ग़ज़ल २१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२ बेबसी की इंतिहा जब आह सुनती है आँसुओं से बैठ कर फिर वक़्त बुनती है. मरहले दर मरहले बढ़ती रही वो धुँध जिंदगी क्यों, ये न जाने राह चुनती है. जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है. वो थका है कब हमारा इम्तिहाँ ले कर रेत है जो भाड़ की हर वक़्त भुनती है . तू भले ही हो न हो पर राहत ए जाँ अब दर्द की तस्बीह तेरा नाम गुनती है . -ललित मोहन पंत 3.…