. मेरी ज़ीस्त की कड़ी धूप ने मुझे रख दिया है निचोड़ कर, अभी शाम ढलने ही वाली थी कोई चल दिया मुझे छोड़ कर. . मैं था मुब्तिला किसी ख़ाब में किसी मोड़ पर ज़रा छाँव थी उसे ये भी रास न आ सका सो जगा गया वो झंझोड़ कर. . मेरे दिल में अक्स उन्हीं का था उन्हें ऐतबार मगर न था कभी देखते रहे तोड़ कर कभी दिल की किरचों को जोड़ कर. . जो किताब ए ज़ीस्त में शक्ल थी वो जो नाम था मुझे याद है वो जो पेज फिर न मैं पढ़…