कौशिशें इतनी सी हैं बस शायरी की
आदमी सी फ़ितरतें हों आदमी की
हद जुनूँ की तोड़ कर की है इबादत
ख़ूँँ जलाकर अपना तेरी आरती की
गोलियों की ही धमक है हर दिशा में और तू कहता है ग़ज़लें आशिक़ी की!
भूले-बिसरे लफ़्ज़ कुछ आये हवा में कोई बातें कर रहा है सादगी की
इतनी लंबी हो गयी है ये अमावस चाँद भी अब शक्ल भूला चांदनी की
बूँद मय की तुम पिलाओ वक़्ते-रुखसत आखि़री ख्वा़हिश यही है ज़िन्दगी की
#मौलिक व अप्रकाशित