अँधियारे गद्दी पर बैठा,
सूरज सन्यास लिए फिरता
नैतिकता सच्चाई हमने,
टाँगी कोने में खूँटी पर.
लगा रहे हैं आग घरों में,
जाति धर्म के प्रेत घूमकर.
सत्ता की गलियों में जाकर,
खेल रही खो-खो अस्थिरता.
तृष्णाओं की नदी बह रही,
बाँध नहीं कोई बन पाया.
वैभव के सूरज के सँग सँग,
दूर हो रहा अपना साया.
रोज नए शिखरों को छू लें,
स्वप्न रहा आँखों में तिरता.
प्रेम और सद्भाव रूठकर,
चले गए हैं लम्बी छुट्टी.
साथ…