट्ठी मुझे <br/> देती रही है !<br/> मैंने भी जो खत लिखे <br/> तेरे लिए <br/> हर शाम <br/> नदियों के हवाले कर दिया है !<br/> मिल गए होंगे तुम्हे तो ?<br/> <br/> अब जुदा हम हो न पाएँगे कभी भी ,<br/> इस तरह अपना चुके तुम !<br/> कौन कहता जा चुके तुम ?<br/> <br/> मर चुका हूँ मैं तुम्हारे साथ साथी <br/> और तुम जिन्दा हो अब भी <br/> इस ह्रदय में पीर बनकर <br/> इस नयन में नीर बनकर !<br/> <br/> <span>..............................</span>.... अरुन श्री !</span></span></p>उत्तर ढूंढना हैtag:openbooks.ning.com,2012-01-17:5170231:BlogPost:1813262012-01-17T08:00:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>काश !</p>
<p>कोई दिन मेरा घर में गुजरता</p>
<p>बेवजह बातें बनाते</p>
<p>हँसते – हँसाते</p>
<p>गीत कोई गुनगुनाते</p>
<p>पर नही मुमकिन</p>
<p>मैं दिन घर में बिताऊँ!</p>
<p> </p>
<p>एक नदी प्यासी पड़ी घर में अकेले</p>
<p>और रेगिस्तान में मैं जल रहा हूँ</p>
<p>थक चुका पर चल रहा हूँ</p>
<p>ढूढता हूँ अंजुली भर जल</p>
<p>जिसे ले</p>
<p>शाम को घर लौट जाऊँ</p>
<p>प्यास को पानी पिला दूँ !</p>
<p> </p>
<p>मेरे आँगन की बहारों पर</p>
<p>जवानी छा गई है</p>
<p>और मैं</p>
<p>धूप के बाज़ार में बैठा हुआ…</p>
<p>काश !</p>
<p>कोई दिन मेरा घर में गुजरता</p>
<p>बेवजह बातें बनाते</p>
<p>हँसते – हँसाते</p>
<p>गीत कोई गुनगुनाते</p>
<p>पर नही मुमकिन</p>
<p>मैं दिन घर में बिताऊँ!</p>
<p> </p>
<p>एक नदी प्यासी पड़ी घर में अकेले</p>
<p>और रेगिस्तान में मैं जल रहा हूँ</p>
<p>थक चुका पर चल रहा हूँ</p>
<p>ढूढता हूँ अंजुली भर जल</p>
<p>जिसे ले</p>
<p>शाम को घर लौट जाऊँ</p>
<p>प्यास को पानी पिला दूँ !</p>
<p> </p>
<p>मेरे आँगन की बहारों पर</p>
<p>जवानी छा गई है</p>
<p>और मैं</p>
<p>धूप के बाज़ार में बैठा हुआ हूँ</p>
<p>सूखता हूँ</p>
<p>भीगी लकड़ी की तरह से</p>
<p>घर के चूल्हे में</p>
<p>अभी जलना भी होगा !</p>
<p> </p>
<p>चाहता हूँ</p>
<p>मेरे आँगन की बहारें</p>
<p>खिल उठे</p>
<p>प्यार का मेरे मधुर स्पर्श पाकर</p>
<p>सोचता हूँ डूब जाऊँ</p>
<p>प्यार की प्यासी नदी में !</p>
<p> </p>
<p>पर विवश हूँ</p>
<p>क्या करूं मैं</p>
<p>भूख की रेखा खिची है ,</p>
<p>प्रश्न रोटी का खड़ा है बीच अपने</p>
<p>और उत्तर ढूंढना है !!</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>............................................ अरुन श्री!</p>सूरज भी कतराने लगाtag:openbooks.ning.com,2012-01-09:5170231:BlogPost:1793382012-01-09T08:30:00.000ZArun Srihttp://openbooks.ning.com/profile/ArunSrivastava
<p>बेवफा होना तेरा क्या क्या सितम ढाने लगा<br></br> अब तो मैं मंदिर में भी जाने से घबराने लगा</p>
<p>हो अलग तुमने जला डाली थी मेरी याद तक<br></br> मैं तेरी तस्वीर से दिल अपना बहलाने लगा</p>
<p>भोर की पहली किरण मैंने चुराकर दी जिसे <br></br> दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा</p>
<p>सर्द रातों में लिपट जाता था कोहरे की तरह <br></br> मैं बना सूरज तो दुःख का चाँद शरमाने लगा</p>
<p>घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई<br></br> मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>………………………………….. अरुन…</p>
<p>बेवफा होना तेरा क्या क्या सितम ढाने लगा<br/> अब तो मैं मंदिर में भी जाने से घबराने लगा</p>
<p>हो अलग तुमने जला डाली थी मेरी याद तक<br/> मैं तेरी तस्वीर से दिल अपना बहलाने लगा</p>
<p>भोर की पहली किरण मैंने चुराकर दी जिसे <br/> दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा</p>
<p>सर्द रातों में लिपट जाता था कोहरे की तरह <br/> मैं बना सूरज तो दुःख का चाँद शरमाने लगा</p>
<p>घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई<br/> मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>………………………………….. अरुन श्री !</p>