छंद मुक्त कविता : रावण दहन
मैं रूप बदल कर बैठा हूँ । स्वरूप बदल कर बैठा हूँ । मैं आज का रावण हूँ मितरों, जन के मन में छुप बैठा हूँ ।।
मुझको जितना भी जलाओगे । हर घर में उतना पाओगे । गर मरना भी चाहूँ मितरों, तुम राम कहाँ से लाओगे ।।
कन्या को देवी सा मान दिया । नारी को माँ का सम्मान दिया । इन बातों का नही अर्थ मितरों, जब गर्भ में कन्या का प्राण लिया ।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)